स्पिनोजा का समान्तरवाद तथा ज्ञान सिद्धान्त

स्पिनोजा का समान्तरवाद तथा ज्ञान स्तर | Spinoza’s Parallelism & Knowledge in Hindi

स्पिनोजा का समान्तरवाद (Parallelism)

स्पिनोजा चित् और अचित को द्रव्य का गुण मानते हा चित् विचार है तथा अचित् विस्तार है। स्पिनोजा के अनुसार ये दोनों एक ही द्रव्य के दो स्वरूप हैं। ईश्वर ही परम सत् है। उसके अतिरिक्त किसी की सत्ता नहीं। वहीं ईश्वर भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रतीत होता है। चेतन और अचेतन दोनों ईश्वर से पृथक नहीं। देकार्त चैतन्य और विस्तार को दो विरोधी द्रव्य मानते हैं तथा सापेक्ष भी। स्पिनोजा के अनुसार ये द्रव्य नहीं गुण हैं। ये विरोधी नहीं, भिन्न है। देकार्त मन और शरीर में अन्तक्रिया के लिए अन्तक्रियावाद का सिद्धान्त बतलाते हैं। हम  नित्य प्रति ऐसा अनुभव करते हैं कि हमारे मन में उत्पन्न होने वाले भाव, उमंगों से शरीर प्रभावित होता है तथा शरीर में उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख का प्रभाव मन पर पड़ता है।

देकार्त के अनुसार शारीरिक तथा मानसिक संवदनाओं का परिवर्तन पीनियल ग्लैण्ड (Pineal gland) के द्वारा होता है। इस विशेष ग्रन्थि के द्वारा ही दोनों में पारस्परिक सम्बन्ध सम्भव है। स्पिनोजा चित् और अचित् दोनों की उत्पत्ति एक ही ईश्वर से मानते हैं। इनमें कार्य-कारण सम्बन्ध स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं। दोनों एक दूसरे को प्रभावित नहीं कर सकते। मन शरीर में या शरीर मन में क्रिया उत्पन्न करने का कारण कदापि नहीं। स्पिनोजा का कहना है कि समान ही समान को उत्पन्न कर सकता है। मन और शरीर तो असमान है। ये एक दूसरे का कारण नहीं बन सकते।

भौतिकवादी अचेतन से चेतन (आध्यात्मिक जगत्) की व्याख्या करते हैं तथा अध्यात्मवादी चेतनों से जड़ की व्याख्या करते हैं, परन्तु दोनों समीचीन नहीं। स्पिनोजा के अनुसार जड़ और चेतन, विस्तार और विचार, चित् और अचित् दोनों का उद्गम एक ही ईश्वर है। अतः जड़-चेतन में कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं। दोनों का स्तर समान है या समानान्तर है। दोनों ही परम कारण (ईश्वर) के कार्य है। एक ही सार्वभौम, अद्वैत ईश्वर जड़ कार्यों में जड़ात्मक प्रतीत होता है तथा चेतन वस्तुओं में चेतन या आध्यात्मिका चित् और उचित अएक ही ईश्वर के दो स्वरूप हैं। अत: स्पिजोजा का द्रव्य द्विरूपात्मक है, अर्थात् चित् और अचित् इसके दोनों स्वरूप हैं चित् और अचित् आपस में समानान्तर है, इनमे कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं।

 

पर्याय (Mode)

स्पिनोजा के अनुसार पर्याय द्रव्य के परिणामी धर्म हो इनका अस्तित्व है, परन्तु इनका अस्तित्व निरपेक्ष नहीं सापेक्ष है। ये द्रव्य-सापेक्ष हैं तथा द्रव्य के बिना इनका ज्ञान नहीं हो सकता है। संक्षेप में हम कह सकते है कि पर्याय धर्म है जिन्हें किसी धर्मी की अपेक्षा है। इन्हें द्रव्य का विचार भी कहा गया है। इस प्रकार पर्याय स्वतन्त्र नहीं परतन्त्र माने गए हैं। ये अपनी स्थिति (अस्तित्व तथा ज्ञान) दोनों के लिये द्रव्य से नितान्त अभिन्न है।

द्रव्य वह है जिसका अस्तित्व तथा ज्ञान निरपेक्ष हो परन्तु पर्याय की सत्ता तथा ज्ञान दोनों सापेक्ष है। पर्याय के इस स्वरूप से ज्ञात होता है कि पर्याय द्रव्य के विकार है परन्तु स्पिनोजा क अनसार द्रव्य निर्विकारी, अपरिणामी बतलाया गया है। पुनः पर्याय की संगति कैसे? स्पिनोजा का कहना है कि पर्याय द्रव्य में विकार नहीं उत्पन्न कर सकते, वरन पर्याय गणों के विकार है।

विश्व की व्याख्या के लिये विकार का सिद्धान्त आवश्यक है। प्रश्न यह है कि ईश्वर एक अद्वितीय, नित्य, अपरिणामी है। परन्तु विश्व अनेक, अनित्य तथा  परिणामी है। इसी अनित्य तथा अपरिणामी विश्व की व्याख्या के लिये स्पिनोजा ने विकार-सिद्धान्त को अपनाया है। ईश्वर एक, अनन्त होते हुए भी पर्यायों के माध्यम से ही विश्व में अभिव्यक्त होता है। जिस प्रकार शरीर में परविर्तन होते हुए भी शरीर की आकृति एक-सी रहती है उसी प्रकार समस्त आकृति में परिवर्तन होते हुए भी उसका स्वरूप वही रहता है।

स्पिनोजा के अनुसार पर्याय दो प्रकार के है अनन्त तथा सान्त। अनन्त ईश्वर स्वरूप होने के कारण पर्याय भी अनन्त है, परन्तु व्यक्तिगत रूप में पर्याय सान्त है। पर्याय के स्वरूप के सम्बन्ध में यहाँ एक विषमता उत्पन्न होती है। एक ओर ईश्वर का स्वरूप होने के कारण पर्याय को अगन्त तथा निरपेक्ष बतलाया गया है वही दूसरी ओर व्यक्तिगत रूप में पर्याय को अनित्य तथा सापेक्ष माना गया है। यदि पर्याय द्रव्य की आवश्यक अभिव्यक्ति है तो पर्याय अकारण तथा नित्य नहीं हो सकते। स्पिनोजा इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि पर्याय को नित्य कहने का तात्पर्य यही है कि पर्याय अकारण नहीं। वन्ध्या-पुत्र के समान मिथ्या पदार्थ भी नहीं।

अभिव्यक्ति के अर्थ में द्रव्य ही पर्याय का कारण है। ईश्वर विश्व का कारण है, परन्तु व्यक्तिगत स्वरूप की दृष्टि से इसकी सत्ता नित्य नहीं। अतः पर्यायों का नित्य स्वरूप ईश्वर स्वरूप का द्योतक तथा इनका अनित्य स्वरूप विश्व के विभिन्न पदार्थो का द्योतक है। विश्व की व्याख्या पदार्थ को माने बिना सम्भव नहीं। निराकार ईश्वर पर्याय के माध्यम से विश्व में प्रतीत होता है। अतः एक से अनेक, असीम से ससीम की व्याख्या के लिए पर्याय को मानना आवश्यक है।

 

 

स्पिनोजा का ज्ञान सिद्धान्त

स्पिनोजा की ज्ञान-मीमांसा में दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं ज्ञान क्या है तथा सत्य ज्ञान का असत्य ज्ञान से भेद कैसे सम्भव है? दूसरे शब्दों में, ज्ञान का स्वरूप तथा ज्ञान की प्रामाणिकता। स्पिनोजा ज्ञान को स्वतः प्रमाण मानते हा उनकी प्रसिद्ध उक्ति  है कि ज्ञान स्वत: प्रकाश है, उसे प्रकाशित करने के लिये किसी दूसरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं। यदि किसी ज्ञान की प्रामाणिकता अपने से भिन्न किसी दूसरे ज्ञान पर आधारित हो तो निश्चित रूप से अनवस्था दोष उत्पन्न होगा। एक ज्ञान के लिये दूसरे की अपेक्षा होगी तथा दूसरे के लिये तीसरे की। इस प्रकार अनवस्था होगी। इसीलिये जिस समय किसी ज्ञान की उत्पत्ति होती है तो उसकी प्रामाणिकता भी साथ ही साथ उत्पन्न होती है। ज्ञान होने का ही अर्थ है प्रकाश होना। यह प्रकाश स्वयं प्रकाश है। इसे प्रकाशित करने के लिये किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं।

 

 

स्पिनोजा का सत्य असत्य का सिद्धान्त (Principles of Truth and Falsity)

स्पिनोजा स्वतः प्रामाण्यवादी है। उनके अनुसार सत्य ज्ञान का सहज, स्वाभाविक या आन्तरिक गुण (Intrinsic Property) है| तात्पर्य यह है कि ज्ञान की सत्यता उसके साथ ही उत्पन्न होती है। प्रश्न यह है कि ज्ञान के स्वाभाविक गुण क्या है? स्पिनोजा के अनुसार ज्ञान का स्पष्ट तथा निस्सन्देह होना ही उसका आन्तरिक गुण है। ये गुण स्वतः प्रसूत है। ये गुण सत्य ज्ञान या पूर्ण प्रत्यय के परिचायक है। अतः पूर्ण प्रत्यय (Adequate idea) ही सत्य ज्ञान हैं। पूर्ण प्रत्यय की उत्पत्ति स्वतः होती है। तात्पर्य यह है कि निस्सन्देह तथा स्पष्ट ज्ञान ही सत्य ज्ञान या पूर्ण प्रत्यय है। अतः सत्यता का मापदण्ड स्पष्टता तथा निस्सन्देह होना है।

ये ज्ञान के स्वतः या आन्तरिक (intrinsic) गुण हैं, बाह्य या परतः नहीं। कुछ लोगों का कहना है कि स्पिनोजा संवाद सिद्धान्त (Correspondence theory) को मानते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान के अनुरूप वस्तु का होना ही ज्ञान की यथार्थता है। यदि ज्ञान के अनुरूप वस्तु न हो तो वह ज्ञान अयथार्थ या भ्रम है। परन्तु स्पिनोजा ज्ञान तथा वस्तु में सवादसिद्धान्त को नहीं मानते उनके अनुसार यथार्थ ज्ञान निश्चयात्मक तथा निस्सन्देह होता है। ये दोनों ज्ञान के आन्तरिक गण हैं। अतः स्पिनोजा के ज्ञान सिद्धान्त को स्वतः प्रामाण्यवादी कहा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि उनके अनुसार सत्य तथा असत्य दोनों ज्ञान के स्वाभाविक गुण हैं जिनकी उत्पत्ति ज्ञान के साथ ही होती है। पुनः प्रश्न है कि इन सत्य-असत्य गुणों का ज्ञान हमें कैसे होता है? स्पिनोजा के अनुसार सत्य तो स्वतः प्रमाण है, परन्तु असत्य नहीं।

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असत्यता सिद्धान्त की व्याख्या करते हए स्पिनोजा कहते हैं कि सन्देहास्पद तथा अस्पष्ट विचार ही असत्य ज्ञान है। यह यथार्थ ज्ञान के विरोधी है, अर्थात अयथार्थ प्रान्त ज्ञान है। मिथ्या ज्ञान केवल ज्ञान का अभाव नहीं, वरन् श्रम ज्ञान है। किसी विषय को न जानना उस विषय सम्बन्धी ज्ञान का अभाव है, परन्तु उस वस्तु के स्वरूप को दूसरा समझ लेना उस वस्तु सम्बन्धी भ्रम ज्ञान है। स्पिनोजा भ्रम को ही असत्य ज्ञान मानते है। इससे स्पष्ट है कि स्पिनोजा का असत्य सिद्धान्त स्वतः नहीं है। स्पिनोजा इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सत्य में सन्देह का समावेश नहीं परन्तु सन्देह में सत्य की आशंका हो सकती है। उदाहरणार्थ, स्वप्न देखता हुआ व्यक्ति जाग्रत होने की कल्पना कर सकता है, परन्तु जगने के बाद वह स्वप्न की कल्पना नहीं कर सकता।

स्पिनोजा का ज्ञान के स्तर(Levels of Knowledge)

स्पिनोजा ज्ञान के तीन स्तर बतलाये हैं

१. इन्द्रिय-जन्य ज्ञान (Imagination)

२. तर्क-जन्य ज्ञान या बौद्धिक ज्ञान (Reason)

३.प्रज्ञा-जन्य ज्ञान (Intuition)

1. इन्द्रिय-जन्य ज्ञान-

यह ज्ञान अस्पष्ट तथा अपर्याप्त है, क्योंकि इससे हम वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं प्राप्त होता। यह ज्ञान विशेष तक ही सीमित रहता है तथा वैयक्तिक है। इस स्तर पर हमें पञ्च ज्ञानेन्द्रियों द्वारा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दादि का ज्ञान प्राप्त होता है तथा हर्ष, विषाद आदि मानसिक जगत  का ज्ञान प्राप्त होता है। परन्तु इस स्तर के ज्ञान में पूर्णतः स्पष्टता नहीं रहती। इस स्तर का ज्ञान केवल व्यावहारिक ज्ञान है। इसे इन्द्रियजन्य ज्ञान इसीलिये कहा गया है। कि यह ज्ञान इन्द्रिय तथा अर्थ से जन्य होता है। इसमें पूर्णता नहीं क्योंकि पूर्ण ज्ञान तो केवल ईश्वर-बोध मे है। इसी कारण स्पिनोजा इन्द्रियजन्य ज्ञान को आधार के बिना निष्कर्ष कहते है। तात्पर्य यह है कि यह ज्ञान अपूर्ण तथा वैयक्तिक है।

२. तर्क-जन्य ज्ञान-

यह बौद्धिक ज्ञान है जो संश्लेषणात्मक होता है। इस स्तर पर हमे वस्तुओं के बाह्य स्वरूप का ही नहीं, वरन् उनके आपसी सम्बन्ध का भी ज्ञान प्राप्त होता है। इस स्तर पर हमें वस्तुओं का सार तथा उनके ईश्वर से सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान को स्पिनोजा वैज्ञानिक मानते है। यह प्रथम ज्ञान के समान असम्बद्ध नहीं, सुसम्बद्ध ज्ञान है। यह भिन्नता का सूचक नहीं वरन् अभिन्नता का द्योतक है। इस स्तर पर हमें प्रत्येक वस्तु का स्वरूप पृथक्-पृथक् (जैसा प्रथम स्तर में) नहीं प्रतीत होता, वरन् उनमें पारस्परिक एकता प्रतीत होती है।

इस स्तर पर हमें ईश्वरता की झलक अवश्य मिल जाती है। इस स्तर पर हमें ईश्वर के विश्वव्यापी तथा विश्वात्मा स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है। विश्व की सभी वस्तुएँ बाह्य रूप से पृथक्-पृथक प्रतीत होती है, परन्तु विश्व ईश्वर रूप है। अत: विश्व में आन्तरिक एकता है। इसी कारण स्पिनोजा इस स्तर के ज्ञान को वस्तु का सार तथा उनका ईश्वर से सम्बन्ध ज्ञान मानते हैं परन्तु यह भी पूर्ण ज्ञान नहीं, क्योंकि इस स्तर पर भी हमें पूर्णतया ईश्वर बोध नहीं होता।

 

३. प्रज्ञा-जन्य ज्ञान-

यह ज्ञान सर्वोच्च है, क्योंकि इससे समग्रता तथा ईश्वरता का स्पष्ट बोध होता है। इससे हमें सम्पर्ण प्रकति की व्यवस्था का स्पष्ट ज्ञान होता है। यह ईश्वर के एक, अनन्त अद्वैत रूप की निर्विकल्पक अनुभूति है। यह ज्ञान कार्य-रूप विश्व का ज्ञान नहीं वरन कारण-रूप ईश्वर का ज्ञान है। स्पिनोजा इस ज्ञान का साक्षात या सद्यः अनुभति मानते हैं। प्रथम तथा द्वितीय स्तर ज्ञान का स्तर है। परन्तु तृतीय अनुभूति का स्तर है। हमें इस स्तर पर ईश्वर की स्पष्ट अनुभूति होती है। अतः यह ईश्वर-बोध का स्तर माना गया है। यह विशुद्ध ज्ञान है जो मानव जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। इस स्तर पर मनुष्य पूर्ण आनन्दमय हो जाता है तथा अपने को ईश्वराश्रित समझता है।

 

 

स्पिनोजा के नैतिक विचार

स्पिनोजा के दर्शन में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण विचार है। नैतिक तथा धार्मिक विचारों के प्राधान्य के कारण ही उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ का नाम नीतिशास्त्र (The Ethics) है। नीतिशास्त्र में मानव के चरम लक्ष्य या निःश्रेयस पर विचार करते है। यह निःश्रेयस क्या है? स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर प्रेम ही मानव का निःश्रेयस है। ईश्वर प्रेम की प्राप्ति हमें यथार्थ ईश्वर ज्ञान से हो सकती है। अतः मानव बद्धि की यथार्थता केवल ईश्वर-ज्ञान में है तथा मानव जीवन की सार्थकता ईश्वर प्रेम में है। वस्तुतः स्पिनोजा का सम्पूर्ण दर्शन ईश्वर केन्द्रित है तथा स्पिनोजा ईश्वर प्रमोन्मत्त दार्शनिक (God intoxicated) प्रतीत होते है। परन्तु जैसा कि हम पहले विचार कर आए हैं कि स्पिनोजा का ईश्वर इसाई धर्म में प्रचलित ईश्वर से भिन्न है।

स्पिनोजा के ईश्वर निर्गुण, निराकार, एक, अद्वैत रूप है। इसी कारण कुछ लोग स्पिनोजा को निन्दनीय नास्तिक मानते हैं, परन्तु यथार्थ में स्पिनोजा परम आस्तिक हैं। उनके विचार भले ही परम्परागत न हों परन्तु ईश्वरता से ओत-प्रोत है। स्पिनोजा सम्पूर्ण सष्टि को स्रष्टा-रूप ही मानते हैं। ईश्वर अनन्त है, उसकी अनन्तता तथा विराट् स्वरूप का बोध ही हमारे नैतिक जीवन की पराकाष्ठा है।

हमारा सांसारिक जीवन है क्योंकि हम क्षणिक तथा अनित्य सुख के दास बने रहते हैं। यधार्थ सुख कोम से ही प्राप्त हो सकता है, इसी से सभी दुःख का अन्त सम्भव है। सिनोजा के नैतिक विचारों की आधारशिला ईश्वर प्रेम है। हमें नैतिक नियमों पालन इसलिये करना चाहिये कि ईश्वर के प्रति हमारा प्रेम बढे। परन्तु ईश्वर भी उत्पन्न होगा जब ईश्वर सम्बन्धी हमें यथार्थ ज्ञान या बोध हो। इसी कारण सिनोजा के अनुसार सद्गुण  ईश्वर ज्ञान है। महात्मा सुकरात के समान पिनोजा भी ज्ञान को ही सद्गुण मानते हैं। परन्तु महात्मा सुकरात के लिये पत्ययात्मक ज्ञान (Conceptual knowledge) सद्गुण है, स्पिनोजा के लिये ईश्वरीय। न सदगण कारण हममे विवेक उत्पन्न करता है।

विवेक से मनुष्य स्वार्थ का त्याग कर परोपकारी बनता है। स्पिनोजा के लिये सद्गुण शक्ति है। इस शक्ति का वर्धन करना हमारा पावन कर्त्तव्य है। इस शक्ति से ही हम भय तथा मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। सद्गुणी व्यक्ति को मृत्यु का भय नहीं होता।

स्पिनोजा के नैतिक विचार आत्मसंरक्षण से प्रारम्भ होते है। हॉब्स (Hobbes) के समान स्पिनोजा भी कहते हैं कि सर्वप्रथम मनुष्य को अपनी रक्षा करनी चाहिये। अपनी रक्षा करने के लिये हमें अपनी शक्ति को बढ़ाना चाहिये। अतः शक्ति का वर्धन पुण्य तथा शक्ति का क्षय पाप है। जो कुछ भी हमारे शरीर तथा मस्तिष्क की शक्ति को बढ़ा सके वह पुण्य कार्य है। प्रसन्न रहना पुण्य है क्योंकि इससे शक्ति बढ़ती है। दुख करना पाप है क्योंकि इससे शक्ति का क्षय होता है। इसी कारण कुछ लोग स्पिनोजा के नैतिक सिद्धान्त को स्वार्थवादी (Egoistic) मानते हैं, क्योंकि हॉब्स के समान स्पिनोजा भी व्यक्तिगत शक्ति पर जोर देते हैं। हमारी रक्षा तब तक सम्भव नही जब तक हममें शक्ति न हो।

शक्तिहीन होना तो विनाश है। इस प्रकार स्पिनोजा आत्मसंरक्षण के सिद्धान्त पर बल देते हैं। सदगुणों की सार्थकता आत्मसंरक्षण में ही है। मनुष्य को प्राकृतिक नियमों की अनिवार्यता स्वीकार करनी चाहिये। प्राकृतिक नियमों में सबसे पहला नियम आत्मसंरक्षण का ही है। दूसरे शब्दों में, प्रकृति की यह मॉग है कि हम अपने आप को प्यार करें, हमारी निजी भलाई के लिये जो कुछ आवश्यक हो करें। हमारी उन्नति के मार्ग में जो कुछ भी साधक हो वही श्रेयस्कर है। स्पष्ट है कि स्पिनोजा प्रगति के साधक को शुभ तथा बाधक को अशुभ मानते हैं।

शुभ और अशुभ का मापदण्ड भौतिक उत्कर्ष और अपकर्ष है। इसी कारण कुछ लोग स्पिनोजा की स्वार्थवादी नैतिकता की बड़ी आलोचना करते हैं। यह सत्य है कि स्पिनोजा के नैतिक विचार स्वार्थवाद से ही प्रारम्भ होते हैं, परन्तु वस्तुतः स्पिनोजा परार्थवादी हैं। स्पिनोजा के अनुसार सद्गुण केवल आत्मसंरक्षण में नहीं वरन् विवेकपूर्ण आत्मसंरक्षण में है। विवेक पर ध्यान देने से पता चलता है कि जैसे व्यक्तिगत आत्मसंरक्षण है वैसे ही सामाजिक भी स्पिनोजा स्पष्टतः कहते हैं कि विवेकी मनुष्य बुराई के बदले भलाई करता है।

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यदि मनुष्य विवेक का सहारा ले तो उसे अवश्य ही ज्ञान होगा कि उसे दूसरों के लिये वही करना चाहिये जो वह अपने लिये चाहता है। स्वाभाविक है कि ऐसा मनुष्य न्याय-पूर्ण तथा श्रद्धाल होगा। विवेक के लिये दूसरे का हित करना अपना हित है। सम्पूर्ण प्रकृति ही ईश्वर है। अतः विवेकी मनुष्य प्रकृति के जीव से द्वेष या ईर्ष्या नहीं करता, किसी के प्रति घृणा तथा तिरस्कार की भावना नहीं रखता। विवेकी मनुष्य घृणा के लिये प्रेम तथा तिरस्कार के लिये सम्मान का व्यवहार करता है।

 

बन्धन और मोक्ष(Bondage and Freedom)

भारतीय दार्शनिकों के समान स्पिनोजा के दर्शन में भी बन्धन तथा मोक्ष की समस्या पर पर्याप्त विचार किया गया है। भारतीय दार्शनिक अज्ञान को ही बन्धन का कारण मानते हैं। अज्ञान के कारण ही हम दुःखद को सुखद, अनात्म को आत्म तथा क्षणिक को शाश्वत मानते हैं। फलत: बन्धन होता है। स्पिनोजा के अनुसार भी हमारे बन्धन का कारण अज्ञान ही है। अज्ञान के कारण ही हम अनन्त परमात्मा से विमुख हो सान्त सांसारिक वस्तुओं में लगे रहते है। अज्ञान के कारण ही दुःखद तथा क्षणिक संसार को सुखद तथा शाश्वत मान लेते हैं। इसका परिणाम दुःख तथा बन्धन है।

वस्तुतः हम अपनी भावनाओं के वश में होकर अनित्य तथा अपूर्ण वस्तु से प्रेम करने लगते हैं। इन भावनाओं के कारण ही हममें घृणा, द्वेष, भय आदि का सञ्चार होता है। अतः अज्ञान के कारण हम अपने यथार्थ स्वरूप को भूलकर केरल भावनाओं के दास बने रहते है। स्पिनोजा के अनुसार भावनाएँ (Emotions) तीन हैं-दुःख, सुख तथा कामा स्पिनोजा के अनुसार दुःख तथा सुख दोनों की भावना निष्क्रिय (Passive state of mind) है। सुख मन की निष्क्रिय भावना है जिससे समय अधिक पूर्णता की ओर अग्रसर होते हैं।

यहाँ पूर्णता से स्पिनोजा का तात्पर्य शारीरिक तथा मानसिक शक्ति से है। अभिप्राय यह है कि सुख की भावना से शक्ति का वर्धन होता है तथा दुःख की भावना से ह्रास होता है। अतः मानव की उन्नति तथा अवनति केवल शक्ति पर ही आधारित है। प्रश्न यह है कि यदि उन्नति और अवनति शक्ति पर आधारित है तो इस शक्ति को स्पिनोजा ने निष्क्रिय अवस्था (Passive state) क्यों माना? स्पिनोजा के अनुसार हमारे भाव (Emotion) दो प्रकार के हैं-निष्क्रिय और सक्रिय निष्क्रिय भाव वे हैं जिनका नियन्त्रण केवल बाह्य परिस्थितियों से होता है। इससे मनुष्य निर्बल तथा निष्क्रिय होता है। ये अशुभ भाव हैं। इसके विपरीत सक्रिय भाव हैं जिनमें हमारा शरीर तथा मन क्रियाशील रहता है।

स्पिनोजा के अनुसार ये शुभ भाव हैं। बलवान तथा बुद्धिमान व्यक्ति बाह्य परिस्थितियों से नियन्त्रित नहीं होता, उसके सभी कार्य आन्तरिक शक्ति से नियन्त्रित होते हैं। अतः विवेकी ही बद्धिमान है, बलवान है। विवेकहीन दुर्बल तथा दास है। दासता बन्धन है, बन्धन के कारण हमारे अशुभ भाव है।

अशुभ भाव भी अज्ञानजन्य हैं। अज्ञान के कारण ही हम क्षणिक, दु:खद तथा अनित्य सांसारिक सुख में भले रहते हैं, विषय-वासनाओं की ओर सर्वदा आकृष्ट रहते हैं। जब तक हमारी दष्टि नित्य, शाश्वत प्रेम की ओर नहीं होती तब तक हमें शान्ति नहीं प्राप्त होती। अतः स्पष्ट है कि स्पिनोजा के अनुसार अज्ञान के कारण अशुभ भावों का दास होना ही बन्धन है। अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपना समष्टि स्वरूप भूल जाता है, भ्रमवश वह अपने को ईश्वर से अलग मानता है।

 

स्वतन्त्रता

नियतिवादी स्पिनोजा के दर्शन में स्वतन्त्रता का विचार विवादास्पद है। स्पिनोजा के अनुसार विश्व की प्रत्येक घटना में नियत्तत्त्व या अनिवार्यता है। जो कुछ भी विश्व में हो रहा है वह अवश्यम्भावी है। समस्त प्रकृति की प्रत्येक घटना की उत्पत्ति तथा नियन्त्रण ईश्वराधीन है। किसी सांसारिक घटना का क्रम बदला नहीं जा सकता।

यही स्पिनोजा का नियतिवाद है। हमारे इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई अर्थ नहीं। हम अपनी इच्छा के अनुसार चयन करने में समर्थ नहीं है। हमें जो कुछ भी सुख-दुःखह वह भाग्याधीन है, ईश्वर प्रदत्त है। हम इसमें परिवर्तन नहीं कर सकते तथा नियत्ति की स्वीकृति हमारा कर्तव्य है। अतः इच्छा स्वातन्त्र्य तो भम (Free will is an illusion) है।

स्पिनोजा के नियतिवाद में गुण और दोष दोनों है। नियतिवाद का गुण यह है कि यह हमें द्वन्द्व सहिष्णू बनाता है। हम सुख-दुःख को नियत, अवश्यम्भावी मान कर शान्तिपूर्वक सहते हैं। मनुष्य को इसमें परिवर्तन करने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि ये ईश्वर प्रदत्त है। इसका दोष यह है कि इसमें इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई स्थान नहीं। यदि कर्ता स्वतन्त्र नहीं तो उसका उत्तरदायित्व भी नहीं।

उत्तरदायित्व को नतिकता की परिधि से बाहर करना तो नैतिकता की समाप्ति करना है। उस कार्य को हम नैतिक नहीं कह सकते जिसे हमने अपनी स्वतन्त्र इच्छा से न किया हो। वह कार्य उचित हो सकता है, परन्त नैतिक नहीं। अतः कर्ता को स्वतन्त्र मानना तो नतिक निर्णय की पूर्व-मान्यता है। इस प्रकार स्पिनोजा के नियतिवाद में इच्छा स्वातन्व्य का पूर्ण निषेध है। परन्तु स्पिनोजा स्वतन्त्रता को मानते हैं।

स्पिनोजा के अनुसार कोई भी व्यक्ति तभी स्वतन्त्र कहा जा सकता है जब वह अपनी कल्पना या भावना से कार्य न कर अपनी बुद्धि से कार्य करता है। अपने ही नियमों से अपने को नियत करना परतन्त्रता नहीं, स्वतन्त्रता है। अतः मनुष्य का अपने स्वभाव से नियत कार्य स्वतन्त्र कार्य है दूसरे शब्दों में, बौद्धिक कार्य स्वतन्त्र कार्य हा हम जानते है कि स्पिनोजा के अनुसार भावनाओं का स्तर व्यक्तिगत है पर बौद्धिक स्तर सामान्य है। भावनाओं की दृष्टि से प्रत्येक भिन्न-भिन्न है, परन्तु बौद्धिक दृष्टि से समष्टिगत हैं, सामान्य है।

समीक्षा 

पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में सत्रहवीं शताब्दी का विशेष महत्व है। यह प्रतिभा की शताब्दी (The Century of Genus) कहलाती है। स्पिनोजा इस शताब्दी के सबसे प्रमुख दार्शनिक माने जाते हैं। इस युग में मध्ययुगीन विचारों के प्रति विद्रोह की लहर फैल गयी थी। विद्रोह की चिनगारी देकार्त के दर्शन में ही फूट पड़ी थी, परन्तु स्पिनोजा के दर्शन में यह पूर्णतः धधकने लगी। यह सत्य है कि देकार्त ने एक नयी दार्शनिक नींव डाली, एक प्रणाली के प्रवर्तक बने, परन्तु मध्ययुगीन परम्परा से वे अपने को पूर्णतः मुक्त न कर सके।

धर्म और ईश्वर की सारी मान्यताये(मध्ययगीन) देकार्त के दर्शन में विद्यमान है। देकार्त का ईश्वर-विचार पूरी तरह मध्ययगीन मान्यताओं से प्रभावित है। सन्त ऑगस्टाइन, एक्विनस, एन्सेल्म के समान ही देकार्त भी ईश्वर-सिद्धि के लिए प्रमाण देते हैं, उनके प्रमाण भी इसाई मत की परम्परा के अनुकूल है। देकार्त के ईश्वर मध्ययुगीन ईश्व से भिन्न नहीं।

 

 

 

 

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