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ब्लूमर के प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद के सिद्धान्त | Symbolic interactionism of Blumer

ब्लूमर का प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद सिद्धान्त

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद दृष्टिकोण/परम्परा के प्रवर्तक हरबर्ट ब्लूमर ने अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण करके जार्ज हरबर्ट मीड के मरने के बाद 1930 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में मीड की कक्षाओं में अध्यापन कार्य भी किया। ब्लूमर मीड के योग्य शिष्य थे। उन्होंने डब्ल्यू स्मिथ के द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘Men and Society में समाज मनोविज्ञान की प्रकृति की समीक्षा करते हुए ‘प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद’ (Symbolic Interactionism) शब्द का सृजन किया और तभी से समाजशास में इस नये परिप्रेक्ष्य का जन्म हुआ। कालान्तर में जब ब्लुमर कैलिफोनिया  यूनिवसिटी की समाजशास्त्र पीठ के प्रथम अधिष्ठाता बने, तब उन्होंने अन्तःक्रियावादी  समाजशास्त्रियों की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया।

उनकी रुचि व्यक्तियों की अन्तक्रियाओं का अध्ययन करने में थी, अतः उन्होंने यह विचार व्यक्त किया कि सामाजिक व्यवस्थाए वास्तव में, अमूर्तिकरण, जिनका व्यक्तियों की क्रियाओं से पृथक कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं  होता, जिनसे कि उनका निर्माण होता है। ब्लूमर ने इस बात पर अधिक जोर दिया कि सामाजिक जीवन का सम्पूर्ण दायित्व व्यक्तियों की अन्तक्रियाएं हैं तथा इन्हीं के आधार पर क व्यवस्थाएं निर्मित होती है। ब्लूमर का सामाजिक संरचना का विचार स्पष्ट नहीं है, क्योंकि उन्होने यह स्पष्ट नहीं किया कि अन्तर्क्रियाएं सामाजिक संरचना के साथ किस प्रकार से संगठन है। वे अन्तर्क्रियाए एव सामाजिक संरचना के मध्य प्रतीकों की भूमिका को भी स्पष्ट नहीं कर सके।

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद की मौलिक मान्यताएं

ब्लूमर ने प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद की तीन मान्यताओं का उल्लेख किया है

  1. मानव समाज का निर्माण व्यक्तियों से हुआ है, जो ‘स्व’युक्त होते हैं। व्यक्ति बाहय संवेगों के प्रति प्रतिक्रिया करने के बजाय वस्तुओं की अपने द्वारा दिए गये अर्थों के आधार पर क्रिया करता है अर्थात् मनुष्य उन अभिप्रायों के आधार पर क्रिया करता है। जिसे वह अपने आस-पास की वस्तुओं/घटनाओं के लिए प्रयोग करता है। इस रूप में प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद सामाजिक और प्राणिशास्त्रीय दोनों ही निर्धारणवाद को अस्वीकार कर देता है।
  2. व्यक्ति जो क्रिया करता है, उसकी विशेषताओं का विश्लेषण उसमें ही सन्निहित होता है, व्यक्ति द्वारा वस्तुओं/घटनाओं का अर्थबोध किया जाना अन्तर्क्रिया की प्रक्रिया पर निर्भर करता है। एक सीमा तक अर्थ का निर्माण संशोधन, विकास और उसमें परिवर्तन के आधार पर होता है, परन्तु यह सब कुछ अन्तक्रिया की स्थिति की सीमान्तर्गत ही होता है। वस्तुओं/घटनाओं के जो अर्थ लगाए जाते हैं, वे अन्तक्रिया की प्रक्रिया के दौरान ही पनपते हैं अर्थात् पहले से ही विद्यमान नहीं होते। अन्तर्क्रिया की प्रक्रिया के अन्तर्गत ‘कर्ता’ किसी दास के समान मौजूदा आदर्श-नियमों का न तो अनुसरण करता है और न ही पूर्ण-निर्धारित भूमिकाओं का यंत्रवत् निर्वाह करता है।
  3. अन्तर्क्रिया के दिए हुए संदर्भ में व्यक्ति विश्लेषणात्मक प्रक्रियाओं द्वारा अर्थबोध करता है। व्यक्ति वस्तुओं/घटनाओं का जो अर्थ लगाते हैं, वह अन्तर्क्रियात्मक सन्दर्भो के अन्तर्गत कर्ताओं के द्वारा प्रयुक्त प्रणालियों का परिणाम होता है अर्थात् विश्लेषण के द्वारा मौजूदा स्थिति में अर्थ की निष्पति करता है। इसका अभिप्राय यह है कि अन्तःक्रियावाद प्रक्रिया के दौरान कर्ता दूसरों की भूमिका को अपनाता है तथा उसी रूप में दूसरों के अर्थों तथा मन्तव्यों की व्याख्या करता है। स्व-अन्तक्रिया की यांत्रिकी/कार्यविधि के द्वारा कर्ता परिस्थिति की परिभाषा को संशोधित करता अथवा परिवर्तित करता है, क्रिया के विकल्पों को खोजता है और उनके सम्भाव्य परिणामों पर विचार करता है। इस प्रकार ब्लूमर मानता है कि वे अर्थ जो क्रिया को निर्देशित करते हैं, व्याख्यात्मकता प्रणालियों के एक जटिल श्रृंखला के माध्यम से अन्तक्रिया के सन्दर्भ में ही पैदा होते हैं।

 

अन्तःक्रियावाद में निर्वचन/अर्थबोध का महत्व

हरबर्ट ब्लूमर के प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद सिद्धान्त का आधारवाक्य (Premise) वास्तव में निर्वचन ही है। ब्लूमर अन्तःक्रियावादी दृष्टिकोण को परम्परानुगत सामाजिक क्रिया से भिन्न मानते हैं। उनका मत है कि मनुष्य नवीन स्थितियों को सृजित करने की क्षमता से युक्त प्राणी है. अत: समाज में निरन्तर चलने वाली अन्तक्रिया की प्रक्रिया को ऐक ऐसे रूप में देखा जाना चाहिए. जिसके अन्तर्गत अनेक कर्ता एक-दूसरे के साथ निरन्तर अनुकूलन करने तथा परिस्थिति की व्याख्या करने में प्रयत्नशील हैं।

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प्रकार्यवादियों द्वारा प्रस्तुत सामाजिक व्यवस्था का धारणा को अस्वीकार करते हुए ब्लूमर ने यह मत स्पष्ट किया है कि यदि मनुष्य के सामूहिक जीवन की तुलना एक यांत्रिकीय संरचना के परिचालन अथवा सन्तुलन बनाये रखने वाली व्यवस्था के प्रकार्य में की जाती है, तो एक कठिन स्थिति पैदा होगी। यह कठिन स्थिति अन्तक्रिया के निर्माणात्मक या अन्वेषणात्मक चरित्र के फलस्वरूप पैदा होती है, क्योंकि अन्तक्रिया में सहभागी व्यक्ति परस्पर क्रियाओं का मूल्यांकन करते हैं और उसके निर्णय के आधार पर ही अपने-अपने कार्यों को निर्देशित करते हैं।

ब्लूमर की मान्यता है कि व्यक्ति ही घटनाओं या वस्तुओं के अर्थ को प्रतिपादित करता है और उनका मूल्यांकन करता है, स्थिति को परिभाषित करता तथा वस्तुओं के अर्थबोध में परिवर्तन करता है। ब्लूमर के अनुसार क्रिया बाहय बाध्यता से नहीं प्रभावित होती।

क्रिया कुछ सीमा तक संरक्षित और सारणीबद्ध/नियमित होती है। उसका कथन है कि अधिकांश परिस्थितियों में जिनमें व्यक्ति परस्पर क्रिया कर रहे होते हैं, तो उन्हें पहले से ही यह स्पष्ट बाध/ज्ञान होता है कि उन्हें वस्ततः किस प्रकार से कार्य करना है और दूसरे व्यक्ति किस प्रकार कार्य करगे। इस पर भी ऐसा ज्ञान या बोध मात्र एक सामान्य पथ-प्रदर्शक के रूप में ही कार्य करताह, क्योकि यथार्थ परिस्थिति में क्रिया में कुछ-कुछ संशोधन परस्पर तालमेल एवं दांव-पेंच का सम्भावना सदैव बनी रहती है। ब्लूमर मानता है कि सामाजिक संस्थाएं मानवीय आचरण को एक सीमा के अन्दर बांधे रखती है किन्तु संस्थागत कठोर नियमों/प्रतिबन्धों के बाद भी मानवीय पहल तथा सृजनात्मकता की सम्भावना बनी रहती है।

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद का पद्धतिशास्त्र 

ब्लूमर के पद्धतिशास सम्बन्धी मुद्दों में एक बहुत बड़ी गहरायी है तथा वही उनका पाण्डित्य भी है। ब्लूमर के अनुसार, समाजशास्त्रीय अध्ययनों हेतु हमें एक ऐसे पद्धतिशास्त्र को विकसित करना चाहिए, जो मानवीय अन्तक्रिया को समुचित मान्यता प्रदान कर सके। मात्र कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने से तो विषय अत्यन्त सरल बन जाएगा। ब्लूमर ने वैज्ञानिक वस्तुवादी पद्धतिशास के कार्य-कारण सम्बन्ध की स्थापना के सरल प्रयासों को स्वीकार नहीं किया। उदाहरण के लिए, उसने औद्योगिकरण एवं परिवार की संरचना में परिवर्तन के सम्बन्धित तथ्यों के बीच सम्बन्ध स्थापित किए जाने से पहले ही कर्ताओं द्वारा औद्योगिकरण और पारिवारिक जीवन के विभिन्न पहलुओं के अर्थबोधों/निर्वचनों और विश्लेषणों को अनिवार्य माना है।

ब्लूमर के अनुसार, “समाजशास्त्रीय अनुसन्धानकर्ताओं को कुछ बने-बनाए पूर्व-निर्धारित निष्कर्ष में ही अपने अध्ययन के परिणामों को ‘फिट’ करने का प्रयत्न न करके कर्ता द्वारा लगाए गए अर्थों को समझना होगा तथा इसके लिए उन्हें उस क्रियारत इकाई की भूमिका का निर्वाह करना होगा, जिसके व्यवहार का अध्ययन कर रहे हैं।

ब्लूमर के अनुसार, प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद ने प्रकार्यवादियों की भांति निगमनात्मक सिद्धान्त को नहीं अपनाया है। ब्लूमर के सिद्धान्त निर्माण की सम्पूर्ण प्रक्रिया को देखने से स्पष्ट होता है कि उनका विधि सिद्धान्त निर्माण अन्य पद्धतियों से सर्वथा पृथक है। सर्वप्रथम उनका आरोप यह है कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के निर्माण हेतु जिन अवधारणाओं को प्रयुक्त किया जाता है, उनकी आनुभाविक संसार की पकड़ अत्यन्त कमजोर है। उनका कहना है कि आनुभाविक जगत की प्रक्रियाओं में प्रतीक लगातार परिवर्तित होते रहते हैं।

इस अवस्था में समाजशास्त्रीय अवधारणाएं इन बदलते हुए प्रतीको को अपने में समाहित नहीं कर पाती। समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के निर्माण में ऐसी अवधारणाओं को बनाये जाये, जो संवेदनशील हो, क्योंकि संवेदनशील अवधारणाएं ही मनुष्य के ‘स्व  में जो बदलाव आते हैं, उन्हें जान/समझ सकती है। केवल ‘स्व’ ही ऐसा है, जो बदलते हए जगत के सम्पर्क में आता है, अत: इसके अध्ययन में आगमनात्मक नियम ही अधिक उपयुक्त होंगे। ‘स्व’ अनुभाविक जगत का निर्वचन करता है, इसके साथ ही परिणामतः प्रत्युत्तर होता है और प्रत्युत्तर ही आगमनात्मक नियम का निर्माण करता है।

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अन्तर्क्रिया के स्तर :

हरबर्ट ब्लूमर ने अन्तर्क्रिया के अधोलिखित दो स्तरों का उल्लेख किया है-प्रथम स्तर प्रतीकात्मक अन्तःक्रिया और द्वितीय स्तर गैर-प्रतीकात्मक अन्तर्किया। प्रथम स्तर पर संकेतों का सम्प्रेषण होता है और इसमें व्यक्ति की स्वतः प्रेरणा पर निषेध नहीं होता। यह पूर्णरूपेण मानवीय स्तर है। अन्तर्क्रियाओं के द्वितीय स्तर पर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के संकेतों को प्रकट रूप से जाने/समझे बगैर ही प्रतिक्रिया करना है। उदाहरण के लिए, किसी पार्क/बगीचे में दो व्यक्ति चुपचाप शांति से बैठे है और किसी भी प्रकार के संकेतों का आदान-प्रदान नहीं कर रहे हैं। इसके बाद भी वे एक-दूसरे को अपनी उपस्थिति की अनुभूति कराते हैं। यह गैर-प्रतीकात्मक अन्तर्क्रिया है। ब्लूमर के अनुसार, संकेतों के आदान-प्रदान न होने पर अथवा अर्थबोध की साझेदारी के बगैर भी अन्तक्रिया होती है।

अन्तःक्रिया की विशेषताएं

ब्लूमर ने अन्तःर्क्रिया की तीन विशेषताओं का उल्लेख किया है -1. अन्तक्रिया की अवस्था में प्रतीकात्मक रूप से व्यक्ति अपने ‘स्व’ को वस्तु की भाँति रखता है। दूसरे। व्यक्ति के संकेत भी वस्तु की भांति स्थिति के बीच लाए जाते हैं। 2. सामाजिक नियम, मूल्य, प्रतिमान, आदि प्रत्याशाएं वस्तु के समान स्थिति के बीच प्रतीकात्मक रूप से लायी। जाती है। 3. मानव में प्रतीक को सृजन करने की क्षमता है, अत: वस्तु के रूप में कोई भी प्रतीक स्थिति के बीच वह ला सकता है।

आलोचना-

1. प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद सामाजिक समस्याओं के संदर्भ में ऐतिहासिक एवं आर्थिक पक्षों की पूर्ण उपेक्षा कर देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इतिहास एवं अर्थतंत्र से उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं है, जबकि सामाजिक समस्याएं इतिहास तथा अर्थतंत्र से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी होती है।

2. प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद सामाजिक संरचना एवं संगठन को अध्ययन का विषय नहीं मानता। वह इनकी अवधारणा को दोषयुक्त बताता है, जबकि सामाजिक संरचना एवं संगठन दोनों को महत्वपूर्ण सामाजिक अवधारणाएं माना गया है।

3. प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद की सामूहिक सामाजिक जीवन की समझ अत्यधिक विस्तृत है। यह सिद्धान्त कभी भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि यह मानव चेतना को उलटने-पलटने अर्थात् उसमें हेर-फेर करने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए, स्थिति की परिभाषा एवं अर्थबोध के प्रचार-प्रसार से यह सिद्धान्त किसी समय सामाजिक-नियन्त्रण का अनुचित साधन भी बन सकता है।

समाज को प्रतीकों का ताना-बाना मानते हुए ब्लूमर कहीं भी यह स्पष्ट नहीं। करता कि यह ताना-बाना (समाज) किस प्रकार से एक सूत्र में बंधा रहेगा और उसकी निरन्तरता किस प्रकार कायम रहेगी? यद्यपि वह सामाजिक संरचना की चर्चा करता हैं, किन्तु वह स्पष्ट नहीं की जाती।

इतना ही नहीं, वह यह भी स्पष्ट करने में असफल रहे हैं। कि अन्तर्क्रिया-प्रक्रियाएं सामाजिक संरचना के साथ किस प्रकार आबद्ध है और उनके बीच प्रतीकों की क्या भूमिका हैं, ब्लूमर यह भी स्पष्ट नहीं करते कि प्रतीकात्मक अन्तक्रिया किस तरह से सामाजिकता का निर्माण करती है और उसे बनाए रखती है तथा किस प्रकार उसके प्रतिमान बदलते रहते हैं? स्पष्ट है कि इन सबका स्पष्टीकरण और विवेचन होना अत्यावश्यक है।

 

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