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मर्टन के प्रकार्य तथा प्रकार्यवाद

दोस्तो इस पोस्ट में हम लोग प्रकार्य की अवधारणा, प्रकार्यवाद की अवधारणा,मर्टन का प्रकार्यवाद,मर्टन का प्रकार्यवाद क्या है?,मर्टन के अनुसार प्रकार्य शब्द का प्रयोग कितने रूपों में किया है?,मर्टन के प्रकार्य तथा प्रकार्यवाद सम्बन्धी विचारों की व्याख्या कीजिए,प्रकार्यात्मक विश्लेषण के मर्टन के ‘पैराडाइम’ की विवेचना, आदि प्रश्नों पर अध्ययन करेंगे।

 

मर्टन के प्रकार्य तथा प्रकार्यवाद सम्बन्धी विचारों की व्याख्या

प्रकार्य की अवधारणा

प्रकार्य की अवधारणा का प्रयोग गणित, जीवविज्ञान एवं सामाजिक विज्ञानों में विभिन्न भागों के बीच पाई जाने वाली अन्तनिर्भरता की विशेषताओं को इंगित करने हेतु किया जाता है। प्रकार्य की अवधारणा वास्तव में सामाजिक विज्ञानों में विज्ञान तथा जीवविज्ञान से की गई है। इसका प्रयोग जहां एक ओर उत्सव/त्यौहार के अति सामान्य अर्थ में लिया जाता है, वहां इसका प्रयोग निपट गणितशास्त्रीय अर्थ (‘अ का प्रकार्य ‘ब’ है) में भी किया जाता है, प्रकार्य शब्द का प्रयोग व्यवसाय, कर्तव्य, क्रिया-कलाप एवं गतिविधि के अर्थ में भी किया जाता है। प्रो० मर्टन ने प्रकार्य के पांच  भिन्न अर्थों का उल्लेख किया है। स्पष्ट है कि किसी भी व्यवस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति केलिए जो भी क्रिया-कलाप/गतिविधियाँ की जाती है, उन्हें हम प्रकार्य कहते है।

समाजशास्त्रीय और अन्य समाज वैज्ञानिक गवेषणाओं में सामाजिक प्रकार्य की अवधारणा का व्यवस्थिति रूप में प्रयोग हमें सर्वप्रथम इमाइल दुखीम के ग्रंथ ‘समाजशास्त्रीय पद्धति के नियम (1895) में देखने को मिलता है। यद्यपि ‘प्रकार्य’ शब्द का प्रयोग दुखीम के पूर्व ही हरबर्ट स्पेन्सर की कृतियों में भी हआ है। कालान्तर में दुर्थीम से प्रभावित होकर रेडक्विक ब्राउन और मैजिनोबाकी ने इस अवधारणा का प्रयोग आदिवासियों के अध्ययन में किया। दुर्खीम से होकर वर्तमान समय तक प्रकार्य की अवधारणा के प्रयोग में काफी संशोधन, परिवर्तन और परिवर्द्धन हुआ लेकिन इसकी मूल-भावना में कोई विशेष फेर-बल नहीं हुआ। प्रारम्भिक विचारकों ने प्रकार्य को सामान्यतः सकारात्मक अर्थ में ही परिभाषित किया है। उनके मतानुसार, किसी अंग/भाग द्वारा किसी संरचना या उसके निर्णायक भागों के समायोजन/अनुकूलन हेतु दिया गया योगदान उस अंग /भाग का प्रकार्य है। आजकल प्रकार्य को अधिक सुस्पष्ट तथा तटस्थ अर्थ में परिभाषित किया गया है। जिसके अनुसार, किसी क्रिया के परिणामों को प्रकार्य की संज्ञा दी जाती है, चाहे वे वांछित /मान्य हो या न हो।

समाजशास्त्र के अन्तर्गत प्रकार्य भी अवधारणा को दो प्रमुख अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। 1. वस्तुपरक परिणाम के अर्थ में और 2. परिवर्त्यो (Variables) के बीच अन्तसंबन्धित संगति के अर्थ में जब यहां कहा जाता है कि धर्म का सामाजिक प्रकार्य  समूह की एकता को बनाए रखना है, तो यह प्रकार्य के प्रथम अर्थ को स्पष्ट करता है। इस दृष्टि से, प्रकार्य का तात्पर्य किसी भी सामाजिक घटना के उनप्रेक्षित वस्तुपरक परिणामों से है, जो किसी व्यवस्था या उसके निर्णायक घटना के अनुकूलन अथवा सामंजस्य हेतु आवश्यक समझे जाते हैं। दूसरे अर्थ में, प्रकार्य का प्रयोग यदा-कदा सामाजिक विज्ञानों  में गणितीय अर्थ में किया जाता है, यथा-‘अ’ घटना (जैसे बेकारी) का प्रकार्य ‘ब’ घटना  (अपराध) है, अत: ‘अ’ के परिवर्तन के अनुपात में ‘ब’ में भी परिवर्तन होता है। इन दोनों अर्थों में यद्यपि भिन्नता है फिर भी वे एक-दूसरे से सम्बन्धित है। आर0के0 मर्टन ने प्रकार्य की अवधारणा को अधिक स्पष्ट तथा व्यक्तिपरक भावना से सजग करते हुए लिखा है कि ‘प्रकार्य वे वस्तुपरक परिणाम है, जो किसी व्यवस्था के अनुकूलन और समायोजन को वृद्धि करते हैं। इसके विपरीत दुष्कार्य वे वस्तुनिष्ठ परिणाम है, जिनसे व्यवस्था के अनुकूलन अथवा समायोजन में कमी आती है। किसी विशिष्ट स्थिति में, एक घटना/तत्व एक व्यक्ति के लिए प्रकार्यात्मक और हर लिए एक सास्कृतिक तत्व धर्म, जहां विश्वास करने वा में व्यक्तियों के लिए दुष्प्रकार्यात्मक हो सकती है। उदाहरण के लिए एक सांस्कृतिक तत्व के सकारात्मक और  नकारात्मक दोनों परिणाम हो सकते है। धर्म, जहां विश्वास करने वालों के लिए मुक्ति का प्रतीक है, वहां मार्क्सवादियों की दृष्टि  में व्यक्तियों के लिए अफीम (नशा) है। इसालए यह अन्तर सापेक्षिक है।

प्रकार्यवाद की अवधारणा

प्रकार्यवाद सावयदिक सादृश्यता पर आधारित एक सिद्धान्त है, जिसके अनुसार यह माना जाता है कि समाज एक ऐसी संगठित और आत्म अनुरक्षित व्यवस्था है,जिसमें  विरोधी परिवेश की स्थिति में भी सन्तुलन बना रहता है। सामाजिक जीवन हेतु जरूरी है कि व्यवस्था की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इसकी विभिन्न सामाजिक प्रकियाओं का परस्पर सहज रूप से उचित तालमेल या सामंजस्य हो । प्रकार्यवाद का प्रथम और महत्वपूर्ण प्रश्न यही है कि समाज इन आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे करता है ? ऐसा देखा जाता है कि प्रत्येक प्रथा संस्था या प्रक्रिया कोई न कोई प्रकार्य अदा करती है। समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करती है और इस प्रकार वे समाज की संरचना तथा उसके सन्तुलन को बनाए रखने में सहायता प्रदान करती हैं। सामाजिक प्रक्रियाओं एवं संस्थाओं आदि को निरन्तर प्रवाहशील सामाजिक समष्टि के प्रति किए गए योगदान के रूप में देखा जाता है। अत: सामाजिक प्रथाओं को किसी समाज के प्रति किए गए योगदान के रूप में देखा जाना चाहिए। प्रथाओं का उदगम कुछ भी हो रहा हो, वे तब तक जीवित रहती है, जब तक कि वे समाज में कुछ न कुछ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहती है।

समाजशास्त्र में इस अवधारणा का प्रयोग उन्नीसवीं शताब्दी में ऑगस्ट कॉम्टे और हरबर्ट स्पेन्सर द्वारा किया गया। उन्होंने मानव समाज और जैवकीय सावयव की कार्य प्रणाली में पर्याप्त सादृश्यताएं देखी। किन्तु इसे व्यवस्थित और वैज्ञानिक अवधारणा के रूप में प्रयोग किए जाने का श्रेय वास्तव में, दुर्खीम को ही दिया गया है। दुर्खीम ने सावयविक सादृश्यता का आश्रय लेते हुए इस अवधारणा का प्रयोग स्पेन्सर से भिन्न रूप में किया। दुर्खीम ने स्पेन्सर की भाति प्रकार्य सम्बन्धी विचारों को पूर्णत: सावयविक सादृश्यता की धारणा पर आधारित नहीं किया और न ही उसने प्रकार्य की धारणा को ‘लक्ष्य’ या ‘प्रयोजन’ के अर्थ में प्रयोग किया। दुर्खीम के अनुसार, ‘सामाजिक घटनाओं का अस्तित्व उन फलप्रद परिणामों पर निर्भर नहीं करता, जिन्हें वे उत्पन्न करती है।’

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दुर्खीम के प्रकार्यवादी विचारों को अन्तर्राष्ट्रीय समाजशास्त्रीय जगत में ब्रिटिश मानवशास्त्री ब्रामिस्जा मैविनोबाकी एवं अल्फ्रेड रेडक्विक ब्रॉउन ने फैलाया। उनहोंने इस तथ्य पर जोर दिया कि सामाजिक-सांस्कृतिक तत्व के सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के लिए कुछ प्रकार्य होते है। साथ ही ये तत्व प्रकार्यात्मक आवश्यकता के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े होते है और अपने जीवन हेतु सम्पूर्ण व्यवस्था पर आश्रित होते है । मैजिनोबाकी एवं ब्राउन के अध्ययन का यही दृष्टिकोणवाद में ‘प्रकार्यवाद’ (Functionalism) नाम से प्रसिद्ध हुआ।

प्रकार्यवाद‘ समाज को अन्तर्सम्बन्धित भागों की एक ऐसी स्वचालित व्यवस्था के रूप में देखने का साख दृष्टिकोण है जिसके निर्णायक भागों के सामाजिक सम्बन्धों में संरचना और एक वस्तुनिष्ठ नियमितता होती है। प्रकार्यवाद एक सामाजिक परिप्रेक्ष्य (Perspective) है, जो किसी सामाजिक तत्व अथवा सांस्कृतिक प्रतिमान है। व्याख्या दूसरे सामाजिक सांस्कृतिक तत्वों और सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए उसके परिणामों के सन्दर्भ में ढूंढता है। प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य इस बात पर जोर देता है कि किसी भी सामाजिक प्रघटना को पूर्णत: अलग-थलग न मानकर उसे व्यवस्था के एक अंग के रूप में देखा-परखा, जाना चाहिए। साथ ही साथ व्यवस्था के निर्णायक भाग व्यवस्था को बनाए रखने अपना जो योगदान करते है, उनका भी अध्ययन किया जाना चाहिए।

वर्तमान समय में यह उपागम संरचनात्मक प्रकार्यवाद (Structural Functionalism) के नाम से प्रसिद्ध है। समाजशासीय अध्ययनों में इस उपायगम को प्रश्न देने वाले विद्वानों में मर्टन और पारसन्स आदि की भूमिका विशेष उल्लेखनीय रही है। इस सिद्धान्त का सबसे अधिक प्रसिद्ध डेविस एवं मूर के स्तरीकरण के प्रकार्यात्मक विश्लेषण से मिली।

 

 

प्रकार्यात्मक विश्लेषण के मर्टन के ‘पैराडाइम’ की विवेचना

पैराडाइम का अर्थ

पराडाइम (Paradigm) शब्द का प्रयोग प्रतिमान, प्रतिरूप (मोडल) उदाहरण आदि के अर्थ में किया जाता है। अन्वेषण-विधा के सन्दर्भ में, किसी विशिष्ट अनुसन्धान से सम्बन्धित अवधारणाओं. प्रस्थापनाओं, अनुमानों, शोध-विधियों के योजनाबद्ध समुच्चय (Set) को पैराडाइम या वैचारिक रूपाँकन कहते हैं। पैराडाइम की अवधारणा का सामाजिक विज्ञानों में प्रयोग सवप्रथम थॉमस कुहन (1962) ने किया। उसने इसका प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया। कुहन ने पराडाइम का प्रयोग ” सार्वभौमिक रूप में मान्यता प्राप्त ऐसी वैज्ञानिक उपलब्धियों के विवेचन हेतु किया है, जो कछ समय तक अनसन्धानकर्ताओं के एक समूह के समक्ष आदर्श समस्या (प्रश्न) एवं समाधान (उत्तर) का कार्य करती है।” पैराडाइम या वैचारिक रूपांकन का मुख्य कार्य अनुसन्धान का नियोजन, संयोजन व निर्देशन करना है।

समाजशास्त्रीय साहित्य में ‘पैराडाइम की अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम रॉबर्ट के0 मर्टन द्वारा अनुसन्धान सामग्री को व्यवस्थित रूप देने और उसे क्रमबद्ध रूप में विश्लेषित करने  के निर्देशात्मक अर्थ में किया गया है। समाजशास्त्र में एक ही समय में कई पैराडाइम का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक पैराडाइम सामाजिक विश्व को देखने का एक वैकल्पिक नजरिया प्रस्तुत करता है। भिन्न पैराडाइमों का कारण सामाजिक विज्ञानों का मूलतः वैचारिक के साथ-साथ वैज्ञानिक होना है। समाजशास्त्र में मुख्य रूप से तीन प्रकार के पैराडाइमों का प्रयोग किया जाता है – रूढ़िवादी, उदारवादी एवं आमूल परिवर्तनवादी। इस पर भी समाजशास्त्र में इसके प्रयोग के बारे में अभी तक अस्पष्टता बनी हुई है। कई बार पैराडाइम का प्रयोग विभिन्न वैज्ञानिक सम्प्रदायों  के कार्यों के लिए भी कर लिया जाता है।

मर्टन के प्रकार्यात्मक विश्लेषण के पैराडाइम

वर्तमान समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के क्षेत्र में सामाजिक संरचना की अवधारणा के साथ ही ‘सामाजिक प्रकार्य की अवधारणा भी जुड़ी हुई है। आधुनिक समाजशास्त्रीय विश्लेषण वस्तुतः प्रकार्यात्मक विश्लेषण है। अमेरिकी समाजशास्त्री राबर्ट के0 मर्टन ने । प्रकार्यवाद को एक सुनिश्चित और सुपरिभाषित रूप प्रदान किया है। मर्टन ने ही सर्वप्रथम  ‘प्रकार्य’ शब्द की व्याख्या की है। उसका मत है कि ‘प्रकार्य’ (Function) शब्द का प्रयोग पाँच भिन्न अर्थों के लिए किया जाता है

1. उत्सव के रूप में,

2. व्यवसाय के अर्थ में,

3. पदासीन व्यक्ति के क्रियाकलाप के रूप में,

4. गणितशास्त्रीय अर्थ में और

5. जीवविज्ञान के अर्थ में।

मर्टन के अनुसार, “प्रकार्य वे अवलोकित परिणाम हैं, जो कि सामाजिक -व्यवस्था के अनुकूलन अथवा सामंजस्य को बढ़ाते हैं।”

मर्टन ने अपने प्रकार्यात्मक विश्लेषण में तीन अन्तर्सम्बन्धित अभिस्थापनाओं का उल्लेख किया है, जिनका प्रयोग अन्य प्रकार्यवादियों ने भी किया है। उसने इन तीन अनुमानों या मान्यताओं की उपयोगिता को चुनौती दी है-

मर्टन ने प्रथम मान्यता को समाज की प्रकार्यात्मक एकता सम्बन्धी स्वयं-सिद्ध कथन माना है, जो यह मानकर चलता है कि सामाजिक व्यवस्था का कोई भी भाग सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए प्रकार्यात्मक है। समाज के विभिन्न भाग सम्पूर्ण समाज को एकीकृत बनाये रखने की दृष्टि के कार्य करते हैं। किन्तु मर्टन का कहा है कि विशेषता आज के जटिल एवं अत्यधिक विभेदीकृत समाजों में यह प्रकार्यात्मक एकता संदिग्ध है। प्रकार्यात्मक एकता का पता अनुसन्धान के आधार पर लगाया जाना चाहिए। इसे मान्यता को प्रारम्भ से ही लेकर नहीं चलना चाहिए कि प्रकार्यात्मक एकता विद्यान है।

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मर्टन दूसरी मान्यता को सर्वव्यापी प्रकार्यवादी स्वयं-सिद्ध कथन मानते हैं, जिसके यह मानकर चला जाता है कि समस्त प्रमापीकृत सामाजिक या सांस्कृतिक स्वर हो या भागों के सकारात्मक कार्य भी होते हैं। किन्तु मर्टन का विचार है कि सामाजिक या के प्रत्येक पहलू का सकारात्मक प्रकार्य ही होता है, यह मान्यता अपरिपक्क और गलत है।  प्रकार्यात्मक विश्लेषण में यह देखना चाहिए कि समाज का कोई भी भाग कार्यात्मक है, अकार्यात्मक या गैर प्रकार्यात्मक है। इसके अलावा वे इकाइयाँ, जिनके लिए कोई विशिष्ट भाग प्रकार्यात्मक है, अकार्यात्मक है या गैर प्रकार्यात्मक है, स्पष्ट रूप से बतायी जानी चाहिए। ये इकाइयाँ व्यक्ति, समूह या सम्पूर्ण समाज हो सकती हैं। सर्वव्यापी प्रकार्यवाद के स्थान पर इस मान्यता को लेकर आगे बढ़ना चाहिए कि विभिन्न सांस्कृतिक स्वरूपों, संस्थाओं या भागों का समाज अथवा उसी विभिन्न इकाइयों की दृष्टि से शुद्ध सन्तलन प्रकार्यात्मक परिणामों के रूप में ही होता है तथा इन्हीं के कारण इन सांस्कृतिक स्वरूपों का अस्तित्व कायम रहता है।

मर्टन की तृतीय मान्यता प्रकार्यवाद की अनिवार्यता के स्वयं-सिद्ध कथन की ओर निर्देशित है, जो यह बताती है कि कुछ संस्थाएँ समाज के लिए अनिवार्य हैं, यथा – धर्म, परिवार, सामाजिक संस्तरण आदि हैं। इस अनिवार्यता का विरोध करते हुए मर्टन कहते हैं कि ऐसी प्रकार्यात्मक पूर्व-आवश्यकता की पूर्ति अनेक वैकलपिक संस्थाओं द्वारा भी सम्भव है | अतः यह मत तर्कसंगत नहीं है कि परिवार, धर्म जैसी संस्थाएं सभी मानव-समाजों का अनिवार्य अंग हैं। इस अनिवार्यता के विचार के स्थान पर मर्टन ने प्रकार्यात्मक विकल्पों की अवधारणा का सुझाव दिया है। इस दृष्टिकोण से एक राजनीतिक विचारधारा (साम्यवाद) धर्म का प्रकार्यात्मक विकल्प प्रस्तुत करती है। साम्यवाद का प्रकार्यात्मक पूर्व-आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, जिनके लिए धर्म को आवश्यक बताया जाता है।

स्पष्ट है कि मर्टन ने अपने प्रकार्यात्मक विश्लेषण में समाज को प्रकार्यात्मक एकता, सर्वव्यापी प्रकार्यवाद एवं अनिवार्यता सम्बन्धी स्वयं-सिद्ध कथनों को विश्व की वस्तु के अलावा और कुछ नहीं माना है। उनका विचार यह है कि हमें पूर्व-मान्यताएं बनाकर आगे बढ़ने के स्थान पर उनकी जांच करते हुए वास्तविकता की खोज करनी चाहिए। उन्होंने कहा है कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण हेतु मैंने जो ‘सन्दर्भ-ढाँचा’ प्रस्तुत किया है, वह इस दोष से भी मुक्त है, कि प्रकार्यवाद का आधार वैचारिक है। उनका सुझाव है कि समाज के विभिन्न भागों का विश्लेषण सम्पूर्ण समाज, व्यक्तियों और समाज के समूहों पर पड़ने वाले प्रभावों तथा परिणामों के रूप में किया जाना चाहिए। चूंकि ये प्रभाव/परिणाम प्रकार्यात्मक, अकार्यात्मक अथवा गैर-प्रकार्यात्मक हो सकते हैं, अतः इस मान्यता की, कि -सामाजिक-व्यवस्था के सभी भाग सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए प्रकार्यात्मक होते हैं, में निहित ‘मूल्य-निर्णय’ की बात दूर हो जाती है।

प्रकार्यात्मक विश्लेषण में मर्टन का योगदान

मर्टन ने प्रकार्यात्मक विश्लेषण के प्रयोग से सम्बन्धित विभिन्न प्रजातियों और स्तरों की विवेचना करते हए बताया है कि विषय-वस्तु (Data), अनुसन्धान प्रारूप (Design), तथा प्रणाली और वैधता, आदि से सम्बन्धित अनेक दोष या कमियाँ इस पद्धति में दिखाई देती है। इस दृष्टि से उसने प्रकार्यात्मक विश्लेषण में रुचि रखने वाले अध्ययनक्रताओं के मार्गदर्शन के लिए एक प्रारूप या पैराडाइम(Paradigm) की रचना की है, जो प्रकार्यात्मक विशलेषण में विषय-वस्तु, अध्ययन क्षेत्र तथा पद्धति सम्बन्धी शर्तों को ग्यारह भागों में व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया है।

मर्टन ने प्रकार्यात्मक  विश्लेषण में प्रर्काय के दो स्परूपों की व्याख्या करके मौलिक योगदान किया है। मर्टन ने प्रकार्यों को दो भागों में बाँटा है- एक प्रत्यक्ष प्रकार्य(Manifest Functions)  जो सदस्यों के द्वारा स्वीकृत और स्पष्ट रूप से प्रकट होते है और दूसरे परोक्ष (Latent) प्रकार्य, जो न तो स्वीकृत होते हैं और न वे वांछित होते हैं। प्रकार्यात्मक विश्लेषण में इन दोनों प्रकार के प्रकार्यों पर ध्यान देना चाहिए। प्रकार्यात्मक विश्लेषण में मर्टन का एक और महत्वपूर्ण योगदान अकार्य की अवधारणा का विकास है। यह स्पष्ट किया है कि सामाजिक तथ्य केवल प्रकार्यात्मक ही नहीं होते, वे अकार्यात्मक भी हो सकते है। उसने धर्म, इत्यादि विभिन्न तथ्यों के अकार्यात्मक स्वरूपों की चर्चा करके अपने विचारों को प्रमाणित किया है। अकार्य की अवधारणा के विकास से एक बहुत बड़ा लाभ यह हुआ है कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण में सामाजिक परिवर्तन के अध्ययन को स्थान प्राप्त हो गया है, क्योंकि इस अवधारणा के अभाव में इस पद्धति को केवल स्थिर तत्वों के अध्ययन तक ही सीमित समझा जाता रहा है।

उपरोक्त विवेचन के आधार पर स्पष्ट हो जाता है कि समाज के प्रकार्यात्मक विश्लषण में जितना महत्वपूर्ण योगदान मर्टन का रहा है, उतना किसी अन्य आधुनिक समाजशास्त्री का नहीं। मर्टन ने प्रकार्यात्मक विश्लेषण की अध्ययन पद्धति को नियमबद्ध किया है। प्रकार्यात्मक विश्लेषण का संहिताकरण (Codification) और प्रकार्यवाद का पुनः निरूपण किया है। मर्टन ने समाजशास्त्रीय अध्ययन विधि की एक विस्तृत रूपरेखा अर्थात् पैराडाइम भी प्रस्तुत की है।

 

 

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