डेविड ह्यूम का मानव ज्ञान और कार्य-कारण सिद्धान्त

डेविड ह्यूम का मानव ज्ञान तथा कार्य-कारण सिद्धान्त | David Hume’s Human Knowledge in Hindi

मानव ज्ञान

लॉक के समान डेविड ह्यूम के दर्शन में भी मानव ज्ञान का विशलेषण तथा वर्गीकरण सबसे प्रमुख विषय है। लॉक के अनुसार मानव ज्ञान के तीन प्रकार हैं-बाह्य प्रत्यक्ष ज्ञान (Sensitive knowledge), आन्तर प्रत्यक्ष ज्ञान (Intuitive knowledge) और परोक्ष ज्ञान (Demonstrative Knowledge)। इन तीनों पर प्रकाश डाला जा चुका है। ह्यूम के अनुसार मानव ज्ञान दो प्रकार का होता है-

१. विज्ञानों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान (Knowledge of the Relation of Ideas),

२. वस्तु जगत् का ज्ञान (Knowledge of the Matter of Fact)

गणितशास्त्र, तर्क आदि का ज्ञान प्रथम कोटि में है। यह केवल प्रत्ययात्मक ज्ञान है तथा निश्चित और असन्दिग्ध ज्ञान है। कोई भी ज्ञान जो स्वत: सिद्ध या निर्देशन द्वारा सिद्ध हो वह इस कोटि में आ सकता है। गणित तथा तर्कशास्त्र में निश्चित तथा असन्दिग्ध ज्ञान की प्राप्ति होती हैं। अतः यो दोनों शास्त्र प्रथम कोटि के ज्ञान हैं। उदाहरणार्थ, त्रिभुज की तीनों भुजाएँ मिलकर दो समकोण के बराबर होती है, दो और दो का योग चार होता है। इस कोटि का ज्ञान सार्वभौम तथा अनिवार्य होता है, क्योंकि इस कोटि का ज्ञान नहीं। ह्यूम के अनुसार यह केवल मनोवैज्ञानिक अन्वेषण है। क्योंकि इस कोटि का ज्ञान कोरी कल्पना है। वस्तु-जगत् से इनका कोई सम्बन्ध नहीं। ह्यूम के अनुसार यह केवल मनोवैज्ञानिक अन्वेषण है।

दूसरे प्रकार का ज्ञान वस्तु जगत् का ज्ञान है। यह इन्द्रियानुभव पर आश्रित होने के कारण पूर्णतः निश्चित तथा असन्दिग्ध नहीं होता। इसका कारण यह है कि इन्द्रियानुभव से हमें सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इन्द्रियों से हम केवल विशेषों का ही ज्ञान प्राप्त होता है, विशेष घटनाओं का या विशेष पदार्थों का। इन विशेष घटनाओं के आधार पर ही हम सामान्य नियमों की कल्पना कर लेते हैं। परन्तु वस्तुतः इनकी अनिवार्यता केवल एक मान्यता है। इनमें अनिवार्य केवल सम्भाव्य (Probable) है। व्यावहारिक दृष्टि से हम विज्ञानों में अनिवार्यनियमों को मान लेते हैं, इनमें काम चलाऊ अनिवार्यता अवश्य है। परन्तु इनकी अनिवार्यता केवल सम्भावित है, आवश्यक नहीं।

हम कुछ विशेष अनभवों के पर किसी वैज्ञानिक नियम को अनिवार्य तथा सार्वभौम मान लेते हैं। सम्भव है कि भविष्य में हमें इनके विपरीत अनुभव हों। अतः वैज्ञानिक नियमों की अनिवार्यता तो एक सम्भावना मात्र ही है। भौतिक शास्त्र आदि के ज्ञान इसी कोटि के ज्ञान हैं। वस्तुतः भौतिक विज्ञान के नियम अनिवार्य तथा सार्वभौम नहीं। इनमें अनिवार्यता केवल मनोवैज्ञानिक आवश्यकता है, अर्थात् अनिवार्यता कल्पना प्रसूत है वास्तविक नहीं। वस्तु जगत् का सम्पूर्ण ज्ञान कार्य-कारण नियम पर आधारित है। इसी नियम के आधार पर हम प्रत्यक्ष तथा स्मृति की परिधि को पार करते हैं।

उदाहरणार्थ, यदि हम किसी व्यक्ति से किसी अनुपस्थित विषय पर उसके विश्वास का कारण पूछे, जैसे कि उसका मित्र देश में है या विदेश में, तो वह उसका कारण अवश्य बतलायेगा तथा उसका कारण भी यथार्थपरक होगा, जैसे उसका पत्र इत्यादि। इसी प्रकार किसी निर्जन वन में किसी यन्त्र अथवा घड़ी को देखकर मानव यही सोचेगा कि अवश्य यहाँ कभी कोई रहता था या आया था। साथ ही साथ प्रत्यक्ष तथा अनुमेय पदार्थों में हम एक प्रकार का सम्बन्ध मानते हैं। यदि प्रत्यक्ष तथा अनुमान के विषयों में कोई सम्बन्ध न हो तो हमें विषम अनुभूति न होगी। उदाहरणार्थ, अँधेरे में हम एक स्पष्ट स्वर या संगीत को सुनकर वहाँ किसी मनुष्य के होने की कल्पना करते हैं। इसका कारण स्पष्ट है कि मानव स्वर तथा मानव के अस्तित्व में निकट सम्बन्ध है।

इसी प्रकार के अन्य ज्ञान भी हैं जो कार्य-कारण पर आधारित होते हैं। हम कारण से कार्य तथा कार्य से कारण (बादल से वृष्टि और वृष्टि से बादल) के आधार पर ज्ञान प्राप्त करते हैं। अग्नि तथा उष्णता में हम कार्य-कारण सम्बन्ध मानते हैं तथा एक से दूसरे का स्वाभाविक रूप से ज्ञान प्राप्त करते हैं। परन्तु कार्य-कारण नियम तो केवल विश्वास पर आधारित है, इसमें अनिवार्यता नहीं। कार्य-कारण नियम के सन्दिग्ध होने से सम्पूर्ण वस्तु जगत् में असन्दिग्ध तथा अनिवार्य ज्ञान असम्भव है। पूर्णतः निश्चित यथा प्रामाणिक ज्ञान केवल गणित और तर्कशास्त्र में ही सम्भव है।

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि कार्य-कारण जैसे सर्वमान्य सिद्धान्त को सन्दिग्ध मानने के कारण ही ह्यूम सम्पूर्ण वस्तु-जगत् के ज्ञान को सन्देहास्पद मानते हैं। कार्य-कारण नियम की अनिवार्यता तो केवल एक मान्यता है। इसे अनिवार्य रूप में सिद्ध करना असम्भव है। कोई भी व्यक्ति चाहे कितनी तार्किक क्षमता तथा योग्यता से सम्पन्न क्यों न हो, एक सर्वथा नूतन पदार्थ की सूक्ष्मता का अंश अवलोकन कर वह उसमें समस्त कारणों तथा कार्यों को बतलाने में सर्वथा असमर्थ होगा। वह व्यक्ति विषयों या घटनाओं का आनन्तर्य तो अवश्य देख सकता हैं, परन्तु इससे अधिक कार्य-कारण का निश्चय वह कदापि नहीं कर सकता। हम एक घटना के बाद दूसरी घटना का अवलोकन कर सकते हैं, परन्तु घटना के पूर्ण रूप का हमें इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त नहीं होता। अतः हम उनके आनन्तर्य को अपनी इच्छा से कार्य कारण का अनिवार्य नियम मान लेते हैं।

कार्य-कारण नियम को अनिवार्य नहीं मानने के कारण ही सम्पूर्ण वस्तु जगत् का ज्ञान भी अनिवार्य नहीं माना जाता। वस्तु-जगत् का ज्ञान तो केवल सम्भाव्य है। सत्य तथा सम्भाव्य में ह्यूम अन्तर बतलाते हैं। सत्य ज्ञान वह है जिसका विरोधी वाक्य सत्य न हो, परन्तु सम्भाव्य ज्ञान में विरोधी की सम्भावना बनी रहती है। स्त-जगत का ज्ञान केवल सम्भावित ज्ञान है। इसकी प्रामाणिकता का मापदण्ड अनिवार्यता नहीं, वरन् विश्वास है। विश्वास सत्य तथा असत्य दोनों हो सकता है। अतः विश्वास पर आधारित ज्ञान केवल सम्भावित है। घटनाओं में समानता के आधार पर केवल सम्भावित ज्ञान ही उत्पन्न हो सकता है। यह सम्भावित ज्ञान निरर्थक नहीं है।

ह्यूम का कहना है कि हमारा दैनिक जीवन इसी प्रकार के ज्ञान पर आधारित है। हम प्रकृति की दो घटनाओं में समानता का अवलोकन करते हैं। इनमें से एक को कारण तथा दूसरे को कार्य की संज्ञा प्रदान कर देते हैं। वस्तुतः इनमें अनिवार्यता नहीं, परन्तु ये निरर्थक भी नहीं। दैनिक अनुभव नहीं किया जा सकता। केवल पागल या मूर्ख ही इसे अस्वीकार कर सकते हैं। अतः वस्तु जगत का ज्ञान केवल सम्भावित है। जिस घटना का आज हम एक प्रकार से अनुभव कर रहे हैं, भविष्य में दूसरे प्रकार से अनुभव कर सकते हैं। सूर्य कल निकलेगा और कल सूर्य नहीं निकलेगा, इनमें कोई आवश्यक व्याघात नहीं। ये दोनों सम्भव हैं।

डेविड ह्यूम के अनुसार ज्ञान और विश्वास में भेद हैं। ज्ञान से ह्यूम का तात्पर्य केवल विज्ञानों के सम्बन्ध से हैं। भौतिक जगत के ज्ञान को डेविड ह्यूम विश्वास कहते हैं, इनका भेद स्पष्ट है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि ज्ञान में विरोधी वाक्य सत्य नहीं हो सकता, परन्तु विश्वास में विपरीत वाक्य भी स्वीकार किया जा सकता है। वस्तुजगत् या भौतिक जगत् का सम्पूर्ण ज्ञान वस्तुतः विश्वास है। इसी अभिप्राय से ह्यूम ज्ञान के दो प्रकार बतलाते हैं-

१. निर्देशात्मक ज्ञान (Demonstrative Reasoning)

२. नैतिक ज्ञान (Moral Reasoning)

निर्देशात्मक ज्ञान विज्ञानों के सम्बन्ध का ज्ञान है। यह पूर्णत: सत्य ज्ञान है। उदाहरणार्थ, तीन और दो का योग पाँच होता है, यह सत्य ज्ञान है। इस ज्ञान में विरोधी वाक्य नहीं हो सकता। नैतिक ज्ञान तथ्यात्मक ज्ञान है या अस्तित्व परक ज्ञान है। तथ्य तथा अस्तित्व के सम्बन्ध में हमें केवल विश्वास ही हो सकता है। क्योंकि इसमें सन्देह की मात्रा बनी रहती है। उदाहरणार्थ, सूर्य कल नहीं निकलेगा, सूर्य के निकलने में सन्देह है।

See also  दर्शन का स्वरूप क्या है? दर्शन, विज्ञान तथा धर्म में सम्बन्ध | What is Philosophy in Hindi

विश्वास सत्य तथा असत्य दोनों हो सकता है, अर्थात दोनों की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं। अतः यह ज्ञान सम्भाव्य (Probable) है। वस्तु जगत में कोई अनिवार्य ज्ञान नहीं। परम्परागत विश्वास के कारण हम अनिवार्यता की केवल कल्पना कर लेते हैं। अत: निश्चित तथा निस्सन्देह ज्ञान की प्राप्ति हमें विज्ञानों के सम्बन्ध से होती हैं।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रामाणिकता को लेकर लॉक के समान ह्यूम भी ज्ञान का स्तर बतलाते हैं। वस्तु-जगत का ज्ञान विज्ञान जगत की अपेक्षा कम प्रामाणिक है। इसी दृष्टि से ह्यूम के अनुसार गणित के वाक्य विश्लेषणात्मक (Analytic) होते हैं। विधेय केवल उद्देश्य का विश्लेषण मात्र होता है, विधेय उद्देश्य के बारे में कुछ नया ज्ञान नहीं देता। इस ज्ञान को ह्यूम “सम्बन्ध का ज्ञान’ (Knowledge of Relation) कहते हैं। यह सम्बन्ध केवल प्रत्ययों या विज्ञानों के बीच होता है। प्रत्यय या विज्ञान वास्तविक (Real) है या नहीं, यह यहाँ विचार नहीं किया जाता। ह्यूम इनकी सत्यता को निर्देशात्मक (Demonstrative) भी मानते हैं, क्योंकि विरोधी वाक्यों के अनुभव में इनकी सत्यता पूर्णतः प्रामाणिक होती है। उदाहरणार्थ २+२=४ अर्थात् दो और दो का योग चार होता है।

इस वाक्य का विधेय केवल उद्देश्य का विश्लेषण है तथा इसका विरोधी वाक्य सत्य नहीं। वैज्ञानिक जगत् की अपेक्षा वस्तुजगत का ज्ञान कम प्रामाणिक है। इनकी प्रामाणिकता गणित के समान केवल तर्क या बुद्धिगम्य नहीं, वरन् प्रत्यक्ष या अनुमानगम्य है। साथ ही साथ वस्तु-जगत् के ज्ञान का विरोधी वाक्य भी सत्य हो सकता है। उदाहरणार्थ, ‘कल सूरज नहीं निकलेगा’। इसमें कोई तार्किक विरोध नहीं। इसी कारण ह्यूम इसे सम्भावित ज्ञान मानते हैं। वस्तु-जगत् का सम्पूर्ण ज्ञान कार्य-कारण पर आधारित है। परन्तु कार्य-कारण सिद्धान्त स्वयं वस्तु-जगत् का ज्ञान होने के कारण सम्भाव्य ही हो सकता है, सत्य नहीं। यदि कारण सिद्धान्त ही सन्दिग्ध है, तो कारणमूलक सभी ज्ञान सन्दिग्ध हैं।

 

कार्य-कारण सिद्धान्त

कार्य-कारण सिद्धान्त की व्याख्या ह्यूम के दर्शन का सबसे प्रमुख विचार है तथा के अन्य विचारों का आधार भी यही है। कार्य कारण नियम अनिवार्य तथा सार्वभौम नियम माना जाता है। इसे अनिवार्य तथा सार्वभौम न मानने पर दार्शनिक, वैज्ञानिक और धार्मिक सिद्धान्तों की व्याख्या नहीं हो पाती। तात्पर्य यह है कि कार्यकारण सिद्धान्त ही अन्य सिद्धान्तों का आधार-स्तम्भ है। प्रायः सभी दार्शनिक कार्य कारण सम्बन्ध को अनिवार्य स्वीकार करते हैं। तन्तु से ही पट की उत्पत्ति होती है। मृतिका से ही घट का निर्माण होता है, अग्नि से ही दाह होता है, भोजन से ही तृप्ति होती है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार कारण और कार्य का सम्बन्ध अन्वय और व्यतिरेक से सिद्ध माना जाता है।

कारण से कार्य तथा कारण के अभाव में कार्य का अभाव स्वीकार किया जाता है। इन दोनों के सम्बन्ध को अनिवार्य तथा सार्वभौम माना जाता है। अनिवार्य कहने का तात्पर्य यह है कि एक के भाव से दूसरे का भाव तथा एक के अभाव में दूसरे का अभाव भी निश्चित है। इसमें किसी प्रकार का व्यतिक्रम नहीं उत्पन्न हो सकता, अर्थात् एक का भाव तथा दूसरे का अभाव सत्य नहीं हो सकता। इसी प्रकार सार्वभौम कहने का तात्पर्य यह है कि यह नियम सभी देश तथा सभी काल के लिए समानतः सत्य है। किसी भी देश में दाह अग्नि के बिना नहीं उत्पन्न हो सकता, तृप्ति भोजन के बिना नहीं हो सकती।

कार्य-कारण नियम को सर्वमान्य तथा मौलिक सिद्धान्त माना गया है। ह्यूम इसी मौलिक सिद्धान्त की परीक्षा करते हैं। ह्यूम का कहना है कि यदि इस मौलिक सिद्धान्त की प्रामाणिकता में सन्देह हो तो सभी वैज्ञानिक तता दार्शनिक सिद्धान्त स्वतः धराशायी हो जायेंगे। इसी दृष्टि से ह्यूम अपनी परीक्षा प्रारम्भ करते हैं। लॉक ने बतलाया कि हमारी संवेदनाओं का कारण जड़ द्रव्य है। बर्कले के अनुसार हमारी संवेदनाओं का कारण आत्म-द्रव्य है। परन्तु यहाँ प्रश्न यह है कि हम कारण से क्या समझते हैं? यदि कारण का निश्चय हो जाय तभी हम संवेदना का कारण भौतिक या आध्यात्मिक द्रव्य स्वीकार करते हैं।

अतः डेविड ह्यूम के दर्शन में द्रव्य से पूर्व कारण का निश्चय करना आवश्यक है अथवा कारण कार्य की सिद्धि से ही द्रव्य की सत्ता सिद्ध हो सकती है। प्रश्न यह है कि कारण क्या हैं? हमारा ज्ञान तो केवल इन्द्रियानुभव तक सीमित है| हम अपने अनुभव से यही जानते हैं कि दो घटनाओं में एक पहले तथा दूसरी घटना बाद में घटती है, अर्थात् पहली घटना पूर्ववर्ती है तथा बाद में घटने वाली घटना पश्चातवर्ती है। परन्तु इसमें किसी प्रकार के अनिवार्य सम्बन्ध का अनुभव हमें नहीं होता।

जब हम बाह्य पदार्थों का अवलोकन करते हैं तथा उनके कारण व्यापार पर विचार करते हैं तो हम किसी एक उदाहरण में अनिवार्य सम्बन्ध का निश्चय नहीं कर पाते। हम किसी ऐसे गुण या धर्म का पता नहीं लगा पाते जिससे कारण और कार्य एक सत्र में बँध जाते हों तथा कार्य-कारण का नियमतः पश्चात्भावी हो। हम केवल इतना ही अनुभव कर पाते हैं कि एक घटना दूसरे की। अनुवती या पश्चात्वर्ती हैं। उदाहरणार्थ, बिलियर्ड गेंद के खेल में एक की गति से। दूसरे की गति उत्पन्न होती है, अर्थात् दोनों की गति में सहचार अवश्य है। परन्तु इतना ही हमारी बाह्येन्द्रियों को अनुभव होता है। इन दोनों के पूर्वापर सम्बन्ध से मन किसी आन्तरिक सम्बन्ध की कल्पना नहीं कर सकता।

अतः किसी एक उदाहरण में हम कार्य-कारण तथा दोनों के अनिवर्य सम्बन्ध की कल्पना नहीं कर सकते। यदि कार्य-कारण में अनिवार्य सम्बन्ध है तो हमें इसकी अनिवार्यता का अनुभव होना। चाहिए परन्तु ऐसा होता नहीं। हमारी इन्द्रियों को तो केवल आनन्तर्य (एक के अनन्तर दूसरी घटना का होना) का अनुभव होता है। इनके अतिरिक्त आन्तरिक या अनिवार्य सम्बन्ध का हमें ज्ञान नहीं होता। कारण और कार्य रूप से हमें दो घटनाओं का पृथक्-पृथक् अनुभव तो अवश्य होता है, परन्तु इन दोनों के मध्य किसी अनिवार्य सम्बन्ध का अनुभव हमें नहीं होता।

प्रश्न यह है कि घटनाओं में आनन्तर्य सम्बन्ध को हम अनिवार्य सम्बन्ध क्यों समझ लेते हैं? इसका उत्तर यह है कि दो सम्बन्धियों में एक के ज्ञान से दूसरे का अनुमान कर लेते हैं। इस अनुमान का आधार हमारा पूर्वानुभव है तथा हमारा स्वभाव है। यदि दो घटनाओं को एक साथ हम कई बार घटित होते देखें तो भविष्य में एक को देखकर दूसरे का हम स्वाभावतः अनुमान कर लेते हैं। परन्तु इस अनुमान में कोई अनिवार्यता नहीं।

हम दस बार सेव को धरती पर गिरते देखते हैं, इससे हम एक सामान्य नियम की स्थापना करते हैं कि कोई भी पदार्थ ऊपर से छोड़ने पर ऊपर की अपेक्षा नीचे की ओर आएगा| पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है, इसी शक्ति के कारण पृथ्वी सभी चीजों को अपनी ओर खींचती हैं तथा ऊपर जाने से रोकती है। पहले हमने कई बार ऐसा अनुभव किया है, अत: मैं इसे सामान्य तथा अनिवार्य नियम मान लेता हूँ| भविष्य में जब भी कोई चीज ऊपर से फेंकी जाएगी तो वह नीचे ही आएगी। इसी प्रकार हम अन्य दो घटनाओं में भी कार्य-कारण सम्बन्ध की कल्पना कर लेते हैं।

उदाहरणार्थ, दो चार बार आग में हाथ जल जाने पर हम अग्नि तथा दाह में कार्य-कारण मान लेते हैं। इसी प्रकार पानी तथा प्यास में भोजन प्ति में, बादल तथा वृष्टि में कार्य-कारण सम्बन्ध मान लेते हैं। इसी मान्यता के आधार पर हम कहते हैं कि भविष्य भूत के समान होगा, समान कारणों का सन कार्य होगा। परन्तु यह मान्यता तो केवल मनोवैज्ञानिक (Psychological) है। हम दो गेंदों में टकराने का अनुभव तो करते हैं परन्तु दोनों की गति में सहचार मान लेते हैं। हम दो घटनाओं का पृथक्-पृथक् अनुभव तो करते हैं, जैसे आग और हाथ जलने का परन्तु अग्नि में दाह शक्ति का अनुमान कर लेते हैं। यह अनुमान इन्द्रियानुभव से परे है।

See also  कार्ल मार्क्स की आर्थिक विकास सिद्धांत | मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत क्या है?

इन्द्रियों से हमें कार्य और कारण का अलग-अलग अनुभव होता है। हम केवल यह अनुभव करते हैं कि एक घटना दूसरे के बाद घटती हैं, जैसे अग्नि और दाह, शीत और बर्फ, दो गेंदों के टकराने पर एक की गति से दूसरे में पति की उत्पत्ति। इस प्रकार की घटनाओं में हम केवल आनन्तर्य सम्बन्ध देखते हैं तथा इस आनन्तर्य के आधार पर अनिवार्य सम्बन्ध की कल्पना कर लेते हैं। अनिवार्य सम्बन्ध मान लेने से हम एक को नियत पूर्ववर्ती कारण तथा दूसरे को नियत पश्चात्वर्ती कार्य की संज्ञा देते हैं। हम आनन्तर्य का अनुभव करते हैं।

जब आनन्तर्य की बारम्बार आवृत्ति होती है तो हमें अभ्यास बन जाता है और इसी अभ्यास के कारण हम कारण-कार्य का अनिवार्य सम्बन्ध मान लेते हैं। इस प्रकार इनकी अनिवार्यता तो केवल मानसिक या मनोवैज्ञानिक है। अत: ह्यूम स्पष्टतः कहते हैं कि दो घटनाओं में अनिवार्य सम्बन्ध तो केवल अभ्यास पर निर्भर हैं, अभ्यास भी आवृत्ति पर तथा आवृत्ति का आधार आनन्तर्य है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि ह्यूम कार्य-कारण सम्बन्ध पर दो दृष्टि से विचार करते हैं तार्किक (Logical) तथा मनोवैज्ञानिक (Psychological) तार्किक दृष्टि से राम का कहना है कि जब हम दो घटनाओं को बिना अपवाद के एक साथ घटते हुए देखते हैं तो पहले को कारण तथा दूसरे को कार्य मान लेते हैं। उदाहरणार्थ, क और ख में क घटना सर्वदा ख के पहले घटती है तथा ख बाद में तो हम क को ख का कारण तथा ख को क का कार्य मान लेते हैं। भूतकाल में हमने सर्वदा दो घटनाओं को एक साथ घटते देखा है तो भविष्य में भी उनके साथ घटने को हम स्वीकार कर लेते हैं।

इसका आधार क्या है? भविष्य भूत के समान ही होगा, इसमें प्रमाण क्या है? इसका उत्तर यह है कि हम प्रकृति समरूपता में विश्वास करते हैं। दो वस्तुएँ आज साथ दीखीं हैं और युगों से दीखती हैं, तो भविष्य में भी साथ-साथ रहेंगी। परन्तु यहाँ प्रश्न यह है कि प्रकृति समरूपता नियम में प्रमाण क्या हैं? हम अनुभव के आधार पर यह प्रमाणित नहीं कर सकते कि, प्रकृति सभी काल तथा स्थान में एक समान व्यवहार करेगी, अर्थात् प्रकृति में भिन्नता या विषमता हो सकती हैं,घटनाओं का क्रम बदल सकता है।

कल बादलों से वृष्टि हुई थी, परन्तु आज बादलों के रहने पर भी वृष्टि नहीं हो सकती। कई बार आग में हाथ डालने पर हाथ जल गया है, परन्तु आज नहीं भी जल सकता है। अतः प्रकृति की एकरूपता तो अनुभव के परे है, सन्दिग्ध है। अतः यह सिद्ध है कि कार्य-कारण नियम सार्वभौम तथा अनिवार्य नहीं हो सकता।

ह्यूम के अनुसार कार्य कारण की व्याख्या मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सम्भव है। हम जब दो घटनाओं में देशगत, कालगत सामीप्य (Contiguity in time and space) और आनन्तर्य (Succession) देखते हैं तो स्वभावतः उन दोनों घटनाओं के बीच अपने मन में साहचर्य सम्बन्ध (Association) स्थापित कर लेते हैं। उदाहरणार्थ, कई बार हमने अग्नि और दाह को एक साथ देखा। इससे इन दोनों के बीच हमारे मन में स्वभावतः एक साहचर्य की कल्पना बन जाती है।

अत: घटनाओं में वस्तुतः आनन्तर्य है; परन्तु हम अभ्यास या आदत के कारण दोनों में साहचर्य सम्बन्ध मान लेते हैं। इस प्रकार दो घटनाओं में अनिवार्यता का कारण हमारा मानसिक पक्षपात है। कारण-कार्य कहीं जाने वाली दो घटनाओं को सर्वदा एक साथ देखकर हमारा एक अभ्यास (आदत) बन जाता है। इसी आदत के कारण हम कल्पना करते हैं कि घटनाओं में कोई अनिवार्य सम्बन्ध है; परन्तु इस अनिवार्यता के अनुमान का वस्तुतः कारण तो केवल मानसिक आदत है। हम अपनी मानसिक आदत या अभ्यास के सारण ही कारण से कार्य तथा कार्य से कारण का अनुमान करते हैं।

इस प्रकार ह्यूम कार्य-कारण को अनिवार्य नहीं, सम्भाव्य (Probable)मानते हैं। अनिवार्य का ज्ञान न तो हमें अनुभव से प्राप्त होता है और न बुद्धि से ही हमारा अनुभव तो विशेषों तक ही सीमित है, परन्तु अनिवार्य सम्बन्ध तो सामान्य तथा सार्वभौम होना चाहिये। विशेषों से हम सामान्य का अनुभव करते हैं, परन्तु इस अनुमान का आधार तो केवल सम्भावना है। भविष्य की सभी घटनाएँ भूत के समान दी हों, यह केवल सम्भावना है। इस प्रकार अनुभव से अनिवार्य सम्बन्ध का ज्ञान सम्भव नहीं हो सकता। इसी प्रकार अनिवार्यता का ज्ञान बुद्धि से भी सम्भव नहीं।

बुद्धि संवेदन तथा विज्ञान का केवल संयोग, वियोग करती है। जो संवेदना तथा विज्ञान से परे है, वहाँ बुद्धि की गति नहीं। इस प्रकार संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कारण और कार्य में कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं, कारण में कोई ऐसी शक्ति नहीं जिससे कार्य की उत्पत्ति हो ही। अनिवार्यता बाह्य-वस्तु या घटना में नहीं, हमारे मन में है। घटनाओं में साहचर्य-प्रत्यय का जन्म पुनरावृत्ति के कारण होता है तथा हम स्वभाव से इन्हें अनिवार्य मान लेते हैं। इनकी अनिवार्यता तार्किक (Logical) नहीं वरन् मानसिक है। संक्षेप में ह्यूम के अनुसार कारण कार्य सिद्धान्त का सारांश यों है-

१. हमारा ज्ञान केवल विशेष घटनाओं तक सीमित है। हमें दो घटना का जिन्हें कारण और कार्य कहा जाता है, अलग-अलग अनुभव होता है। अतः एक को देखकर दूसरे का अनुमान हम नहीं कर सकते।

२. यदि हम दोनों घटनाओं, जिन्हें कारण और कार्य कहते हैं, एक साथ अनुभव करें भी तो उनमें केवल देशगत तथा कालगत आनन्तर्य हो सकता है, अनिवार्यता नहीं।

३. दो घटनाओं का एक साथ अनुभव होने पर भी हम एक (कारण) के आधार पर दूसरे (कार्य) का अनुमान नहीं कर सकते; क्योंकि दोनों में कोई नियत साहचर्य नहीं| इनका साहचर्य तो केवल सम्भावित है, अनिवार्य नहीं। यह आवश्यक नहीं कि भविष्य भूत के समान ही हो।

४. इस सम्भावित अनुमान का आधार केवल घटनाओं की पुनरावृत्ति है। पुनरावृत्ति के कारण ही हममें अनिवार्यता की भ्रान्ति उत्पन्न होती है।

५. अतः तथाकथित अनिवार्यता वस्तुगत नहीं आत्मगत है, वास्तविक नहीं वरन मानसिक है। घटनाओं के अनिवार्य सम्बन्ध की कल्पना करने की हमें आदत-सी बन गयी है।

 

 

 

आप को यह भी पसन्द आयेगा-

Disclaimer -- Hindiguider.com does not own this book, PDF Materials, Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet or created by HindiGuider.com. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: [email protected]

Leave a Reply