जॉन लॉक (John Locke)[सन् १६३२ ई. से सन् १७०४ ई.]
जॉन लॉक का जन्म सोमरसेटशायर (इंग्लैण्ड) के एक प्यूरिटन परिवार में हुआ था। इनके पिता वकील थे तथा प्यूरिटन सिद्धान्तों के प्रबल पक्षपाती थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा वेस्टमिन्स्टर स्कूल में हुई। तदनन्तर इन्होंने क्राइस्ट कालेज, ऑक्सफोर्ड में अध्ययन किया। १६५६ ई. में एम. ए. की परीक्षा पास कर ये ऑक्सफोर्ड में ग्रीक भाषा के प्राध्यापक बने। १६६४ ई. में नैतिक दर्शन के सेन्सर नियुक्त किये गए। ऑक्सफोर्ड में इन्होंने पदार्थ विज्ञान, रसायन विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान आदि अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। लॉक शेफट्सबरी परिवार से बड़े। घनिष्ठ थे। यह उन दिनों विख्यात परिवार था।
इस परिवार के सम्पर्क ने जॉन लॉक के जीवन में एक नया मोड दिया। लार्ड एशले (अर्ल ऑफ शेफट्सबरी) को बीमारी से मुक्त करने के कारण लॉक उनके मित्र बन गए। इस मित्रता के कारण लॉक को राजनीति में आकर्षण हुआ। ये अर्ल ऑफ शेफट्सबरी के सेक्रेटरी नियुक्त किये गए तथा उनके निर्वास काल में उन्हीं के साथ हालैण्ड गए। पाँच वर्षों तक हालैण्ड में ही रहे। १६८८ ई. में क्रान्ति के बाद जेम्स द्वितीय गद्दी से उतारे गए, तब जॉन लॉक इंग्लैण्ड लौटे। १६९६ ई. में ये कमिश्नर नियुक्त किये गए तथा अनेक राजनीतिक पदों पर भी सेवा करते रहे। अपने जीवन के अन्तिम समय में ये मेशम परिवार के सम्पर्क में आए। इस परिवार का उनके व्यक्तित्व के विकास में बहुत ही योगदान रहा।
जॉन लॉक राजनीति और दर्शन दोनों के धुरन्धर पण्डित थे, अतः दोनों शास्त्रों में उनकी महत्त्वपूर्ण देन है। इनकी दार्शनिक कृतियों में Essay Concerning Human Understanding अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस पुस्तक में लॉक ने ज्ञान की उत्पत्ति तथा सीमा पर विचार किया है तथा ज्ञान और विश्वास में भेद स्पष्ट किया है। इस पुस्तक के चार भाग हैं। प्रथम भाग में जन्मजात ज्ञान का निषेध किया गया है। दूसरे भाग में अनुभव को ज्ञानोत्पत्ति का साधन माना गया है। तीसरे भाग में भाषा पर विचार किया गया है तथा चौथे भाग में मानव ज्ञान की सीमा का दिग्दर्शन है।
राजनीति शास्त्र पर लॉक की दो महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। जिनमें प्रथम है ट्रिटाइज ऑफ सिविल गवर्नमेन्ट (Treatise of civil government) तथा द्वितीय है ए लेटर कनसनिंग टालरेशन (A letter concerning toleration) | इन दोनों ग्रन्थों से उनके राजनैतिक विचारों का पर्याप्त परिचय मिलता है। इनके अतिरिक्त लॉक की कृतियाँ हैं- सम थॉट्स कन्सर्निग एजुकेशन (Some thoughts concerning education), द रिजनेबलनेस ऑफ क्रिश्चिऐनिटी (The reasonableness of christianity) तथा एपिस्टल ऑन टॉलरेन्स (Epistle on Tolerance)|
जॉन लॉक अनुभववाद के पिता माने जाते हैं, क्योंकि सर्वप्रथम इन्होंने बुद्धिवाद की मान्यताओं का निषेध कर अनुभववाद की नयी नींव डाली। लॉक वैज्ञानिक थे और विज्ञान के महत्व को दर्शन के क्षेत्र में स्पष्टतः इन्होंने ही स्वीकार किया। उस समय के महान् रासायनिक बॉयल (Boyle) लॉक के महान् मित्र थे। सिडेनहम (Sydenham) नामक चिकित्साशास्त्री से भी लॉक प्रभावित थे तथा न्यूटन (Newton) के गणित के सिद्धान्त में भी इनकी रुचि थी।
इन सभी वैज्ञानिकों के प्रभाव का फल यह हुआ कि जॉन लॉक ने परम्परा को ध्वस्त कर एक नयी दिशा की ओर इंगित किया। इनके नये विचारों का इनकी सभी कृतियों में पर्याप्त समावेश है। लॉक का उद्देश्य केवल प्राचीन परम्परा का निषेध ही नहीं, वरन नयी परम्परा को जन्म देना भी है। इसी कारण लॉक की कृतियों में ध्वंस तथा निर्माण के लक्षण एक साथ दिखलायी पड़ते हैं।
जॉन लॉक वस्तुतः अनुभववाद के पिता थे। हॉब्स (Hobbes) और बेकन (Bacon) ने भी अनुभव के प्राधान्य को माना है, परन्तु सुव्यवस्थित अनुभववादी विचारों के जन्मदाता लॉक ही थे। लॉक ने बुद्धिवाद की सभी मान्यताओं का तार्किक निराकरण कर बड़े ही युक्तिपूर्ण ढंग से अनुभववाद का समर्थन किया है। इसीलिये उन्हें अनुभववाद का जन्मदाता कहते है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि लॉक के अनुभववाद के अनुसार हमारा समस्त ज्ञान अनुभवजन्य है। बाह्य जगत् का ज्ञान हमें बाह्य इन्द्रियों से होता है और आन्तरिक जगत का आन्तर्निरीक्षण (Introspection) से होता है। अतः इन्द्रियों के बिना हमें ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, अर्थात् ज्ञान इन्द्रिय सापेक्ष है। उच्च से उच्च विचार भी अनुभव जन्य है।
ज्ञान-सिद्धान्त(Theory of Knowledge)
जॉन लॉक के दार्शनिक विचारों का श्रीगणेश उनके ज्ञान-सिद्धान्त से होता है। यहाँ देकार्त, स्पिनोजा आदि सभी दार्शनिकों से जॉन लॉक का भेद स्पष्ट है। लॉक के पूर्व दार्शनिकों ने द्रव्य की मीमांसा को प्रधान माना है। इसी कारण वे द्रव्य-विचार प्रारम्भ करते हैं। लॉक ज्ञान-मीमांसा को सभी दार्शनिक विचारों की आधार-शिला बतलाते हैं, इसी कारण उनके विचारों में ज्ञान-मीमांसा का प्राधान्य है तथा इसी प्राथमिकता है। इसका कारण यह है कि लॉक बेकन के समान दर्शन का उद्देश संसार में यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति मानते हैं।
संसार की यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के पूर्व हर ज्ञान के स्रोत बद्धि पर विचार करना अनिवार्य है। तात्पर्य यह है कि सर्व-प्रथम हमें यह देखना चाहिये कि हमारी बुद्धि किन-किन विषयों को जान सकती है तथा किन-किन विषयों को नहीं जान सकती, अर्थात् बुद्धि की क्षमता या योग्यता की जाँच होनी चाहिए। इसी कारण लॉक मानव-बुद्धि की परीक्षा से प्रारम्भ करते हैं। लॉक इसके महत्त्व बतलाते हए स्वयं कहते हैं कि बुद्धि मीमांसा अत्यन्त उपयोगी है। मनुष्य बौद्धिक प्राणी है, बुद्धि ही अन्य प्राणियों की अपेक्षा मानव की विशेषता है।
जिस प्रकार हम आँखों से सब कुछ देखते हैं, पर आँखों को नहीं देखते उसी प्रकार हम बुद्धि से सब कुछ जानते हैं, पर बुद्धि को नहीं जानते। इससे जानने के लिये कला और कष्ट की आवश्यकता है जिससे बुद्धि स्वयं अपनी परीक्षा का विषय बन सके। ज्ञान या बुद्धि सम्बन्धी लॉक के अनुसार तीन समस्याएँ हैं-
१. ज्ञान का स्रोत-ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है?
२. ज्ञान की प्रामाणिकता-ज्ञान में निश्चयात्मकता कैसे आती है?
३. ज्ञान की सीमा–ज्ञान की क्षमता कहाँ तक है?
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि ज्ञान-मीमांसा से लॉक का तात्पर्य ज्ञान की उत्पत्ति तथा ज्ञान के प्रामाण्य से है। इन दोनों के आधार पर लॉक ज्ञान के स्वरूप का निश्चय करते हैं। पुनः वे ज्ञान के प्रकार पर भी पर्याप्त विचार करते हैं। विश्वास (Belie), धारणा (Opinion) तथा स्वीकृति (Assent) आदि में क्या भेद है। इन सभी प्रश्नों पर लॉक के मानवीय बुद्धि पर निबन्ध (Essay concerning human understanding) नामक पुस्तक में पर्याप्त विचार किया गया है। यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि लॉक किस पद्धति (Method) से इन प्रश्नों पर विचार करते हैं। लॉक के अपने शब्दों में उनकी पद्धति ऐतिहासिक सरल पद्धति (Historical plain method) है। इस पद्धति के लॉक तीन लक्षण बतलाते हैं-
१. मैं सर्वप्रथम उन मौलिक विचारों की परीक्षा करूँगा जो मानव मस्तिष्क में विद्यमान हैं, अर्थात् जन्मजात-प्रत्ययों की परीक्षा।
२. मैं उन जन्मजात-प्रत्ययों की प्रामाणिकता की परीक्षा करूँगा।
३. मैं विश्वास तथा धारणा की जाँच करूँगा।
जॉन लॉक के ज्ञान-सिद्धान्त के दो पक्ष है-खण्डन पक्ष तथा मण्डन पक्षा खण्डन पक्ष के द्वारा लॉक जन्मजात ज्ञान का खण्डन कहते हैं। उनके अनुसार हमारे मन में किसी एसे विचार की सत्ता नहीं जो जन्म से विद्यमान हो, अर्थात ज्ञान जन्मजात नही या कोई प्रत्यय या धारणा जन्मजात नहीं। मण्डन पक्ष के द्वारा लॉक यह सिद्ध करते हैं कि हमारा समस्त ज्ञान अनुभवजन्य है। ज्ञान की उत्पत्ति अनुभव से होती है। तथा ज्ञान की प्रामाणिकता भी अनुभव पर ही आश्रित है। इस प्रकार लॉक बुद्धिवाद का खण्डन तथा अनुभववाद का समर्थन करते है।
जन्मजात-प्रत्ययों (Innate ideas) का खण्डन- बुद्धिवादी दार्शनिक ज्ञान का स्वरूप सार्वभौम तथा अनिवार्य मानते हैं। ऐसा ज्ञान हमें इन्द्रियानुभव से प्राप्त नहीं हो सकता, अत: ऐसे ज्ञान को जन्मजात (Innate) कहना चाहिये, क्योंकि यह जन्म से ही मानव मस्तिष्क में विद्यमान रहता है या इसकी उत्पत्ति अनुभव से नहीं। लॉक जन्मजात प्रत्ययों के खण्डन के लिए निम्नलिखित तर्क देते हैं-
१. बुद्धिवादी दार्शनिक सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान को जन्मजात मानते हैं। लॉक के अनुसार ऐसा कोई दार्शनिक या व्यावहारिक सिद्धान्त नहीं जिसे सारे विश्व के लोग स्वीकार करते हों। यदि सारा विश्व किसी एक विचार से सहमत हो तो उसे सार्वभौम माना जा सकता है, परन्तु सार्वभौम होने से यह विचार जन्म-जात नहीं। मनुष्य किसी दूसरे कारणवश भी एकमत हो सकता है।
२. कुछ लोग कहते हैं कि जन्मजात प्रत्यय हममें जन्म से विद्यमान रहते हैं, परन्तु हमें सर्वदा उनकी प्रतीति नहीं होती, क्योंकि वे प्रत्यय अचेतन मस्ति रहते है। लॉक का कहना है कि वस्तु का होना एवं उसी प्रतीति का न होना असम्भव है। तात्पर्य यह है कि यदि जन्मजात प्रत्यय रहते तो उनकी प्रतीति अवश्य होने का अर्थ ही प्रतीयमान होना है। अत: अप्रतीयमान अस्तित्व तो विरोधसूचक है।
३. यदि कोई सार्वभौम अनिवार्य ज्ञान है तो उसकी सत्ता सबमें होनी चालित पागल, मूर्ख आदि सबमें वह ज्ञान विद्यमान होना चाहिये। पागल, मूर्ख, बालक किसी भी सार्वभौम नियम का पता नहीं। यदि कोई कहे कि सार्वभौम ज्ञान उनमें भी है, पर चेतनरूप से नहीं तो यह कहना व्यर्थ है, क्योंकि ज्ञान का अर्थ ही चेतना है। अचेतन ज्ञान की सत्ता नहीं स्वीकार की जा सकती। कोई भी बच्चा जन्म से यह नहीं जानता कि ३+४=७, वरन् वह एक से सात तक गिनती सीख कर ही जानता है कि तीन और चार का योग सात होगा। कुछ मूर्ख गिनती भी नहीं जानते।
४. बुद्धिवादी दार्शनिकों का कहना है कि तादात्म्य का नियम (Law of Identity) तथा विरोध का नियम (Law of Contradiction) आदि मौखिक जन्मजात प्रत्यय हैं। लॉक का कहना है कि किसी व्यक्ति को इन नियमों का पता बिना सीखे लग सकता। यदि ये नियम जन्मजात होते तो बच्चे, मूर्ख, जंगली, असभ्य आदि सभी इसे जानते।
५. कुछ लोगों का कहना है कि नैतिक नियम (Moral principles) जन्मजात हैं, क्योंकि नैतिक नियम सभी देश तथा समाज में समान हैं। उदाहरणार्थ, न्याय (Justice) की धारणा सभी मनुष्यों में है। लॉक का कहना है कि ऐसा कोई भी नैतिक नियम नहीं जिसे सारे संसार के लोग स्वीकार करते हों। प्रत्येक समाज के लिये आचार के नियम अपने देश तथा परिस्थिति के अनुसार होते हैं। सार्वभौम तथा सार्वकालिक नियम असम्भव है। एक समाज का आचार-नियम दूसरे समाज को मान्य नहीं। न्याय आदि के सिद्धान्त को अधिकतर लोग स्वीकार करते हैं, इसलिये नहीं कि वह जन्मजात है, वरन् वह हितकर है। हित या भलाई की धारणा भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है। अत: न्याय आदि नैतिक सिद्धान्त भी अलग-अलग हैं।
६. कुछ लोग ईश्वर-प्रत्यय (Idea of God) को जन्मजात मानते है। लोक का कहना है कि संसार में बहुत सी जातियों है जिन्हें ईश्वर का ज्ञान तक नहीं। पुनः यदि ईश्वर का प्रत्यय जन्मजात होता तो नास्तिक क्यों होते? यदि सभी में ईश्वर-विचार समान होता तो ईश्वर को लेकर इतना विवाद क्यों उत्पन्न होता तथा ईश्वर के नाम पर इतना रक्तपात क्यों होता? अतः ईश्वर प्रत्यय भी जन्मजात नहीं।
७. कुछ लोगों का कहना है कि जन्मजात ज्ञान तो हममें जन्म से ही विद्यमान रहते हैं, परन्तु बुद्धि विकसित हो जाने पर हमें उन्हें पहचानते है। लॉक का कहना है कि यह सन्तोषजनक उत्तर नहीं। यदि बुद्धि के विकसित होने पर हम उन्हें पहचानते है तो केवल जन्मजात-प्रत्ययों की क्षमता (Capacities) ही जन्म से समय हो सकती है, जन्मजात-प्रत्यय नहीं। यदि हम किसी नवजात शिशु का अध्ययन करें तो कुछ अस्पष्ट रूप से भूख, प्यास आदि के विचार भले ही उसमें विद्यमान हो, परन्तु वस्तुतः कोई स्पष्ट रूप से जन्जात ज्ञान हम नहीं प्राप्त कर सकते। इससे सिद्ध है कि जन्मजात ज्ञान नहीं है।
इस प्रकार लॉक जन्मजात प्रत्ययों का खण्डन करते हैं। लॉक के अनुसार सार्वभौम तथा अनिवार्य सत्य जन्मजात नहीं, तादात्म्य का नियम तथा व्याघात का नियम जन्मजात नहीं, नैतिक नियम जन्मजात नहीं, ईश्वर-प्रत्यय जन्मजात नहीं, द्रव्य-विचार जन्मजात नहीं, गणित के सिद्धान्त जन्मजात नहीं। संक्षेप में, कोई भी सत्य जन्मजात नहीं। इस प्रकार देकार्त, स्पिनोजा तथा लाइबनिट्ज की मान्यता का लॉक खण्डन करते हैं। लॉक अनुभववाद का समर्थन करते है। उनके अनुसार हमारे समस्त ज्ञान का स्रोत अनुभव है।
जन्म के समय हमारा मन कोरे कागज, अन्धेरे कमरे, साफ स्लेट के समान रहता है। इस पर कुछ भी अङ्कित नहीं रहता। ज्ञान की किरणों के द्वारा ही यह अन्धेरा कमरा आलोकित होता है। ज्ञान की रश्मियाँ जिन वातायन (Window) से भीतर प्रवेश करती हैं उन्हें संवेदना (Sensation) तथा स्वसंवेदना (Reflection) कहते हैं। संवेदना से बाह्य जगत् का ज्ञान प्राप्त होता है तथा स्वसंवेदना से हमें आन्तरिक जगत् की अनुभूति होती है। अतः ज्ञान प्राप्ति के ये ही दो द्वार है।
ज्ञान के विश्लेषण से हमें पता चलता है कि हममें जो कुछ भी ज्ञान है वह दो प्रकार का है बाह्य तथा आन्तरिका बाह्य विषयों का ज्ञान हमें पन्चज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होता है, जैसे आँख से रूप का, घ्राण से गन्ध का, कान से शब्द का, त्वचा से स्पर्श का तथा रसना से स्वाद का। ये सभी ज्ञान बाह्य विषय जन्य है। यदि बाह्य विषय न हों तो हमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि का ज्ञान नहीं होगा। उदाहरणार्थ, हमारे सम्मुख एक फूल है, इसके रूप, रस गन्ध, स्पर्श आदि की अनुभूति हमें इन्द्रियों द्वारा होती है। इसे लॉक संवेदना (Sensation) कहते है।
बाह्य विषयों से उत्पन्न तथा ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त चेतना को ही लॉक संवेदन ज्ञान कहते हैं। दूसरे प्रकार का ज्ञान स्वसंवेदन (Reflection) है। यह आन्तरिक जगत् का ज्ञान है। अतः इसे अन्त निरीक्षण (Introspection) कहते हैं। उदाहरणार्थ, मन में हमें सुख दुःख की अनुभूति होती है। अतः जिस प्रकार संवेदन ज्ञान का साधन पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ हैं; उसी प्रकार स्वसंवेदन-ज्ञान का साधन पञ्च ज्ञानेन्द्रियों हैं, उसी प्रकार स्वसंवेदन-ज्ञान का साधन मन है। सुख-दुःख का अनुभव आन्तरिक प्रत्यक्ष है।
अतः स्वसंवेदन वह ज्ञान है जिससे मानसिक जगत् की चेतना प्राप्त होती है। विश्व का सारा ज्ञान या तो बाह्य विषयों से उत्पन्न हो या मनः प्रसूत है। बाह्य और आन्तरिक के अतिरिक्त और कोई ज्ञान नहीं। इसी कारण लॉक कहते हैं कि बुद्धि तो बिल्कुल कोरे कागज के समान है, इस पर जन्म के समय कुछ भी अंकित नहीं रहता। हमारा दैनिक अनुभव ही इन अक्षरों को अंकित करता है। अतः अनुभव ही ज्ञान का जनक है, संवेदन तथा स्वसंवेदन ही दो वातायन हैं तथा बाह्य और मानस ही ज्ञान का स्वरूप है।
संवेदना तथा स्वसंवेदना ही ज्ञान के प्रवेश-द्वार है। परन्तु इन दोनों में क्या भेद है? लॉक के अनुसार संवेदन-द्वार पहले खुलता है तथा स्वसंवेदन बाद में , अर्थात् क्रम से संवेदन पहले है और स्वसंवेदन-संवेदन-सापेक्ष है। इसका कारण बतलाते हुए लॉक कहते हैं कि स्वसंवेदन में हमें ध्यान (Attention) की आवश्यकता पड़ती है, परन्तु संवेदना में नहीं। तात्पर्य यह है कि ध्यानस्थ हुए बिना हमें सुख-दुःख की अनुभूति नहीं हो सकती, परन्तु बाह्य गन्ध की संवेदना हमें इसके बिना भी हो सकती है।
कोई बालक पहले गन्ध का अनुभव करता है, परन्तु बाद में ध्यान देने पर उसे सुख की अनुभूति होती है। अतः संवेदन सापेक्ष है| यहाँ देकार्त तथा लॉक का स्पष्ट विरोध है। देकार्त चेतन को प्रधान तथा अचेतन को गौण मानते हैं, क्योंकि चेतन तत्व (आत्मा) का स्पष्ट अनुभव होता है। लॉक चेतन तथा अचेतन द्रव्य के स्थान पर स्वसंवेदन तथा संवेदन ज्ञान मानते हैं तथा यह बतलाते हैं कि संवेदन-ज्ञान पहले है और स्वसंवेदन संवेदन-सापेक्ष है। संवेदन के बिना हमें स्वसंवेदन ज्ञान नहीं हो सकता। आत्म-ज्ञान शरीर सापेक्ष है।
प्रत्यय (Ideas)
लॉक के अनुसार ज्ञान प्रत्ययों से बनता है। प्रत्यय दो प्रकार के है सरल (Simple) और मिश्रित (Mixed)। सरल प्रत्यय बाह्य या आन्तरिक प्रत्यक्ष से जन्य प्रथम प्रत्यय हैं। ये सरल इसलिये कहे जाते हैं कि ये बाह्य या आन्तरिक विषय से सद्य: जन्य होते हैं तथा इनमें किसी प्रकार का मिश्रण नहीं रहता। इसके विपरीत मिश्र प्रत्यय सरल प्रत्ययों के योग से बनते हैं। अतः इन्हें मिश्र (Compound) कहते है। हमारी बुद्धि सरल प्रत्ययों को सर्वप्रथम ग्रहण करती है, उनका विश्लेषण करती है तथा साम्य और वैषम्य के आधार पर उन्हें भिन्न-भिन्न रूप प्रदान करती है। इस प्रकार सरल प्रत्यय ही मिश्र प्रत्यय के उपकरण हैं। सरल तथा मिश्र प्रत्यय में निम्न लिखित भेद हैं-
१. सरल प्रत्ययों के ग्रहण करने में हमारी बुद्धि निष्क्रिय रहती है तथा मिश्र प्रत्ययों में सक्रिय है।
२. सरल एक ही प्रकार की इन्द्रियानुभूति है। इस प्रत्यय के चार प्रकार माने गए हैं।
(क) एक बाह्येन्द्रिय से प्राप्त होने वाले प्रत्यय; जैसे रूप, रस,गन्ध, स्पर्श इत्यादि।
(ख) एक से अधिक बाह्येन्द्रियों से प्राप्त होने वाले, जैसे विस्तार, आकृति, गति इत्यादि।
(ग) अन्तःकरण के स्वसंवेदन से प्राप्त होने वाले, जैसे चिन्तन, मनन, संकल्प, सन्देह, स्मृति आदि
(घ) बाह्येन्द्रिय तथा अन्तरिन्द्रिय (मन) के संवेदन से प्राप्त होने वाले; जैसे सुख, दुःख, सत्ता, शक्ति, एकता आदि।
मिश्र प्रत्यय(Mixed Ideas)
हम पहले विचार कर आए हैं कि मिश्र प्रत्यय सरल प्रत्ययों के योग-से बनते हैं। सरल प्रत्ययों के निर्माण में हमारी बुद्धि निष्क्रिय होती है, क्योंकि यह वादा वस्तुओं से जन्य संवेदनाओं को ज्यों का त्यो ग्रहण करती है। इससे हमारा मन सक्रिय हो जाता है। बाह्य वस्तु से जन्य संवेदनाएँ सरल प्रत्यय के रूप में हमारी बुद्धि पर अंकित होती है तथा इन्हीं सरल प्रत्ययों की अपनी क्रिया से मित्र प्रत्ययों में बदल देती है। मिश्र प्रत्ययों के निर्माण में निम्नलिखित छ: अवस्थाओं का वर्णन किया गया है-
१. सरल प्रत्ययों का ग्रहण (Perception)- सरल प्रत्यय संवेदना तथा स्वसंवेदना के द्वारा ही बुद्धि को प्राप्त होते है। बुद्धि निष्क्रिय होकर इन्हें यथावत ग्रहण करती है।
२. सरल प्रत्ययों का धारण (Retention)- प्रत्ययों का धारण करना स्मृति का काम है। अतः स्मृति न रहे तो प्राप्त संवेदनाएँ विस्मृत हो जायेंगी तथा आगे की ज्ञान प्रक्रिया भी समाप्त हो जायेगी। ज्ञान के लिये आवश्यक है कि स्मृति संवेदनाओं को धारण करे।
३. प्रत्ययों का पृथक्करण (Discernment)- वस्तुतः बुद्धि की पहली सक्रिय अवस्था यही है। बुद्धि को असंख्य संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं। बुद्धि उन सबों को अलग-अलग वर्गों में विभाजित करती है। यदि यह पृथक्करण न हो तो सभी सरल प्रत्यय एक ही साथ रहेंगे तथा किसी विशेष मिश्र प्रत्यय की उत्पत्ति नहीं होगी। अतः पृथक्करण विशिष्टता का द्योतक है।
४. सरल विज्ञानों का सन्तुलन (Comparison)- संतुलन का अर्थ है विज्ञानों को क्रम से व्यवस्थित करना। यहाँ समान सरल प्रत्ययों की ही व्यवस्था कर बुद्धि उन्हें सन्तुलित करती है।
५. प्रत्ययों का मिश्रण (Composition)- इस अवस्था में बुद्धि सन्तुलित प्रत्ययों का योग कराती है। यह अवस्था प्रत्ययों के पारस्परिक सम्बन्ध का सूचक है।
६. नामकरण (Abstraction)- हम किसी व्यक्ति या वस्तु विशेष का नामकरण उसके सामान्य तथा सार गुणों के आधार पर ही करते है। सर्वप्रथम हम किसी वर्ग के सामान्य और सार गुणों को एकत्रित करते हैं तथा उसे एक संज्ञा का नाम प्रदान करते हैं जो व्यक्ति विशेष का द्योतक है।
संक्षेप में, लॉक के अनुसार मिश्र प्रत्ययों का विश्लेषण किया जा सकता है। सर्वप्रथम हमारी बुद्धि संवेदन तथा स्वसंवेदन के द्वारा विभिन्न सरल प्रत्ययों को प्राप्त करती है तथा उन्हें एक साथ मिला देती है। इसे सम्मिश्रण क्रिया (Compound) कहते हैं। पुनः बुद्धि क्रम से इनकी व्याख्या करती है। यह सरल प्रत्ययों का क्रमिक नियोजन है।
इस क्रम से सरल प्रत्ययों के सम्बन्ध का पता चलता है। इसके बाद भी नदि वस्तु विशेष के नाम और गुण के अनुसार सरल प्रत्ययों को अलग-अलग करती है। उदाहरणार्थ, संसार, सोना, सौन्दर्य, मनुष्य आदि सभी मिश्र प्रत्यय हैं जो अनेकों सरल प्रत्ययों के योग से निर्मित होते हैं। लॉक के अनुसार मिश्र प्रत्यय के असंख्य प्रकार हैं जिनका विभाजन तीन श्रेणियों में किया जा सकता है-
१. पर्याय (Modes)
२. द्रव्य (Substance)
३. सम्बन्ध (Relation)
१. पर्याय-
पर्याय सरल-प्रत्ययों के योग से बनते हैं तथा द्रव्याश्रित हैं। द्रव्याश्रित कहने का तात्पर्य यह है कि द्रव्य ही पर्याय का आधार है, अर्थात् पर्याय की सत्ता स्वतन्त्र नहीं। उदाहरणार्थ, त्रिभुज, कृतज्ञता, हत्या आदि विचार पर्याय माने गए हैं। पर्याय के दो प्रकार हैं- सरल (Simple) तथा मिथ (Mixed)। यदि एक ही प्रकार की विभिन्न वस्तएँ एक ही वर्ग में रखी जायें तो वह सरल पर्याय है। उदाहरणार्थ, दर्जन (Dozen) कौड़ी (Score) इत्यादि।
एक दर्जन कहने का अर्थ है कि एक ही प्रकार की वस्तु जिसकी संख्या बारह है। इसके विपरीत मिश्र पर्याय वे हैं जिनमें वस्तु के विभिन्न प्रकार हो। उदाहरणार्थ, सौन्दर्य के विचार में रूप, आकृति तथा द्रष्टा का आनन्द आदि अनेक प्रत्यय सम्मिलित हैं। एक दूसरा उदाहरण लें, काल का प्रत्यय सरल है, परन्तु पल, घण्टा, दिन, पक्ष, मास, वर्ष आदि सभी मित्र पर्याय हैं।
२. द्रव्य-
द्रव्य भी सरल प्रत्ययों का योग है। द्रव्य की सत्ता स्वतन्त्र है। – द्रव्य गुण का आधार या आश्रय है। गुण का हम प्रत्यक्ष करते हैं, परन्तु गुण के आधार (द्रव्य) का प्रत्यक्ष नहीं होता। उदाहरणार्थ, काँच को हम द्रव्य मानते हैं। हम केवल इसके रूप, रंग, वचन आदि को ही जानते हैं, परन्तु इनके आधार के रूप में द्रव्य की सत्ता स्वीकार कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि गुण निराधार नहीं रह सकते, अतः इनके आधर या आश्रय रूप में द्रव्य अवश्य है। द्रव्य प्रत्यय के भी दो प्रकार है- व्यष्टि रूप तथा समष्टि रूप। उदाहरणार्थ, मनुष्य व्यष्टि रूप द्रव्य प्रत्यय है तथा सेना समष्टि रूप प्रत्यय है।
३. सम्बन्ध-
ये भी सरल प्रत्ययों से ही बनते हैं। किन्ही दो व्यक्तियों या वस्तुओं में तुलना के आधार पर निर्मित प्रत्यय को सम्बन्ध प्रत्यय कहा जाता है। सम्बन्ध प्रत्यय सर्वदा दो सम्बन्धियों के बीच रहता है। उदाहरणार्थ, पिता-पुत्र, बड़ा छोटा, कार्य-कारण इत्यादि। एक ही व्यक्ति विभिन्न स्थानों में विभिन्न सम्बन्धों से सम्बोधित हो सकता है, जैसे एक व्यक्ति पिता-पुत्र, पितामह, जामाता, मित्र-शत्रु आदि विभिन्न सम्बन्धों का हो सकता है।
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