ग्रीक/ यूनानी दर्शन
विश्व के सभी देशों में भारत, चीन तथा ग्रीस को ही प्राचीनतम सभ्यता और संस्कृति के जनक होने के श्रेय प्राप्त है। प्रागैतिहासिक काल से ही इन देशों में मौलिक मनीषी का कभी अभाव न रहा। इनमें सर्वदा स्वतन्त्र विचारक उत्पन्न होते रहे हैं जिसके आचार और विचार के लिए युग-युग का इतिहास साक्षी है तथा जिनकी ज्ञान-ज्योति से आज भी विश्व का कोना-कोना जगमगा रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसे महात्माओं और मनीषियों को युग-द्रष्टा तथा युग-स्रष्टा कहा जाता है। जिनके चरणचिह्न ही लीक बनकर भविष्य के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करते हैं। इन तीनों देशों में ऐसी विभूतियों का भण्डार रहा है जिसके कारण इन देशों के वासी आज भी अपने पूर्वजों का स्मरण कर बड़े गर्व का अनुभव करते हैं। इन तीनों देशों का वैचारिक क्षेत्र पृथक रहा है तथा संस्कृति अपनी-अपनी रही है। भौगोलिक दृष्टि से प्राचीन काल में ये एक दूसरे से इतने दूर रहे कि इनमें विचारों का आदान-प्रदान सम्भव न हो सका, अतः तीनों देशों के विचार-बीज अलग-अलग पल्लवित-पुष्पित होते रहे।
जिस प्रकार प्राच्य सभ्यता और संस्कृति को जन्म देने का श्रेय भारत को प्राप्त है उसी प्रकार पाश्चात्य दर्शन और धर्म के सूत्रपात का श्रेय ग्रीस को प्राप्त है। कुछ परम्पराओं के अनुसार यह भी कहा जाता है कि ग्रीक दर्शन की उत्पत्ति प्राच्य देशों में हुई। ग्रीस में दर्शन की उत्पत्ति के समय. मिस्र देश के विचार थे तथा सिकन्दर के समय ग्रीस देश का भारत से सम्बन्ध भी था। इस परम्परा का समर्थन कुछ इतिहासकार जैसे क्लेमेण्ट (Klement), यूसेबियस (Eusebious) तथा वुडवर्थ (Woodworth) आदि करते हैं। इन इतिहासकारों के अनुसार पाइथागोरस, डेमॉक्रिटस तथा प्लेटो प्रभृति विद्वानों के सिद्धान्तों का मूल प्राच्य दर्शनों में है।
ऐतिहासिक दृष्टि से यह एक तथ्य हो सकता है कि यूनानियों के पूर्वज एशियाई देशों से गये थे तथा जाते समय कुछ हिन्द-जर्मन जातियों की नैतिक तथा धार्मिक मान्यताओं को भी अपने साथ लेते गये। परन्तु यह कदापि दार्शनिक सत्य नहीं है कि प्लेटो जैसे मौलिक विचारक के विचार कहीं अन्यत्र से आये हों। दो पावन भूमियों में समान मनीषा का अभ्युदय हो सकता है, दो विभिन्न देशों के विचारों में साम्य भी सम्भव है, परन्तु इससे एक का मूल दूसरे में निश्चित करना तो प्रायः भ्रान्ति ही प्रतीत होती है। ऐतिहासिक दृष्टि से साम्य और वैषम्य के निर्धारण से तो सिद्धान्त और सुस्पष्ट हो उठते हैं।
अतः बिना ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के हम किसी विचार को स्पष्टतया नहीं समझ सकते। उदाहरणार्थ, हेरॉक्लिटस, पारमेनाइडीज तथा पाइथागोरस के विचारों से परिचित हुए बिना हम प्लेटो के दर्शन को भली-भाँति नहीं समझ सकते। दिक्-काल आदि के प्राचीन सिद्धानों तो जाने बिना हम काण्ट की दिक्-काल सम्बन्धी देन को नहीं जान सकते। इसी प्रकार ह्यम के संशयवाद को समझने के लिए हमें पूर्व अनुभववाद का ज्ञान आवश्यक है। उत्तर विचार पूर्व विचार से प्रभावित हो सकता है; परन्तु पूर्व ही उत्तर का मूल नहीं। तात्पर्य यह है कि पूर्व उत्तर का प्रेरक हो सकता है, जनक नहीं। अतः साम्य होने से प्राच्य विचार भी विचारों के प्रेरक हो सकते हैं, मूल नहीं। इस प्रकार ग्रीक दर्शन की उत्पत्ति तथा विकास का श्रेय ग्रीक मनीषी को ही है।
ग्रीक दर्शन क्या है, ग्रीक दर्शन की उत्पत्ति के अनेक कारणों में सबसे प्रमुख कारण ग्रीक दार्शनिकों की स्वतन्त्र चिन्तन-धारा के प्रति आस्था है। ग्रीस की सभ्यता का इतिहास देखने से स्पष्ट होता है कि प्रारम्भ से ही ग्रीक चिन्तन उन्मुक्त वातावरण की खोज करता रहा। प्रारम्भ में कई अन्य देशों के समान ग्रीक समाज भी परम्परागत विचार और रूढ़िगत विश्वासों से भरा था। कालान्तर में इन विचारों की परीक्षा प्रारम्भ हुई। यही कारण है कि प्रारम्भ से लेकर सॉफिस्ट, प्लेटो, अरस्तू इत्यादि सभी दार्शनिकों में इस परम्परागत नैतिकता का उच्छेद तथा नये नैतिक मूल्यों के प्रति आदर की भावना है। उत्तरोत्तर बुद्धि के विकास के फलस्वरूप प्रत्येक उत्तर युग में हम पूर्व युग का विरोध पाते हैं। तात्पर्य यह है कि उत्तर पक्ष में एक नये नैतिक मूल्य का समावेश होता है।
दार्शनिक सिद्धान्तों की दृष्टि से ग्रीक/ यूनानी दर्शन की उत्पत्ति
ग्रीक दर्शन की उत्पत्ति छठवीं शताब्दी ई. पू. में हुई तथा इसका अन्त तीसरी शताब्दी में प्रायः माना जाता है। दार्शनिक सिद्धान्तों की दृष्टि से यह तीन भागों में विभक्त है:
१. सुकरात-पूर्व युग: यह आरम्भ से लेकर सॉफिस्ट विचारकों के पूर्व का या है। यह तत्व सम्बन्धी जिज्ञासा का युग है। सुकरात के पूर्व सभी दार्शनिकों के लिए (सॉफिस्ट को छोड़कर) तत्त्व का स्वरूप और संख्या महत्वपूर्ण प्रश्न है। तत्त्व सम्बन्धी मुख्यतः उनके विचार भी भौतिक ही हैं।
२. सुकरात युगः यह युग पाँचवीं शताब्दी के मध्य से लेकर ३२२ ई. पू. तक है। इसी युग में विश्वविभूति सुकरात, प्लेटो तथा अरस्तू उत्पन्न हुए। यह युग मुख्यतः ज्ञान तथा नीति-मीमांसा का युग है। इस युग का प्रारम्भ ही सुकरात द्वारा सॉफिस्ट सन्तों के मानव आचरण सम्बन्धी नियमों के खण्डन से प्रारम्भ होता है। महात्मा सुकरात का मुख्य कार्य मानव के लिए उपयोगी नैतिक मूल्यों का आविष्कार करना था। बाद में प्लेटो तथा अरस्तू ने प्रमाण, तत्त्व तथा नीतिशास्त्र सम्बन्धी सभी प्रश्नों पर विचार किये।
३. अरस्तू-उत्तर युगः यह युग अरस्तू के बाद ५२७ ई. पू. तक है। इस समय एथेन्स, एलेक्जेण्ड्रिया तथा रोम दार्शनिक विचारों के केन्द्र थे। ५२९ ई. पू. में सम्राट जस्टीनियन ने दार्शनिक विचारों के विद्वत्परिषद (Academy) को भंग कर दिया और तभी से इस युग का अन्त हो गया।
ग्रीक/ यूनानी दर्शन की उपयोगिता
जिस प्रकार भारतीय दर्शन में बीज रूप वेदों का महत्व है, उसी प्रकार पाश्चात्य दर्शन के मूल रूप ग्रीक दर्शन का महत्व है। हम ग्रीक दर्शन को जाने बिना पाश्चात्य दर्शन को नहीं समझ सकते। अतः ग्रीक दर्शन ही पाश्चात्य दर्शन का जनक माना गया है। सुविख्यात ग्रीक दार्शनिक प्लेटो पाश्चात्य दर्शन के पिता माने गये हैं तथा सम्पूर्ण पाश्चात्य दार्शनिक परम्परा को प्लेटो के सिद्धान्तों पर टिप्पणी कहा गया है। अतः ग्रीक दर्शन का सर्वप्रथम महत्व ऐतिहासिक अभिरुचि है।
अतीत के बिना हम आगत और अनागत की व्याख्या नहीं कर सकते। अतः यूरोपीय दार्शनिक परम्परा को भली-भाँति समझने के लिए हमें ग्रीक दर्शन के ज्ञान की नितान्त आवश्यकता है। कोई भी परवर्ती दर्शन अपने पूर्ववर्ती दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सकता। वर्तमान दर्शन के कई महत्वपूर्ण अंग हैं-तत्व मीमांसा, प्रमाण मीमांसा, आचार मीमांसा इत्यादि। ग्रीक दर्शन में इन सभी अंगों का समुचित समावेश है। अतः यह कहा जा सकता है कि आधुनिक सभी दार्शनिक समस्याओं का संकेत ग्रीक दर्शन में है। प्लेटो और अरस्तू के विचार किसी भी दार्शनिक समस्या के मूल प्रतीत होते है।
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