अरस्तू का नीतिशास्त्र (Ethics) क्या है
अरस्तू का नीति-दर्शन व्यावहारिक तथा जीवनोपयोगी है। सर्वप्रथम महात्मा सुकरात ने नैतिक प्रश्न उपस्थित किया कि शुभ क्या है? अरस्तू का सम्पूर्ण नीति-दर्शन इस समस्या का समाधान है। अरस्तू ने इस प्रश्न का उत्तर व्यावहारिक जीवन में ढूंढा। इसी कारण अरस्तू का नीति दर्शन व्यावहारिक है। प्लेटो के दर्शन में भी परम शुभ पर पर्याप्त विचार है, परन्तु प्लेटो वस्तु जगत् को असत् तथा विज्ञान जगत् को सत् मानते हैं। अतः प्लेटो ने इन्द्रिय-जगत् को हेय मानकर परम शुभ को अतीन्द्रिय जगत् का विषय माना है। इस प्रकार प्लेटो का परम शुभ जीवन मानव के लिए उपयोगी नहीं है।
अरस्तू ने प्लेटो की कमी को पूरा किया है तथा परम शुभ को जीवन का आदर्श मानकर व्यवहार में इसे चरितार्थ करने की प्रेरणा दी है। तात्पर्य यह है कि अरस्तू ने प्लेटो की पारमार्थिक नैतिकता के स्थान पर व्यावहारिक नैतिकता की शिक्षा दी है। संक्षेप और सरलता की दृष्टि से यहाँ केवल अरस्तू क सद्गुण और मध्यम-मार्ग सम्बन्धी सिद्धान्तों की व्याख्या ही की जाएगी।
अरस्तू का सद्गुणों का स्वरूप (Nature of Virtues)
अरस्तू का नैतिक विचार सद्गुणों के स्वरूप से प्रारम्भ होता है। इसका कारण यह है कि अरस्तू (प्रायः सभी यूनानी दार्शनिकों) की मान्यता है कि सद्गुणी व्यक्ति ही सुखी होता है तथा सुखी व्यक्ति ही कल्याणमय सामाजिक जीवन व्यतीत करता है। इसके विपरीत, दुर्गुणी व्यक्ति दुःखी होता है तथा दुःखी होने से अकल्याणकारी जीवन व्यतीत करता है। इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक जीवन का लक्ष्य या ध्येय सुख है।
समाज में हम कोई कार्य इसलिये करते हैं कि हम सुखी हों, सानन्द जीवन व्यतीत करें। परन्तु सुखी की प्राप्ति सद्गुणी होने पर निर्भर है। यदि हम दुर्गुणी हैं तो हमें दुःख अवश्य मिलेगा। अतः यदि हम सुखी और सानन्द रहना चाहते हैं तो हमें सद्गुणी होना आवश्यक है। इसके विपरीत दुर्गुणी होना दुःख का कारण है। इसी कारण अरस्तू सद्गुण से ही नैतिक विचार प्रारम्भ करते हैं तथा सद्गुण (Virtue) को कल्याणमय (Well-being) जीवन बतलाते हैं। यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि अरस्तू सुख और सद्गुण में भेद नहीं मानते। उनके अनुसार सद्गुणी ही सुखी है और सुखी ही सद्गुणी है। अतः दोनों में अभेद है।
अरस्तू के सद्गुण के लक्षण(Characteristics of Virtue)
अरस्तू के अनुसार सद्गुण या सुख के निम्नलिखित लक्षण हैं
(क) सद्गुण या सुख स्वतः पूर्ण सिद्धान्त है। तात्पर्य यह है कि सुख साधन नहीं, साध्य है। सुख या सद्गुण स्वतः अपना साध्य है। हम किसी वस्तु के लिये सुख नहीं चाहते, वरन् सुख के लिए ही सुख चाहते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि सुख पूर्ण सिद्धान्त है, क्योंकि यह साध्य है।
(ख) सुख विवेक का गुण है, शरीर का धर्म नहीं। अरस्तू के अनुसार मानव आत्मा के दो अंश हैं-विवेकी और अविवेकी। विवेकी आत्मा चेतन है तथा अविवेकी अचेतन। भावना, संवेग आदि अविवेकी आत्मा के गुण है। इनका शरीर से सम्बन्ध है। विवेकी आत्मा चेतन है। चेतन, अचेतन का नियन्त्रण करता है। विवेकी से शरीर का नियन्त्रण होता है। सुख विवेक का ही धर्म है। यह चेतन है। यह अचेतन शारीरिक सुख से भिन्न आत्मा का शुद्ध बौद्धिक सुख है।
(ग) सुख और सद्गुण में अभेद या तादात्म्य ही सुखी व्यक्ति ही सद्गुणी होता है तथा सद्गुणी ही सुखी होता है। इसका कारण यह है कि सुख शरीर का धर्म नहीं, आत्मा का गुण है या विवेक का गुण है। विवेक मानव आत्मा का ऊर्ध्व अंश है या ऊपरी भाग है। अतः जो विवेकी व्यक्ति है, वह शारीरिक सुखों की परवाह नहीं करता। वह विवेक-जन्य सुख की इच्छा करता है। एसे विवेकी पुरुष को ही सद्गुणी कहा जाता है।
(घ) सुख अनवरत साधन का विषय है। यह शारीरिक सुख नहीं जिसे एक-दो दिन में प्राप्त किया जा सके। इसे प्राप्त करने के लिए मानव को आजीवन प्रयास करना चाहिये। एक-दो दिन में प्राप्त होने वाला क्षणिक शारीरिक सुख है। इसे सच्चा सुख नहीं कहा जा सकता। सच्चा सुख तो शाश्वत है। इसके लिये आजीवन साधना की आवश्यकता है। इस साधना से ही हम विवेक-जन्य सनातन सुख पाते हैं।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि सद्गुण या सुख बौद्धिक या विवेकी आदमी का गुण है। अविवेकी व्यक्ति सद्गुणी या सुखी नहीं हो सकता। प्रश्न यह है कि अविवेकी आत्मा या शरीर के धर्म को क्या किया जाय? संवेदना, संवेग आदि अविवेकी शरीर के धर्म हैं। क्या इन्हें निर्मूल करके ही व्यक्ति सद्गुणी हो सकता है? अरस्तू मध्यम मार्गी हैं। इनके अनुसार वासना, बुभुक्षा, संवेग आदि शारीरिक धर्मों को निर्मूल करना अर्थात् पूर्णतः निराकरण करना मानव के लिये सम्भव नहीं। इनका नियंत्रण अवश्य सम्भव है। हम विवेक से इनका नियन्त्रण कर सकते हैं। अतः वासनाओं और संवेगों का नियन्त्रण करके ही सुखी हो सकते हैं।
सच्चा सुख वासनाओं के नियंत्रण में है, निराकरण में नहीं। वासनाओं का पूर्णतः निराकरण संन्यास या वैराग्य मार्ग है। सांसारिक और सामाजिक मनुष्य के लिये यह सम्भव नहीं। सद्गुणी व्यक्ति संसार का सर्वथा त्याग नहीं करता, वरन् संसार में आनन्दमय या कल्याणकारी जीवन व्यतीत करता है। आनन्द या कल्याण का मार्ग नियन्त्रण है, निराकरण नहीं। इस प्रकार सद्गुणी व्यक्ति नियमित और नियन्त्रित सामाजिक जीवन व्यतीत करता है। इसी दृष्टि से अरस्तू का कहना है कि मानव कल्याण आत्म-नियंत्रित विवेक पूर्ण कार्य करने में है। यही सद्गुणी का स्वरूप है। सद्गुणी व्यक्ति विवेक की आज्ञा मानता है और वासनाओं का नियंत्रण कर जीवनयापन करता है। यही अरस्तू के अनुसार संयमित, नियंत्रित और यथार्थ सुखी जीवन का स्वरूप है।
सद्गुण की परिभाषा(Definition of Virtues)
यूनानी नैतिक दर्शन में सद्गुण की अवधारणा सबसे महत्त्वपूर्ण है। सभी यूनानी दार्शनिक इसका प्रयोग करते हैं। अतः इसकी सही परिभाषा जान लेना आवश्यक है। इसकी परिभाषा से पूर्व हमें इस शब्द का सही अर्थ जानना आवश्यक है। साधारणतः अथवा बोल-चाल की भाषा में सद्गुण का अर्थ अच्छा या शुभ गुण है। विपरीत सदुर्गुण, खराब या अशुभ है। यूनानी दार्शनिक इस शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में करते हैं। अरस्तू के अनुसार किसी वस्तु का अच्छा-गुण या सद्गुण वह है जिसके अनुसार वह वस्तु अपना कार्य सुचारु रूप से करती है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना धर्म है, अलग-अलग कार्य है। यदि वस्तु अपने धर्म का निर्वाह करती है, अपने कार्य को सुचारु रूप से सम्पन्न करती है तो उस वस्तु में सदगण अवश्य है।
इसके विपरीत, वस्तु यदि अपने कार्य को भली-भाँति नहीं करती तो उसमें दुर्गुण है। उदाहरण के लिए, यदि नेत्रों से निरीक्षण कार्य भली-भाँति सम्पन्न हो तो नेत्रों में सद्गुण की सत्ता माननी होगी। इसी प्रकार मानव भी यदि अपना कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न करे, अपने धर्म का सम्यक निर्वाह करे तो मानव को सद्गुणी माना जायेगा। इस प्रकार मानव की दृष्टि से सद्गुण सम्यक् आचरण है। इस सम्यक् आचरण से ही मनुष्य को यथार्थ सुख या आनन्द प्राप्त होता है। अरस्तू सद्गुण की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि यह मानव की स्थायी मानसिक अवस्था है जिसके सहारे मानव अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है।
मानव का लक्ष्य सुख या आनन्द प्राप्त करना है। हम कोई भी कार्य इसलिये करते हैं कि हम सुखी हों, सानन्द – हों। परन्तु सुख तभी प्राप्त हो सकता है जब हम विवेक से सम्यक् आचरण करें। सम्यक् आचरण को ही आनन्दमय या कल्याणमय जीवन कहा गया है। इस प्रकार सद्गुण और सुखी जीवन अर्थात् कल्याणमय जीवन में घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है| एक आवश्यक प्रश्न यह है कि सद्गुण जन्मजात हैं या अर्जित? अरस्तू के अनुसार सद्गुण जन्मजात नहीं। इसे अभ्यास के द्वारा सीखने की आवश्यकता है। इसे अरस्तू स्थायी अभ्यास भी कहते हैं।
हम विवेक से किसी सद्गुण का अभ्यास करते हैं। यह अभ्यास ही हमारा आचरण बन जाता है। यह आचरण विवेक से नियंत्रित होता है। हम सोच-विचार कर कोई अभ्यास करते हैं। इस प्रकार सद्गुण विवेकमूलक तथा अभ्यासजन्य है। यह प्रवृत्तिमूलक वासनाओं, संवेगों से भिन्न है जो जन्मजात हैं। वासना, इच्छा, संवेग आदि मनुष्य में जन्म से हैं। ये मानव की मूल प्रवृत्ति के अंग है। सद्गुण विवेक से उत्पन्न होता है तथा अभ्यास से विकसित होता है| सद्गुण मानव का आचरण है। आचरण ऐच्छिक कर्म की अभिव्यक्ति है। ऐच्छिक कर्म संकल्पजन्य कर्म है। संकल्प करना विवेक का कार्य है। अतः सद्गुणों का सम्बन्ध संकल्प और विवेक से है। सद्गुण स्वाभाविक नहीं, बौद्धिक हा इसका सम्बन्ध मानव के स्वभाव से नहीं, वरन् चिन्तन से है।
सद्गुण का वर्गीकरण(Classification of Virtues)
अरस्तू के अनुसार सद्गुण को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(क) बौद्धिक सद्गुण (Intellectual Virtues)
(ख) नैतिक सद्गुण’ (Moral Virtues)
यह वर्गीकरण अरस्तू के आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त पर आधारित है। उनके अनुसार मानव आत्मा के दो पक्ष है-
बौद्धिक और अबौद्धिक या भावनात्मक पक्ष।
मनुष्य चिन्तनशील है और संवेदनशील भी है। पहला मनुष्य का वैचारिक पक्ष है।और दूसरा भावनात्मक पक्ष। भावनात्मक पक्ष तो मानव और पशु में समान ही है। भावनात्मक पक्ष का सम्बन्ध मूल प्रवृत्तियों से है। इच्छा, संवेग आदि सभी मूल प्रवृत्तियाँ हैं जो मानव और पशु में समान हैं। परन्तु विचार या बुद्धि के स्तर पर मानव का पशु से भेद हो जाता है। मानव की विशेषता है बुद्धि या विचार मानव चेतन है, चिन्तनशील है। इस प्रकार इन्हीं दो पक्षों के आधार पर अरस्तू ने सद्गुण के दो वर्ग बतलाये हैं। प्रथम बौद्धिक सद्गुण है। इसके अन्तर्गत चेतन विचार है या ज्ञान है। ज्ञान से ही मनुष्य किसी वस्तु को जानता है, सत्य की उपलब्धि करता है। अतः बौद्धिक सद्गुण में बुद्धि या ज्ञान की प्रधानता है|
अरस्तू के अनुसार यह सर्वोच्च सद्गुण है। इसका सम्बन्ध दार्शनिक जीवन से है। अरस्तू इसे डायनोटिक (Dianotic) कहते हैं। यह शुद्ध विवेक पर आधारित सद्गुण है। इस सद्गुण का विकास समुचित शिक्षा के द्वारा हो सकता है। परन्तु यह सर्वोच्च विवेकपूर्ण बौद्धिक जीवन व्यतीत कर सकते हैं, परम तत्त्व के विचार में व्यस्त रह सकते हैं। अधिकांश लोग तो बुद्धि प्रधान नहीं, वरन् भावना प्रधान व्यक्ति हैं। इन भावना प्रधान व्यक्तियों से लिये ही नैतिक सद्गुण है।
नैतिक सद्गुण(Moral Virtues)
हम पहले विचार कर आये हैं कि अरस्तू के अनुसार मानव आत्मा के दो अंग हैं-विवेक प्रधान और भावना प्रधान। विवेकपूर्ण आत्मा के लिये बौद्धिक या दार्शनिक सद्गुण है जिसका भावनाओं से कोई सम्बन्ध नहीं। परन्तु भावना प्रधान आत्मा का सम्बन्ध वासना, संवेग, बुभुक्षा आदि से है। अरस्तू पुनः भावना प्रधान आत्मा के भी दी वर्ग बतलाते हैं-चेतन और अचेतन स्तर। इनमें प्रथम चेतन ज्ञान या विवेक का है। इसी के कारण मानव विवेकशील कहलाता है। यद्यपि यह विवेक प्रथम बौद्धिक आत्मा के समान शुद्ध विवेक नहीं है। बौद्धिक आत्मा के अन्तर्गत विवेक का कार्य परम तत्त्व आदि दार्शनिक विषयों पर विचार करना है।
अरस्तू के अनुसार यह शुद्ध ज्ञान की अवस्था है। दूसरा स्तर भावना का है। इसमें भी विवेक है परन्तु भावना सम्बद्ध विवेक है, अर्थात् इसका सम्बन्ध भावनाओं से भी है। इसे चेतन आत्मा की संज्ञा दी जाती है। इसी का एक दूसरा वर्ग या भाग अचेतन आत्मा है। पहला उच्च वर्ग तथा दूसरा निम्न वर्ग है, परन्तु ये दोनों वर्ग एक दूसरे से नितान्त भिन्न नहीं। साधारण मनुष्य इन दोनों का समन्वय है। अत: मानव को ‘विवेकशील पशु’ कहा जाता है। इसमें विवेकशीलता तो उच्च स्तर पर, परन्तु पशुता निम्न स्तर पर है। प्रथम विचार प्रधान है तो दूसरा भावना प्रधान है। मानव का जीवन इन दोनों का समन्वय है। इस समन्वय को ध्यान में रखते हुए अरस्तू का कहना है कि नातक सद्गुण विवेक और भावना का समन्वय है, विवेकशीलता और पशुता का संतुलन हो। इसे ही विचार और संवेग का संतुलन या समन्वय माना गया है।
मानव में राग-द्वेष, काम-क्रोध, इच्छा-वासना आदि अवश्य हैं। ये सभी हमारे अचेतन आत्मा के अश हा इनका निराकरण सम्भव नहीं। इनका नियमन या नियन्त्रण अवश्य हो सकता है। अत: नैतिक सद्गुण में वासनाओं को हम निर्मूल नहीं कर सकते, क्योंकि ये हमारे स्वभाव के अंग हैं। हम इनका विवेक या विचार से नियंत्रण अवश्य कर सकते हैं। अतः नैतिक दृष्टि से सद्गुणी व्यक्ति वह है जो वासनाओं का विवेक से नियंत्रण कर जीवनयापन करता है। उदाहरणार्थ, संयम (Temperance) और साहस (Courage) नैतिक सद्गुण है।
संयम का सही अर्थ कामनाओं का त्याग नहीं, वरन् कामनाओं का नियंत्रण है। संयमी व्यक्ति वासनाओं के वश में नहीं होता वरन् वासनाओं को अपने वश में कर लेता है। यही योगपूर्वक भोग का उदाहरण है। संयमी व्यक्ति न तो कामनाओं का सर्वथा त्याग कर योगी बनता है और न तो सर्वदा कामनाओं का दास बनकर ही जीवनयापन करता है। यही विवेक द्वारा इच्छाओं, वासनाओं का नियन्त्रण है। यह मध्यम-मार्ग है। इसी प्रकार साहस एक नैतिक सद्गुण है। धैर्यपूर्वक कठिनाइयों का सामना करने वाला ही साहसी है। साहसी वह नहीं जो युद्ध में अनावश्यक शौर्य का प्रदर्शन करता है। इसी प्रकार साहसी वह नहीं जो भय के कारण युद्ध-क्षेत्र से अनायास पलायन करता है। अपितु साहसी वह है जो विषम परिस्थिति के उपस्थित होने पर भी विचलित नहीं होता तथा धैर्यपूर्वक परिस्थिति का सामना करता है। यह कायरता और उद्दण्डता का मध्य-बिन्दु है। संयम और साहस के समान न्याय (Justice) सद्गुण है। इसकी विशद विवेचना हमने प्लेटो के नैतिक दर्शन में किया है। परन्तु प्लेटो और अरस्तू के न्याय सम्बन्धी मत भिन्न-भिन्न है। अरस्तू के अनुसार सामाजिक सम्बन्धों में निष्पक्षता में ही न्याय है। सामाजिक सम्बन्धों में व्यक्तिगत सम्पत्ति का अर्जन और राजकीय नियमों का पालन दोनों है। न्याय के दो प्रकार हैंवितरणात्मक (Distributive) और सुधारात्मक (Corrective)। वितरणात्मक न्याय व्यक्तियों में योग्यता के अनुसार सम्पत्ति का उचित विवरण है। सुधारात्मक न्याय व्यक्ति के लिये दण्ड का विधान करता है। व्यक्ति का अपना योग्यता के अनुसार।सम्पत्ति मिलनी चाहिये। परन्तु यदि कोई व्यक्ति अनुचित लाभ लेना चाहता है तो उसे दण्डित होना चाहिये। न्याय प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति और समाज के लिये। समता का सिद्धान्त है। इसी समता को निष्पक्षता कहते हैं।
नैतिक सद्गुण की विशेषताएँ (Characteristics of Moral Virtues)
अरस्तू नैतिक सद्गुण के निम्नलिखित लक्षण बतलाते हैं-
(क) नतिक सद्गुण अभ्यास-जन्य होते हैं। ये जन्मजात नहीं। तात्पर्य यह है कि हम जन्म से नतिक सद्गुणों को लेकर नहीं आते। यदि हममें जन्म से ये विद्यमान रहते तो हम इनमें परिवर्तन नहीं कर पाते। परन्तु हम अभ्यास के द्वारा इनमें परिवर्तन करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि ये जन्मजात नहीं। इतना अवश्य है कि सद्गुणों को उपार्जन करने की शक्ति जन्मजात है। हम जन्म से यह शक्ति लेकर आते है कि सद्गुण को उपार्जित करें। परन्तु वस्तुतः साहस, संयम आदि सद्गुण को अपनाने के लिए हमें अभ्यास करना पड़ता है। अतः सद्गुणी होने की शक्ति हमनें जन्म से या स्वभाव से है, परन्तु किसी विशेष सद्गुण को उपार्जित करना तो अभ्यास के अधीन है।
(ख) नैतिक सद्गुण बौद्धिक सद्गुण से स्वभावतः भिन्न होते हैं। पहले का सम्बन्ध अभ्यास से है तो दूसरे का सम्बन्ध शिक्षा से है। तात्पर्य यह है कि बौद्धिक सद्गुणों का शिक्षा के द्वारा विकास किया जाता है, परन्तु नैतिक सद्गुण के लिये अभ्यास की आवश्यकता है। अभ्यास हमारा आचरण बन जाता है। साहस, संयम आदि नैतिक सद्गुण का सम्बन्ध शुद्ध विवेक से है। इनकी शिक्षा सम्भव है, परन्तु अभ्यास नहीं| हम अभ्यास कर अपने में विवेक नहीं उत्पन्न कर सकते।
(ग) नैतिक सद्गुण ऐच्छिक कर्म के परिणाम हैं। नैतिक सद्गुण का अभ्यास करना हमारी इच्छा पर निर्भर है। इसी कारण प्रत्येक नैतिक सद्गुण के माध्यम से हमारा ऐच्छिक कर्म अभिव्यक्त होता है। किसी विशेष सद्गुण का अभ्यास करते समय सर्वप्रथम हमारे सामने अभ्यास प्रारम्भ करने और न करने के रूप में विकल्प रहता है। हम अपनी स्वतंत्र इच्छा-शक्ति से एक विकल्प को चुन लेते हैं।
घ) नैतिक सद्गुण से मानव के लक्ष्य या उद्देश्य का पता चलता है। हम कोई कार्य किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही करते हैं। प्रायः हमारे कर्म का लक्ष्य शुभ की प्राप्ति है। हम शुभ के लिए ही कार्य करते है। अरस्तू के अनुसार यह शुभ सुख है। परन्तु अरस्तू का सुख उपयोगितावादी सिद्धान्त से भिन्न है। उपयोगितावाद (Utilitarianism) के अनुसार सुख उपभोग की भावना है। मानव उपभोग की भावना से ही कोई कार्य करता है। इस प्रकार सुख उपभोग (Enjoyment) का विषय है। जिस कार्य से सुख उत्पन्न हो वही नैतिक कार्य है। अरस्तू भी सुख को साध्य मानते हैं। परन्तु उनके अनुसार कोई कार्य इसलिए नैतिक नहीं कि उससे सुख की प्राप्ति होती है, वरन् यह कार्य नैतिक है, इससे सुख की प्राप्ति होती है। उपयोगितावाद के अनुसार भोग नैतिक मूल्यों का आधार है, परन्तु अरस्तू के अनुसार भोग तो नैतिक मूल्यों का परिणाम है। इस प्रकार अरस्तू के अनुसार सुख साध्य है, साधन नहीं। नैतिक सद्गुण इसी साध्य की ओर संकेत करता है।
मध्यम-मार्ग का सिद्धान्त (Doctrine of Middle-path)
नैतिक सद्गुण की विवेचना करने में अरस्तू एक विशेष सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं जिसे मध्यम-मार्ग कहते हैं। मध्यम-मार्ग मध्यवर्ती स्थिति या बीच का रास्ता है| बीच का रास्ता अन्तों का परिहार है। अन्त अतिवादी दृष्टि है। अतः मध्यम मार्ग अन्तवादी या अतिवादी दृष्टिकोणों के बीच का मार्ग है। इस प्रकार मध्यम-मार्ग एक ओर अन्तवादी दृष्टिकोण का निराकरण है तो दूसरी ओर इनका समन्वय भी। संक्षेप में, दो अन्तों का समन्वय या संतुलन ही नैतिक सद्गुण है। तात्पर्य यह है कि मानव को नैतिक दृष्टि से सद्गुणी होने के लिए अतिवादी दृष्टिकोणों (अन्तों) का त्याग करना चाहिए तथा दोनों अन्तों के मध्यम-बिन्दु को अपनाना चाहिए। यह मध्यनबन्दु अतिवादी अन्तों का समन्वय है। यह समन्वय संतुलित जीवन है और संतुलित जीवन ही सुखी जीवन है| अत: जीवन में सच्चा सुख प्राप्त करने के लिए संतुलन और समन्वय की आवश्यकता है। अन्तों में आस्था मानव को उग्रवादी बनाता हा अन्ता का समन्वय सुखी बनाता है।
नैतिक सद्गुण का विश्लेषण करते समय हमने मानव स्वभाव का भी विश्लेषण किया है। हमने देखा है कि बद्धि और भावना दोनों मानव स्वभाव के आवश्यक अग है। मनुष्य विवेकशील है और संवेदनशील भी।
मानव विवेकशील है तथा पशु के समान उद्वेग और बुभुक्षा का भी अनुभव करता है। अतः इस सद्गुण में दोनों को उचित स्थान प्रदान किया गया है। नैतिकता दोनों का सामञ्जस्य है। यह सामञ्जस्य अरस्तू की देन है। महात्मा सुकरात के अनुसार नैतिक सद्गुण का स्वरूप पूर्णतः बौद्धिक है। उनके अनुसार ज्ञान ही धर्म है। धर्म का आचरण वही कर सकता है जिसे धर्म का ज्ञान हो| सुकरात मनुष्य को पूर्णतः विवेकशील ही मानते हैं। परन्तु मनुष्य में पशुत्व तथा विवेक दोनों है अतः मनुष्य विवेक के अतिरिक्त भावनाओं, प्रवृत्तियों आदि के अनुसार भी कार्य करता है। उद्वेग, क्षुधा आदि मानव की प्रवृत्ति है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अरस्तू ने सुकरात की त्रुटि का निराकरण किया। अतः अरस्तू ने अनुसार प्रवृत्ति मानव स्वभाव का अंग है, अतः प्रवृत्तियों का पूर्णतः दमन नहीं हो सकता। इन प्रवृत्तियों का विवेक के द्वारा नियन्त्रण हो सकता है। अभ्यास के द्वारा हम इन पाशविक भावनाओं को विवेक के द्वारा नियन्त्रित कर सकते हैं। इस प्रकार अरस्तू के नीतिशास्त्र में अभ्यास पर समुचित बल प्रदान किया गया है। अभ्यास से मनुष्य सद्गुणी बन सकता है।
मध्यम-मार्ग की विशेषताएँ(Characteristics of Middle-path)
१. अरस्तू का मध्यम-मार्ग नीतिशास्त्र के क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता। है। इसका महत्त्व बतलाते हुए अरस्तू का कहना है कि किसी नैतिक सद्गुण (Moral Virtue) का निश्चय मध्यम-मार्ग से ही हो सकता। सद्गुण मनुष्य में एकाएक नहीं उत्पन्न हो सकते, इसके लिए सतत प्रयास की आवश्यकता है। सतत प्रयास भू मनुष्य तभी कर सकता है जब वह सद्गुणों के प्रति आस्था रखता हो तथा इस आस्था के अनुसार सर्वदा आचरण करता हो।
प्रयास और आचरण मिलकर स्वभाव या आदत (Habit) बन जाते हैं। इस प्रकार सद्गुण स्वभावजन्य है। इस स्वभाव के निर्णय में मध्यम-मार्ग का योगदान है। उदाहरणार्थ, साहस एक सद्गुण है। यह कायरता और उद्दण्डता का मध्यम-मार्ग है| यह सद्गुण हममें तभी हो सकता है जब हम विभिन्न युद्ध की परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर न तो कायर होकर पलायन करें और न तो अधिक वीरता का परिचय देकर उद्दण्ड कहलायें। परन्तु इन दोनों परिस्थितियों के बीच के मध्यम-मार्ग पर चलने के लिये हमें प्रयास कर स्वभाव (आदत) बनाना चाहिए।
एकाएक हम मध्यम-मागे पर नहीं चल सकते। इसी कारण अरस्तू का कहना है कि सद्गुण तो मानव का शाश्वत स्वभाव है| इस स्वभाव की अभिव्यक्ति ही मानव की ऐच्छिक क्रियाओं में होती है। ऐच्छिक क्रिया विवेक-जन्य होने से केवल मध्यम-मार्ग की ओर इंगित करती है। इस प्रकार जिस मनुष्य में व्यावहारिक विवेक होगा, वही ऐच्छिक कर्म कर सकता है तथा मध्यम-मार्ग का अनुसरण कर सकता है।
२. मध्यम-मार्ग ही नैतिकता का मापदण्ड है। हम जानते हैं कि नैतिक दृष्टि से वही कार्य उचित या अनुचित अथवा नैतिक और अनैतिक हो सकता है जो किसी स्वतन्त्र चेतनकर्ता द्वारा परिणाम को समझकर किया गया हो। यदि व्यक्ति किसी जोर-दबाव या प्रलोभन में कोई कार्य करता है तो वह कार्य सफल या असफल हो सकता है, परन्तु नैतिक-अनैतिक नहीं। इससे स्पष्ट है कि किसी कार्य के नैतिक होने के लिए यह आवश्यक है कि उस कार्य के फल या परिणाम का ज्ञान कर्ता को पहले से होना चाहिये।
फल या परिणाम यदि शुभ है तो कार्य भी नैतिक दृष्टि से उचित है, वह सद्गुण है। परन्तु फल या परिणाम तो अरस्तू के अनुसार मध्यम-मार्ग का। होना चाहिये। यदि फल किसी अन्त का सूचक है या साध्य अन्त वाला है तो वह मध्यम-मार्ग का नहीं, अत: नैतिक भी नहीं है। इस प्रकार मध्यम-मार्ग नैतिकता की कसौटी है। हम उसी कार्य को नैतिक कह सकते हैं जिसका परिणाम मध्यम-मार्ग से सम्बन्ध रखता हो।
३. मध्यम-मार्ग के विश्लेषण से पता चलता है कि शुभ का मागे एक है, अशुभ के मार्ग अनेक है; पुण्य का पथ एक है, पाप के पथ अनेक हैं। शुभ या पुण्य का सम्बन्ध केवल मध्यम-मार्ग है। अन्त तो अवश्य ही अनेक होंगे। अन्तों के मध्य का मार्ग एक ही होगा। इसी दृष्टि से अरस्तू का कहना है कि सद्गुण एक होता है; क्योंकि यह विभिन्न अन्तों के बीच का मध्यम मार्ग है।
समीक्षा
अरस्तू का मध्यम-मार्ग व्यावहारिक नैतिकता का सम्भवतः सबसे बड़ा नियामक सिद्धान्त माना जाता है। हम अपने दैनिक जीवन में नैतिक कर्म बड़ी सरलता से कर सकते हैं। यदि हम यह समझ लें कि मध्यम मार्ग क्या है? अतः यह व्यावहारिक आचरण के लिए बड़ा ही उपयोगी मत है। इससे हमें दिन प्रतिदिन नैतिक कर्म करने तथा सद्गुणी होने में बड़ी सहायता मिलती है। इस व्यावहारिक नैतिक नियम का जन्मदाता होने में बड़ी सहायता मिलती है।
इस व्यावहारिक नैतिक नियम का जन्मदाता होने के कारण अरस्तू का महत्त्व अन्य दार्शनिकों से बढ़ जाता है उदाहरणार्थ, अरस्तू के पहले प्लेटो ने भी नीतिशास्त्र के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। परन्तु प्लेटो के नैतिक नियम शुष्क, शास्त्रीय तथा अव्यावहारिक प्रतीत होते हैं। सिद्धान्त में तो वे ठीक हैं, परन्तु व्यवहार में अत्यन्त कठिन। उदाहरणार्थ, प्लेटो के अनुसार न्याय सर्वोच्च सद्गुण है। न्याय व्यक्ति में तभी उत्पन्न होगा जब वासना, क्रिया, बुद्धि आदि सभी तत्त्वों का समन्वय हो| इनके समन्वय से विवेक होगा और विवेक से ही न्याय होगा।
परन्तु प्लेटो ने यह नहीं बतलाया कि न्याय कैसे होगा? वासना, क्रिया, बुद्धि आदि का समन्वय कर विवेक कैसे उत्पन्न होगा? अरस्तू इसका समाधान करते हैं। उनका कहना है कि हम वासना, क्रिया, बुद्धि आदि का समन्वय कर विवेक उत्पन्न कर सकते हैं तथा विवेक के कारण सद्गुणी होकर न्याय प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिये हमें मध्यम-मार्ग का अनुसरण करना होगा। अतः मध्यम-मार्ग से ही निःश्रेयस या परम शुभ की प्राप्ति हो सकती है। परम शुभ तो प्लेटो भी बतलाते हैं, परन्तु परम शुभ की प्राप्ति का मध्यम मार्ग नहीं बतलाता है।
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