सामाजिक परिवर्तन के स्तर को समझने से पहले हम थोड़ा सामाजिक परिवर्तन की दशा का वर्णन करेंगे फिर जिससे आपको सामाजिक परिवर्तन के स्तर को समझने में आसानी होगी, जिसमें हम कुछ चरणों में विभक्त करके समझने का प्रयास करेंगे।
सामाजिक परिवर्तन की दशा का वर्णन
भारत में सामाजिक परिवर्तन की दशायें सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक सर्वव्यापी प्रक्रिया है। यह प्रागैतिहासिक, ऐतिहासिक, प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक सभी प्रकार के समाजों की विशेषता रही है, भले ही उसकी कहीं तीव्रता नहीं मन्द रही हो। समूहों के आकार में वृद्धि, अर्थव्यवस्था में परिवर्तन, अस्थिर जीवन से स्थिर जीवन की शुरूआत, धार्मिक विश्वासों तथा क्रियाओं का नवीन महत्व, नवीन दर्शन, सामाजिक संरचना का रूपान्तरण, युद्ध तथा आपदायें, औद्योगिक क्रान्ति, आदि कुछ ऐसे कारक हैं, जो इन परिवर्तनों से सम्बन्धित होते हैं। एक समाज की राजनीतिक संरचना इतिहास की दौड़ में प्रायः परिवर्तित होती रही। भारतीय समाज इस कथन का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। मूल अर्थों में सामाजिक परिवर्तन से तात्पर्य प्रायः संरचनात्मक परिवर्तन से ही लगाया जाता है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त 1950 का काल एक विशेष समाजशास्त्रीय महत्व रखता है, क्योंकि इसी समय देश गणतन्त्रात्मक शासन की स्थापना के साथ अपने नवीन संविधान पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापना के लक्ष्य की ओर अग्रसर हो गया। भारतीय इतिहास का यह काल एक विशेष महत्व रखता है, क्योंकि संविधान के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति करने या आगे बढ़ने का समान अवसर उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया गया। संविधान में भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार की बात कही गयी, ताकि प्रत्येक नागरिक अपने गुणों, योग्यताओं तथा परिश्रम के माध्यम से समाज में उन्नति और विकास कर सके। यह ट्रेंड परम्परागत भारतीय मूल्य और प्रतिमान के प्रतिकूल था।
आधुनिक भारत में औद्योगीकरण, शहरीकरण, आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण और सबसे बढ़कर नवीन वैधानिक व्यवस्था सबने एक साथ संयुक्त रूप से परम्परागत जाति प्रणाली पर प्रबल आघात किया। आज बड़े-बड़े उद्योगों और कार्यालयों में विभिन्न जातियों के सदस्य मिल-जुलकर कार्य कर रहे हैं। बड़े-बड़े नगरों एवं महानगरों में प्रेमविवाह और अन्तर्जातीय विवाह किए जा रहे हैं। संस्कृतिकरण की धारणा से स्पष्ट होता है कि समकालीन भारतीय समाज में ‘सामूहिक गतिशीलता‘ की प्रक्रिया तेजी से चल रही है। सामाजिक गतिशीलता की यह प्रक्रिया गाँवों की अपेक्षा नगरों में कुछ अधिक तीव्र है, जहाँ पर व्यवसाय तथा नौकरी और विभिन्न प्रकार की सेवाओं के नए-नए अवसर बहुतायत पाए जाते हैं। उच्च शिक्षा की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। नगरों में गाँवों की अपेक्षा अन्धविश्वास भी काफी कम हुए है।
जाति व्यवस्था धर्म पर आधारित है तथा नगरों में धार्मिक अन्धविश्वास में कमी आई है। अत: जाति प्रणाली से सम्बन्धित नियम एवं कानून भी कुछ शिथिल होते जा रहे हैं। नगरों में जाति के स्थान पर स्तरीकरण का आधार धीरे-धीरे वर्ग बन रहा है। नगरों में रहने वाले व्यक्ति अब जातीयता की उच्चता पर उतना विचार नहीं करते, जितना कि व्यक्ति के पद (व्यवसाय) के आधार पर उनकी प्रस्थिति के सम्बन्ध में करते हैं। इस पर सत्य यह है कि नगरों में गांवों की तुलना में जातिवादी भावना का विस्तार कुछ अधिक ही है। इस पर भी शहरों में वर्ग व्यवस्था की जड़ें अत्यन्त सुदृढ़ हो गई हैं। व्यक्ति के जीवन मूल्यों में पद व सत्ता, धन एवं सम्पत्ति में भागीदारी का महत्व पहले की अपेक्षा बहुत अधिक हो गया है। तेजी से उन्नति-प्रगति करने के लिए होने वाली गला-काट प्रतियोगिता के फलस्वरूप समकालीन भारतीय समाज अत्यन्त अस्थिर हो रहा है।
इस सम्बन्ध में किए गए कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि भारतीय समाज में पहले की अपेक्षा आज काफी अधिक खलापन आया है। सामाजिक गतिशीलता के बारे में जो भी तथ्य उपलब्ध हैं, उनके आधार पर भारतीय समाज को एक ‘बन्द समाज’ (Class Society) की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यद्यपि पश्चिमी समाजों की अपेक्षा भारतीय समाज में आज भी सामाजिक गतिशीलता कम है, किन्तु यह भी सही है कि आज जितनी गतिशीलता भारत में देखी जा रही है, उसकी तुलना भारत के किसी भी ऐतिहासिक यग से नहीं की जा सकती है। भारतीय समाज में गतिशीलता के मुख्य निर्धारक हैं – औद्योगीकरण नगरीकरण, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, देशान्तर प्रवास, पश्चिमीकरण, संस्कृतिकरण, कानूनी तथा संवैधानिक अधिकार एवं सुविधाएँ।
सामाजिक परिवर्तन के स्तर/चरण
भारत में सामाजिक परिवर्तन के समाजशास्त्रीय चरणों को जानने के लिए सामाजिक ढाँचे के पुनर्निर्माण की मूर्त प्रक्रियाओं को जानना अपरिहार्य है। ये प्रक्रियाएं राष्ट्रीय विचारधारा एवं सार्वजनिक नीति के विशेष ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत उदभूत हुई है। ऐतिहासिक शक्तियाँ उन प्रारम्भिक अवस्थाओं को परिभाषित करती है, जिन्होंने भारत में सामाजिक परिवर्तनों एवं पुनर्निर्माण की प्रक्रियाओं को उत्पन्न किया है। इन शुरूआती अवस्थाओं के गुणों को जानने के क्रम में समाजशास्त्र एवं इतिहास से मदद मिलती है सामाजिक व्यवस्था में अंत: संरचनात्मक स्वतन्त्रता के सिद्धान्त प्रमुख विशेषताओं को स्पष्ट करते हैं। अंतर्संरचनात्मक संबंधित प्रमुख संरचनाएं राजनैतिक व्यवस्था, सामाजिक स्तरीकरण एवं सांस्कृतिक विचारधारा है । सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य केन्द्र बिन्दु जाति है। पारंपरिक तौर पर इसमें आंतरिक स्वायत्तता का व्यापक अंश दृष्टिगत हो रहा है । अपने चरित्र में क्षेत्रीय होने की वजह से जातीय पंचायतें सापेक्षिक रूप से ज्यादा स्वायत्त सांस्कृतिक आर्थिक एवं न्यायिक व्यवस्थाओं के रूप में कार्य संलग्न रहती हैं।
1. सामाजिक परिवर्तन के प्रथम स्तर/चरण-
प्रथम चरण की शुरूआत ब्रिटिश शासन काल में पाश्चात्य संपर्क के संग हुई जिसके फलस्वरूप प्रारम्भिक औद्योगीकरण, सांस्कृतिक पुनर्जागरण एवं अभिनव राजनैतिक चेतना के विकास की पृष्ठभूमि तैयार हुई इसकी परिणित राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आंदोलन के रूप में हुई। इन शक्तियों के माध्यम से भारतीय समाज में महत्वपूर्ण बदलाव हुए जो विशिष्ट रूप से किसी लोक समाज के लिए संस्था निर्माण के प्रत्येक परिप्रेक्ष्यों में दृष्टिगत होते हैं। इनमें वर्तमान शिक्षा एवं न्यायिक प्रशासनिक ढाँचों के विकास के दृष्टिकोण से सक्रिय संस्थाओं का विशिष्ट उल्लेख किया जाता है ।
इसके फलस्वरूप एक तरफ तो औद्योगीकरण की प्रक्रिया बाधित हुई एवं अर्थव्यवस्था का ग्रामीणीकरण हो गया। दूसरी ओर आधुनिकीकरण एवं औद्योगीकरण की औपनिवेशिक प्रणाली का जन्म हआ। इन नवीन बदलावों ने परंपरागत सामाजिक ढांचे में अस्थिरता उत्पन्न कर दी, अनेकों विशेषाधिकार सम्पन्न वर्गों एवं परिवारों को अधोमुखी सामाजिक गतिशीलता की ओर ढकेल दिया और पारंपरिक व्यावसायिक वर्गों एवं सामंती लोगों एवं कुलीनो को ऊर्ध्वमखता की ओर अग्रसर किया। इस गतिशीलता ने कुछ नवीन वर्गों को पैदा किया, यथा- व्यावसायिकों, कम्पनी एजेन्टों, प्रशासकों कारोबार करने वाले लोग व शिक्षाशास्त्रियों।
2. सामाजिक परिवर्तन का द्वितीय चरण/स्तर-
राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में सांस्कृतिक जागरण एवं सुधार आंदोलनों की इन सामाजिक समूहों के उत्थान ने राष्ट्रीय आंदोलन हेतु राजनैतिक चेतना निर्मित की। यह विचारधारात्मक एवं सामाजिक एकजुटता का शक्तिशाली स्रोत सामूहिक आत्म सजगता के भाव को तेज करता है। गाँधी जी के नेतृत्व में आंदोलनों ने एक विचारधारात्मक प्रक्रिया के रूप में प्रदान किया है। केवल राज स्वाधीनता के लिए ही नहीं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक आधुनिकीकरण के दिशा को विकसित किया है।
विचारधारात्मक प्रक्रिया का प्रभाव महिलाओं, समाज के निर्बल वर्ग के सदस्यों, श्रमिकों, किसानों में स्पष्ट रूप से पढा। राष्ट्रीय, स्थानीय व क्षेत्रीय स्तर पर राजनैतिक नेतत्व उत्पन्न हुआ। कमजोर वर्ग स्त्रियों व जनजातीय समहों से विभिन्न नेता उभरे। मध्यम वर्ग के एक वृहद भाग में जिसमें व्यवसायी प्रशासनिक अधिकारी, शिक्षाशास्त्री व कारोबारी किस्म के लोग शामिल थे। सामाजिक गतिशीलता की एक नवीन प्रक्रिया की शुरूआत हुई। परन्तु परिवर्तन की इस प्रक्रिया की प्रकृति आंशिक थी। इसी कारण से गाँव देहात के कामगारों, कृषकों, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा इससे अप्रभावित रहा। यद्यपि ऐसे विभिन्न अवसर आये जब राष्ट्रीय आंदोलनों ने जन आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया।
इस सामाजिक रूपान्तरण की विशेष बात यह रही कि इसने संवैधानिक एवं प्रजातांत्रिक रणनीति के विकास की आशाओं को जन्म दिया । इसने रूपान्तरण की गति की संस्कृति एवं समाज की सहिष्णुता सीमा की परिधियों में आबद्ध कर दिया। परिवर्तन की प्रक्रिया सामाजिक संरचना में किसी व्यापक विघटन अथवा टूटन एवं सांस्कृतिकास्मिता की क्षति के बगैर शूरू हो सकती थी। सर्वव्यापक प्रसार का प्रभावपूर्ण क्षेत्र बन सकती थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में सामाजिक परिवर्तन और रूपान्तरण की गति तीव्र हुई। देश के चहुंमुखी विकास हेतु पंचवर्षीय योजनायें चलाई गई। देश में परिवर्तन लाने के लिए संवैधानिक उपाय किये गये। लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाकर सबको समानता, बन्धुत्व, स्वतंत्रता के अधिकार दिये गये। सामाजिक और पारिवारिक क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की समस्याओं को दूर करने के लिए अनेक अधिनियम पारित किये गये। सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन लाने के लिए शिक्षा को बढ़ावा दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में शिक्षितों का प्रतिशत केवल 16 था, जो 2001 में बढ़कर 65.38 हो गया।
नगरीकरण, औद्योगकरण, संस्कृतिकरण, पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण, लौकिकीकरण (धर्म निरपेक्षीकरण), आदि प्रक्रियाओं के कारण भारत में सामाजिक परिवर्तन और रूपान्तरण की गति तेज रही है। पंचायत से संसद तक चुनावों ने लोगों की राजनीतिक भागीदारी बढ़ा दी है तथा उनमें नई आकांक्षाओं का संचार किया है। अब राजनीतिक दलों के माध्यम से उनके सम्बन्ध भी विस्तारित हुये हैं। परिवार, विवाह, जाति, स्त्रियों की स्थिति. राजनीतिक चेतना, धर्म, नैतिकता, आदि सभी क्षेत्रों में परिवर्तन दृष्टिगोचर हैं। किन्तु आज भी भारत में परम्परा और आधुनिकता का सह-अस्तित्व पाया जाता है।
इन्हें भी देखें-
- सामाजिक परिवर्तन में बाधक कारक का वर्णन | Factor resisting social change in hindi
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सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न स्वरूप क्या है? | Forms of social change in hindi
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सामाजिक उद्विकास की अवधारणा, अर्थ, सिद्धान्त तथा विशेषताएं | Social Evolution in hindi
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सामाजिक उद्विकास के प्रमुख कारक | Factors of Social Evolution in hindi
- स्पेंसर के सामाजिक उद्विकास का सिद्धांत | Spencer theory of Social Evolution in hindi
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समाज और संस्कृति के उद्विकास के स्तरों पर निबन्ध | Social Evolution Theory of Morgan in hindi
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सामाजिक प्रगति की अवधारणा, अर्थ तथा विशेषताएँ क्या है | What is Social Progress in hindi
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सामाजिक प्रगति में सहायक दशाएँ और कसौटियाँ | Conditions and Criteria for Social Progress in Hindi