आधुनिक शिक्षण प्रतिमान- सामाजिक अन्तःप्रक्रिया स्रोत | Modern Teaching Model in Hindi

आधुनिक शिक्षण प्रतिमान- सामाजिक अन्तःप्रक्रिया स्रोत | Modern Teaching Model in Hindi

इसमें आधुनिक शिक्षण प्रतिमान, Modern Teaching Model, सामाजिक अन्तःप्रक्रिया स्रोत, Social Interaction Source,सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान, ज्यूरिस-झुडेन्सियल प्रतिमान, सामाजिक पृच्छा प्रतिमान; एवं प्रयोगशाला विधि प्रतिमान को जानेगें।

 

आधुनिक शिक्षण प्रतिमान (Modern Teaching Model)

बसी जॉयस तथा मार्श वेल (Bruce Joyce & Marsha Weil) ने अपनी पुस्तक “Models of Teaching’ में सभी शिक्षण प्रतिमानों की समीक्षा करके उन्हें चार विभागों में बाँटा है। इन प्रतिमानों का वर्णन क्रमशः आगे प्रस्तुत किया जा रहा है :

  1. सामाजिक अन्तःप्रक्रिया स्रोत
  2. सूचना प्रक्रिया स्रोत
  3. व्यक्तिगत स्रोत
  4. व्यवहार परिवर्तन स्रोत

 

सामाजिक अन्तःप्रक्रिया स्रोत (Social Interaction Source)

इनसे सम्बन्धित प्रतिमानों में मानव के सामाजिक विकास पर बल दिया जाता है। ये प्रतिमान उस प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जिनके द्वारा यथार्थ की खोज सामाजिकता के द्वारा की जाती है। इसमें लोकतन्त्रात्मक क्रियाओं में सुधार लाने तथा समाज को अच्छा बनाने। का प्रयल किया जाता है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित प्रतिमान आते हैं :

(क) सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान,

(ख) ज्यूरिस-झुडेन्सियल प्रतिमान,

(ग) सामाजिक पृच्छा प्रतिमान; एवं

(घ) प्रयोगशाला विधि प्रतिमान ।

 

(क) सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान (Group Investigation Model) :

इस प्रतिमान का प्रतिपादन हरबर्ट थेलन तथा जॉन डीवी ने किया। थेलन ने जॉन डीवी की पुस्तक ‘डैमोक्रेसी एण्ड एज्यूकेशन’ के विचार से प्रभावित होकर इस प्रतिमान का विकास किया। थेलन ने भी डीवी की तरह यह स्वीकार किया कि कक्षा एक लघु समाज है जिसकी अपनी सभ्यता व सामाजिक व्यवस्था होती है। इसमें सामाजीकरण को महत्त्व दिया जाता है। इस प्रतिमान के विभिन्न तत्त्वों का परिचय नीचे प्रस्तुत किया जा रहा हैः

(अ) केन्द्रबिन्दु अथवा लक्ष्य- इस प्रतिमान का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक दक्षता का विकास करना है, जिससे जनतांत्रिक जीवन में समायोजन किया जा सके।

(ब) संरचना- इस प्रतिमान के प्रमुख छ: सोपान होते हैं। सर्वप्रथम छात्र के समक्ष समस्यात्मक परिस्थिति प्रस्तुत की जाती है जो नियोजित अथवा अनियोजित हो सकती है। दूसरे सोपान में स्थितियों में होने वाली प्रतिक्रियाओं को खोजा जाता है तत्पश्चात् अध्ययन कार्य का प्रतिपादन एवं संगठन अध्ययन करने के लिए किया जाता है। उसके बाद स्वतंत्र व सामूहिक अध्ययन किया जाता है। फिर उन्नति व प्रक्रिया का विश्लेषण किया जाता है कि उद्देश्य की प्राप्ति हुई अथवा नहीं तथा अन्तिम सोपान में पुनः क्रियाओं की आवृत्ति की जाती है, इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है।

(स) सामाजिक प्रणाली- सामाजिक व्यवस्था प्रजातांत्रिक होती है, इसमें छात्र व शिक्षक दोनों की कक्षाकक्ष में समान स्थिति होती है । इस व्यवस्था में किसी प्रकार का बाह्य हस्तक्षेप नहीं होता। शिक्षक इसमें परामर्शदाता का कार्य करता है।

(द) सहायक व्यवस्था- कक्षा का वातावरण ऐसा होना चाहिये जिसमें अधिगमकर्ताओं (छात्रों) की विभिन्न प्रकार की मांगों या आवश्यकताओं की परिपूर्ति हो सकती हो। अध्यापक व छात्रों में इस तरह सम्मिलित होने की सामर्थ्य होनी चाहिये कि वे क्या चाहते हैं तथा वे कब चाहते हैं।

(य) मूल्यांकन- इस प्रतिमान में निर्धारित शैक्षिक उद्देश्यों तथा शैक्षिक आवश्यकताओं के संदर्भ में छात्रों के व्यवहारों का मूल्यांकन किया जाता है।

(र) उपयोग- यह प्रतिमान सामाजिक अन्त प्रक्रिया तथा सामाजिक सीखने की प्रक्रिया के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यह बालकों में समस्या समाधान करके सीखने की दक्षता का विकास करता है। छात्रों को करके सीखने तथा स्वाध्याय हेतु प्रेरित करता है। परस्पर सहयोग, सहिष्णुता जैसे सद्गुणों का विकास करने में सहायता प्रदान करता है।

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(ख) ज्यूरिस-प्रूडेन्शियल प्रतिमान (Juris-Prudential Model) :

डोनाल्ड ओलीवर एवं जेम्स सेवर ने अपने हारवर्ड सामाजिक अध्ययन प्रायोजना में एक बौद्धिक संरचना की उत्पत्ति की जो कि छात्रों को पढ़ाने के लिए मूल संरचना का उद्देश्य पूरा कर सके ताकि वे (छात्र) सार्वजनिक विषय, जो अमेरिकन समाज से सम्बन्धित है, उनका विश्लेषण कर सकें जिससे समीक्षा करने की क्षमता का विकास हो सकें।

इस प्रतिमान में छात्र के व्यवहार में सामाजिक भावना तथा दक्षता का विकास करने हेतु उनमें तर्क व समस्या समाधान शक्ति का विकास किया जाता है। इस प्रतिमान के विभिन्न तत्वों का वर्णन नीचे दिया जा रहा है :

(अ) केन्द्रबिन्दु अथवा लक्ष्य- इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य छात्रों में सूचना एवं तथ्यों के आधार पर सामाजिक समस्या को तर्कपूर्ण ढंग से सोचने अथवा समझने की क्षमताओं का विकास करना है।

(ब) संरचना- ज्यूरिस-प्रुडेन्शियल प्रतिमान में कुछ निर्धारित बौद्धिक संक्रियायें (Intellectual operations) होते हैं, जो सार्वजनिक विषयों से सम्बन्धित होते है, जिन्हें ओलीवर एवं सेवर ने आठ श्रेणियों में वर्णित किया है, जहाँ तक सम्भव हो उन्हें नीचे दिये क्रम में सार्वजनिक विषयों का विश्लेषण करते समय प्रयोग में लाना चाहिये। यह जरूरी नहीं कि सभी श्रेणियों का अनुसरण किया ही जाये, किस संक्रिया (operation) पर कितना जोर दिया जाये, यह उसके विषय पर निर्भर करता है। इनके द्वारा दिया गया क्रम इस प्रकार है :

1. साकार या मूर्त परिस्थितियों में से अमूर्त या अव्यावहारिक सामान्य मूल्यों को निकालना,

2. सामान्य मूल्यों के सम्प्रत्ययों को विभिन्न रचनात्मक आयामों के रूप में प्रयोग में लाना,

3. मूल्यों की रचनाओं के बीच होने वाले द्वन्द्रों को पहचानना,

4. कक्षाओं की मूल्य द्वन्द्वों से सम्बन्धित परिस्थितियों को पहचानना,

5. जो समस्या विचाराधीन है, उसके तुलनात्मक अध्ययन का विकास करना,

6. सामान्य सफल दशाओं की ओर उन्मुख होना,

7. सफल मूल्य दशाओं के पीछे निहित मूलभूत अवधारणाओं का परीक्षण करना; एवं

8. कथनों की उपयुक्तता का परीक्षण करना।

इसमें समस्या का निर्माण कर उसका पारिभाषीकरण किया जाता है तथा छात्र व अध्यापकों के बीच स्वतंत्र अभिव्यक्ति को प्रधानता दी जाती है।

(स) सामाजिक प्रणाली- इसमें सामाजिक व्यवस्था हेतु लोकतंत्रात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाता है। शिक्षक एवं छात्र को विचारों की अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता दी जाती है।

(द) सहयोग प्रणाली- छात्र को दो तरह की सहायता की आवश्यकता होती है-पहली सहायता समस्या से सम्बन्धित परिस्थितियाँ जो छात्र के सम्मुख रखी जाती हैं, उनकी सचनाओं को पहचानने के काम आती हैं। दूसरी तरह की सहायता उन छात्रों को सहायता पहंचाती है, जो मूल्यों का अध्ययन कर चुके हैं, जो नैतिक व बौद्धिक दशाओं को पहचान चुके हैं तथा जिन्हें संवाद व परिचर्चा में प्रयोग में लाया जा सकता है।

(य) मूल्यांकन प्रणाली- इस प्रतिमान में मूल्यांकन हेतु दो बातों का ध्यान रखा जाता है पहली छात्र समस्या समाधान हेतु आवश्यक सूचनायें एकत्रित कर सकते हैं अथवा नहीं। दूसरी छात्र वाद-विवाद अथवा तर्क-वितर्क में न्यायसंगत स्थिति का अनुसरण कर सकते हैं अथवा नहीं।

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(र) प्रयोग : यह प्रतिमान छात्रों में तर्क शक्ति का विकास करता है जिससे उनमें आधुनिकतम विषयों पर तार्किक ढंग से विश्लेषण कर निष्कर्ष निकालने की योग्यता का विकास होता है। इससे छात्रों में सामाजिक मूल्यों का भी विकास होता है।

 

(ग) सामाजिक पृच्छा प्रतिमान (Social Inquiry Model) :

इस प्रतिमान के प्रवर्तक बायरन मासियालस तथा बैंजामिन कॉक्स थे। इन दोनों विद्वानों का मानना था, कि खोज शक्ति से प्रत्यावर्तन चिन्तन का विकास होता है और इस चिन्तन के द्वारा छात्र के व्यवहारों में परिवर्तन लाने का प्रयत्न किया जाता है।

(अ)केन्द्रबिन्दु अथवा उद्देश्य- इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य छात्रों को सामाजिक विषयों का बोध कराना तथा इस योग्य बनाना है कि वे सामाजिक संस्कृति के पुनर्निर्माण में सहयोग कर सकें।

(ब)संरचना- इसमें निम्नलिखित छ: सोपानों का अनुसरण किया जाता है- समस्या का निर्माण, उपकल्पना का निर्माण, समस्या का पारिभाषीकरण, उपकल्पनाओं की जाँच, तथ्य संग्रह तथा नियमीकरण।

(स)सामाजिक व्यवस्था- इसमें संगठित सामाजिक व्यवस्था की जाती है जिसमें शिक्षक छात्रों को चिन्तन स्तर के विकास के लिए अधिक अवसर देता है तथा एक परामर्शदाता की भूमिका निभाता है।

(द)संभरण व्यवस्था : कक्षा-कक्ष में सामाजिक वातावरण उत्पन्न करके तथा पर्याप्त मात्रा में पुस्तकालय की सविधाएं प्रदान करके शिक्षक इस प्रतिमान को सफल बनाता है।

(य) मूल्यांकन- स प्रतिमान के अन्तर्गत छात्र व्यवहारों में हुए परिवर्तन का मूल्यांकन उनकी समस्या करने की शक्ति की जाँच करके किया जाता है। निर्माण तथ्य संग्रह करने की योग्यता, उपकल्पना निर्माण की योग्यता तथा तथ्यों का विश्लेषण

(र)प्रयोग: छात्र सामाजिक ढंग से चर्चा करना, समस्या का समाधान करना, उपलब्य तथ्यों के आधार का विकास करता है। सत्यता की परख करना सीखते है। यह प्रतिमान सृजनात्मक चिन्तन तथा उत्पादनात्मक चिन्तन का विकास करता है।

 

(घ)प्रयोगशाला विधि प्रतिमान (Laboratory Method Model)

इस प्रतिमान के प्रतिपादक वैथल तथा मैन (Batthel & Maine) हैं। इसका विकास लगभग 1947 में हुआ। इसे प्रशिक्षण समूह प्रतिमान (Training Group Model) या केवल टी. समूह प्रतिमान (T. Group Model) भी कहा जाता है।

(अ) केन्द्रविन्दु अथवा उद्देश्य: इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य पारस्परिक सम्बन्धों को सुदृढ़ करना तथा समायोजन की क्षमताओं का विकास करना है।

(ब) संरचना : समस्या की प्रकृति के अनुसार इसमें संरचना की जाती है क्योंकि प्रत्येक प्रशिक्षण की रूपरेखा भिन्न होती है। प्रयोगशाला प्रशिक्षण में अभ्यासों, सिद्धान्तों तथा प्रशिक्षण समूह की प्रकृति एवं आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता है।

(स) सामाजिक व्यवस्था : इसमें सामाजिक अभिप्रेरणा का विशेष महत्त्व होता है। इसमें प्रजातान्त्रिक दृष्टिकोण से शिक्षक तथा छात्र दोनों को समान महत्त्व दिया जाता है।

(द) संभरण व्यवस्था : इसमें स्वतंत्र वातावरण पर बल दिया जाता है।

(य) मूल्यांकन : छात्रों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा समायोजन की योग्यता की जांच के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है।

(र) उपयोग : यह छात्रों में सामाजिक भावनाओं का विकास कर समायोजन की दक्षता उत्पन्न करता है।

 

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