sanskriti-karan-aur-paschimi-karan

संस्कृतिकरण और पश्चिमीकरण की संकल्पनाओं की व्याख्या

संस्कृतिकरण की भूमिका एवं योगदान

संस्कृतिकरण की अवधारणा के दो पक्ष है – 1. ऐतिहासिक संदर्भ, समाज के इतिहास में संस्कृतिकरण सामाजिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया है। जबकि 2.  सन्दर्भात्मक अर्थ में संस्कृतिकरण सापेक्षिक भाव में परिवर्तन की एक प्रति संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को डा0 एम0 एन0 श्रीनिवास ने स्पष्ट किया है। संस्कृतिकरण की अवधारणा के माध्यम से उन्होंने यह बताया है कि आधुनिक भारत में अनेक जातियों के लोग प्रायः उच्च/सवर्ण जातियों के संस्कारों तथा जीवन के रंग शैलिया अनुकरण कर रहे है तथा साथ ही जातीय स्तरीकरण में ऊंचा स्थान/स्थिति पाने – कर रहे है तथा इस प्रयास में वे सफलता भी प्राप्त कर रहे है। उनका कहना संस्कृतिकरण की अवधारणा के फलस्वरूप आधुनिक भारत में निम्न जातियों की जातिगत स्थिति और जीवन के ढंग में काफी परिवर्तन होता जा रहा है। डा0 श्रीनिवास ने जातीय गतिशीलता को स्पष्ट करने के लिए ‘संस्कृतिकरण’ शब्द का प्रयोग किया, जिसके अनुसार  जाति व्यवस्था उस कठोर व्यवस्था से काफी दूर है, जिसमें प्रत्येक जाति की स्थिति हमेशा के लिए निश्चित कर दी जाती है। कहने का तात्पर्य है कि जाति व्यवस्था में गतिशीलता सदैव से ही विद्यमान रही है।

संस्कृतिकरण नवीन तथा अधिक उत्तम विचार, मूल्य, आदर्श, आदत और कर्मकाण्डों को अंगीकार कर अपनी जीवन स्थिति को अधिक उन्नत एवं परिमार्जित बनाने की एक प्रक्रिया है, क्योंकि ‘संस्कृतिकरण’ वास्तव में ‘संस्कृत’ शब्द से सम्बन्धित है। “संस्कृति’ शब्द ‘संस्कार’ का रूपान्तर है। एक हिन्दू को अपने जीवन को परमार्जित करने के लिए विभिन्न संस्कार करने पड़ते हैं। इन संस्कारों को करने के उपरान्त ही वह ‘सुसंस्कृत’ या ‘परिमार्जित’ (Cultured) माना जाता है। इस आधार पर संस्कृतिकरण वह क्रिया है। जिसके द्वारा निम्न जाति/समूह के लोग अपनी जातीय /सामाजिक स्थिति (Status) को परिशुद्ध, उन्नत एवं परिमार्जित करने के उद्देश्य से किसी उच्च /सवर्ण जाति के विचारों, मूल्यों, आदर्शों, कार्यों एवं संस्कारों को अपना या ग्रहण कर लेते हैं। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया विशेषकर बन्द हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत आती है। परिवर्तन के आन्तरिक स्रोत की प्रधानता एक बन्द समाज की विशेषता है। जब व्यक्ति के लिए समाज में आगे बढ़ने के सभी मार्ग खुले होते हैं, तब संस्कृतिकरण के द्वारा सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया धीमी/मन्द/शिथिल हो जाती है।

यह अवधारणा भारतीय समाज में तथा विशेषकर जाति व्यवस्था में होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों को समझने में काफी सहायक सिद्ध हुई है। भारत में सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में संस्कृतिकरण का योगदान और भूमिका को हम निम्नानुसार समझ सकते हैं –

1. संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है, जिसने एक निम्न जाति अथवा जनजाति किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य अथवा प्रभु जाति के रीति-रिवाजों, खान-पान, रहन-सहन, भाषा, साहित्य, विश्वासों. कर्मकाण्डों, अर्थव्यवस्था और जीवन शैली को ग्रहण करती है। इस अर्थ में संस्कृतिकरण निम्न जाति में होने वाले विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तनों को स्पष्ट करती है।

2. संस्कृतिकरण प्रक्रिया द्वारा एक निम्न जाति की स्थिति में ‘पदमूलक’ (Positional) परिवर्तन आता है, जिससे उसकी सामाजिक पद प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है, यानी उसकी सामाजिक स्थिति अपने आस-पास की जातियों से ऊंची उठ जाती है।

3. विद्वानों के मतानुसार, संस्कृतिकरण व्यक्ति अथवा परिवार की नहीं, वरन् एक जाति समूह की गतिशीलता का संकेत करती है।

4. यह प्रक्रिया अतीत काल एवं वर्तमान समय में भी जाति व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट करती है।

5 भारतीय जाति प्रथा एक कठोर एवं बन्द व्यवस्था है और इसकी सदस्यता जन्मजात भी होती है। व्यक्ति एक बार जिस जाति में जन्म ले लेता है, जीवन पर्यन्त उसी जाति का सदस्य बना रहता है। किन्तु संस्कृतिकरण द्वारा जाति को बदलना सम्भव हो गया है। श्रीनिवास ने अनेक उदाहरण देकर इस तथ्य को स्पष्ट भी किया है।

6. संस्कृतिकरण उस प्रक्रिया को भी स्पष्ट करती है जिसके द्वारा जनजातियाँ हिन्दुओं की जाति व्यवस्था में सम्मिलित हो जाती हैं। ऐसा करने के लिए जनजातियाँ हिन्दुओं की किसी जाति की जीवन पद्धति को अपनाती/अंगीकार करती हैं। आज मराठा, रेड्डी, आदि क्षत्रिय वर्ण होने का दावा करते हैं। मैसूर में सुनार एवं लुहार अपने को विश्वकर्मा ब्राह्मण बताते हैं। भील गोण्ड, ओराँव जनजातियाँ अपने को हिन्दू साबित करने में लगी हैं।

7. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया हिन्दु जातियों के विवाह तथा परिवार प्रतिमानों में होने वाले परिवर्तनों को भी प्रकट करती है। संस्कृतिकरण करने वाली कुछ जातियाँ बाल विवाह करने लगी हैं। कुछ विधवा पुनर्विवाह निषेध का पालन करती है, कुछ संयुक्त परिवार प्रथा को ऊँची जातियों के समान अपनाती हैं।

8. संस्कृतिकरण से निम्न जातियों की बराबरी की दबी हुई भावनाओं का उद्घाटन होता है, जिन्हें जातीय आधार पर दबाकर रखा गया था। आज लोग अपने आपको हर तरह से समाज की ऊंची या प्रभावी जातियों के बराबर लाने की कोशिश कर रहे हैं। हेरॉल्ड गूच के अनुसार, संस्कृतिकरण की प्रक्रिया से परम्परागत हिन्दू जाति व्यवस्था का समर्थन नहीं, वरन् एक लम्बे समय से चली आ रही ‘विरोधी भावना’ का प्रकटीकरण होता है।

See also  हिन्दू विवाह क्या है,अर्थ,उद्देश्य व विशेताएं

 संस्कृतिकरण का सिद्धान्त भारतीय सभ्यता में सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन को अत्यन्त विस्तृत रूप से स्वीकृत मानवशास्त्रीय सिद्धान्त है, जो भारतीय समाज तथा संस्कृति में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों का उल्लेख करता है। संस्कृतिकरण में संस्कार, राजनैतिक एवं आर्थिक शक्ति तीनों का महत्व है।

पश्चिमीकरण की भूमिका तथा योगदान

आधुनिक भारत में होने वाले सामाजिक परिवर्तन में पश्चिमीकरण का भी काफी योगदान है, जिसे डॉ0 एम0 एन0 श्रीनिवास ने ही प्रस्तुत किया है। डॉ0 एम0 एन0 श्रीनिवास का कथन है कि “पश्चिमीकरण’ शब्द अंग्रेजों के शासनकाल के 150 वर्षों से अधिक के परिणामस्वरूप भारतीय समाज और संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों को व्यक्त करता है तथा इस शब्द में प्रौद्योगिकी संस्थाओं, विचारधारा, मूल्यों आदि के विभिन्न स्तरों में घटित होने परिवर्तनों का समावेश रहता है। पश्चिमीकरण एक व्यापक अवधारणा है, जो भारत समाज की चेतन एवं अचेतन प्रक्रिया से जुड़ी है। यह नैतिक रूप से एक तटस्थ अवधार है। अतः राह एक वैज्ञानिक अवधारणा भी मानी गई है। यह वास्तव में एक जटिल बहुआयामी अवधारणा है, जिसके कई रूप दिखाई देते हैं। पश्चिमीकरण और संस्कतिक के बीच एक प्रभावकारी सम्बन्ध है। यानी दोनों एक दूसरे की सहयोगी प्रक्रियाएँ हैं।

आधुनिक भारत में हए सामाजिक परिवर्तनों में पश्चिमीकरण का योगदान निम्नानुसार स्पष्ट किया जा सकता है –

पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने भारतीय समाज-संस्कृति को उन्नीसवीं शताब्दी से स्पष्टतः प्रभावित करना शुरू कर दिया था। इन परिवर्तनों में आत्मसातीकरण, पुनरुत्थान और समायोजन जैसी प्रवृत्तियाँ सम्मिलित थीं। भारतीयों ने एक तरफ पाश्चात्य सांस्कृतिक तत्वों को अंगीकार किया, तो दूसरी तरफ उन्होंने उन तत्वों का भारतीय सांस्कृतिक तत्वों के साथ इस प्रकार सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया, जिससे भारतीय संस्कृति एवं संस्थाओं के दोष दूर हो सकें और उनका पुनरुत्थान भी सम्भव हो । पाश्चात्य सांस्कृतिक प्रभावों के स्वांगीकरण, उनके भारतीय सांस्कृतिक विचारों, आदर्शों और प्रथाओं के समन्वय एवं सांस्कृतिक पुनरोदय की प्रवृत्तियों के फलस्वरूप भारत के समाज में निम्नलिखित परिवर्तन हुए हैं –

1. पश्चिमीकरण के फलस्वरूप भारत की परम्परागत और प्रभावशाली संस्थाओं (विवाह, परिवार, जाति-प्रथा, जजमानी प्रथा, नातेदारी, ग्रामीण पंचायत आदि) में उल्लेखनीय परिवर्तन देखे जा सकते हैं। पश्चिमीकरण ने जातिगत विभेद को कम करने की दिशा में एक और राह/रास्ता दिखाया है। सह शिक्षा, प्रेम एवं अन्तर्जातीय विवाह, छुआछूत के विचार बदल रहे हैं। पश्चिमीकरण के प्रभाव से महिलाओं की स्थिति में काफी परिवर्तन आया है। बहुपत्नी, बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या जैसे सामाजिक शोषण से मुक्ति मिली है। पश्चिमीकरण ने संयुक्त परिवार संस्था को काफी चोट पहुँचायी है। स्पष्ट है कि पश्चिमीकरण के कारण भारतीय प्रथा एवं परम्परा काफी प्रभावित हुई है।

2. पश्चिमीकरण ने भारतीयों के धार्मिक जीवन को भी प्रभावित किया है। पहले भारत में धर्म अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। धार्मिक रीति-रिवाज एवं पाखण्डों ने व्यक्ति के जीवन को जकड़ रखा था। धर्म के नाम पर अनेक कुसंस्कार व कुरीतियाँ विद्यमान थीं। जातिगत भेदभाव, सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, विधवाओं पर अत्याचार, आदि देखे जाते थे। पाश्चात्य शिक्षा ने इनको दूर करने में काफी योगदान दिया। व्यक्तिवादी मूल्यों को बढ़ावा मिला। समानता, स्वतन्त्रता, भाईचारा, लौकिकवाद, वैज्ञानिकता सम्बन्धी मूल्यों को बढ़ावा मिला।

3. प्रश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने भारत में उदारवादी एवं मानवतावादी विचारधारा को प्रोत्साहन दिया । अंग्रेजी शासनकाल में सभी को समान रूप से देखा जाने लगा। समान रूप से समान अपराध के लिए समान दण्ड व्यवस्था की गई। जाति, लिंग, आयु और धर्म के आधार पर भेदभाव बंद हुआ। वैयक्तिक गुण तथा योग्यता को बढ़ावा मिला, जिससे समाज में धर्मनिरपेक्षता और समतामूलक मूल्यों को बढ़ावा मिला। इन कार्यों में ईसाई मिशनरियों की भूमिका उल्लेखनीय थी। जिन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अस्पताल, अनाथाश्रम, स्कूल-कॉलेज खोले, अछूत जातियों तथा जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी कार्य किये।

4. अंग्रेजी शासन के पूर्व तक देश में ग्रामीण अर्थव्यवस्था ही प्रधान थी, जिसका आधार खैती और कुटीर धन्धे थे। प्रत्येक गाँव एक स्वतन्त्र इकाई था और उत्पादन स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार होता था। अंग्रेजों ने इस अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाकर बड़े-बड़े कारखानों की स्थापना की, जहाँ मशीनों द्वारा तीव्र गति से बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाने लगा। ग्रामीण उद्योगों के पतन से गांवों से शहरों की ओर पलायन शुरू हुआ। शहरों में मजदूरों का आर्थिक शोषण होने लगा। पूँजीवाद के दोषों में चारों ओर गरीबी, बेकारी, भुखमरी का राज्य स्थापित किया। अंग्रेजों ने भारतीय भू-सम्पदा, मानव सम्पदा और कृषि सम्पदा में काफी दोहन किया। यातायात और संचार साधनों के साधन बनाए गये, जिससे सम्पूर्ण देश एक दूसरे के साथ जुड़ गये, किन्तु इसके मूल में भी आर्थिक शोषण की भावना छिपी थी। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप श्रमिक आन्दोलन का सूत्रपात हुआ, जिसके चलते भारत में राष्ट्रीयता की भावना उत्तरोत्तर प्रबल होती गई। ।

5. पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से राजनीतिक जीवन भी अछूता नहीं रहा। अंग्रेजों ने देश के राजे-रजवाड़े समाप्त कर दिये, ग्राम पंचायतों के अधिकार छीन लिये। शासन प्रबन्ध में धर्म को बहिष्कृत किया। इस प्रकार सम्पूर्ण देश में एक समान शासन व्यवस्था की स्थापना की। बाह्य और आन्तरिक सुरक्षा के लिए पुलिस बल, सैन्य बल और न्याय व्यवस्था गठित की। यातायात और संचार साधनों के विकास के फलस्वरूप विभिन्न प्रान्तों/प्रदेशों के लोग एक दूसरे के निकट आए, जिससे उनमें राष्ट्रीय एकता की भावना पनपी। राष्ट्रीयता के विकास ने स्वतः ही स्वाधीनता आन्दोलन को जन्म दिया. फलस्वरूप उपनिवेशवाद की समाप्ति हुई। स्वतन्त्रता आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने बाँटो एवं राज्य करो की नीति अपनाई. जिससे भारत का विभाजन हुआ। हिन्दू-मुस्लिम जनता के बीच हए मतभेद ने स्थायी रूप धारण किया।

See also  स्पेंसर के सामाजिक उद्विकास का सिद्धांत | Spencer theory of Social Evolution in hindi

 स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त भारत में लोकतन्त्रीय और संसदीय संस्थाओं का विकास भी वास्तव में पश्चिमीकरण की ही देन है। पश्चिमी मूल्यों एवं आदर्शों के प्रभाव के कारण ही देश में वैधानिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। कानूनी मामलों में सभी के विशेषाधिकारों को समाप्त किया गया। फलस्वरूप भारत में प्रजातन्त्र उत्तरोत्तर सुदृढ़ हुआ।

6. पश्चिमीकरण के प्रभाव से देश में ललित कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिले। चित्रकला, स्थापत्य कला, संगीत में परिवर्तन हुए। इन सभी पर पश्चिमी छाप दिखाई देती है। देश में कई कला केन्द्र स्थापित किये गये, जहाँ पाश्चात्य परम्पराओं के अनुसार ड्राइंग, मॉडल, चित्र आदि का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। पाश्चात्य संगीत ने सामान्य भारगतीय संगीत को प्रभावित किया। फिल्मों में इसका बहुतायत प्रयोग होने लगा।

7. पाश्चात्य संस्कृति का दूरगामी प्रभाव शिक्षा जगत पर भी पड़ा। लॉर्ड मैकाले द्वारा 1835 ई0 में भारतीय स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम द्वारा शिक्षा देने का विचार किया। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों को सरकारी नौकरी देने में प्राथमिकता घोषित की गयी। यह शिक्षा सभी जाति एवं धर्म के लोगों को उपलब्ध कराई गई, अतः अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार बढ़ता गया। समाज में जाति-भेद, छुआछूत, ऊंच-नीच, सामाजिक कुरीतियाँ कट्टरता दूर हुई। तकनीकी एवं औद्योगिक शिक्षा के प्रभाव से भारत आधुनिकीकरण दिशा में अग्रसर हुआ, उसका विश्व के कई देशों से सम्पन्न हुआ। अंग्रेजी शिक्षा के से ही भारतीय राष्ट्रीयता, मानवता और स्वतन्त्रता के आदर्शों से पुनः परिचित हए।

8. पश्चिमीकरण के प्रभाव के फलस्वरूप देश में अन्य कई परिवर्तन भी आए, यथा-

(अ) भारतवासियों के खान-पान और रहन-सहन में परिवर्तन आए। माँस-मदिरा का प्रयोग बढ़ा भोजन सम्बन्धी प्रतिबन्ध बदले, कपड़े पहनकर भोजन किया जाने लगा भूमि के स्थान पर डाइनिंग टेबल में भोजन किया जाने लगा, होटलों, रेस्टोरेन्टो में सभी जाति धर्म के लोग खाने-पीने लगे। पैण्ट-शर्ट, सूट-बूट का चलन हुआ। हाय-हैलो, बॉय-बॉय, गुड मार्निग, गुडनाइट, मम्मी-पापा, आदि अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग प्रतिष्ठाजनक माने जाने लगा। रेडियो, टेलीविजन, टेप, रेफ्रिजरेटर, कुकर, स्टोव, हीटर, फिल्टर, मिक्सी आदि का प्रयोग आधुनिकता का प्रतीक हो गया।

ब) अंग्रेजी शासन के दौरान भारत में ‘खडी बोली’ को प्रोत्साहन मिला और इसको राजकीय स्वरूप मिलने का मार्ग प्रशस्त हआ। जॉन गिलक्रिस्ट ने फोर्ट विलियम कालेज में हिन्दी विभाग को स्थापित करके हिन्दी भाषा को विकसित होने का अवसर प्रदान किया। हिन्दी के प्रणेता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के साहित्य पर अंग्रेजी भाषा का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। ईसाई मिशनरियों ने ईसाई धर्म की बातें जनता तक पहुँचाने के लिए हिन्दी भाषा का सहारा लिया। उन्होंने बाइबिल और अपने धर्म की अन्य पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद कराया । भारतीय नाटकों और गद्य-पद्य का हिन्दी में अनुवाद किया गया, जिससे हिन्दी भाषा समृद्ध होती गई। निबन्ध और आलोचना साहित्य में पाश्चात्य तत्वों को अंगीकार किया गया । पश्चिमी विद्वानों ने विभिन्न भाषाओं के शब्दकोष लिखे । समाचार पत्र का प्रकाशन आरम्भ हुआ। कालान्तर में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों ने भी सामाजिक जागरण और राष्ट्रीयता की भावना के लिए साहित्य के क्षेत्र में लेखन किया। इससे भारतीय भाषा एवं साहित्य ने राष्ट्रीय आन्दोलन में उल्लेखनीय योगदान योगदान किया।

इन्हें भी देखें-

 

 

समाजशास्त्र की सम्पूर्ण लिस्ट (Complete List)

 

Disclaimer -- Hindiguider.com does not own this book, PDF Materials, Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet or created by HindiGuider.com. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: [email protected]

Leave a Reply