विकास के सांस्कृतिक कारक

विकास के सांस्कृतिक कारक की विवेचना | Cultural Factor of Development in Hindi

सामाजिक विकास को कई कारक प्रभावित करते है। इसके सबसे प्रमुख है, सांस्कृतिक कारक। तो आज हम यह देखेंगे कि विकास के सांस्कृतिक कारक क्या है, जो विकास को प्रभावित करते हैं।

 

विकास के सांस्कृतिक अवरोध क्या है

मनुष्य इसलिए ‘मानव’ है कि उसके पास संस्कृति है। संस्कृति के अभाव में मानव को पशु से श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता। संस्कृति ही मानव जाति की सर्वोच्च विरासत है, जिसकी सहायता से मानव पीढ़ी दर पीढ़ी विकास मार्ग पर आगे बढ़ता जा रहा है, प्रगति की ओर उन्मुख हैं। यदि मनुष्य के पास संस्कृति न हो, तो उसमें और पशु में कोई विशेष अन्तर न होता है। संस्कृति के आधार पर ही एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से एक, एक समूह को दूसरे समूह से और एक समाज को दूसरे समाज से पृथक किया जाता है। मनुष्य की दृष्टि में एक ऐसा प्राणी है, जिसने अपनी शारीरिक एवं बौद्धिक विशेषताओं के आधार पर संस्कृति का निर्माण किया है, भौतिक क्षेत्र में अनेक वस्तुएँ तैयार की है, भौतिक क्षेत्र में विभिन्न विश्वासों एवं व्यवहार के तरीकों को जन्म दिया है। संस्कृति वह संसार है, जिसमें एक व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक निवास करता है, चलता-फिरता है और अपने अस्तित्व को बनाये रखता है।

 

 किसी भी समाज में परिवर्तन और  विकास के सांस्कृतिक कारक या तत्व की अत्यन्त महत्वपूर्ण भमिका होती है। नये मूल्य और विचारधारा सामाजिक संगठन द्वारा प्रभावित करते हैं। लोगों के कार्य मूल्यों तथा विचारधाराओं पर ही निर्भर होते नमें परिवर्तन होने लगता है, तो उसके कार्य करने की दिशा में बदलाव आना शुरू हो जाता है। भारतीय सन्दर्भ में पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण अनेक परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं, यथा- शिक्षा का प्रचलन, विलम्ब विवाह, संयुक्त परिवार प्रथा का विघटन, एकांकी परिवारों का प्रचलन, स्त्री-पुरुषों के समान अधिकार, आदि। सामाजिक रिवर्तन और विकास के बारे में डासन एवं गैविस ने लिखा है, “अन्तः संस्कृति सामाजिक परिवर्तन की दिशा निश्चित करती है और उसे गति प्रदान करती है एवं उन सीमाओं को निर्धारित करती है, जिनके बाहर सामाजिक परिवर्तन नहीं जा सकते हैं।”

विभिन्न विद्वानों के अनुसार, संस्कृति सामाजिक विकास में सहायक है और अवरोध भी। विकास को एक सतत् रूप में चलने वाली प्रक्रिया माना गया है, जिसके द्वारा एक सरल समाज विकसित समाज के रूप में परिवर्तित हो जाता है। विकास की अवधारणा सामाजिक प्रासंगिकता, आर्थिक विकास और सामाजिक विकास मए निहित होती है। जीवन के पूर्ण विकास के लिए सांस्कृतिक मूल्यों को ग्रहण स्वीकार करना अत्यावश्यक होता है। अतः कहा जा सकता है कि सामाजिक विकास में सांस्कृतिक विकास का योगदान महत्वपूर्ण है। विकास की ओर अग्रसर प्रक्रिया ही परिवर्तन का कारण बनती है। यह आर्थिक उत्पादन के उपकरणों के बदलने से परिवर्तित मानवीय सम्बन्धों द्वारा क्रियान्वित होती है। विकास-प्रक्रिया जीवन्त सामाजिक अवधारणा है। इसके परिवर्तन से नवीन सामाजिक सम्बन्धों, अभिनव सांस्कृतिक मूल्यों, परम्पराओं, विश्वासों, प्रथाओं एवं मान्यताओं का जन्म होता है, जिससे – प्राचीन सामाजिक ढाँचा पूर्वपेक्षया एक नवीन संरचना में सामने आता है।

आर्थिक विकास से क्या अभिप्राय है ? इसे इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं कि आर्थिक विकास वह सम्बन्ध एवं प्रारूप है, जिससे समाज इस अवस्था में आ जाता है कि वह अपने सदस्यों की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके। विकास की इस प्रक्रिया में संस्कृति का विशेष योगदान है। समाज के सम्बन्ध में सांस्कृतिक विकास मानव जीवन के उन्नतिशील संस्कृति के संयोग से विकास होता है। जीवन के भौतिक पक्ष का विकास सभ्यता करती है तथा आन्तरिक जीवन को संस्कृति संवारती है। जीवन के साधनों का जब विकास मनुष्य करता है, तभी उसे हम सभ्य कहते हैं।

संस्कृति सदैव विकासोन्मुख रहती है, किन्तु वह अवरोधक किस प्रकार हो सकती है। इस सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि संस्कति की विकृतियों एवं उसके सांस्कृतिक मूल्यों के रूढ़िगत पालन से सामाजिक विकास में अवरोध आ जाते हैं। समाज में व्यक्ति को अपनी परम्पराओं, प्रथाओं एवं मान्यताओं के अनुसार जीना पड़ता है एवं दूसरी तरफ नये तकनीकों को भी सीखने की समस्या उसके साथ बनी रहती है।

सामाजिक दृष्टिकोण से ब्राह्मण या द्विज हिन्दू समाज के विकास में बाधक है। उनकी पुरातन कोशिश यही रही है कि निम्न वर्ग सदैव उसी दशा में बने रहे क्योंकि संस्कृति यही कहती है। उनकी इन्हीं मान्यताओं ने निम्न वर्गों को सदियों तक अंधेरे में रहने के लिए विवश किया। संस्कृति के कुछ विशेष तत्व जैसे – साहित्य, कला, अध्यात्म। आदि को द्विज वर्गों ने सदैव निम्न व्यक्तियों से परे रखा। ऐसी दशा में निम्न वर्गों का विकास कैसे हो सकता है। अतः स्पष्ट है कि जिन समाजों में इस प्रकार के सांस्कृतिक भेदभाव होंगे, वहां संस्कृति विकास में बाधक ही बनी रहेगी।

अपने स्वस्थ रूप में संस्कृति विकास में सकारात्मक और सहायक होती है, किन्तु विकृत रूप में विकास के लिए घातक एवं अवरोधक सिद्ध होती है। संस्कृति एवं रूढिपर विद्रप स्वरूप का ग्रहण अवरोध का हेतु ही बनेगा। संस्कृति की विकृति और सांस्कृतिक मूल्यों के रूढात्मक अनुगमन के फलस्वरूप सामाजिक विकास में अवरोध (Impediments) आता है। व्यक्ति को समाज में अपनी प्रथाओं, परम्पराओं, मान्यताओं के अनुसार ही कार्य करना पड़ता है, तो दूसरी ओर नये-नये तरीके सीखने की समस्या रहती है। इस प्रकार व्यक्ति समाज का सदस्य होने के नाते जो भी भौतिक-अभौतिक व्यवहार सीखता है, वे सब उसकी संस्कृति के अंग होते हैं।

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आर्थिक विकास ने सामाजिक संरचना का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह कुसंस्कत धनी वर्ग के हाथों में चला। किसान तथा गरीब समाप्त हो गये और रह गये कुसंस्कृत धनी। वर्ग श्रमिक तथा कारखाने, सभ्यता इसी वृद्धि से सम्बन्धित है। इसका सम्बन्ध भौतिक सुखों के अधिकतम उपभोग से भी है, किन्तु इस प्रक्रिया में आत्मा छूट गई। संस्कृति का अवसान सभ्यता से होता है। संस्कृति का जन्म कृषि सरकार की कोख से होता है, उसी से उसकी वृद्धि होती है। सभ्यता तो महानगरों की उपज है। महानगर के निर्मित होते ही व्यक्ति ईमानदार कम और चालाक अधिक बन जाता है, उसके जीवन मूल्य भी बदल जाते हैं। एक समय ऐसा था, जब ज्ञान को पुण्य का पर्याय समझ जाता था, आज ज्ञान शक्ति का साधन बन गया है। शक्ति को कंचन कहते हैं, शक्ति के आने पर शान्ति चली जाती है, आत्मशक्ति क्षीण हो जाती है।

व्यक्ति जितने भी विश्वासों, विचारों, परम्पराओं, प्रथाओं, जनरीतियों एवं धार्मिक नियमों में अपना जीवन व्यतीत करता है, वे सब भौतिक संस्कृति हैं। अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत सभी पौराणिक कथाओं, विश्वासों, लोकोक्तियों, साहित्य, लोकाचारों, प्रथाओं. संस्कारों, सदाचार नियमों, कर्मकाण्डों को सम्मिलित किया जाता है। स्पष्ट है कि संस्कृति का सार भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा, वे विश्वास तथा अभिवृत्तियां होती हैं, जो कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचालित होते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि संस्कृति का भौतिक पद्य सभ्यता और उसका अभौतिक पक्ष जीवन मूल्य तथा अन्य ज्ञान विज्ञान की धाराएं हैं।

भारत में सामाजिक दृष्टि से ब्राह्मण/द्विज् वर्ग समाज के विकास में अवरोधक है. क्योंकि इससे निम्नवर्गीय समाज के विकास में रुकावट आती है। किन्तु जब निम्नवर्गीय समाज द्विजवर्गीय समाज की विचारधारा, कर्मकाण्ड, रीति-रिवाज, जीवन-पद्धति को अपनाकर अपनी स्थिति उनसे ऊँचे समझने लगता है, तब वास्तव में यह उसी बिन्दु की ओर अग्रसर हो जाता है, जहाँ से परिवर्तन की धारा फूटती है। यह एक तरह से निम्न वर्ग का ‘ब्राह्मणीकरण’ है, जो कि विकास की चक्रिक गति तो व्यक्त तो अवश्य करता है, और जो आगे जाकर अवरोध उत्पन्न करता है, क्योंकि निम्नवर्गीय समाज द्विजवर्गीय समाज से ऊंचा उठकर उसे निम्नवर्गीय समाज की स्थिति में डाल देगा। इसके फलस्वरूप एक सामाजिक असन्तुलन उत्पन्न हो जायेगा। स्पष्ट है कि यह प्रक्रिया एक तरह से विकास में अवरोधक सिद्ध होगी। समाज का सम्पूर्ण विकास आवश्यक है, न कि किसी एक वर्ग विशेष का विकास  महत्वपूर्ण है।

 

विकास को प्रभावित करने वाले सांस्कृतिक कारक

संस्कृति के भौतिक एवं अभौतिक दोनों पक्षों के अवरोध मूलक तत्व है –

 

भौतिक संस्कृति के मुख्य अवरोधक तत्व है –

1. आविष्कारों का अभाव,

2. आर्थिक हितों द्वारा प्रौद्योगिक प्रतिबन्ध (नौकरशाही हितों, आर्थिक हितों और सांस्कृतिक हितों द्वारा निश्चित प्रतिबन्ध),

3. प्रौद्योगिकीय पिछडाव और

4. आविष्कारों की प्रति-विरोधी मनोवृत्ति।

 

इसी प्रकार अभौतिक संस्कृति के प्रमुख अवरोधक मूलक तत्व हैं –

1. साहित्य कला, संगीत का प्रभाव,

2. भाषा एवं धर्म का प्रभाव,

3. भाग्यवादिता या नियतिवाद,

4. पुरातनता के प्रति अकारम मोह,

5. प्रथाएँ तथा परम्पराएँ,

6. कर्म की अवधारणा,

7. ज्यवाद और अन्धविश्वास,

8. लोक विश्वास और रीतियाँ।

 

सामाजिक विकास और परिवर्तन की दृष्टि से आविष्कारों को आवश्यक माना जाता। संस्कति भौतिक पक्ष आविष्कारों पर ही आश्रित है। किन्तु पिछड़े और विकासशील देशों विकसित देशों की तुलना में आविष्कारों का अभाव रहता है। अतः प्रौद्योगिकीय विकास की कमी होने से उनका सामाजिक आर्थिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।

जो समाज परम्परा पर अधिक बल देता है, वह नये आविष्कारों के प्रति सकारात्मक मनोवत्ति नहीं रखता। फलस्वरूप ऐसे समाज में नये-नये आविष्कारों को सहज ही स्वीकृति नहीं मिल पाती। उदाहरण के लिए भारत में रोडवेज की मोटर गाड़ियाँ चलाई गई, तो ग्रामीण लोग उस पर चढ़ना ही नहीं जानते थे। अतः उन्हें विभिन्न प्रयोजनों द्वारा आकर्षित किया जाता था। सामान्यतः देखा गया है कि व्यक्ति जल रही मौजूदा व्यवस्था के अनुरूप ही अपनी मनःस्थिति बना लेते हैं। इससे वे अपनी आदतों में बदलाव नहीं लाना चाहते। प्रारम्भ में लोग चाय, शकर का प्रयोग नहीं करते थे। आज भी कई ग्रामीण शक्कर के स्थान पर गुड़/खांडसारी का ही प्रयोग करते हैं। आविष्कारों के प्रति विरोध या नकारात्मक रुख के पीछे यह भय भी पाया जाता है कि कहीं नवीन आविष्कार उनकी प्रतिष्ठा को समाप्त न कर दे। सामाजिक विरासत के तत्व (रीति-रिवाज, आचरण, विश्वासादि) व्यक्ति को अपने पूर्वजों से प्राप्त होते हैं, अतः उनके प्रति स्वाभाविक लगाव होता है। इस कारण व्यक्ति उनके स्थान पर नये व्यवहारों और रीति-रिवाजों को स्थानान्तरित नहीं कर पाता है। कारखानों में नई मशीनों के प्रयोग किये जाने से मजदूर बेकार होते हैं, अतः मजदूर वर्ग भी उसे स्वीकार नहीं कर पाता। ऐसे सभी तत्व विकास में बाधक बन जाते हैं।

सामाजिक विकास के क्षेत्र में प्रौद्योगिकीय पिछड़ापन भी एक बाधक तत्व है। प्रौद्योगिक पिछड़ेपन से तात्पर्य है – उसके समस्त अंगों तथा भागों में असन्तुलन की अवस्था भौतिक संस्कृति के उपादानों (Components) का विकास एक साथ नहीं होता, अत: उनमें एक असन्तुलन आ जाता है। यदि किसी सड़क पर बैलगाड़ी, टाँगा चलती है। और उसी सड़क पर मोटर बसे चलाई जायें, किन्तु उसका सुधार न किया गया हो, तो यह स्थिति पिछड़पन कही जायेगी। प्रौद्योगिकीय प्रक्रिया में सम्मिलित विभिन्न कार्यों में से कुछ में कार्यकुशलता एवं उत्पादन क्षमता बनाये रखने की क्षमता न होने पर, उस प्रक्रिया की कुल उत्पादकता में रुकावट आती है। यह प्रौद्योगिक पिछडापन है, जिससे विकास के मार्ग में अवरोध आता है।

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प्रत्येक समाज में कुछ ऐसे व्यक्ति भी पाये जाते हैं, जो किसी निहित स्वार्थों के कारण प्रौद्योगिक उपलब्धियों के विपरीत प्रचार करते हैं तथा उसे अपनाने में स्वयं भी हिचटते/झिझकते हैं और दूसरे लोगों को उससे रोकते हैं। भारत में जब रेल का प्रयोग शुरूं किया गया, तो उस पर सवारी करने से हिचकिचाते रहे और दूसरों को भी रोकते रहे। स्पष्ट है कि समाज में जब भी प्रभावी यन्त्रों का प्रयोग प्रारम्भ होता है, तो कुछ व्यक्ति निहित स्वार्थों के वशीभूत उसको विरोध और बहिष्कार करते हैं। यह विरोध तीन स्थितियों में होता है-

  1. प्रथम अवस्था नौकरशाही से सम्बन्धित है। चाहे सामान्य प्रशासन हो अथवा सना का अनुशासन हो, कहीं पर भी अधिकारी वर्ग लीक से हटकर कार्य नहीं करना चाहता। वह किसी भी व्यवस्था में संशोधन सामान्यतः स्वीकार नहीं करता है।
  1. दूसरी अवस्था में आर्थिक स्वार्थ के कारण कुशल पद्धतियों का विरोध होता है। आर्थिक कारकों को नियमित करने वाले व्यक्ति नई व्यवस्था को इस कारण नहीं स्वीकार करते, क्योंकि उनको घाटा पहुँचेगा। उदाहरण के लिए, मजदूर वर्ग सदैव अभिनवीकरण का विरोध करता है, क्योंकि उसे अपनी मजदूरी, वेतन अर्थात् नौकरी की चिन्ता होती है। उत्पादन वृद्धि से उसे क्या लेना देना है।
  2. तृतीय अवस्था में प्रौद्योगिकीय विकास से सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास होता है, ऐसा विचार भी आविष्कारों का विरोधी है। इसीलिए सांस्कृतिक प्रतिबन्ध नेताओं तथा नैतिकतावादियों द्वारा किया जाता है। आधुनिकीकरण का विरोध इस कारण किया जाता है, क्योंकि जाति समूह यह सोचता है कि इससे कहीं उसकी संस्कृति बदल न जाये। इस प्रकार की प्रवृत्ति परम्परागत समाज को प्रौद्योगिक विकास से रोकती है।

 

स्पष्ट है कि संस्कृति के दोनों तत्व-अभौतिक और भौतिक संस्कृति के प्रति दृष्टि की व्यापकता न होने के कारण और पूर्वाग्रही मनोवृत्ति के फलस्वरूप सांस्कृतिक मूल्य तथा भैतिक साधन सामाजिक विकास की प्रक्रिया में बाधक बन जाते हैं।

 

 

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