विकास के विभिन्न समीक्षात्मक परिप्रेक्ष्य

विकास के विभिन्न समीक्षात्मक परिप्रेक्ष्य की समीक्षा | Critical Perspectives of Development in Hindi

 यहाँ पर हम विकास के विभिन्न समीक्षात्मक परिप्रेक्ष्य की समीक्षा में हम विकास के विभिन्न पहलूओं के परिप्रेक्ष्य मे समीक्षात्मक व्याख्या करेंगे। इनमें से जैसे – विकास के उदारवादी परिप्रेक्ष्य, आधुनिकरण के परिप्रेक्ष्य, मार्क्स के विकास और अल्प विकास के परिप्रेक्ष्य, सामाजिक आर्थिक नीति और वैश्ववीकरण के परिप्रेक्ष्य में हम व्याख्या करेंगे।

 

विकास के उदारवादी परिप्रेक्ष्य की समालोचनात्मक व्याख्या

 1991 में भारत ने नई आर्थिक नीति को अंगीकार किया, जिसके पूर्व तक आर्थिक विकास की मिश्रित अर्थव्यवस्था प्रचलित रही। मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति को इस कारण अपनाया गया था कि लोहा तथा कोयला खनन, इस्पात-शक्ति एवं सडकों की महत्वपर्ण उद्योग सरकारी नियन्त्रण में होने चाहिए, ताकि अर्थव्यवस्था के अलग-अलग में विकासात्मक कार्यों के लिए आवश्यक संसाधन सरलता से अपलब्ध हो सकें। दूसरी ओर निजी क्षेत्रों को उद्योग तथा व्यापार के क्षेत्रों में कानून के अन्तर्गत नियमों एवं प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हए कार्य करने की अनुमति दी गई थी। यह कदम इस कारण से उठायदान गया था कि देश की धन सम्पत्ति और संसाधन मात्र कुछ ही लोगों के हाथों में केन्द्रित था। सार्वजनिक क्षेत्र में सरकार ने अपनी आय का काफी बड़ा हिस्सा निवेश में लगाया। इस दिन नीति का मुख्य लक्ष्य था – गरीबी उन्मूलन तथा सामाजिक न्याय के आधार पर आर्थिक सम्बन्धी विकास की प्राप्ति।

कालान्तर में भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत होता गया। फलस्वरूप भारत – असम सरकार की आय का एक बहुत बड़ा भाग विकास के अन्य कार्यों की अपेक्षा सार्वजनिक जिन क्षेत्र के उद्यमों की धन आपूर्ति में ही निवेश होने लगा। इससे औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि हुई, शिक्षा संस्थाओं ने वैज्ञानिकों और तकनीशियों को तैयार किया, जिससे देश को किया औद्योगिक एवं प्राविधिक विकास करने में काफी सफलता मिली। इस नीति के कुछ नकारात्मक फल भी देखने को मिले, जैसे औद्योगिक विकास आशानुकूल नहीं हुआ, क्योंकि इसकी धीमी गति से कारण वही थे, जो निजी क्षेत्र पर नियन्त्रण करने के लिए तैयार किए गये थे। सार्वजनिक क्षेत्र को सुचारु रूप से संचालित और नियन्त्रित करने के उद्देश्य से जिस कि को सरकारी ढाँचे को खड़ा किया गया था, वही औद्योगिक विकास के मार्ग की बाधा बन गया। फलस्वरूप आवश्यक पूँजी में कमी आई, वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतें बढ़ीं और सरकारी व्यय उसकी आय से अधिक होता गया। विदेशी ऋण का भार इतना बढ़ गया कि उसका ब्याज चुकाना भी कठिन हो गया। अतः भारतीय अर्थव्यवस्था को आर्थिक विकास के मार्ग पर तेजी से लाने के लिए एक कार्य योजना ‘उदारीकरण’ (Liberalization) की तैयार की गई।

उदारीकरण की नीति के अन्तर्गत कई औद्योगिक कार्यक्रम, जो पहले सार्वजनिक क्षेत्रों द्वारा चलाए जाते हैं, उन्हें अब निजी क्षेत्रों के लिए खोल दिया गया। उन समस्त प्रतिबन्धों और नियमों को छूट दी गई, जो कि पहले निजी क्षेत्र के विकास में बाधा पैदा करते थे। उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद गत दो दशकों में अनेक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष परिवर्तन हए हैं। यद्यपि देश के रोजगार के ढाँचे में विशेष अन्तर नहीं आया है, किन्तु कुछ प्रत्यक्ष परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं, यथा – संसार क्षेत्र में कम कीमतों में उत्तम सेवाएँ, यथा टेलीफोन के अच्छे उपकरण उपलब्ध होना। कोका कोला तथा पैप्सी कम्पनियों द्वारा भारत में ही उत्पादन इकाइयों को आरम्भ करके शीतल पेय और नये खाद्य पदार्थों का विपणन करना। विश्व के माल और सेवाओं के व्यापार में देश की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है, किन्तु अभी भी काफी धीमी प्रगति है। विश्व के अनेक देशों ने भारत में माल तथा सेवाओं के उत्पादन में निवेश को बढ़ाया है। उदारीकरण की नीति का उद्देश्य यद्यपि रोजगार के नये-नये अवसर उपलब्ध कराना है और कई अवसर उपलब्ध भी हो रहे हैं, किन्तु भारत की निरन्तर बढ़ती हुई आवश्यकता के अनुपात से आज भी बहुत ही कम है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में। स्पष्ट है कि औद्योगिक क्षेत्र में कुछ विकास तो अवश्य हुआ है, किन्तु अभी तक अपेक्षित स्तर तक पहुँचने में सफल नहीं हो पाया है।

 

 

आधुनिकीकरण के सिद्धान्तों की समालोचना

आधुनिकीकरण (Modernization) राजनैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक विकास की एक ऐसी मिली-जुली पारस्परिक क्रिया है, जिसके द्वारा ऐतिहासिक एवं समकालीन अविकसित समाज स्वयं को विकसित करने में लगे रगते हैं। आधुनिकीकरण की मूल आत्मा तार्किकता, वैज्ञानिक भावना एवं परिष्कृत तकनीक से जुड़ी रहती है। विकास की परिभाषा में अर्थशास्त्रीय विचारकों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण मानी गयी। उनके बाद समाजशास्त्रियों का है, जो विज्ञान के ‘समाजशास्त्र’ को लाए हैं। अल्पविकसित देशों का समाजशास्त्र, विकास तथा नियोजन का समाजशास तीसरी दुनिया का समाजशास्त्र, लैटिन अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका एवं एशिया के पिछड़े हुए देशों का समाजशास्त्र विकास सम्बन्धी पर्याप्त सामग्री का शिक्षण और शोध है, जिसका आनुभविक (Empirical) आधार आधुनिक विचारधाराएँ, नए विचारकों के उत्साही प्रयास, जो उच्च विकास की राजनीति, असमान विनिमय, निरपेक्षतापूर्ण आर्थिक नियोजन, तृतीय विश्व की निर्धनता, आदि है,  जिनको कि विकास के समाजशास्त्र की विषय सामग्री के रूप में प्रयोग किया जाता है।

विकास के पश्चिमी तर्क को एशिया के ग्रामीण देशों के अध्ययनों ने निरुत्साहित किया है। सामाजिक परिवर्तन के वे अध्ययनकर्ता, जो भारत में शोध कार्य करना चाहते हैं, उनको भारत की संस्कृति की लचीली प्रवृत्ति तथा जीवन दर्शन, योजना के प्रति उत्साह इस आश्चर्यजनक प्रतीत होता है। तीसरी दुनिया के समाजशास्त्र का शोध बिन्दु विकास सम्बन्धी के सम्भावित परिणामों तथा प्राप्त होने वाले तथ्यों का ढेर है, जो कि विकास के प्रारम्भिक से मिथक को तोड़ता है।

बीसवीं शताब्दी के विचारकों ने विकास के मुद्दे/प्रश्न पर काफी चिन्ता प्रदर्शित की है, यथा – विकास का तात्पर्य औद्योगीकरण माना गया तथा बड़े और विशालकार उद्यमों के माध्यम से तकनीकी रूप से अल्प विकसित देशों को ऋण देकर उनके विकास का श्रेय पश्चिमी पूँजीवादी प्रणाली के देशों ने ले लिया। इससे 1960 के दशक में आश्रितता सिद्धान्त में उग्र समाज चिन्तकों और आन्दोलनकारियों एवं विकास के अनियन्त्रित पक्ष के विद्वानों ने सहमति से ‘आश्रितता के विरुद्ध’ रखा। गुन्नार मिर्डल की पुस्तक ‘एशियन ड्रामा’, शुभा खेर की कृति ‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ के प्रकाशन से ‘नियोजित विकास’ को चुनौतीपूर्ण वैकल्पिक आधार प्राप्त हुआ।

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आधुनिकीकरण के सिद्धान्त के मुख्यतः तीन रूप बताए जाते हैं – समाजशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक एवं आर्थिक। आधुनिकीकरण का समाजशास्त्रीय रूप परिवर्तन की प्रक्रिया में विभिन्न सामाजिक तथा सांस्कृतिक कारकों की भूमिका पर प्रकाश डालता है। इसका मनोवैज्ञानिक स्वरूप परिवर्तन की चालक शक्तियों में आन्तरिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं पर विशेष बल देता है। आधुनिकीकरण के आथिक स्वरूप का वर्णन विश्लेषा (1960) के आर्थिक विकास की अवस्थाओं के सिद्धान्त में देखने को अनुसार, समस्त समाज पाँच मुख्य सोपानों /चरणों में से होकर गुजरते हैं- पारम्परिक समाज, परिवर्तन की पूर्व अवस्था परिवर्तन प्रक्रिया का शुभारम्भ, वयस्क अवस्था की ओर कदम तथा विपुल जन उपभोग की अवस्था।

 

 

 

 मार्क्स के विकास और अल्प विकास के सिद्धान्त की आलोचनात्मक  विवेचन

 मार्क्स के अनुसार, विकास जीवन स्तरो में सुधार एवं उन्नति से सम्बन्धित होता है। सामाजिक विकास का अभिप्राय न केवल समाज के विकास से होता है, वरन् वास्तविक रूप से ऐसे लक्षणों की प्राप्ति से भी है, जो कि मानव जीवन के विभिन्न क्षेत्र (आर्थिक समृद्धि, सामाजिक आर्थिक न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनैतिक स्वतन्त्रता, आदि) में विभिन्न लक्ष्यों को प्राप्त करने से भी सम्बन्धित होते हैं। समाज की संरचना जैसे-जैसे एक निर्दिष्ट दिशा में बदलती जाती है, समाज के वंचित लोगों को समाधानों के विभाजन में अधिकतम अवसरों हेतु प्रोत्साहन मिलता है। स्पष्ट है कि सामाजिक संरचना विकास की एक प्रक्रिया है, जिसमें कि विकास की संकल्पना को एक ऐसे शोषणविहीन सामाजिक व्यवस्था को वरीयता के रूप में लेना है।

मार्क्स के विकास सम्बन्धी दृष्टिकोण/उपागम की मुख्य मान्यतानुसार, विकास का यथार्थ तथा वैज्ञानिक विश्लेषण तभी हो सकता है, जब विश्वव्यापी पूँजीवादी संरचना के वाणिज्यिक और औद्योगिक अवस्था से लेकर उपनिवेशवादी तथा नव-उपनिवेशवादी अवस्था तक के विकास क्रम का विश्लेषण किया जाए। मार्क्स के दृष्टिकोण के अनुसार विकास के विशेषण का प्रमुख प्रश्न यही है कि विकास का स्वरूप पूँजीवादी है या समाजवादी। मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार, वैश्विक स्तर पर आधुनिक पूँजीवादी विकास प्रक्रिया के कारण एक तरफ अल्पसंख्यक पूँजीपति देश विकसित हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ बहुसंख्यक अविकसित देशों में पिछड़ेपन में वृद्धि हो रही है। इसी कारण विकसित देशों में विकास प्रक्रिया अन्योन्याश्रित रूप से अविकसित देशों के अविकास की प्रक्रिया से जुड़ी है।

मार्क्स के विकास सम्बन्धी चिन्तन ने समकालीन विचारकों में तीन प्रकार के विचार प्रारूप विकसित किए हैं –

1. विश्व आर्थिक व्यवस्था में सिद्धान्त,

2. साम्राज्यवादी सिद्धान्त का पुनर्जीवन एवं

3. उपनिवेश की समाप्ति के उपरान्त उत्पादन का स्वरूप।

नव मार्क्सवादियों की धारणानुसार, पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था के माध्यम से पिछड़े देशों का आर्थिक पुनर्जीवन सम्भव नहीं है। नव-मार्क्सवादी विचारधारा तीन परस्पर सम्बद्ध सिद्धान्तों से निर्मित है – विश्व व्यवस्था, अविकास का विकास और पराश्रयता। विश्व व्यवस्था के आधार पर विकसित देशों की समस्याओं के विश्लेषण की आवश्यकता है। विश्व आर्थिक व्यवस्था की तीन मौलिक मान्यताएँ हैं – अनेक देशों के मध्य अन्तःक्रिया, विश्व आर्थिक व्यवस्था में पहुँच तथा विश्व आर्थिक व्यवस्था पर नियन्त्रण। इस दृष्टिकोण से पिछड़े हुए देशों का पिछड़ापन विश्व की पूँजीवादी व्यवस्था के विभिन्न भागों के मध्य अन्तःसम्बन्धों का परिणाम है।

इसी प्रकार अविकास के सिद्धान्त की मान्यतानुसार पूँजीवादी देशों का विकास और अविकसित देशों का पिछड़ापन एक ही बुनियाद पर आधारित है। पराश्रयता सिद्धान्तो के प्रतिपादकों की मान्यतानुसार प्रभुत्वशाली और पराश्रित देशों के मध्य भी सम्बन्ध हाता है, जिसमें पहला देश दूसरे देश के ऊपर नियन्त्रण लगाता है। स्पष्ट है कि पराश्रित देशों की अर्थव्यवस्था प्रभुताशाली देशों के विकास और विकास से प्रतिबन्धित होती है। वर्तमान समय में पराश्रयता के चार स्वरूप उभरकर सामने आए है-

1. उपनिवेशवादी पराश्रयता,

2. प्रौद्योगिक-औद्योगिक पराश्रयता,

3. वित्तीय औद्योगिक पराश्रयता और

4. सामाजिक-सांस्कृतिक पराश्रयता।

 

सामाजिक-आर्थिक नीतियों का क्रियान्वयन की समीक्षा

सभी देशवासियों को सामाजिक-आर्थिक न्याय प्राप्त हो, नीतियों के अनुरूप न विकास हो तथा देश व समाज प्रगति पथ पर आगे बढ़े, इसके लिए जरूरी है कि नीति के अनरूप ही देश में योजनाएँ तथा कार्यक्रम बनाये जाये तथा उनके क्रियान्वयनसमुचित ध्यान भी दिया जाये। जैसे अगर भारत में 11वीं योजना चल रही है। सभी योजनाओं में मानव-संसाधनों के विकास पर विशेष बल दिया गया है। सर्वांगीण विकास के लक्ष्य को दृष्टि में रखते हुए सर्वप्रथम सामुदायिक विकास कार्यक्रम, फिर समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, निर्धनता उन्मूलन के अन्य कार्यक्रम शुरू किये गये। इनमें स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, रोजगार आश्वासन योजना, जवाहर ग्राम समृद्धि योजना, प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक योजना, सामाजिक नीतियों को ध्यान में रखते हुए वंचित समूहों, अनुसूचित जातियों नीतियों को ध्यान में रखते हुए वंचित समूहों, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों, धार्मिक एवं भाषायी अल्पसंख्यकों, स्त्रियों और बच्चों, वृद्धों और विकलांगों आदि के कल्याण कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की दृष्टि से अनेक कदम उठाये गये। राष्ट्रीय जनसंख्या पर नीति, 2000 को ध्यान में रखते हुए तीव्र गति से बढ़ने वाली जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए अनेक कार्यक्रम लागू करके ‘परिवार कल्याण कार्यक्रम’ को प्राथमिकता दी गई। इसमें अल्पकालीन और दीर्घकालीन दोनों लक्ष्यों पर बल दिया गया।

सामाजिक नीतियों को ध्यान में रखते हुए दहेज प्रथा अधिनियम, 1961 अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 बाल विवाह निरोधक (संशोधित) अधिनियम, 1976 आदि अधिनियमों को पारित किया गया, जिनका मुख्य लक्ष्य सामाजिक समस्याओं को हल करना रहा है। क्रियान्वयन के स्तर पर यह देखना आवश्यक है कि सामाजिक नीतियों को ध्यान में रखकर जो अधिनियम बनाये गये हैं, जो कार्यक्रम हैं, अनुसूचित जातियों/जनजातियों/पिछड़े वर्गों के उत्थान हेतु आरक्षण सम्बन्धी जो नीति अपनाई गई है, उनके अनुरूप वास्तव में कार्य हो रहा है अथवा नहीं। क्या बाल विवाह बन्द हो गये हैं, दहेज प्रथा कम हुई है, क्या अब अस्पृश्यता नहीं बरती जाती, महिलाओं को शोषण, दिशा उत्पीड़न/अत्याचार नहीं होता। कार्यक्रमों के सफल क्रियान्वयन हेतु इस तरह का मूल्यांकन किया जाना जरूरी है।

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सामाजिक नीति और क्रियान्वयन का उदाहरण है कि गत 65 वर्षों में अनुसूचित जातियों /जनजातियों की स्थिति सुधारने एवं सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को आगे बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रयास किये गये। कृषि, विज्ञान, तकनीकी एवं दूरसंचार के क्षेत्रों में वांछित सफलता मिली है, लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया भी आगे बढती है। दूसरी आर गरीबी निवारण, बेकारी, शिक्षा और स्वास्थ्य, जनसंख्या नियंत्रण आदि क्षेत्रों में काफी कुछ किया जाना है। अभी आय तथा सम्पत्ति में असमानता और विभिन्न वर्गों के जीवन स्तर म भारी अन्तर दिखाई देता है। स्पष्ट है कि नीतियों के अनुरूप जिन परिवर्तनों की अपेक्षा की गई थी, वे अभी तक आंशिक रूप में ही लाये जा सके है अर्थात् अभी काफी कुछ कर शेष है।

सामाजिक आर्थिक नीति के अनुरूप कार्यक्रम तो बना दिये जाते हैं, किन्तु उनके क्रियान्वयन में प्रशासन की अकुशलता, स्वार्थपरता, भाई-भतीजावाद, अदूरदर्शिता, सामाजिक में व्याप्त अष्टाचार जन-सहयोग तथा उत्साह का अभाव, आदि के कारण विभिन्न कार्यों फल संचालन में बाधा उत्पन्न होती है। इसके अतिरिक्त जिन योजनाओं/कार्यक्रमों में लोगों की प्रथाओं, परम्पराओं, मूल्यों एवं भावनाओं की उपेक्षा की गई है अर्थात मानवीय – सांस्कृतिक कारकों पर ध्यान नहीं दिया गया है। वे अच्छे होने के बाद भी असफल है। देश में नियोजित परिवर्तन से सम्बन्धित विभिन्न कार्यक्रमों के निर्धारण में योजनाकारों ने विदेशी अनुभवों और विशेषज्ञों की सेवाओं का लाभ तो उठाया है, किन्तु भारत गए विद्यमान सामाजिक, आर्थिक एवं अन्य समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझने का विशेष प्रयास नहीं किया है। हमारे समाजशास्त्री/समाज वैज्ञानिक अपने शोधों कार्यों तथा विशेष ज्ञान से नाति-निर्धारकों और प्रशासकों को विशेष प्रभावित नहीं कर सके हैं। लोगों की अशिक्षा, अज्ञानता, सामाजिक जागरूकता और विवेकपूर्ण दृष्टि का अभाव भी अन्य कारण हैं।

 

 

वैश्वीकरण की प्रक्रिया के विभिन्न प्रभावों की विवेचना

वैश्वीकरण एक बहुआयामी खुली प्रक्रिया है । कुछ विचारक इसे आर्थिक अवधारणा मात्र समझते हैं। उनके लिए वैश्वीकरण उदारीकरण है, निजीकरण है और निवेश हैं। कुछ अन्य विचारक इसका अर्थ सांस्कृतिक आदान-प्रदान के संदर्भ में निकालते हैं । कुछ की दृष्टि में वैश्वीकरण वह वृहद सामाजिक प्रक्रिया है जो सम्पूर्ण मानव जीवन को अपने अन्दर समा लेती है । अन्तर्राष्ट्रीय जगत में यह धारणा बनी हुई है कि कुछ राष्ट्र प्रभुत्वशाली होते हैं और कुछ सर्वोत्तम प्रभुत्वशाली, ये राष्ट्र वैश्वीकरण के माध्यम से अपनी अर्थव्यवस्था और संस्कति को विकासशील राज्यों पर थोपना चाहते हैं । सामान्य तौर पर वैश्वीकरण  का अभिप्राय भूमण्डल के विभिन्न देशों के मध्य आर्थिक सम्बन्धों को विकसित करने वाली प्रक्रिया से है। आमतौर पर वैश्वीकरण की प्रक्रिया का सम्बन्ध आर्थिक जगत से माना जाता है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की यह प्रक्रिया समाज के अन्य क्षेत्रों से भी सम्बन्धित होती है ।

एक विश्वव्यापी व्यापार विधा के रूप में वैश्वीकरण यद्यपि एक नवीन अभिगम है किन्तु इसकी जड़ें द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के पांच दशकों में निहित है। सामाजिक-आर्थिक विषमता, असमानता, अन्याय, असुरक्षा जो विश्व समाजों की अर्थव्यवस्था. शासनतंत्र और समाज संरचना में व्याप्त है। औद्योगिक रूप से विकसित देश सम्पूर्ण विश्व जनसंख्या के 20 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करते है और विश्व के संसाधनों के 80 प्रतिशत पर नियंत्रण कायम रखे हुए हैं। अनुसंधान एवं विकास आज किसी भी अर्थव्यवस्था की प्रगति के लिए संजीवनी शक्ति है। इस दिशा में प्राय: पश्चिम के बहुराष्ट्रीय लोगों की ही पहल है। विकासशील देशों तथा भारत में रह रहे निर्धन, कमजोर वर्ग, पिछडे वर्ग, कृषि श्रमिक आदि की आवश्यकताओं और आशाआ के लिए यह भ्रामक हैं क्योंकि यह धनी निर्धन के बीच उग्नवर्ग चेतना और सामाजिक आर्थिक दूरी को बढ़ावा देता है।

 वैश्वीकरण के युग में नई आर्थिक नीति के अन्तर्गत प्रस्तावित सुधारों में बाजारों की भूमिका निश्चित रूप से बढ़ी है, बाजार शत्कति को अधिक निर्णायक माना गया है। नौकरशाहों एवं राजनीतिज्ञों का प्रभाव क्म हुआ है। सरकार कुछ क्षेत्रों में छूट देकर कुछ दूसरो क्षेत्रों में अपना ध्यान केन्द्रित कर रही हैं। दूसरे शब्दों में वर्तमान आर्थिक सुधारों का उद्देशय औचित्यपूर्ण हस्तक्षेप है न कि मुक्त व्यापार। वैश्वीकरण से राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है, आर्थिक विकास की उच्च दर प्राप्त करने के लिए घरेलू पूँजी निवेश बढ़ाने में विदेशी पूँजी निवेश से काफी मदद मिली है। आर्थिक क्षेत्र में वैश्वीकरण और उदारीकरण के कारण तीव्र विकास हुआ है तथा इसका प्रभाव गरीबी उन्मूलन पर भी पड़ता है। आर्थिक वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप विश्व में एक सामाजिक और आर्थिक क्रान्ति आई है। सांस्कृतिक बाजार में वस्तुओं को पूँजीवाद ही पहुँचाता है। आज विवाह एक धार्मिक संस्कार न रहकर सामाजिक उत्सव सा हो गया है। वैश्वीकरण ने परिवार की संरचना में भी काफी परिवर्तन किया हैं। संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवार ने ले लिया है जिससे बच्चों पर परिवार का नियंत्रण भी कम रह गया है। वैश्वीकरण से जाति प्रथा भी बहुत प्रभावित हुई है।

 

 

Complete Reading List-

इतिहास/History–         

  1. प्राचीन इतिहास / Ancient History in Hindi
  2. मध्यकालीन इतिहास / Medieval History of India
  3. आधुनिक इतिहास / Modern History

 

समाजशास्त्र/Sociology

  1. समाजशास्त्र / Sociology
  2. ग्रामीण समाजशास्त्र / Rural Sociology

 

 

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