जाॅन लाॅक के गुण विचार और द्रव्य विचार

जाॅन लाॅक के गुण विचार और द्रव्य विचार | Matter and Properties of John Locke in Hindi

गुण-विचार

 गुण की अवधारणा द्रव्य ज्ञान के लिये आवश्यक है. गुणों के ज्ञान के बिना हमें द्रव्य का ज्ञान नहीं हो सकता। अतः गुणों का ज्ञान आवश्यक है। लॉक ने स्पष्टतः बतलताया है कि गुणों के आधार या आश्रय को ही द्रव्य कहते हैं। गुणों का प्रत्यक्ष ज्ञान हमें होता है। अर्थात् हम अपनी इन्द्रियों से गुणों का प्रत्यक्ष करते हैं। इस प्रत्यक्ष ज्ञान को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इस प्रकार प्रत्यक्षगम्य होने के कारण इसकी सत्ता या अस्तित्व अवश्य है। यदि गुण प्रत्यक्ष होने के कारण ही स्वीकार्य हैं तो गुणों के आधार (द्रव्य) को भी स्वीकार करना होगा।

गुणों का आधार गुणी (द्रव्य) अवश्य है, क्योंकि गुण निराधार नहीं रह सकते; क्योंकि निराधार का ज्ञान सम्भव नहीं। गुणों का ज्ञान हमें होता है; अतः इसका आधार द्रव्य भी अवश्य है। इस प्रकार लॉक गुण और इसके आधार द्रव्य दोनों की सत्ता स्वीकार करते है। परन्तु इनमें एक आवश्यक भेद है। गुणों की सत्ता हम इसलिये स्वीकार करते हैं कि इनकी सत्ता का हमें प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। परन्तु द्रव्य की सत्ता हम इसलिए स्वीकार करते है कि गुण निराधार नहीं रह सकते।

इस प्रकार गुणों की सत्ता के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष प्रमाण है, परन्तु द्रव्य की सत्ता के सम्बन्ध में तर्क ही प्रमाण है। हम तर्क के आधार पर यह मान लेते हैं कि गुण निराधार नहीं रह सकते। इस प्रकार द्रव्य की सत्ता तो तार्किक मान्यता पर आधारित है। हम द्रव्य को देख नहीं सकते, परन्तु इसके बिना गुणों की व्याख्या नहीं हो पाती, अतः हम द्रव्य की सत्ता मान लेते हैं। पहला प्रत्यक्षगम्य है, दूसरा अनुमेय है। इस प्रकार गुण और द्रव्य की सत्ता में प्रमाण अलग-अलग हैं।

गुणों के सम्बन्ध में दो आवश्यक प्रश्न हैं-गुण क्या हैं तथा गुण कितने हैं? तात्पर्य यह है कि गुणों की परिभाषा क्या है तथा गुणों के प्रकार कौन-कौन से हैं? किसी वस्तु (द्रव्य) के स्वभाव या धर्म को ही उस वस्तु का गुण कहा जाता है। संसार में चेतन और अचेतन द्रव्य हैं। इसका स्वभाव या धर्म अलग-अलग हैं। चेतन द्रव्य अचेतन द्रव्य से भिन्न है, क्योंकि चेतन और अचेतन धर्म भिन्न हैं। जो चेतन है। वह अचेतन नहीं और जो अचेतन है वह चेतन हीं। इस प्रकार चेतन तथा अचेते न द्रव्यों का आधार चेतन और अचेतन धर्म है। परन्तु चेतन और अचेतन तो मन के विचार या मानसिक प्रत्यय है।

इन प्रत्ययों की उत्पन्न करने वाला गुण ही है। तात्पर्य यह है कि गुणों के कारण ही विभिन्न मानसिक विचारों या प्रत्ययों की उत्पत्ति होती है। अतः विचार या प्रत्ययों को उत्पन्न करने वाली शक्ति का नाम ही गुण है| लॉक महोदय इसे एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करते हैं। बर्फ का एक गोलाकार टुकड़ा है। बर्फ के टुकड़े का आकार गोल है तथा इसका रंग उजला है। बर्फ का टुकड़ा तो द्रव्य हआ, गोल-आकार और उजला रंग आदि गुण हैं। यह आकार (गोल) और रंग (उजला) तो मानसिक प्रत्यय या विचार है। इन प्रत्ययों की उत्पत्ति गुणों के कारण ही होती है। इस प्रकार गोलाकार और उजले रंग आदि उत्पन्न करने वाली शक्ति का नाम ही गुण है।

यदि हमारे मन में गोल आकृति और उजले रंग को उत्पन्न करने की शक्ति न होता तो इन प्रत्ययों का अस्तित्व भी नहीं होता। इस प्रकार गुण ही वह शक्ति है जिसके कारण विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति होती है। अत: गुण धर्म नहीं, वरन् धर्म को उत्पन्न करने वाली शक्ति है। परन्तु साधारण भाषा में किसी वस्तु के धर्म को ही उस वस्तु का गुण कहते हैं। उदाहरणार्थ, बर्फ के टुकड़े का गुण गोलाकार तथा उजला रंग है। लॉक महोदय साधारण अर्थ में इतना ही परिवर्तन करते हैं कि गुण प्रत्ययों या धर्मों को उत्पन्न करने वाली शक्ति है। अतः गुण विभिन्न धर्मों के कारण है।

 

 

गुणों के प्रकार

हमने विचार किया है कि गुण किसी द्रव्य या वस्तु के धर्म हैं। परन्तु वस्तु का धर्म स्वतन्त्र तथा परतन्त्र दोनों हो सकता है। इसी आधार पर लॉक महोदय का कहना है कि गुण के दो प्रकार है- मूलगुण (Primary quality) आर उपगुण(Secondary quality)। मूलगुण किसी द्रव्य या वस्तु का अपना स्वतन्त्र धर्म या स्वभाव है। इन्हें वस्तु या द्रव्य का अविच्छेद्य धर्म भी कहा गया है। क्योंकि इन्हें वस्तु से विच्छेद या अलग नहीं किया जा सकता। इस प्रकार किसी वस्तु का मूलगुण उसका स्वतन्त्र अविच्छेद्य धर्म है। उदाहरणार्थ, आकृति किसी वस्तु का मूलगुण है। आकृति के बिना हमें वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता। बर्फ के टुकड़े का ज्ञान उसके गोलाकार के बिना नहीं हो सकता। आकृति (Figure), घनत्व (Solidity), विस्तार (Extension), गति (Motion), स्थिति (Rest), संख्या (Number) आदि सभी मूलगुण हैं।

हम किसी वस्तु को वस्तु नहीं मान सकते यदि उनमें आकृति, गति आदि न हों। अतः आकृति, गति आदि वस्तु के धर्म या मूलगुण है। परन्तु इन गुणों को वस्तु से अलग नहीं किया जा सकता, अतः इन्हें वस्तु का अविच्छेद्य धर्म माना गया है। लॉक के अनुसार हमारे मन में आकृति, गति आदि प्रत्ययों के कारण मूलगुण ही हैं। लॉक इन्हें स्वतन्त्र भी कहते हैं। उनके स्वतन्त्र कहने का तात्पर्य यह है कि आकृति, गति आदि प्रत्ययों का ज्ञान तो हमें इन्द्रियों से होता है। परन्तु इनका अस्तित्व इन्द्रिय ज्ञान से स्वतन्त्र है।

किसी वस्तु में आकार अवश्य होगा चाहे हम उसे देखें या नहीं। वस्तु का आकार हमारे देखने पर निर्भर नहीं। यह तो वस्तु का। अपना धर्म है। इसकी उपलब्धि या इसका ज्ञान हमें केवल इन्द्रियों से होता है। परन्तु इसकी सत्ता इन्द्रियों के अधीन नहीं। ये वस्तु के स्वतन्त्र धर्म है। इस प्रकार ज्ञान की दृष्टि से मूलगुण परतन्त्र है, परन्तु सत्ता की दृष्टि से स्वतन्त्र। उपगुण वस्तु के स्वतन्त्र धर्म नहीं। उपगुण मूलगुणों के माध्यम से उत्पन्न होते है। अतः उपगुण के कारण मूलगुण है। उदाहरणार्थ, रूप उपगुण है। रूप आकार के बिना नहीं रह सकता। अर्थात् साकार ही सरूप हा प्रश्न यह है कि रूप है क्या? लॉक के अनुसार रूप संवेदना है। इसकी उत्पत्ति आकृति के अधीन है।

अतः उपगुण संवेदना है जो मूलगुणों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। बर्फ के टुकड़े का रूप उजला है। यह उजलापन आकार के माध्यम से ही अभिव्यक्त होता है। यदि बर्फ के टुकड़े का गोल-आकार न हो तो उसके उजले रूप का ज्ञान नहीं होगा। इस प्रकार विभिन्न संवेदनाओं को उत्पन्न करने वाली शक्ति का नाम ही उपगुण है। इन्हें स्वतन्त्र नहीं वरन् परतन्त्र माना गया है। उपगुण अपनी उत्पत्ति और ज्ञान दोनों दृष्टि से परतन्त्र है। इनकी उत्पत्ति मूलगुणों के कारण होती है तथा इनका ज्ञान भी ज्ञाता पर निर्भर है। रूप संवेदना है जो देखने वाले पर निर्भर है।

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यदि देखने वाला न हो तो रूप की सत्ता में सन्देह होगा। इस प्रकार लॉक महोदय का कहना है कि उपगुण वस्तु के धर्म नहीं, वरन् मूलगुणों के माध्यम से उत्पन्न संवेदना हैं। इन संवेदनाओं की उत्पत्ति मूलगुणों के कारण होती है, परन्तु इनका अनुभव ज्ञाता को होता है। रूप, रस, आदि उपगुण हैं। इनकी उत्पत्ति आकृति, स्वाद आदि मूलगुणों पर निर्भर है। यदि वस्तु का आकार न हो तो रूप की संवेदना नहीं होगी, यदि स्वाद न हो तो रस की संवेदना नहीं होगी। अतः उपगुण मूलगुणों पर आश्रित है।

 मूलगुण और उपगुण में भेद

विश्लेषण करने पर मूलगुण और उपगुण में निम्नलिखित भेद प्रतीत होते हैं-

(क) मूलगुण द्रव्य के अविच्छेद्य धर्म या स्वभाव हैं। इन्हें द्रव्य से पृथक् नहीं किया जा सकता। बर्फ के टुकड़े से उसकी आकृति अलग नहीं हो सकती। उपगुण वस्त के धर्म नहीं, वरन् मूलगुण के धर्म है। बर्फ का उजला रंग बर्फ के आकार का धर्म है। इन्हें भी द्रव्य का धर्म समझा जाता है परन्तु इनका साक्षात् सम्बन्ध मूलगुणों से ही है।

(ख) मूलगुण द्रव्य के स्वतंत्र धर्म हैं। उपगुण ज्ञाता पर निर्भर है। बर्फ के टुकड़े का गोल-आकार होना मूलगुण है। यह टुकड़े में रहेगा। परन्तु उसके उजले रंग का ज्ञान तो ज्ञाता के अधीन है। यदि संवेदनकता (ज्ञाता) न हो तो रूप की संवेदना नहीं। होगी। अतः मूलगुण की सत्ता स्वतन्त्र है, उपगुण परतंत्र है।

(ग) मूलगुण किसी वस्तु का वास्तविक धर्म है। इसके बिना वस्तु की सत्ता नहीं रह सकती। उपगुण तो संवेदना है। संवेदनाओं का स्वरूप बदलता रहता है। किसी वस्तु में विभिन्न रूपों की प्रतीति होती है। जो अभी उजला है वह नीला दिखलायी पड़ सकता है। परन्तु मूलगुण वास्तविक धर्म होने के कारण वस्तु के साथ ही बदलता है। वस्तु की आकृति में भी परिवर्तन हो सकता है। परन्तु इसके साथ-साथ वस्तु में भी परिवर्तन हो जायेगा। परन्तु उपगुणों के परिवर्तन से वस्तु के स्वरूप पर प्रभाव नहीं पड़ता।

(घ) जाॅन लॉक के अनुसार मूलगुण निरपेक्ष है तथा उपगुण सापेक्ष उपगुण तो संवेदनाएँ हैं। इनके लिये संवेदनकर्ता (ज्ञाता) की आवश्यकता है। मूलगुण के लिये ज्ञाता की अपेक्षा नहीं। किसी भौतिक द्रव्य में आकृति अवश्य रहेगी। इसे अनुभव करने वाला ज्ञाता हो या न हो। अतः मूलगुणों का अस्तित्व ज्ञाता के अधीन नहीं।

(ङ) जाॅन लॉक के अनुसार उपगुणों का सम्बन्ध हमारी इन्द्रियों से है। बुद्धि से नहीं। रूप, रस आदि उपगुणों की संवेदनाएँ हमारी इन्द्रियों को होती हैं। इस आँख से रूप को देखते है, कान से शब्द को सुनते हैं। परन्तु मूलगुणों का सम्बन्ध हमारी बुद्धि से है। हमारी बुद्धि इन गुणों को द्रव्य का आवश्यक, अविच्छेद्य धर्म मानती है। अतः पहला बाह्य इन्द्रियों से गम्य है तथा दूसरा आन्तरिक इन्द्रिय से गम्य है।

जाॅन लॉक महोदय ने गुणों पर बहुत अधिक विचार किया है। परन्तु उनका गुण सिद्धान्त पूर्णतः स्पष्ट नहीं हो पाता। वे गुणों का अस्तित्व मानते हैं तथा इन्हीं के आधार पर द्रव्य (गुणी) तथा ज्ञाता (मन) की संवेदना (उपगुण) भी बतलाते हैं। वास्तविक धर्म तो सत् हैं, संवेदनाएँ मन के अधीन है। इन दोनों का एक साथ सम्बन्ध बैठ नहीं पाता। यदि मूलगुणों की सत्ता स्वतंत्र है तो इनका ज्ञान भी स्वतंत्र होना चाहिये। परन्तु सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि गुण की सत्ता तो गुणी (द्रव्य) के अधीन है।

यदि गुणी (द्रव्य) न हो तो गुण निराधार हो जायेंगे। यह मानते हुए भी लॉक गुणों को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनका कहना है कि गुणों के आधार (द्रव्य) की कल्पना के लिये गुणों की वास्तविक सत्ता स्वीकार करना यदि गुणों की सत्ता वास्तविक है तो इनके आधार की सत्ता काल्पनिक यदि गुण प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय है तो इनका आधार (द्रव्य) भी प्रत्यक्ष होना चाहिये। परन्तु लॉक इसे नहीं स्वीकार करते। उनके अनुसार द्रव्य । गुणों का यथार्थ स्वरूप लॉक के दर्शन में स्पष्ट नहीं हो पाता। उनके अना शक्ति है तथा संवेदना भी है।

शक्ति होने से ही गुण (मूलगुण) संवेदनाओं के को उत्पन्न करते हैं। जो शक्ति है वह संवेदना का रूप कसे लेगी? शक्ति का रहेगी संवेदना मन में दोनों एक साथ नहीं रह सकते। लॉक ज्ञान को गुण मानते है उनके अनुसार उपगुण संवेदना है। परन्तु वे मूलगुणों को संवेदना नहीं मानते। ये दल के द्रव्य हैं। द्रव्य का धर्म होने के कारण यह अचेतन होगा। यह अचेतन होकर चेतना ज्ञान को कैसे जन्म देता है? लॉक के गुण सिद्धान्त में इस प्रकार की अनेक कठिनाइयाँ हैं।

 

द्रव्य-विचार

लोक के अनुसार गुणों के आश्रय या आधार का नाम ही द्रव्य है। उनका कहना है कि हम गुणों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा हम यह भी जानते हैं कि गुण निराधार नहीं रह सकते। अतः गुणों के आधार का नाम ही द्रव्य है। परन्तु द्रव्य की सत्ता गुणों के समान प्रत्यक्ष नहीं। उसकी सत्ता अनुमेय है, अर्थात् अनुमान के आधार पर हम कहते हैं कि द्रव्य की सत्ता है। उदाहरणार्थ रंग, वजन, कठोरता आदि गुणों के आधार पर हम कॉच (शीशे) को द्रव्य मान लेते हैं। परन्तु यहाँ यह प्रश्न है कि द्रव्य अपने आप में क्या है, अर्थात् उसका अपना स्वरूप क्या है?

लोक का कहना है कि द्रव्य अज्ञेय (Unknowable) है, अर्थात् द्रव्य के अपने स्वरूप के सम्बन्ध में हम कुछ भी नहीं जानते (I know not what)| तात्पर्य यह है कि हम गुणों का प्रत्यक्ष करते हैं तथा इनके आश्रय का एक आज्ञात नाम (द्रव्य) प्रदान कर देते है क्योंकि हम यह जानते है कि गुण निराधार नहीं रह सकते या निराश्रय नहीं। हो सकते, अतः इनका आश्रय या आधार द्रव्य ही होगा। परन्तु यह एक कल्पनामात्र है या संज्ञामात्र है जिसके स्पष्ट धर्म की हमें उपलब्धि नहीं होता।

उपलब्धि हमें गुणों की ही होती है तथा गुणों के सन्निधान का कारण हम द्रव्य मान लेते हैं। यहाँ स्पष्ट रूप से लॉक बाह्यानुमेयवादी (Representationist) प्रतीत होते है, क्योंकि उसके अनुसार बाह्य वस्तु (द्रव्य) अनुमेय है, प्रत्यक्षगम्य नहीं। विश्व में अनेक द्रव्य हैं, परन्तु सभी संज्ञामात्र हैं तथा सरल प्रत्ययों के योग है। हम कुछ गुणों को देखते हैं तथा उनके आधार को एक संज्ञा प्रदान कर देते हैं। दूसरा सुनने वाला व्यक्ति इन संज्ञाओं को सुनकर सरल प्रत्ययों की धारणा बना लेता है। उदाहरणार्थ, मनुष्य, अश्व, सूर्य आदि सभी संज्ञाएँ किसी वस्तु की सूचक हैं। हम कुछ गुणों को देखकर मनुष्य संज्ञा प्रदान कर देते हैं।

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वस्तुतः गुणों का आधार अज्ञात हार यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि लॉक बाह्य पदार्थ का निषेध नहीं करते वरन् अनुमेय मानते हैं। हम किसी बाह्य वस्तु को आम कहते हैं। यह आम केवल कुछ गुणों का संघातमात्र है। गुणों का प्रत्यक्ष हमें होता है, अतः उनके आधार की कल्पना सत् है। अतः बाह्य वस्तु का वे निराकरण नहीं करते। इसीलिए लॉक को बाह्य-प्रत्यक्षवादी नहीं माना गया है, क्योंकि उनके अनुसार बाह्य वस्तु का हमें प्रत्यक्ष नहीं होता, प्रत्यक्ष तो गुणों का होता है। इस प्रकार लॉक के अनुसार द्रव्य विचार सरल नहीं, जटिल प्रत्यय (Complex idea) है जो सरल प्रत्ययों का योग है। उदाहरणार्थ, स्वर्ण एक द्रव्य है जो रूप, रंग, वजन आदि अनेक सरल प्रत्ययों का योग है।

जाॅन लॉक के अनुसार द्रव्य मिश्र प्रत्यय (Complex idea) हैं। इस मिश्र प्रत्यय की उत्पत्ति तीन सरल प्रत्ययों के योग से होती है-

१. मूलगुण (Primary quality)

२. उपगुण (Secondary quality)

३. निष्क्रिय तथा सक्रिय शक्ति (Active and passive power)

हम किसी भौतिक वस्तु को द्रव्य मान लेते हैं, क्योंकि उसमें ये तीन प्रत्यय पाये जाते हैं। इसी प्रकार हम आध्यात्मिक द्रव्यों को भी मान लेते हैं।

द्रव्य के प्रकार 

जाॅन लॉक के अनुसार द्रव्य तीन प्रकार के हैं-

१. भौतिक (जड़ द्रव्य)

२. आध्यात्मिक (आत्मा)

३. ईश्वर

हम पहले विचार कर आये है कि आकार, विस्तार, घनत्व, स्थिति, गति, संख्या आदि जड़ द्रव्यों के गुण हैं। इन गुणों का स्पष्टतः संवेदन होता है, अतः इनके आधार पर जड़-द्रव्य या शरीर की सत्ता सिद्ध है। यदि गुणों की अनुभूति होती है तो इनका आधार भी अवश्य ही होना चाहिए। इसी प्रकार हम अपने मन का सोचना, समझना, इच्छा करना इत्यादि गुणों के रूप में स्पष्ट अनुभव करते है, अर्थात् इन गुणों का हमें स्वसंवेदन प्राप्त होता है। इससे सिद्ध है कि इन गुणों का आधार आध्यात्मिक द्रव्य या आत्मा अवश्य है।

जिस प्रकार शरीर-द्रव्य का गुण विस्तार है, उसी प्रकार आत्मा-द्रव्य का गुण विचार है| विचार और विस्तार का हमें स्पष्ट अनुभव होता है। अतः इनके आधार भी अवश्य हैं। परन्तु जड़ और चेतन के निजी स्वरूप का हमें पता नहीं, हम केवल गुणों को जानते हैं। इसी प्रकार लॉक ईश्वर की भी सत्ता सिद्ध करते है। ईश्वर परम पुरुष (Supreme being) है वह मानवीय ज्ञान, अनन्त सुख आदि से सम्पन्न परम पुरुष है।

लॉक का द्रव्य सम्बन्धी सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण तो है, परन्तु कुछ अस्पष्ट प्रतीत होता है। लॉक के अनुसार गुणों के आधार का नाम ही द्रव्य है। द्रव्य की सत्ता हम देखते नहीं वरन् मान लेते हैं कि गुण निराधार नहीं रह सकते, अतः इनका आधार द्रव्य अवश्य है। परन्तु द्रव्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर वे नकारात्मक या सन्देहात्मक देते हैं। उनका कहना है कि द्रव्य क्या है मैं नहीं जानता, परन्तु अनुमान से सिद्ध होता है कि इसकी सत्ता है।

यहाँ विरोध प्रतीत होता है। एक ओर वे कहते हैं कि मैं नहीं जानता कि द्रव्य क्या है, दूसरी ओर कहते हैं कि द्रव्य की सत्ता है। यदि इसका अस्तित्त्व है तो अवश्य बोधगम्य होगा। परन्तु लॉक द्रव्य की सत्ता को बोधगम्य न मानकर अज्ञेय मानते हैं। अज्ञेय तो ज्ञान का विषय नहीं बन सकता। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि ‘द्रव्य है और ‘अज्ञेय’ है। यदि है तो ज्ञेय है और अज्ञेय है तो नहीं है। इसका अस्तित्व मानकर भी इसे ज्ञान का विषय नहीं मानना(अज्ञेय मानना) तो विरोध है। दूसरी बात यह है कि लॉक के अनुसार गुणों के आधार का नाम द्रव्य है; क्योंकि गुण निराधार नहीं रह सकते।

यदि गुणों का आधार ही द्रव्य है तो द्रव्य आधार होगा तथा गुण आधेय। परन्तु आधार और आधेय का सबन्ध किस प्रकार का है। यह सम्बन्ध संयोग, समवाय, तादात्म्य आदि किसी भी प्रकार का हो सकता है। लोक इस प्रश्न पर विचार नहीं करते कि आधार द्रव्य और आधेय गणों में सम्बन्ध कैसा है? यदि गुण द्रव्य के धर्म हैं तो द्रव्य धर्मी हैं। परन्तु धर्म और धर्मी के सम्बन्ध पर लॉक विचार नहीं करते। ये मानते दोनों को हैं परन्तु दोनों के सम्बन्ध पर विचार नहीं करते। तीसरी बात है कि लॉक के अनुसार द्रव्य तो एक नाम या संज्ञा है।

वस्तुतः गुणों के आधार को हम द्रव्य संज्ञा प्रदान कर देते हैं। हम मान लेते हैं कि द्रव्य है यह तो एक मान्यता है| पुनः लॉक द्रव्य के तीन प्रकार भी बतलाते हैं-भौतिक (जड़), आध्यात्मिक (आत्मा) और ईश्वर (द्रव्य)। जिसकी सत्ता के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं अर्थात् जो अज्ञेय है, उसका प्रकार बतलाना कहाँ तक उचित है। जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते उसका वर्गीकरण कैसे सम्भव है? जाने हुए पदार्थों का ही वर्ग बन सकता है, जिसे नहीं जानते उसका वर्ग बनाना तो व्यर्थ है। लॉक द्रव्य को अज्ञेय मानते हुए भी आत्मा, परमात्मा आदि द्रव्य के सभी वर्गों को बतलाते हैं। इस वर्गीकरण का औचित्य तथा आधार क्या है?

 

 

 

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