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लोक संस्कृति का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं

लोक संस्कृति का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं तथा भारत के विशेष सन्दर्भ में लोक-संस्कृति के महत्व को स्पष्ट कीजिए।

 

लोक-संस्कृति की अवधारणा

 

विद्वानों के अनुसार ‘लोक संस्कृति’ मानव संस्कृति का एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसे ‘ग्रामीण संस्कृति’ या ‘जनजातीय संस्कृति’ भी कहा जाता है । शैक्षिक अभाव के फलस्वरूप इनके आचार-विचार में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है तथा इनके विश्वास और। अनष्ठान आदि भी संगत नहीं होते हैं । डॉ० सम्पूर्णानन्द के मतानुसार- ‘लोक संस्कृति वह जीती-जागती चीज है, जिसके द्वारा लोक की आत्मा बोलती है । प्रायः लोग संस्कृति और लोक संस्कृति दोनों को ही एक प्रत्यय समझने की त्रुटि कर बैठते हैं, जो सर्वथा अनुचित है । इस संदर्भ में यह भ्रम भी उत्पन्न हो जाता है कि क्या लोक संस्कृति केवल मात्र ग्रामीणों की ही संस्कृति है अथवा पिछड़ी हुई जनजातियों की संस्कृति है । लोक संस्कृति की अवधारणा को भलीभाँति समझने के संदर्भ में सर्वप्रथम ‘लोक‘ शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है –

 

‘लोक’ (Folk) का अर्थ-

सम्पूर्ण मानव समाज को विभिन्न भागों में सभ्यता तथा संस्कृति के आधार पर विभक्त किया जाता है तथा इस प्रक्रिया में लोक श्रेणी को एक विशिष्ट और पृथक स्थान दिया जाता है । अंग्रेजी भाषा के Folk शब्द को डच में vok, जर्मन में volk एवं एंग्लो सैक्शन में Fole कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ किसी आदिकालीन सामाजिक या राजनैतिक संगठन से होता है । डॉ० कुन्ज बिहारी दास की पुस्तक A study of orrisa on folklore’ में लिखा है कि- “लोक के अंतर्गत उन समस्त व्यक्तियों का सम्मिलित किया जा सकता है, जो कि किसी न किसी सीमा तक आदिकालीन अथवा पिछड़ी हई दशाओं में रहते हैं तथा आधुनिक एवं प्रगतिशील प्रभावों की परिधि से विलग होते हैं |

 

लोक की प्रमख विशेषताएं –

(1) लोक बहधा पिछडे हए व्यक्तियों से सम्बन्धित होता है ।

(2) इनको आधनिक समाजों के विकास का मूलाधार भी माना जा सकता है,

(3) समूह जनजातीय आदिवासी आदिम ग्रामीण उपनगरीय या महानगरों के सवाधिक पिछडे अंग होते हैं,

(4) लोक समूह विश्व के सभी समाजों में न्यूनाधिक अंशों में रूप से पाये जाते हैं,

(5) लोक समूहों की संस्कृति सामान्यतया आधुनिक और समय में सर्वथा पृथक होती है

(6) लोक समूहों के अंतर्गत सम्मिलित विभिन्न समूह अपनी विचारधारा तथा व्यवहार आदि पर अधिक निर्भर करते हैं, भले ही वे अधिकाशित न हों.

(7) यह लोक समूह किसी भी आधुनिक और प्रगतिशील समाजों तक में नित गये हैं, यदि उनमें साँस्कृतिक पिछड़ापन निहित होता है।

 

लोक संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा

 

उपर्युक्त वर्णित लोक शब्द की अवधारणा एवं विशेषताओं से यह स्पष्ट होता है प्रत्येक लोक समूह की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति भी होती है, जिसको लोक संस्कृति कहा जाता है । सामान्यतया एक समाज के अंतर्गत उच्च स्तरीय सदस्यों तथा व्यक्तियों में एक विशेष प्रकार का शिष्टाचार और निम्न स्तरीय व्यक्तियों में एक विशेष प्रकार का लोकाचार पाया जाता है । इस प्रकार के लोकाचार प्रधान समूहों की संस्कृति को हम लोक संस्कृति कहते हैं । लोकाचार प्रधान इन सभी समूहों में अपनी प्रथा-परम्पराओं, जनरीतियों तथा लोकाचारों आदि के प्रति एक घनिष्ठ और अचूक श्रद्धा और अन्धविश्वास की भावना भी पाई जाती है । इस प्रकार की लोक श्रेणियों की संस्कृति में प्रत्येक समूह की विशिष्ट सांस्कृतिक उपलब्धियाँ भी सम्मिलित होती हैं, जिनमें रीति-रिवाज और प्रथा-परम्पराएँ. क्षेत्रीय एवं स्थानीय भाषा लोक धर्म पूजा पाठ की विधियाँ लोक-कलाएँ. लोक साहित्य और लोक मनोरंजनादि को सम्मिलित किया जा सकता है ।

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ए०एल० क्रोवर ने सर्वप्रथम ग्रामीण नगरीय विभेदीकरण की प्रक्रिया को लोक रूपी एवं अत्यधिक शिष्ट अथवा अत्यधिक सभ्य श्रेणियों में सम्मिलित किया है । हालाँकि उन्होंने इस सन्दर्भ में एक निश्चितं पृथक्करण की एक धुरी तो नहीं बनायी है, तथापि समाज के विभिन्न अंगों या भागों में आँशिक संस्कृतियों की विद्यमानता के तथ्य को अवश्य स्वीकार किया है। स्वयं उसके ही शब्दानुसार – “एक विशेष लोक अथवा आदिकालीन संस्कृति किसी ऐसे लघु, पृथक रहने वाले तथा घनिष्ट रूप से अन्तः सम्बन्धित समाज में पाई जाती है। जहाँ नातेदारी एक सर्वप्रमुख कारक होता है और दोनों प्रकार के अर्थात् सामाजिक तथा सांस्कृतिक संगठन अधिकांशत: नातेदारी के आधार पर ही स्थिर होते हैं।

 

लोक संस्कृति के निर्मायक तत्व

लोक संस्कृति के निर्मायक तत्वों में निम्नांकित क्षेत्रों को सम्मिलित किया जा सकता है –

(1) लोक ज्ञान – लोक ज्ञान के अंतर्गत किसी भी पिछड़े हुए समूह के जीवन एवं समाज के विभिन्न पक्षों के सन्दर्भ में सम्पूर्ण जानकारी को सम्मिलित किया जा सकता है तथा इसके अंतर्गत मौलिक लोक साहित्य और लोक कलायें भी सम्मिलित होती है ।

(2) लोकरीतियाँ – लोक-रीतियों के अंतर्गत स्थानीय स्तर पर प्रचलित विभिन्न प्रकार के रीति-रिवाज सम्मिलित होते हैं, जो कि ग्रामीण समदाय के विभिन्न क्षेत्रों जैसे घरेलू जीवन, कृषि कार्य, विवाह तथा जन्म मृत्यु आदि के अवसरों से सम्बन्धित होते है।

(3) लोक मनोरंजन – लोक मनोरंजन के अंतर्गत लोकमंच, लोकनृत्य, लोकगीत। मेले, त्योहार आदि के विभिन्न पर्व जोकि जन समुदाय के जीवन से सम्बन्धित विभिन्न अवसरा, से सम्बद्ध होते हैं, सम्मिलित किये जा सकते हैं।

(4) लोक धर्म एवं विश्वास – इसके अतंर्गत धर्म तथा इससे सम्बन्धित तथ्या विश्वासों को सम्मिलित किया जाता है, जो कि संपूर्ण समदाय में एक प्रथा और बिना किसा तार्किक आधार के प्रचलित होते हैं । इनमें से विभिन्न विश्वास तो ऐसे भी होते हा । किसी धर्म विशेष के प्रति कोई विशेष झुकाव भी नहीं होता है।

 

 

लोक संस्कृति की विशेषताएँ

 

(1) सरलता-

लोक संस्कृति में सम्मिलित सभी पक्षों तथा विषयों की प्रकृति सरल होती है तथा इनमें किसी भी प्रकार की जटिलता, दुरूहता और विशेषीकरण नहीं पाया जाता है। किसी भी लोकगीत या कहावत में उसकी सरल और प्रचलित शानीय भाषा, सीधा-सादा अर्थ अत्यधिक सरल होता है !

 

(2) मौखिकता –

लोक संस्कृति में मौखिकता का विशेष गुण निहित होता है अर्थात इसमें लिखित रूप नहीं पाया जाता है । प्रमुख-प्रमुख प्रथाएँ, परम्पराएँ, लोकाचार, कर्मकाण्ड और अनुष्ठान आदि सामान्यतया मौखिक रूप से ही प्रचलित रहते हैं तथा सभी सदस्यों को इसकी जानकारी मुँह जबानी आधार पर कहने-सुनने से ही होती है ।।

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(3) सामूहिकता –

लोक संस्कृति में सामूहिकता का गुण भी पाया जाता है । चूंकि इसकी रचना संपूर्ण समूह के द्वारा होती है, इसलिए इसमें पूरे समूह की स्वीकृति भी निहित होती है।

 

(4) हस्तान्तरण –

लोक संस्कृति का प्रवाहकाल अज्ञात है अर्थात् वह अनादिकाल से प्रचलित है तथा इसका हस्तान्तरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अनवरत् होता चला आया है । लोक साहित्य, लोक विश्वास, लोक गीत-नृत्य, लोक कलाएँ तथा लोक जनरीतियाँ इस प्रकार के हस्तान्तरण के परिणामस्वरूप ही अभी तक सुरक्षित रह सकी हैं।

 

(5) विविधता –

लोक संस्कृति में विविधता भी निहित होती है । चूंकि लोक संस्कृति का क्षेत्र अपने-अपने स्थानीय समूहों तक ही सीमित रहता है, इसलिए विभिन्न क्षेत्रों में थोड़ी-थोड़ी सी दूरी पर भी इसके स्वरूपों में विभिन्नता पायी जाती है ।।

 

(6) कृषि आधारित –

लोक संस्कृति कृषि पर आधारित होती है, क्योंकि यह पिछडे हए समूहों से सम्बन्धित है । विश्व के सभी पिछड़े हुए समुदाय प्रायः कृषि क्षेत्र से। ही सम्बद्ध होते हैं, औद्योगिक और नगरीय क्षेत्रों से नहीं ।

 

(7) सामयिक उपयोगिता –

यह भी लोक संस्कृति की एक प्रमुख और महत्वपूर्ण विशेषता होती है कि इसके विभिन्न निर्माणक अंशों में समयानुसार परिस्थितियों के अनुरूप एक विशिष्ट उपयोगिता निहित होती है जो रीति-रिवाज समयानुकूल और समय के अनुसार उपयोगी सिद्ध नहीं होते हैं, उनका महत्व स्वतः कम हो जाता है।

 

(8) अव्यावसायिकता –

लोक संस्कृति में अव्यावसायिकता का गुण भी निहित होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में लोक संस्कृति से संबंधित जो कुछ कलायें प्रचलित होती हैं, उनके मूल में व्यापार अथवा व्यावसायिकता की भावना कदापि निहित नहीं होती है । इसी के फलस्वरूप ग्रामीण शिल्पी जातियों में धनोपार्जन करने की प्रवृत्ति भी नहीं पाई जाती है ।

 

(9) सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्धित –

लोक संस्कृति सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्धित होती है । सामान्यतया यह ग्रामीण परिवार, विवाहों. धर्म, न्याय एवं मनोरंजन जाद सस्थाओं से सम्बन्धित रहती है. तथापि इनमें प्रमख इकाई ग्रामीण परिवार ही है। सामान्यतया पारिवारिक स्तर पर ही अधिकाँश लोकोक्तियाँ अपनायी जाती है तथा ग्रामीण सयुक्त परिवार ही लोक संस्कृति के निर्माणकों को सुरक्षित रखते है ।

 

लोक संस्कृति का महत्व

 

लोक सस्कृतियों से संबंधित उपयुक्त समस्त विशेषताओं के आधार पर कहा जा कि लोक संस्कृति का प्रत्येक लोक समाज में एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान होता है। कतिपय प्रमुख विद्वानों का दृढ़ मत है कि लोक संस्कृति वस्तुत: उस क्षेत्र के सपूर्ण समाज का एक दर्पण है. जिसमें हम उसके सामान्य जीवन, व्यवहारों एवं आदर्शों का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं । लोक संस्कति का महत्व भारतीय ग्रामीण समाज के परिप्रेक्ष्य में इसलिए और अधिक बढ़ जाता है कि यह ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था एवं कृषक समुदाय। के निकटवती सम्बन्ध स्थापित करती है। पिटिम सोरोकिन ने लिखा है कि – “कृषि के लक्षण ग्रामीण गीतो, संगीत, नत्य, कहानियों, कहावतो, पहेलियों, साहित्य, नाटकों पवा, अभिनय क्रियाओं तथा अन्य इसी प्रकार की कलाओं में निहित होते है । यद्यपि यह सभी कृषि लक्षण ग्रामवासियों के द्वारा निर्मित आकृतियों, अलंकारों, भवन-निर्माण और नक्काशी इत्यादि में अधिक स्पष्ट नहीं हो पाते हैं, तथापि यदि ठीक से इनकी व्याख्या की जाये, तो यहाँ पर भी कृषि की छाप अवश्य उपस्थित होती है ।

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