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जाति का अर्थ, परिभाषा तथा विशेषता

जाति को परिभाषित कीजिए। क्या वर्तमान में जाति व्यवस्था वर्ग-व्यवस्था को स्थान दे रही है?

 

जाति का अर्थ तथा परिभाषा

 

भारतीय सामाजिक संस्थाओं में ‘जाति‘ अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जो हजारों वर्षों से प्रचलित है। जाति हिन्दू सामाजिक संरचना का एक प्रमुख आधार रहा है, जिससे हिन्दुओं में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक जीवन प्रभावित होता रहा है। हिन्द सामाजिक जीवन के किसी भी क्षेत्र का अध्ययन बिना जाति के विश्लेषण के अधूरा ही रहता है। भारत में जाति ही व्यक्ति के कार्य, प्रस्थिति, उपलब्ध अवसरों एवं असुविधाओं को निश्चित करती आई है। गाँवों में जाति पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन की प्रणालियों, उनके निवास स्थानों, सांस्कृतिक प्रतिमानों, भू-स्वामित्व का निर्धारण करती है।

अंग्रेजी का Caste शब्द पुर्तगाली भाषा के Casta से बना है, जिसका अर्थ प्रजाति. मतभेद आदि से होता है। ‘जाति’ शब्द की उत्पत्ति 1665 ई0 में ग्रेसिया डी ओरेटा ने खोजी थी, जबकि फ्रांस के अव्वे डुवाय ने इसका प्रयोग प्रजाति के संदर्भ में किया था। केतकर  के अनुसार, “जाति एक सामाजिक समूह है, जिसकी दो विशेषतायें हैं-

1. जाति  सदस्यता उन्ही लोगों तक सीमित होती है, जो इस समूह में जन्म लेते हैं और

2. सदस्यों की एक कठोर सामाजिक नियम द्वारा समूह से बाहर करने की मनाही होती है।

मजूमदार और मदान ने लिखा है कि “एक जाति एक बन्द वर्ग है।

कूले के अनुसार, “जब एक वर्ग पूर्णतः वंशानुक्रम पर आधारित होता है, तब हम उसे जाति कहते हैं।”

स्पष्ट है कि जाति एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है, एक ऐसा सामाजिक समूह है, जिसकी सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा जो अपने सदस्यों पर खान-पान, विवाह, व्यवसाय तथा सामाजिक सहवास सम्बन्धी अनेक प्रतिबन्धों को लाग करती है। इन प्रतिबन्धों का उल्लंघन करने वाले को जाति से बहिष्कृत तक किया जा सकता है।

 

जाति की विशेषतायें

 

डॉ० घुरिये ने जाति की 6 सांस्कृतिक एवं संरचनात्मक विशेषताओं का उल्लेख किया है-

1. समाज का खण्डात्मक विभाजन

2. भोजन एवं सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध,

3. नागरिक धार्मिक नियोग्यतायें और विशेषाधिकार,

4. ऊँच-नीच का एक स्तरीकरण या उतार-चढ़ाव,

5. व्यवसाय के अप्रतिबन्धित चयन का अभाव और

6. विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध।

 

एन0के0 दत्ता के अनुसार,-

1. एक जाति के सदस्य अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकते है।

2. प्रत्येक जाति में दूसरी जातियों के साथ खान-पान सम्बन्धी कुछ प्रतिबन्ध होते हैं।

3. अधिकांश जातियों के व्यवसाय/पेशे निश्चित होते हैं।

4. जातियों में ऊँच-नीच का एक स्तरीकरण होता है, जिसमें ब्राह्मणों की प्रस्थिति सर्वमान्य रूप से शिखर पर होती है।

5. व्यक्ति की जाति उसके जन्म के आधार पर जीवन-पर्यन्त के लिये निश्चित होती है।

6. सम्पूर्ण जाति व्यवस्था ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पर आधारित है।

 

ग्रामीण समाज में जाति एवं राजनीति के मध्य सम्बन्ध

ग्रामीण समाज के लोगों की नस-नस में जाति बसी हुई है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ की हवा में भी जाति घुली हुई है और यहाँ तक कि भारतीय मुसलमान एवं ईसाई भी। इससे अछते नहीं है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद सोचा गया था कि भारत में लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना से परम्परागत जाति प्रथा के दोष दूर होंगे, जाति का दुष्प्रभाव कम होगा और धीरे-धीरे एक जातिविहीन समाज की स्थापना सम्भव होगी, किन्तु हुआ इसके विपरीत । डा० राधाकृष्णन के अनुसार, दुर्भाग्यवश वही जाति प्रथा सामाजिक संगठन को नष्ट होने से रक्षा करने के साधन के रूप में विकसित किया गया था, आज उसी की उन्नति में बाधक बन रही है। एक ओर भारत सारे संसार को एकल और समानता का संदेश देता है और दूसरी ओर उसने स्वयं ही एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था को अपने सीने से चिपटा रखा है, जिसने उसकी सन्तानों का निर्ममतापर्वक अलग-अलग गुटों में विभाजन कर रखा है, उनको अनन्त शताब्दियों के लिये एक-दस से अलग कर दिया है। जाति के अनेक दोष/हानियाँ हैं, यथा – समाज का विभाजन खियो की निम्न स्थिति सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की जननी, धर्म परिवर्तन में सहयोगी। अस्पश्यता की भावना, सामाजिक प्रगति और सुधार में बाधक, राष्ट्रीय एकता में बाधक, प्रजातंत्र विरोधी, निम्न जातियों का शोषण, आदि। समकालीन में जाति प्रथा के दोषों में एक नवीन नाम और भी जुड़ गया है, जिसे ‘जातिवाद’ के नाम से जाना जाता है।

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समकालीन ग्रामीम जीवन में आज भी जाति चेतना नगरवासियों की अपेक्षा बहत अधिक है, अतः गाँवों की राजनीतिक दशा भी जाति से प्रभावित है। चुनावों में ग्रामवासी सामान्यतः अपनी ही जाति के प्रत्याशी के लिये प्रचार करते हैं, उसे तन-मन और धन से सहायता प्रदान करते हैं, मत जुटाते हैं और मत देते हैं। गाँवों में जाति के आधार पर राजनीतिक संघर्ष और तनावों को स्पष्टतः देखा जा सकता है। चुनाव के दौरान दो परस्पर विरोधी जातियों खलकर संघर्ष करती हैं, जिसमें प्रायः हिंसा का प्रयोग होता है, मारपीट, आगजनी और कभी-कभी हत्याये तक की जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले विभिन्न चुनावों  के समाजशासीय अध्ययनों से पता चलता है कि मतदान व्यवहार में जाति प्रमुख भूमिका निभाती है। गाँवों में जातीय आधार पर ही चुनाव लड़े जाते हैं, उम्मीदवार खड़े किये जाते हैं। डा0 श्रीनिवास ने मैसूर राज्य का अध्ययन करने के बाद यह बताया कि वहाँ पंचायत के चनावों से लेकर मंत्रियों तथा सचिवों की नियुक्ति तक में जातीय आधार अपनाया गया। गाँव में जातीय नेता ही धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में प्रबल या प्रभावशाली  होते हैं।

आधुनिक शिक्षा, प्रजातांत्रिक राज्य, सामाजिक विधान, समाज सुधार आन्दोलन, आरक्षण, आदि के कारणों से गाँवों में निवास करने वाली निम्न और पिछड़ी जातियों में राजनैतिक चेतना विकसित हुई है। अब वे अपनी संख्या शक्ति की पहचान कर चुकी हैं। स्थानीय एवं प्रान्तीय स्तर पर जातिवादी राजनीतिक पार्टियाँ और संस्थायें स्थापित हो चुकी हैं। आज जाति के नाम पर छात्रावास, स्कूल, कॉलेज, चिकित्सालय, धर्मशालायें एवं संगठन बन गये हैं। गाँवों में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सभी क्षेत्रों में जातिवाद की प्रधानता दष्टिगोचर होती है। गाँव के लोग सामूहिक रूप से राजनीतिक शक्ति को प्राप्त कर अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति उच्च करना चाहते हैं। प्रत्येक जाति भावना और व्यवहार दोनों में स्व-जाति के हित, स्वार्थ एवं कल्याण पर बल देती है। जून, 2008 में राजस्थान की ‘गुर्जर‘  जाति के लोगों ने स्वयं को ‘अन्य पिछड़ी जातियों में सम्मिलित करने के लिये अर्थात आरक्षण की प्राप्ति हेतु प्रदेश में सड़कों पर उतर कर सार्वजनिक शान्ति एवं व्यवस्था को समाप किया था। जातीय हित की भावना शिक्षा, नौकरी, व्यापार, उद्योग, राजनीति सभी क्षेत्रों  में केवल अपनी ही जाति के लोगों को प्राथमिकता और संरक्षण देती है। इससे अन्य जातियों के प्रति घृणा एवं संघर्ष पनपता है।

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद एक-दो दशकों में ही कुशल, राष्ट्रीय एवं नैतिक राजनीतिक नेतृत्व  का अभाव दृष्टिगोचर हुआ। गाँधी, नेहरू, पटेल, आदि नेताओं के मूल्यों एवं आदर्शों से हीन नेतत्व उभर कर सामने आया। इनमें से अधिकांश ‘जमीनी नेता नहीं बल्कि धन-सम्पत्ति, प्रभाव और जोड-तोड  के द्वारा राजनीतिक सत्ता का स्वाद चखने लगे। अनेक जना में बने रहने के लिये ‘जाति’ जैसे हथियार का सहारा लिया। कई ने स्वयं ति विशेष का नेतृत्व करने में सफलता भी पाई। ग्रामीण जनमानस को लगा कि निवाद का समर्थन करके ही उनकी स्थिति ऊँची उठ सकती है। वे गाँव में प्रतिष्ठा और पाक्ति प्राप्त कर सकते है। फलस्वरूप जातिवाद निरन्तर प्रभावशाली बनता गया।

ग्रामीण समाज में राजनीति-प्रेरित जातिवादी भावना लाइलाज सी हो गई। इसने जाँतों की परम्परागत संरचना पर अस्वस्थ प्रभाव डाला है। ग्रामीणों में परस्पर घृणा, ईष्या एवं  द्वेष भाव पैदा कर दिया है, फलस्वरूप जातीय संघर्ष बढ़ गये हैं। इन संघर्षों में प्रत्येक जाति के नेता अपनी-अपनी जातियों की खलकर सहायता करते हैं। फलस्वरूप ग्रामोत्थान के क्षेत्र में बाधायें आती हैं। अन्ध-भक्ति पर आधारित जातिवादी भावना ने ग्रामवासियों के दष्टिकोण को कलुषित कर दिया है, जिसे राजनीतिज्ञों का संरक्षण प्राप्त है। डॉ० श्रीनिवास, रजनी कोठारी, रुडोल्फ, आदि ने अपने अध्ययनों में जाति और राजनीति में चोली-दामन का साथ स्वीकार किया है। जातिवादी विचार के फलस्वरूप गाँवों में जजमानी प्रथा और सामदायिकता को भी आघात पहुंचा है, लोकतन्त्र के मूल्य गिर रहे हैं। ग्रामीण अपने कर्तव्यों को जाति एवं उपजाति तक ही सीमित मानने लगे हैं।

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वर्तमान राजनीति के फलस्वरूप गाँवों में प्रभु जातियों का महत्व बढ़ा है। प्रेम जाति अपनी संख्यात्मक शक्ति तथा राजनीतिक-प्रशासनिक पहँच के कारण अन्य जातियों पर हावी हो गई है। प्रभु जातियों ने राजनीतिक नेतृत्व की सहायता से आर्थिक शक्ति भी बढ़ा ली है। अधिकांशतः भूमि की स्वामी प्रभु जाति ही होती है, अतः अन्य जातियों उसकी कृपा पर निर्भर करती हैं। प्रभु जाति के लोग अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित हो गये हैं, अतः उनके प्रशासनिक अधिकारियों से घनिष्ठ सम्बन्ध बन जाते है। प्रभू जाति ही अन्य जातियों को राजकाज में सहायता देती हैं। वह ग्रामीण राजनीतिक शक्ति और सत्ता का मुख्य केन्द्र होती हैं, अतः अन्य जातियों को राजनैतिक संरक्षण भी प्रदान करती हैं। वह अन्य जातियों पर अपनी राजनीतिक शक्ति का दबाव डालकर मत जुटाती हैं। अधिकांशतः राजनीतिक दल इसी कारण गाँवों की प्रभु जातियों के साथ सम्बन्ध बना कर उनसे लाभ प्राप्त करते हैं, बदले में उन्हें भी लाभ पहुँचाते हैं।

स्पष्ट है कि ग्रामीण समाज में जाति और राजनीति का गठबन्धन स्वयं ग्रामीणों के लिये अहितकर परिणामों को जन्म दे रहा है। इस प्रकार की राजनीति से गाँवों में अस्वस्थ । परिवेश उत्पन्न होता है। गाँव के लोगों में असहयोग, बैर-भाव, अनुचित प्रतिस्पर्धा बढ़ती है। ग्रामीण समाज एक लघु समुदाय है, जिसमें सहयोग का होना अनिवार्य है। एक ओर । सामुदायिक विकास परियोजना द्वारा ग्रामोत्थान के प्रयास कियेजा रहे हैं. दसरी ओर । जातिवाद जैसी भावनाओं को प्रश्रय दिया जा रहा है। ऐसी स्थिति में ग्रामीण विकास और पुनर्निर्माण में बाधा आने लगी है। गाँव, समाज एवं देश को सभी को क्षति पहुँच रही है। फिर भी यह प्रक्रिया निर्बाध गति से चल रही है।

 

क्या वर्तमान में जाति व्यवस्था वर्ग व्यवस्था को स्थान दे रही है?

जाति व्यवस्था में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों को देखते हुए कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत में जातियाँ वर्ग का रूप ग्रहण कर रही है। उनका विचार है कि भारत में औद्योगीकरण तथा नगरीकरण की प्रक्रियाओं के फलतः परम्परागत जाति संरचना में कई परिवर्तन हए हैं, जन्म का महत्व कम हआ है, तथा व्यवसाय एवं जाति के आथिक आधारों में परिवर्तन हआ है। विभिन्न जातियों के सदस्य एक वर्ग में सम्मिलित हो रह है। इतना ही नहीं, वर्तमान में जाति ने अपना संगठन बनाकर वर्ग की अनेक विशेषताएँ भी ग्रहण कर ली हैं। उदाहरणार्थ नगरों में हरिजनों की अपनी ट्रेड यूनियन उनके हितों की पूर्ति हेतु उसी तरह से संघर्ष करती है, जिस तरह मजदूर वर्ग मालिका वर्ग से करता है। इसी तरह उद्योगों में पाए जाने वाले श्रमिक संगठनों में सभी सदस्य होते हैं। इन संगठनों के निर्माण का आधार जाति नहीं, बल्कि समान व इससे तो यही आभास होता है कि जाति व्यवस्था धीरे-धीरे वर्ग व्यवस्था को स्थान है।

इतना सब होने पर भी फिलहाल यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जाति वर्ग का रूप धारण कर लिया है अथवा भविष्य में कर लेगी। जाति का आधार सार है, जबकि वर्ग का आर्थिक। दोनों की प्रकृति एवं मौलिक मान्यताओं में काफी अन्तर समय के साथ जाति में वर्ग की कुछ विशेषताएँ आने लगी हैं, फिर भी जाति अपनी पा बनाये रखेगी। जाति में समय के साथ अनुकूलन करने तथा समुत्थान करने की क्षम निहित है, जो कि जाति के वर्ग में बदलने या समाप्त हो जाने के झूठे भय को अप्रमाणित सिद्ध करती है। अंग्रेजी शासन काल में होने वाले परिवर्तनों ने जाति व्यवस्था के बन्धन ढीले किए, तो जाति प्रथा को प्रोत्साहित भी किया। अछूत आन्दोलन ने जाति की जड़ों को मजबत करने में सहयोग दिया। जातीय संगठनों के निर्माण ने भी जाति को सदढ बनाया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण भी जाति व्यवस्था मजबूत होती गई। आरक्षण की नीति के फलस्वरूप भी जाति व्यवस्था सुदृढ़ हुई। अतः यह मत वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तार्किक नहीं है कि जाति, व्यवस्था वर्ग व्यवस्था में बदल रही है या बदलने वाली है। जाति व्यवस्था एक गति संस्था है जो समय व परिस्थितियों के साथ सदैव ही परिवर्तित होती रहती है।

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