लाइबनिट्ज का ज्ञान-सिद्धान्त

लाइबनिट्ज का ज्ञान-सिद्धान्त क्या है | Leibniz’s Theory of knowledge in Hindi

ज्ञान सिद्धान्त(Theory of Knowledge)

लाइबनिट्ज का ज्ञान-सिद्धान्त उनके तत्त्व-सिद्धान्त से सम्बन्धित है। उनके अनुसार चिदणु ही तत्त्व है तथा चिदणु गवाक्षहीन होने के कारण बाह्य प्रभाव विहीन है। अतः ज्ञान के लिये बाह्य जगत् की आवश्यकता नहीं। ज्ञान बुद्धि प्रसूत है, अर्थात् बुद्धि ही ज्ञान की जननी है। ज्ञान जन्मजात है, अनुभवजन्य नहीं। बुद्धि को ज्ञान की जननी मानने के कारण अनुभववादी दार्शनिकों से लाइबनिट्ज का स्पष्ट विरोध है।

अतः अपनी प्रसिद्ध पुस्तक (New Essays on the Human Understanding) में लाइबनिट्ज प्रसिद्ध अनुभववादी लॉक (Locke) की मान्यता का पूर्णतः खण्डन करते हैं तथा बुद्धिवाद का समर्थन करते हैं। बुद्धिवादी देकार्त के अनुसार हमारे ज्ञान के कुछ प्रत्यय जन्मजात हैं। अनुभववादी लॉक के अनुसार कोई भी प्रत्यय जन्मजात नहीं अर्थात् सभी अनुभवजन्य है। बुद्धिवादी लाइबनिट्ज के अनुसार सभी प्रत्यय जन्मजात (Innate) है।

लाइबनिट्ज के अनुसार ज्ञान के दो भाग हैं-विज्ञान (Idea) तथा विचार (Thought)| विज्ञान जन्मजात है तथा विचार के उपादान हैं। विचार विज्ञानों का विस्तार है। बीजरूप विज्ञान के बिना विचार असम्भव है। बीज स्वरूप विज्ञान बुद्धि ही विद्यमान रहते हैं, इन्हें मनुष्य सीखता नहीं। अतः लाइबनिट्ज़ के में ज्ञान बीजरूप में जन्म से अन्तर्निहित रहता है तथा अनुभव से उसका होता है। विकास स्वरूप विज्ञान विचार बन जाता है। अतः स्पष्टतः आत्मा में अन्तर्निहित है। लाइबनिट्ज प्लेटो के संस्मरण सिद्धान्त से अपने मत की पुष्टि करते हैं।

लाइबनिट्ज बुद्धिवादी दार्शनिकों की ज्ञान सम्बन्धी मान्यता को स्वीकार करते  हैं। अन्य बुद्धिवादियों के समान लाइबनिट्ज भी स्वीकार करते हैं कि सार्वभौम तथा अनिवार्य सिद्धान्त (Universal and necessary principles) ही ज्ञान के जनक हैं। उदाहरणार्थ व्याघात का नियम (Law of Contradiction) सत्य मापक सिद्धान्त है। सत्य मापक सिद्धान्त है, अर्थात् इसी के द्वारा हम ज्ञान की सत्यता ज्ञान की सत्यता जान सकते है। पुनः पर्याप्त कारणता नियम (Principle of sufficient reason) व्यावहारिक सत्य का मापक सिद्धान्त है या सिद्धान्त के द्वारा कोई भी ऐसा व्यावहारिक सत्य स्वीकार नहीं किया जा सकता। जिसके लिये पर्याप्त कारण ने विद्यमान हो। भौतिक शास्त्र, नीति शास्त्र आदि सभी शास्त्रों का आधार पर्याप्त कारण नियम ही है। व्याघात नियम तथा पर्याप्त कारणता नियम जैसे सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान की प्राप्ति हमें अनुभव से नहीं हो सकती है। अतः ज्ञान अनुभव प्रसूत नहीं कहा जा सकता।

प्रसिद्ध अनुभववादी दार्शनिक लॉक के अनुसार हमारा ज्ञान जन्मजात नहीं, अर्जित है। अतः ज्ञान का स्रोत बुद्धि नहीं, अनुभव है। लॉक का प्रसिद्ध कथन है कि जन्म के समय हमारी बुद्धि कोरे कागज के समान होती है जिस पर कुछ भी अंकित नहीं रहता। ज्यों-ज्यों बाह्य संसार से संवेदनाएँ प्राप्त होती जाती है, हमारे ज्ञान का भण्डार बढ़ता जाता है। अतः सर्वप्रथम मन बिल्कुल कोरा कागज अन्धेरे कमरे के समान है जिसमें ज्ञान का प्रकाश इन्द्रियों के वातायन से प्रवेश करता है। इसीलिए लॉक के अनुसार सभी ज्ञान इन्द्रियजन्य, अर्जित है।

ज्ञान का स्वरूप विशेष वाक्य (Particular proposition) है। वस्तु जगत् से प्राप्त संवेदनाएँ पहले विशेष वाक्य के रूप में ही प्राप्त होती है। वस्तु जगत से प्राप्त संवेदनाएँ पहले विशेष वाक्य के रूप में ही प्राप्त होती है, पुनः इससे मिश्रित प्रत्ययों का निर्माण होता है। लाइबनिटज इसका विरोध करते है।

लाइबनिट्ज के अनुसार बुद्धि को जन्म के समय रिक्त स्थान नहीं स्वीकार किया जा सकता जिसे संवेदनाएँ भरती है, वरन् हमारा सभी ज्ञान जन्म के समय बुद्धि में अव्यक्त अवस्था में विद्यमान रहता है या अनतिर्निहित रहता है जिन्हें अनुभव व्यक्त तथा विकसित करता है। अतः ज्ञान बीजरूप से जन्मजात है। लाइबनिट्ज आत्मा को कोरा कागज नहीं मानते जिस पर जन्म के समय कुछ भी अंकित नहीं रहता। वरन् उनके अनुसार बुद्धि एक संगमरमर के टुकड़े के समान है जिसमें निर्मित होने वाली प्रतिभा की रूपरेखा पहले से ही विद्यमान रहती है। इस प्रकार ज्ञान बुद्धि में पहले से ही विद्यमान रहता है। अतः ज्ञान बीजरूप में बद्धि में अन्तर्निहित रहता है, बाद में केवल विकास होता है। लॉक का कहना है कि कोई भी ज्ञान जन्मजात नहीं क्योंकि यदि कोई ज्ञान जन्मजात होता तो हमें उसकी चेतना अवश्य होती, अर्थात् हम उसे जानते रहते।

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लाइबनिट्ज का कहना है कि लॉक का कथन तो तभी सत्य होता जब केवल चेतन ज्ञान की ही सत्ता होती। परन्तु ज्ञान अचेतन भी हो सकता है, अर्थात् ज्ञान हमारे मन की अचेतन अवस्था में विद्यमान रह सकता। क्या जन्मजात प्रत्यय अचेतन अवस्था में नहीं रह सकते? दूसरी बात यह है कि अनुभवात्मक ज्ञान सार्वभौम तथा अनिवार्य नहीं होता। कोई घटना अनेकों बार घट सकती है, परन्तु उसमें अनिवार्यता नहीं हो सकती, अर्थात् हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि आने वाली घटना इसी प्रकार घटेगी। अतः पुनरावृत्ति निश्चित का प्रमाण नहीं। घटना का क्रम बदल सकता है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि लाइबनिट्ज बुद्धिवादी हैं तथा बौद्धिक ज्ञान को ही प्रामाणिक मानते हैं। बौद्धिक ज्ञान आत्मा में जन्य से विद्यमान रहता है, यह इन्द्रियजन्य नहीं या अनुभावत्मक नहीं। यहाँ एक आवश्यक प्रश्न उठता है कि क्या हमारा दैनिक अनुभव व्यर्थ है? लाइबनिट्ज अनुभव की भी आवश्यकता स्पष्टतः स्वीकार करते है। लाइबनिट्ज के अनुसार अनुभव हमें सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान के लिए अवसर प्रदान करता है। अनुभव जन्मजात ज्ञान का प्रकाशक है, उत्पादक नहीं। हमें नित्य प्रति अनुभव होता है, परन्तु इन अनुभवों के माध्यम से सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है। ज्ञान तो आत्मा में पहले से ही अन्तर्निहित है, परन्तु इस पर अव्यक्त को व्यक्त होने के लिए अनुभव ही अवसर प्रदान करता है। अनुभववादी आत्मा को केवल बाह्य संवेदानाओं का ग्राहक मानते हैं। आत्मा का अन्तर्निहित गुण है जिसके व्यक्त होने के लिए केवल अवसर चाहिए। अनुभव केवल अवसर प्रदान करता है।

इस प्रकार अनुभव तथा बुद्धि दोनों का महत्त्व स्वीकार कर लाइबनिट्ज देकार्त तथा लॉक दोनों का समन्वय करते हैं। लाइबनिट्ज के अनुसार ज्ञान जन्मजात है, गोंकि सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं हो सकता (जैसा देकार्त मानते हैं।) पुनः ज्ञान जन्मजात नहीं क्योंकि अनुभव के द्वारा ही ज्ञान का विकास होता। (जैसा लॉक मानते हैं) लाइबनिट्ज के अनुसार ज्ञान का स्वरूप दोनों से भिन्न है। मौलिक ज्ञान विज्ञान (Idea) है तथा बाद में विज्ञान विकसित होकर विचार (Thought) बन जाता है। इस प्रकार लाइबनिट्ज का ज्ञान सिद्धान्त समन्वयवादी है। यह अनुभव तथा बुद्धि दोनों का समन्वय है। बाद में यही समन्वय काण्ट के ज्ञान-सिद्धान्त का आधार बन गया। संक्षेप में कह सकते हैं कि लाइबनिट्ज के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का है-

१. निरपेक्ष ज्ञान- यह अनुभव निरपेक्ष है सार्वभौम तथा अनिवार्य है। गणित में इसके उदाहरण उपलब्ध होते हैं।

२. सापेक्ष ज्ञान- यह इन्द्रियजन्य होता है।

 

देकार्त, स्पिनोजा और लाइबनिट्ज के द्रव्य की तुलना

बुद्धिवादी देकार्त के अनुसार स्वतन्त्रता ही द्रव्य का लक्षण है। द्रव्य की परिभाषा देते हुए देकार्त कहते हैं कि द्रव्य वह है जिसकी सत्ता स्वतन्त्र हो तथा जिसका ज्ञान भी स्वतन्त्र हो (A substance is one which exists in itself and is conceived through itself: Descartes)

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इस लक्षण के अनुसार केवल ईश्वर ही द्रव्य है, क्योंकि परमपिता परमेश्वर ही परम स्वतन्त्र हैं। ईश्वर का ज्ञान हमें ईश्वर ही के द्वारा हो सकता है। वह अपने अस्तित्व तथा अपने ज्ञान के लिये किसी दूसरे पर निर्भर नहीं।

उपरोक्त परिभाषा से केवल ईश्वर ही परम द्रव्य सिद्ध होता है क्योंकि वह परम स्वतन्त्र है। देकार्त के अनुसार द्रव्य के दो प्रकार हैं-१. निरपेक्ष : ईश्वर, २. सापेक्ष चित्त और अचित (मन और शरीर)। देकार्त के अनुसार चित् और अचित् भी द्रव्य है, क्योंकि दोनों अपनी अपनी दृष्टि से स्वतन्त्र हैं। दोनों में कोई किसी पर आश्रित नहीं, परन्तु दोनों ईश्वर पर आश्रित है।

देकार्त के दर्शन में द्वैतवाद (Dualism) स्पष्ट है। यदि चित और अचित द्रव्य हैं, तो उन्हें स्वतन्त्र होना चाहिये, परन्तु ये स्वतन्त्र नहीं। ये तो ईश्वर पर आधारित है। चित का गुण विचार है और अचित का गुण विस्तार है। दोनों स्वतन्त्र हैं। फिर के दोनों में पारस्परिक क्रिया कैसे सम्भव है? देकार्त इसका समुचित उत्तर नहीं देते।

स्पिनोजा भी देकार्त के द्रव्य को मानते हैं, पर इसमें दोष बतलाते हैं। स्पिनोजा के अनुसार भी ‘द्रव्य वह है जिसकी सत्ता स्वतन्त्र हो तथा जिसका ज्ञान स्वतन्त्र हो। स्पिनोजा के अनुसार ऐसा द्रव्य केवल ईश्वर ही हो सकता है। वह एक, अद्वैत, असीम, अनन्त, स्वयम्भू और स्वतःसिद्ध है।

स्पिनोजा का कहना है कि द्रव्य-सार (Essence) उसकी सत्ता (Existence) है (Essence involves existence : Spinoza)|

स्पिनोजा की परिभाषा पर विचार करने से निम्नलिखि बातें स्पष्ट होती है-

१. द्रव्य स्वतन्त्र है।

२. द्रव्य निरपेक्ष है।

३. द्रव्य एक और अद्वितीय है।

४. द्रव्य असीम और सार्वभौम है।

५. द्रव्य स्वतःसिद्ध है।

 

स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर ही परम द्रव्य है। ईश्वर ही सब कुछ है तथा सब कुछ ईश्वर में हैं। यही स्पिनोजा का सर्वेश्वरवाद है। ईश्वर ही परम द्रव्य है। वह निर्गुण और निराकार है। स्पिनोजा का परम द्रव्य (ईश्वर) उपनिषद् के निर्गुण ब्रह्म से मिलता है।

स्पिनोजा, देकार्त के चितऔर अचित को द्रव्य का गुण मानते हैं। स्पिनोजा के अनुसार सापेक्ष द्रव्य तो वदतोव्याघात है। देकार्त का द्वैतवाद स्पिनोजा के अद्वैतवाद में बदल गया।

लाइबनिट्ज, देकार्त और स्पिनोजा दोनों के द्रव्य का खण्डन करते हैं। लाइबनिट्ज के अनुसार द्रव्य वह नहीं जिसकी सत्ता स्वतन्त्र हो, वरन् द्रव्य वह है जो स्वतन्त्र क्रियाशक्ति से सम्पन्न हो (Substance is not that which exists through itself, but that which acts through itself.)

इस प्रकार लाइबनिट्ज का द्रव्य शक्तिसम्पन्न है। शक्तिसम्पन्न होने से यह सक्रिय है। सक्रिय होने के कारण यह परिणामी है। इस प्रकार लाइबनिट्ज अपरिणामी द्रव्य का खण्डन करते हैं। लाइबनिट्ज के अनुसार यह द्रव्य शक्तिसम्पन्न विशेष पदार्थ हैं। संसार में अनेकवाद (Pluralism) मानते हैं।

लाइबनिट्जड के अनुसार शक्ति ही विश्व का मूल है। शक्ति के मूल तो भौतिक पदार्थ परमाणु हैं। ये परमाणु अन्तिम अविभाज्य, निरवयव भौतिक वस्तु है। ‘लाइवानट्ज परमाणु को मानते हैं परन्तु इन्हें भौतिक या अचेतन नहीं वरन् चेतन मानते हैं। लाइबनिट्ज के अनुसार विश्व की अन्तिम अविभाज्य इकाई चेतन है। लाइबनिट्ज इसे चिदणु (Monad) कहते हैं। ये चिदणु विश्व के न्यूनतम, अविभाज्य परमाणु है, परन्तु ये जड़ात्मक नहीं, चिदात्मक हैं। लाइबनिट्ज का चिदणु शक्ति सम्पन्न और चेतन पदार्थ है।

 

 

 

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