सैंधव सभ्यता और संस्कृति | सिंधु घाटी सभ्यता upsc notes | हड़प्पा सभ्यता

सैंधव सभ्यता और संस्कृति | सिंधु घाटी सभ्यता upsc notes | हड़प्पा सभ्यता

सैंधव सभ्यता और संस्कृति

*सैंधव सभ्यता के लिए साधारणतः तीन नामों का प्रयोग होता है’ सिंध-सभ्यता’, ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ और ‘हड़प्पा सभ्यता’। हडप्पा सभ्यता की खोज वर्ष 1921 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक सर जॉन मार्शल के निर्देशन में रायबहादुर दयाराम साहनी ने किया था। हडप्पा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मांटगोमरी जिले। (वर्तमान शाहीवाल) में स्थित है, जबकि मोहनजोदड़ो सिंध के लरकाना जिले में स्थित है। पिग्गट महोदय ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो को ‘एक विस्तृत साम्राज्य की जुड़वां राजधानियां’ कहा है। हड़प्पा रावी नदी के बाएं तट पर जबकि मोहनजोदड़ो सिंधु नदी के दाहिने तट पर स्थित है। जॉन मार्शल ने सर्वप्रथम इस सभ्यता को सिंधु सभ्यता का नाम दिया।

*रेडियो कार्बन-14 (C-14) जैसी नवीन विश्लेषण पद्धति के द्वारा हडप्पा सभ्यता की तिथि 2300 ई.पू.-1700 ई.पू. मानी गई है, जो सर्वाधिक मान्य है। लगभग 2300 ई.पू. से 1900 ई.पू. तक यह सभ्यता अपने विकास की पराकाष्ठा पर थी। यह सभ्यता मेसोपोटामिया तथा मिस्र की सभ्यताओं की समकालीन थी।

*विभिन्न विद्वानों ने सैंधव सभ्यता की तिथि का निर्धारण निम्नवत किया है-

 विद्वान                                  निर्धारित तिथि

जॉन मार्शल                           3250 ई.पू.-2750 ई.पू.

अर्नेस्ट मैके                           2800 ई.पू.-2500 ई.पू.

माधवस्वरूप वत्स                  3500 ई.पू.-2500 ई.पू.                

 गैड                                     2350 ई.पू.-1700 ई.पू.

मार्टीमर ह्वीलर                      2500 ई.पू.-1700 ई.पू.

फेयर सर्विस                         2000 ई.पू.-1500 ई.पू.

 

*अब तक इस सभ्यता के अवशेष पाकिस्तान में पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और भारत में पंजाब, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उ.प्र., जम्मू कश्मीर, पश्चिमी महाराष्ट्र में पाए जा चुके हैं। इस सभ्यता का सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल सुत्कागेनडोर (बलूचिस्तान), पूर्वी पुरास्थल आलमगीरपुर। (पश्चिमी उ.प्र.), उत्तरी पुरास्थल मांडा (जम्मू-कश्मीर) तथा दक्षिणी पुरास्थल दैमाबाद (महाराष्ट्र) है। इसका आकार त्रिभुजाकार है तथा वर्तमान में लगभग 13 लाख वर्ग किमी. क्षेत्रफल में विस्तृत है।

*प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मोहनजोदड़ो की जनसंख्या एक मिश्रित प्रजाति की थी जिसमें कम-से-कम चार प्रजातियां थीं-

  1. प्रोटो ऑस्ट्रेलायड (काकेशियन),

  2. भूमध्य सागरीय,

  3. अल्पाइन और 4. मंगोलायड।

*मोहनजोदड़ो के निवासी अधिकांशतः भूमध्य सागरीय थे।

 

*सिंध सभ्यता के संस्थापकों के संबंध में विभिन्न विद्वानों के विचार-

  विद्वान                                                             सिंधु सभ्यता के निर्माता

1.डॉ. लक्ष्मण स्वरूप                                          आर्य 

2.गार्डन चाइल्ड एवं मार्टीमर हीलर                      सुमेरियन

3. राखालदास बनर्जी                                           द्रविड़

 

*सिंधु घाटी के जिन नगरों की खुदाई की गई उन्हें निम्नलिखित वर्गों वर्गीकत किया जा सकता है-

    1.केंद्रीय नगर,  2. तटीय नगर और पत्तन एवं  3.अन्य नगर एवं कस्बे।

* हड़प्पा के टीले या ध्वंसावशेषों के विषय में सर्वप्रथम जानकारी 1826 ई. में चार्ल्स मेसन ने दी।

*वर्ष 1920-21 दयाराम साहनी के नेतृत्व पंजाब (पाकिस्तान) के तत्कालीन मांटगोमरी सम्पति शाहीवाल जिले में रावी नदी के बाएं तट पर स्थित हड़प्पा का सर्वेक्षण आरंभ हुआ। वर्ष 1920-21 और 1933-34 में माधवस्वरूप वत्स ने तथा वर्ष 1946 में माटीमर हीलर ने व्यापक स्तर पर उत्खनन कराया।

*हडप्पा से प्राप्त दो टीलों में पूर्वी टीले को ‘नगर टीला’ तथा पश्चिमी टीले को ‘दुर्ग टीला’ के नाम से संबोधित किया गया है। यहां से 6-6 कक्षों की दो पंक्तियों में निर्मित कुल बारह कक्षों वाले एक अन्नागार के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा के सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक ऐसा कब्रिस्तान स्थित है, जिसे समाधि R-37 नाम दिया गया है। नगर की रक्षा के लिए पश्चिम की ओर स्थित दुर्ग टीले को ह्वीलर ने माउंड A-B की संज्ञा दी है। इसके अतिरिक्त यहां से प्राप्त कुछ अन्य महत्वपूर्ण अवशेषों में एक बर्तन पर बना मछुवारे का चित्र, शंख का बना बैल, स्त्री के गर्भ से निकला हुआ पौधा (जिसे उर्वरता की देवी माना गया है), पीतल का बना इक्का, ईंटों के वृत्ताकार चबूतरे, गेहूं तथा जौ के दानों के अवशेष प्रमुख हैं।

*सिंधी भाषा में मोहनजोदड़ो का शाब्दिक अर्थ ‘मृतकों का टीला’ है। सिंध प्रांत के लरकाना जिले में सिंधु नदी के दाहिने तट पर स्थित मोहनजोदड़ो की सर्वप्रथम खोज राखालदास बनर्जी ने वर्ष 1922 में किया था। मोहनजोदड़ो का सर्वाधिक उल्लेखनीय स्मारक वृहद स्नानागार है। इसकी लंबाई उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 55 मीटर और चौड़ाई पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर लगभग 33 मीटर है। इसके मध्य निर्मित स्नानकुंड की लंबाई 11.8 मीटर, चौड़ाई 7.01 मीटर और गहराई 2.43 मीटर है। यह विशाल स्नानागार धर्मानुष्ठान संबंधी स्नान के लिए था। मार्शल ने इस तत्कालीन विश्व का एक आश्चर्यजनक निर्माण कहा। सिंधु सभ्यता में आभलेख युक्त मुहरें सर्वाधिक मोहनजोदड़ो से मिले हैं।

*मोहनजोदड़ो की एक अन्य इमारत विशाल अन्नागार है, जो 45.72 मी लंबा तथा 22.86 मीटर चौड़ा है। वृहद स्नानागार के उत्तर-पूर्व में -23.77 मीटर के आकार का एक विशाल भवन के अवशेष मिले है। संभवतः यह पुरोहितावास था तथा यहां ‘पुरोहितों का विद्यालय’ स्थित रहा हो। मोहनजोदड़ो की प्रमुख विशेषता उसकी सड़कें थीं। मुख्य सड़क 9.15 मी. चौड़ी थी जिसे राजपथ कहा गया। सड़कें सीधी दिशा में एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई नगर को अनेक वर्गाकार अथवा चतुर्भुजाकार खंडों में विभाजित करती थीं। सड़कों के एक-दूसरे को समकोण पर काटने को ‘ऑक्सफोर्ड सर्कस’ नाम दिया गया है। मोहदजोदड़ो के पश्चिमी भाग में स्थित दुर्ग टीले को ‘स्तूपटीला’ भी कहा जाता है क्योंकि यहां पर कुषाण शासकों ने एक स्तूप का निर्माण करवाया था।

* मोहनजोदड़ो से प्राप्त अन्य अवशेषों में कांसे की बनी नृत्यरत नारी की मूर्ति, पुजारी (योगी) की मूर्ति, मुद्रा पर अंकित पशुपतिनाथ (शिव) की मूर्ति, कुंभकारों के छ: भट्ठ. सूती कपड़ा, हाथी का कपाल खंड, गले हुए तांबे के ढेर, सीपी की बनी हुई पटरी, अंतिम स्तर पर बिखरे हुए एवं कुएं से प्राप्त नर कंकाल, घोड़े के दांत एवं गीली मिट्टी पर कपड़े के साक्ष्य मिले हैं।

*मोहनजोदड़ो से 130 किमी. दक्षिण-पूर्व में स्थित चन्हूदड़ो की खोज सर्वप्रथम वर्ष 1931 में एम.जी. मजूमदार ने की थी। वर्ष 1935-36 में इसका उत्खनन मैके ने किया। यहां सैंधव संस्कृति के अतिरिक्त प्राक् हड़प्पा संस्कृति जिसे झूकर और झांगर संस्कृति कहते हैं, के अवशेष मिले हैं। संभवतः यह एक औद्योगिक केंद्र था जहां मणिकारी, मुहर बनाने, भार माप के बटखरे बनाने का काम होता था। मैके को यहां से मनका बनाने का कारखाना (Bead Factory) तथा भट्टी प्राप्त हुई थी। यहां से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख है-अलंकृत हाथी, खिलौना एवं कुत्ते के बिल्ली का पीछा करते हुए पद-चिह्न, सौंदर्य प्रसाधनों में प्रयुक्त लिपस्टिक आदि।

*चन्हूदड़ो एकमात्र पुरास्थल है जहां से वक्राकार ईंटें मिली हैं। यहां किसी दुर्ग का अवशेष नहीं मिला है।

*गुजरात में अहमदाबाद जिले में भोगवा नदी के तट पर स्थित लोथल की खोज सर्वप्रथम डॉ. एस.आर. राव ने की थी। सागर तट पर स्थित यह स्थल पश्चिमी एशिया से व्यापार के लिए एक प्रमुख बंदरगाह था। नगर योजना तथा अन्य भौतिक वस्तुओं के आधार पर लोथल एक ‘लघु हड़प्पा’ या ‘लघु मोहनजोदड़ो’ नगर प्रतीत होता है। यहाँ से फारस की मुद्रा/ सील और पक्के रंग में रंगे हुए पात्र प्राप्त हुए हैं। “लोथल में गढी तथा नगर दोनों एक रक्षा प्राचीर से घिरे हैं। लोथल की सबसे प्रमुख विशेषता ‘जहाजों की गोदी’ (डॉक यार्ड) है। यहां से प्राप्त अन्य महत्वपूर्ण अवशेष हैं-धान (चावल) और बाजरे का साक्ष्य, फारस की मुहर, घोड़े की लघु मृण्मूर्ति, तीन युगल समाधियां आदि।

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*कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ (पूर्व में हनुमानगढ़ जिला, गंगानगर का भाग था) जिले में स्थित है। इस स्थल की खोज अमलानंद घोष ने की थी। वर्ष 1961 में बी.बी. लाल एवं बी.के. थापर ने उत्खनन आरंभ किया। यहां पूर्वी और पश्चिमी टीला अलग-अलग सुरक्षा प्राचीर से घिरे थे। यहां पर पश्चिम दिशा में स्थित दुर्ग वाले टीले पर सैंधव सभ्यता के नीचे प्राक्-सैंधव संस्कृति के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। मोहनजोदड़ो के भवन पक्की ईंटों के बने थे, जबकि कालीबंगा के भवन कच्ची ईंटों के बने थे। पक्की ईंटों का प्रयोग केवल नालियों, कुओं एवं स्नानागार बनाने में ही किया गया है। यहां से जुते हुए खेत के साक्ष्य मिले हैं, जिसकी जुताई आड़ी-तिरछी की गई है।

*मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा के समान यहां से दो टीले मिले हैं, जो सुरक्षा दीवारों से घिरे हैं। पूर्व की ओर स्थित टीला बड़ा जबकि पश्चिम की तरफ स्थित टीला छोटा था। पश्चिमी टीले को ‘कालीबंगा प्रथम’ नाम दिया गया है। यहां से भूकंप का साक्ष्य मिला है। दुर्ग या गदी वाले टीले के दक्षिणी अर्धभाग में पांच या छः कच्ची ईटों के चबूतरे बने थे। एक चबूतरे पर अग्निकुंड, कुआं तथा पक्की ईंटों का बना एक आयताकार गर्त था, जिसमें पशुओं की हड्डियां थीं। दूसरे चबूतरे पर सात अग्निकुंड या वेदिकाएं एक पंक्ति में बनी थीं। यहां से सेलखड़ी तथा मिट्टी की मुहरें एवं मृद्भांड के टुकड़े मिले हैं।

*धौलावीरा गुजरात के कच्छ के रन में अवस्थित है। सर्वप्रथम वर्ष 1967-68 में इसकी खोज जे.पी. जोशी ने की। वर्ष 1990-91 के दौरान आर.एस. विष्ट द्वारा व्यापक पैमाने पर उत्खनन कार्य प्रारंभ किया गया। यह नगर आयताकार बना था। इस नगर को तीन भागों-किला, मध्य नगर तथा निचला नगर में विभाजित किया गया था। यहां से एक विशाल जलाशय मिला है। यहां के निवासी एक उन्नत जल प्रबंधन व्यवस्था से परिचित थे। यहां से हड़प्पा लिपि के बड़े आकार के 10 चिह्नों वाला एक शिलालेख मिला है। सुरकोटडा गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है। यह नगर दो दुर्गीकृत भागों-गदी तथा आवास क्षेत्र में विभाजित था। यहां के कब्रिस्तान से कलश शवाधान के साक्ष्य मिले हैं। यहां घोड़े की कुछ हड्डियों के साक्ष्य मिले हैं।

*दैमाबाद महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में प्रवरा नदी के बाएं किनारे पर स्थित है। यह सैंधव सभ्यता का सबसे दक्षिणी स्थल है। यहां से रथ चलाते हुए मनुष्य, सांड़, गैंडे की आकृतियां प्राप्त हुई हैं। यहां से कुछ मृदभांड, सैंधव लिपि की एक मुहर, तश्तरी, प्याले आदि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। राखीगढी हरियाणा के हिसार जिले में घग्गर नदी के किनारे स्थित है। इस स्थल की खोज वर्ष 1969 में सूरजभान ने की थी। यह नवीनतम शोधों के अनुसार सबसे बड़ा सैंधव स्थल है।

*रोपड़ (पंजाब) सतलज नदी के बाएं तट पर स्थित है। इसका आधुनिक नाम रूपनगर है। वर्ष 1950 में इसकी खोज बी.बी. लाल ने तथा वर्ष 1953-55 के दौरान यज्ञदत्त शर्मा ने इसकी खुदाई करवाई। यहां से मृदभांड, सेलखड़ी की मुहर, चर्ट के बटखरे, एक छुरा, तांबे के बाणाग्र तथा कुल्हाड़ी आदि प्राप्त हुए हैं। यहां से मनुष्य के साथ पालतू कुत्ता के दफनाए जाने का साक्ष्य मिला है।

*रंगपुर गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में है। यहां से प्राक्-हड़प्पा, हड़प्पा और उत्तर हड़प्पाकालीन सभ्यता के साक्ष्य मिले हैं। यहां से प्राप्त वनस्पति अवशेष के आधार पर कहा जा सकता है कि वे लोग चावल, बाजरा एवं ज्वार की खेती करते थे।

 

*सैंधव सभ्यता के प्रमुख स्थल एवं उनसे संबंधित नदी-

स्थल                              नदी

हड़प्पा                          रावी

मोहनजोदडो                  सिंधु 

कालीबंगा                     घरगर 

लोथल                          भोगवा

रोपड                           सतलज

मांडा                            चेनाब

दैमाबाद                        प्रवरा

आलमगीरपुर                हिंडन

सुत्कागेनडोर                दास्त/दाश्क

भगवानपुरा                  सरस्वती

 

*आलमगीरपुर उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में हिंडन नदी के किनारे स्थित है। यहाँ से खुदाई में मृभांड एवं मनके मिले हैं। कुछ बर्तनों पर त्रिभुज, मोर, गिलहरी आदि की चित्रकारियां मिलती हैं।

*हुलास उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में स्थित है। यहाँ से कांचली मिट्टी के मनके, चूड़ियां, खिलौना-गाड़ी आदि मिले हैं।  सैंधव लिपियुक्त एक ठप्पा का भी साक्ष्य मिला है। देसलपुर से एक रक्षा प्राचीर मिला है।

*सुत्कागेनडोर स्थल दक्षिण बलूचिस्तान में दस्त/दाश्क नदी के किनारे स्थित है। इसकी खोज वर्ष 1927 में आरेल स्टीन ने की थी। इसका दुर्ग एक प्राकृतिक चट्टान के ऊपर स्थित था। यहां से मृदभांड, एक ताम्रनिर्मित बाणान, ताम्र निर्मित ब्लेड के टुकड़े, तिकोने ठीकरे तथा मिट्टी की चूड़ियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

*सोल्काकोह सुत्कागेनडोर के पूर्व में स्थित है। वर्ष 1962 में इसकी  खोज डेल्स द्वारा की गई। यहां से दो टीले मिले हैं, जिसके आकार सुत्कागेनडोर जैसे ही हैं।

*बलूचिस्तान के दक्षिण तटवर्ती पट्टी पर स्थित बालाकोट एक बंदरगाह के रूप में कार्य करता था। यहां से हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पाकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसकी नगर योजना सुनियोजित थी। भवनों के निर्माण में कच्ची ईटों का जबकि नालियों के निर्माण में पक्की ईंटों का प्रयोग किया जाता था। यहां का सबसे समृद्ध उद्योग सीप उद्योग था। यहां से हजारों की संख्या में सीप से बनी चूड़ियों के टुकड़े मिले है। 

*बनावली हरियाणा के फतेहाबाद (पूर्व में हिसार का भाग था)जिले में स्थित है। वर्ष 1973-74 में आर.एस. बिष्ट द्वारा इस स्थल का | उत्खनन करवाया गया। यहां से संस्कृति के तीन स्तर प्रकाश में आए हैं-प्राक् सैंधव, विकसित सैंधव एवं उत्तर सैंधवा। यहां की सड़कें नगर  को तारांकित (Star Shaped) भागों में विभाजित करती हैं। यहां से मुहरें, बटखरे, लाजवर्द तथा कार्नेलियन के मनके, हल की आकृति के खिलौने, तांबे के बाणाग्र आदि के साक्ष्य मिले हैं। भगवानपुरा हरियाणा न जिले में सरस्वती नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। जे. पी जोशी ने इसका उत्खनन करवाया था। यहां के प्रमुख अवशेषों में काले तथा आसमानी रंग की कांच की चूड़ियां, तांबे की चूड़ियां, कांच की मिट्टी के चित्रित मनके आदि हैं।

*भांडा जम्मू एवं कश्मीर में चेनाब नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। वर्ष 1982 में इसका उत्खनन जे.पी. जोशी तथा मधुबाला द्वारा गया था। उत्खनन से यहां तीन सांस्कृतिक स्तर प्राप्त हुए पाक सैंधव, विकसित सैधव एवं उत्तर कालीन सैंधव। यहां से मिट्टी हनीकरे, हड्डी के नुकीले बाणान, चर्ट ब्लेड, कांस्य निर्मित पेंचदार पिन तथा एक आधी-अधूरी मुहर आदि के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में बारोट तहसील के सनौली नामक हड़प्पन पुरास्थल से क्रमबद्ध रूप से 125 मानव शवाधान प्राप्त हुए हैं, जिनकी दिशा उत्तर से दक्षिण है।

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*मिस्र की सभ्यता का विकास नील नदी की द्रोणी में हुआ।  मिस्र को नील नदी का उपहार कहा जाता है क्योंकि इस नदी के अभाव में यह भू-भाग रेगिस्तान होता।

* सुमेरिया सभ्यता के लोग प्राचीन विश्व के प्रथम लिपि-आविष्कर्ता थे।

*खुदाई से प्राप्त बहुसंख्यक नारी मूर्तियों से अनुमान लगाया जाता है कि सैंधव सभ्यता मातृसत्तात्मक थी। सैंधव लोग शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। उनके वस्त्र ऊनी और सूती दोनों प्रकार के होते थे। कंठहार, कर्णफूल, कड़ा, भुजबंद, अंगूठी, हंसुली, करधनी आदि आभूषण पहने जाते थे। नौसारो से स्त्रियों के मांग में सिंदूर के प्रमाण मिले हैं, जो हिंदू धर्म में सुहाग का प्रतीक है।। सैंधव काल में पासा प्रमुख खेल था।

*सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों के मुख्य खाद्यान्न गेहूं और जौ थे। रंगपुर से धान की भूसी तथा लोथल से चावल के अवशेष मिले हैं। लोथल से वृत्ताकार चक्की के दो पाट मिले हैं। सूती वस्त्रों के अवशेष से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि यहां के निवासी कपास उगाना जानते थे। सर्वप्रथम सैंधव निवासियों ने कपास की खेती प्रारंभ किया था।

*भारत से कपास यूनान गई, जिसे यूनानी हिंडन के नाम से पुकारते थे। भारत में कपास की खेती का प्रारंभ 3000 ई.पू. में किया गया, जबकि मिस्र में इसकी खेती 2500 ई.पू. के लगभग शुरू की गई। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगन, सुरकोटडा के स्थलों से कूबड़दार ऊंट का जीवाश्म मिला है। सुरकोटडा, लोथल, कालीबंगा से घोड़े की मृण्मूर्तियां, हड्डियां, जबड़े आदि के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

*सिधु सभ्यता का प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग था।  मोहनजोदड़ो से तांबे के दो उपकरणों से लिपटा हुआ सूती धागा एवं कपड़ा प्राप्त हुआ है। लोथल तथा चन्हूदड़ो में मनके बनाने का कार्य होता था। लोथल या बालाकोट सीप उद्योग के लिए प्रसिद्ध था।

 

प्रमुख धातु एवं प्राप्ति स्थल-

कच्चा माल                    प्राप्ति स्थल

तांबा                             खेतड़ी (राजस्थान) एवं बलूचिस्तान

लाजवर्द                         बदख्शा (अफगानिस्तान)

फिरोजा, टिन                 ईरान

चांदी                             राजस्थान की जावर एवं अजमेर खानों

                                    से, अफगानिस्तान एवं ईरान

सीसा                           अफगानिस्तान और अजमेर

शिलाजीत                     हिमालय

गोमेद                          गुजरात

 

*सैंधव निवासियों का आंतरिक एवं बाह्य व्यापार उन्नत अवस्था में था। सिक्कों का प्रचलन नहीं था तथा क्रय-विक्रय वस्तु-विनिमय द्वारा किया जाता था। लोथल एवं मोहनजोदड़ो से हाथी दांत के बने तराजू के पलड़े मिले हैं। उनके बाट मुख्यतः घनाकार होते थे। कुछ बाट बेलनाकार, दोलाकार, वर्तुलाकार प्रकार के भी मिले हैं। सारगोन युगीन सुमेरियन लेख से ज्ञात होता है कि मेलुहा, दिलमुन तथा मगन के साथ मेसोपोटामिया  के साथ व्यापारिक संबंध थे। ‘मेलुहा’ की पहचान सिंघ क्षेत्र से की गई है। ‘दिलमुन’ की पहचान फारस की खाड़ी के बहरीन से की गई है। सुमेरी अभिलेखों में दिलमुन को ‘साफ-सुथरे नगरों का स्थान’ या ‘सूर्योदय का क्षेत्र’ और ‘हाथियों का देश’ कहा गया है। मिस्र के साथ व्यापारिक संबंध का पता लोथल से प्राप्त ‘ममी’ की एक आकृति से चलता है।

*सैंधव सभ्यता में मूर्तिकला, वास्तुकला, उत्कीर्ण कला, मृभांड कला आदि के उन्नत होने का प्रमाण मिलता है। मोहनजोदड़ो से एक संयुक्त पशुमूर्ति प्राप्त हुई है जिसमें शरीर भेड़ का तथा मस्तक झंडदार हाथी का है। हड़प्पा की पाषाण मूर्तियों में दो सिर रहित मानव मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। धातु मूर्तियां लुप्त मोम या मधूच्छिष्ट विधि (Lost Wax) से बनाई जाती थीं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की कांस्य मूर्ति अत्यंत प्रसिद्ध है। लोथल से कुत्ते तथा कालीबंगन से ताम्र मूर्ति प्राप्त हुई है। चन्हूदड़ो से प्राप्त इक्का गाड़ी एवं बैलगाड़ी की मूर्तियां उल्लेखनीय है। मृणमूर्तियां पुरुषों, स्त्रियों और पशु-पक्षियों की प्राप्त हुई हैं। मानव मूर्तियां अधिकतर स्त्रियों की हैं। *सर्वाधिक मृण्मूर्तियां पशु-पक्षियों की प्राप्त हुई हैं।

*सैंधव काल में सर्वाधिक मुहरें सेलखड़ी की बनी हैं। इसके अतिरिक्त कांचली मिट्टी, चर्ट, गोमेद, मिट्टी आदि की बनी मुहरें भी हैं। अधिकांश मुहरें वर्गाकार या चौकोर हैं किंतु कुछ मुहरें घनाकार, गोलाकार अथवा बेलनाकार भी हैं। सिंधु सभ्यता की मुहरों पर सर्वाधिक अंकन एक पुंगी बैलों का है। उसके बाद कूबड़ वाले बैल का है। पशुपति शिव का प्रमाण मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर है जिस पर योगी की आकृति बनी है। उस योगी के दाई ओर बाघ और हाथी तथा बाईं ओर गैंडा एवं भैंसा चित्रित किए गए हैं। दो हिरन भी बने हैं। योगी के सिर पर एक त्रिशूल जैसा आभूषण है तथा इसके तीन मुख हैं। मार्शल महोदय ने इसे रुद्र शिव से संबंधित किया है।

*सैंधव मृदभांड मुख्यतया लाल या गुलाबी रंग के हैं। कुछ मृद्भाडो को लाल रंग से रंगकर काली रेखाओं से चित्र बनाए गए हैं। कुछ बर्तनों पर मोर, हिरण, कछुआ, मछली, गाय, बकरा, पीपल, नीम, खजूर, केला आदि का अंकन है। सैंधव मृभांडों में मर्तबान, कटोरे, तश्तरियां एवं थालियां प्रमुख हैं। स्त्री-पुरुष दोनों आभूषण पहनते थे। सोने-चांदी के अतिरिक्त हाथी दांत, शंख आदि के भी आभूषण तैयार किए जाते थे। सैंधव सभ्यता में मातृदेवी की पूजा प्रमुख थी। हड़प्पा से प्राप्त एक स्त्री की मूर्ति में उसके गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। संभवतः यह देवी धरती की मूर्ति थी, जिसे लोग उर्वरता की देवी समझते थे तथा इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस प्रकार मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस की।

*मातृदेवी एवं शिव की पूजा के अतिरिक्त सैंधव निवासी पशुओं, पक्षियों, वृक्षों आदि की उपासना करते थे। लोथल, कालीबंगा एवं बनावली के पुरास्थलों से अग्निकुंड अथवा यज्ञ वैदियों के साक्ष्य मिलते हैं। उत्तर-दक्षिण दिशा में शव दफनाने की प्रथा प्रचलित थी किंतु इसके अपवाद भी मिलते हैं।  कालीबंगा में शव दक्षिण-उत्तर, रोपड़ में पश्चिम-पूर्व तथा लोथल में पूर्व पश्चिम दिशा में प्राप्त हुए हैं। आंशिक समाधिकरण के उदाहरण बहावलपुर से मिले हैं।

 

सैंधव सभ्यता के विनाश के कारणों पर विभिन्न इतिहासकारों एवं विद्वानों का मत-

विनाश का कारण                           इतिहासकार/विद्वान

बाढ़                                              मार्शल, मैके, एस.आर. राव

आर्यों का आक्रमण                        गार्डेन चाइल्ड, मार्टीमर ह्वीलर,

                                                   स्टुवर्ट पिग्गट

जलवायु परिवर्तन                          आरेल स्टाइन, अमलानंद घोष

भू-तात्विक परिवर्तन                      एम.आर. साहनी, एच.टी. लैम्बिक,

                                                   जी.एफ. डेल्स

महामारी                                      के.यू.आर, कनेडी

अदृश्य गाज                                 एम. दिमित्रियेव

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