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बाबर कौन था ? उसकी भारतीय विजय

बाबर कौन था ? उसकी भारतीय विजयों का उल्लेख कीजिए ।

 

बाबर का प्रारम्भिक जीवन-

जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का जन्म 24 फरवरी, सन् 1483 ई० को फरगना में हुआ था । ‘उसकी धमनियों में दो वंशों (चंगेज खां एवं तैमूर) के रक्त का प्रवाह था । अपने पिता शेख मिर्जा की मृत्यु के बाद बाबर ग्यारह वर्ष की आयु में फरगना का शासक बना । महत्वाकांक्षी बाबर फरगना के छोटे राज्य से संतुष्ट न था । अतः उसने समरकन्द पर अधिकार स्थापित करने का संकल्प किया । उसने प्रथम बार सन् 1496 ई० में समरकन्द पर आक्रमण किया परन्तु असफल रहा । अगले वर्ष 1497 ई० में बाबर ने पुनः समरकन्द पर चढ़ाई कर दी और वहाँ पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया परन्तु वह वहाँ पर ठहर न सका । सरदार शेबानी खाँ ने समरकन्द एवं फरगना पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । समरकन्द एवं फरगना दोनों उसके हाथ से निकल जाने के बाद निराश बाबर अपनी मातृभूमि से चल दिया और कुछ दिनों तक इधर-उधर भटकता रहा । भाग्य ने एक बार फिर उसका साथ दिया और उसने 1504 ई० में एक छोटी सेना की सहायता से काबुल को जीत लिया । 1505 ई० में उसने ‘बादशाह’ की उपाधि धारण की । उसने 1510 ई० में एक बार फिर समरकन्द पर आक्रमण किया और विजयी हुआ । परन्तु कुछ दिनों बाद वह फिर वहाँ से निकाल दिया गया, अतः अब बाबर ने पश्चिम की ओर से निराश होकर पूर्व में भारत की ओर बढ़ने का इरादा किया । बाबर का भारत पर आक्रमण-भारतवर्ष में उस समय दिल्ली के शासक इब्राहीम लोदी के दुर्व्यवहार से असंतुष्ट अफगान अमीर उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहे थे ।

पजाब के सूबेदार दौलत खाँ तथा इब्राहीम के चाचा आलम खाँ ने बाबर को भारत पर चढ़ाई करने के लिए आमन्त्रित किया । बाबर तो ऐसे उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा में था ही, अतः सन् 1525 ई० में एक विशाल सेना के साथ उसने भारत पर आक्रमण करने हेतु काबुल से प्रस्थान किया । इसी बीच दौलत खाँ से उसकी अनबन हो गई । फलतः बाबर ने उस पर आक्रमण कर दिया और लाहौर पर अपना अधिकार कर लिया। बाबर का चरित्र मध्ययुगीन साम्राज्य निर्माताओं में बाबर का व्यक्तित्व अनुपम एवं अद्वितीय है। उसमें मानवीय गुणों की बहुलता थी। वह अपने गुरु एवं पिता के प्रति सम्मान की भावना रखता था। अपनी पत्नियों एवं पूत्रों के साथ दया और स्नेह का व्यवहार करता था। अपनी सेना एवं मन्त्री के प्रति उसका व्यवहार उदारता का था। धार्मिक दृष्टि से वह उदार था। अन्य विजेताओं की तरह उसने महिलाओं और बच्चों पर अत्याचार नहीं किया। बाबर एक बलिष्ठ एवं साहसी व्यक्ति था। वह अपनी बगल में दो व्यक्तियों को दबा कर दुर्ग की दीवाल पर बड़ी सरलता से दौड़ सकता था। भारत में उसके रास्ते में जितनी नदियाँ पड़ी थीं, उसने सबको तैरकर ही पार किया था।

बाबर एक योद्धा एवं कुशल सेनापति था। वह “एक प्रशंसनीय घुड़सवार, कमाल का निशानेबाज, योग्य तथा कुशल तलवार-चालक और उच्चकोटि का शिकारी था।” उसका सैन्य संचालन तथा संगठन बहुत उच्चकोटि का था। यही कारण था कि उसने इब्राहीम लोदी एवं राणा साँगा की विशाल सेना को परास्त करने का साहस किया था। बाबर उच्चकोटि का साहित्यकार एवं कला-प्रेमी शासक था, फारसी तथा तुर्की भाषाओं पर उसका पूर्ण अधिकार था। तुर्की में उसने कविताएँ लिखी थीं। गद्य-लेखक की दृष्टि से उसकी आत्म-कथा (बाबरनामा) का विश्व साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान था। वह कला-पारखी एवं प्रकृति-प्रेमी था और संगीत में प्रवीण था। बाबर एक सफल विजेता एवं कूटनीतिज्ञ था। अपनी प्रजा को सुख तथा शान्ति प्रदान करने का उसने यथाशक्ति प्रयास किया। परन्तु बाबर को एक शासक के रूप में वह यश न प्राप्त हो सका जो एक विजेता के रूप में उसे प्राप्त हुआ।

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बाबर के कार्यों का मूल्यांकन-

बाबर भारत में मुगल वंश का संस्थापक माना जाता है। उसने अपने विजयों द्वारा अफगान एवं राजपूतों की शक्ति को तोड़कर भारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। लेकिन नवस्थापित साम्राज्य को स्थिर बनाने के लिए उसकी उचित्त शासन-व्यवस्था अपेक्षित होती है, बाबर यह न कर सका। एसकिन का कहना है, “यद्यपि उसकी सैनिक विजय से उसे एक विशाल साम्राज्य मिला परंतु इस बिशाल साम्राज्य के विभिन्न भागों की राजनैतिक स्थिति में कोई एकरूपता नहीं थी।” इसका दुष्परिणाम बाबर के पुत्र हुमायूँ को भोगना पड़ा। सभी इतिहासकारों ने बाबर के चरित्र तथा व्यक्तित्व की बड़ी प्रशंसा की है। रशब्रक विलियम्स के शब्दों में, “बाबर दृढ़ तथा उच्च निर्णय करने वाला महत्वाकांक्षी, विजय प्राप्त करने की कला का ज्ञाता, शासन की कला से परिचित, जनता का शुभचिन्तक, सिपाहियों की अपनी और आकर्षित करने वाला तथा न्यायप्रिय शासक था।”

 

(1) पानीपत का प्रथम युद्ध (21 अप्रैल, 1526 ई०)-

लाहौर पर अपना अधिकार स्थापित करने के बाद बाबर दिल्ली की ओर बढ़ा । इब्राहीम लोदी ने इसकी सूचना पाकर एक लाख सैनिक लेकर युद्ध के लिए कूच किया । अप्रैल, 1526 ई० में पानीपत के रणक्षेत्र मे दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ, इब्राहीम की हार हुई और बह वीरगति को प्राप्त हुआ। इस विजय के कारण न केवल बाबर की मर्यादा बढ़ी वरन् आगरा और दिल्ली पर उसका अधिकार स्थापित हो गया । बाबर की विजय के कारण-पानीपत के युद्ध में बाबर की विजय के निम्नलिखित कारण थे

(1) यद्यपि इब्राहीम साहसी एवं वीर था परन्तु “वह एक अनुभवशून्य नवयुवक था । उसकी सम्पूर्ण गतियाँ असावधानी से पूर्ण थीं । वह बिना दूरदर्शिता के युद्ध करना आरम्भ कर देता था ।” इसके विपरीत बाबर एक अनुभवी कुशल सेनापति था । _(2) इब्राहीम लोदी के बुरे बर्ताव के कारण अफगान अमीर उसके शत्रु हो गये थे और वे उसके विरुद्ध कुचक्र रच रहे थे । जनता भी उससे प्रसन्न नहीं थीं ।

(3) इब्राहीम के सैनिक नौसिखिये एवं अनुभव शून्य थे । उनमें अनुशासन एवं उत्साह का अभाव था । इसके विपरीत बाबर की सेना बड़ी शिक्षित एवं सुव्यवस्थित थी, जो उत्तम सैन्य संचालन तथा तोपखाने के कारण विजयी हुई।

 

पानीपत के युद्ध के परिणाम-पानीपत के युद्ध के निम्नलिखित परिणाम हुए

(1) इस युद्ध से हिन्दू सम्राटों की भारत में हिन्दू राज्य करने की योजना को भारी आघात पहुँचा । यह एक निर्णायक युद्ध था ।

(2) इस युद्ध में लोदी वंश का अन्त हो गया और भारत में एक नये राजवंश की स्थापना हुई ।

(3) बाबर का दिल्ली तथा आगरा पर प्रभुत्व स्थापित हो गया । वह बादशाह घोषित कर दिया गया ।

(4) अफगानों को शक्ति को क्षति पहुँची । इस हार ने उसकी आँखें खोल दीं ।

(5) बाबर के गौरव की वृद्धि हुई तथा उसे अतुल धनराशि प्राप्त हुई। रशबूक विलियम्स के शब्दों में, “इस युद्ध में विजयी होने से बाबर के दुर्दिनों का अन्त हो गया और उसको अब अपने प्राणों तथा सिंहासन की सुरक्षा के लिए चिन्ताग्रस्त रहने की आवश्यकता नहीं रही । उसको तो अब अपनी असीम शक्ति तथा प्रतिभा का प्रयोग अपने राज्य-विस्तार के लिए करना पड़ा ।”

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(2) खानवा का युद्ध (16 मार्च, 1527 ई०)-

यद्यपि बाबर का दिल्ली और आगरा पर अधिकार हो गया था, किन्तु अभी उसे राजस्थान के सर्वाधिक शक्तिशाली एवं वीर योद्धा राणा साँगा से युद्ध करना बाकी था, क्योंकि राणा भी दिल्ली की गद्दी का दावेदार था । राणा साँगा की यह धारणा थी कि बाबर इब्राहीम को परास्त कर काबुल लौट जायगा और फिर उसे दिल्ली पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का अवसर प्राप्त होगा। परन्तु जब राणा साँगा की आशा के विपरीत बाबर दिल्ली के सिंहासन पर जम कर बैठ गया तो राणा साँगा को युद्ध करने के अलावा और कोई चास नहीं रहा।

राणा सांगा, हसन खा मेवाती और महमुद लोदी अपनी सेना लेकर आ फतेहपुर सीकरी के निकट एक स्थान में आ डटे । बाबर के सैनिक राजपूत नेता साँगा की शौर्य-कथाओं से ही घबड़ा गये थे और जब उन्होंने अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित राजपूत सेना के बीरों को देखा तो उनकी रही-सही शक्ति भी खत्म हो गई परन्तु बाबा के ओजस्वी भाषण ने उसके सैनिकों पर गहरा प्रभाव डाला। सभी सनिका ने करान। शरीफ की शपथ लेकर यह प्रतिज्ञा की कि वे उस समय तक युद्ध करते रहेंगे जब तक । उनके शरीर में प्राण है। 16 मार्च, सन 1527 ई० में सीकरी से 10 मील दूर खानवा नामक स्थान पर विकट संग्राम हुआ। युद्ध में बाबर ने उसी रण-शैली का अनुकरण किया जिसका उसने पानीपत के युद्ध में किया था। बाबर विजयी हुआ।

 

(3) खानवा के युद्ध का परिणाम-

खानवा का युद्ध निर्णायक युद्ध साबित हुआ। राजपूतों की इस पराजय से उनका भारत में हिन्दू राज्य स्थापित करने का अवसर जाता रहा और भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना हो गई। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, “वास्तव में खानवा की विजय ने बाबर को हिन्दुस्तान का बादशाह बना दिया। अब उसे। राजपूतों का डर न रहा, क्योंकि खानवा की लड़ाई में उनकी शक्ति का पूर्ण हास हो गया और राणा साँगा का बनाया हुआ संघ छिन्न-भिन्न हो गया ।

 

(4) चन्देरी पर आक्रमण (9 दिसम्बर, 1527 ई०)-

चन्देरी के शासक मेदिनी । राय जो राणा साँगा का सामन्त था, के पास बाबर ने यह संदेश भेजा कि वह चन्देरी उसे दे दे । मेदिनी राय द्वारा उसके प्रस्ताव को अस्वीकार करने पर उसने चन्देरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया । इससे राजपूत शक्ति और भी कुण्ठित हो गई।

 

(5) घाघरा का युद्ध (6 मई, 1529 ई०)-

पानीपत के युद्ध में अफगानों की । शक्ति को बहुत बड़ा धक्का लगा था परन्तु वे पुनः बिहार में अपनी शक्ति संगठित करने लगे और दोआब के मुगल प्रदेशों पर अधिकार करने के लिए कोशिश करने लगे। बाबर ने 6 मई, 1529 ई० को घाघरा के युद्ध में अफगानों को पूरी तरह हराया और बंगाल के नवाब नुसरत शाह से संधि की । इस युद्ध से अफगानों की शक्ति को गहरा धक्का लगा, लेकिन उनका पूर्णरूप से अन्त नहीं हुआ।

इन तीन युद्धों के परिणामस्वरूप उत्तरी भारत का अधिकांश भाग बाबर के अधिकार में आ गया। बाबर की मृत्यु-अधिक परिश्रम करने से बाबर का स्वास्थ्य खराब होने लगा और वह बीमार हो गया । सन् 1530 ई० में वह आगरा में इस संसार से चल बसा। .

 

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