harabart-shikshan-upaagam-in-hindi

शिक्षण के स्तर – हरबर्ट शिक्षण उपागम(स्मृति स्तर का शिक्षण) | Levels of Teaching in Hindi

इस पोस्ट में हम लोग शिक्षण के स्तर क्या है, हरबर्ट शिक्षण उपागम क्या है, हरबर्ट की पंचपदीय प्रणाली क्या है, हरबर्ट का स्मति स्तर का शिक्षण क्या है, स्मृति स्तर का शिक्षण, स्मृति की परिभाषा, स्मृति की अवस्थाएँ, स्मृति का वर्गीकरण, स्मति स्तर के शिक्षण का प्रतिमान क्या है आदि विषयों पर चर्चा करेगें।

शिक्षण के स्तर ( Levels of Teaching)

शिक्षण तथा अधिगम का घनिष्ठ सम्बन्ध है, जैसे ही हम शिक्षण के विषय में चिन्तन प्रारम्भ करते हैं, तब अनेकानेक प्रश्न हमारे मानस पटल पर छा जाते हैं, किसका शिक्षण ? अर्थात् कौनसा विषय पढ़ाया जायेगा, किसे शिक्षण ? अर्थात् विद्यार्थी कैसा होगा, किसलिए शिक्षण ? अर्थात् उद्देश्य क्या होंगे ? आदि इससे स्पष्ट होता है कि शिक्षण एक सोद्देश्य व जटिल प्रक्रिया है, जिसमें सीखना पूर्णतः समाहित है, इसलिए वर्तमानकाल में शिक्षण सीखना(Teaching Learning) का एक हा प्रत्यय स्वाकार किया गया हो।

विद्यालयों में एक ही पाठ्यवस्तु को विभिन्न शिक्षण स्तरों पर पढ़ाया जाता है । इसका कारण है कि प्रत्येक पाठ्य-वस्तु का अपना निजी स्वरूप होता है, जिससे शिक्षण के विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है और अधिगम के विभिन्न स्तरों को प्रभावित किया जाता है। किसी भी पाठ्यवस्तु को शिक्षक विचारहीन स्थिति से लेकर विचारपूर्ण स्थिति तक तीन स्तरों पर प्रस्तुत कर सकता है । इसमें शिक्षण के ज्ञान उद्देश्य से लेकर मूल्यांकन उद्देश्यों तक की प्राप्ति की जा सकती है ।

इस प्रकार शिक्षण के स्तरों को निम्नलिखित ढंग से वर्गीकृत किया जा सकता-

1. हरबर्ट शिक्षण उपागम(Herbartian Teaching Approach)- स्मृति स्तर(Memory Level)

2. मौरीसन शिक्षण उपागम(Morrison’s Teaching Approach) – बोध स्तर(Understanding Level)

3. हण्ट शिक्षण उपागम(Hunt’s Teaching Approach)-चिन्तन स्तर(Reflective Level)

 

उपर्युक्त तीनों स्तर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं । इनमें से स्मृति स्तर शिक्षण की विचारहीन तथा प्राथमिक अवस्था है । इसके बाद बोध स्तर का क्रम आता है । बोध से पहले यह आवश्यक है कि स्मृति स्तर का शिक्षण हो चुका हो। शिक्षण का तीसरा और अन्तिम स्तर चिन्तन स्तर है, इसमें स्मृति तथा बोध दोनों सम्मिलित होते हैं। एक कुशल शिक्षक को अपनी योग्यता तथा अनुभव के आधार पर उपर्युक्त तीनों स्तरों का प्रयोग क्रमानुसार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, ये तीनों स्तर शिक्षा के तीनों स्तरों प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च माध्यमिक; की दृष्टि से भी अधिक उपयोगी हैं क्योंकि प्राथमिक स्तर पर भाषा, सामाजिक ज्ञान, विज्ञान, गणित आदि जो भी विषय पढ़ाए जाएँ, उनमें हमें कंठस्थीकरण पर अधिक बल देना चाहिए और यही स्मृति स्तर है। इसी प्रकार माध्यमिक स्तर पर स्मृति के साथ-साथ छात्रों में विषय को समझने की योग्यता पर अधिक बल देना चाहिए यह बोध स्तर है। उच्च स्तर पर स्मृतितथा बोध के साथ मौलिक चिन्तन समीक्षात्मक दृष्टि आदि भी छात्रों में विकसित करनी चाहिए, यही शिक्षण का तृतीय स्तर ‘चिन्तन’ है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि एक शिक्षा स्तर पर एक शिक्षण स्तर पर्याप्त है, अपितु तीनों शिक्षा स्तरों पर तीनों शिक्षण स्तर उपयोगी हैं। इनका प्रयोग तथा इनकी सफलता कुशल शिक्षक पर निर्भर करती है। अब क्रमशः प्रत्येक स्तर का विवेचन विस्तार से किया जा रहा है:

 

हरबर्ट शिक्षण उपागम : स्मृति स्तर का शिक्षण (Memory Level of Teaching):

अधिगम एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में मानव अपने गत अनुभवों को स्मरण रखता है और आवश्यकता पड़ने पर उनका उपयोग करता है। यदि हम सीखी गई हर बात को भूल जाते, तो हमें हर बार एक ही बात सीखने के लिए प्रयास करना पड़ता और ऐसी स्थिति में हम उन्नति नहीं कर सकते थे। इससे सिद्ध होता है कि मानव के विकास में स्मरण शक्ति का बहुत महत्त्व ह।

कतिपय मनोवैज्ञानिकों जैसे एबिंघास, वेल्टले, स्टाउट आदि का मत है कि स्मृति एक दैहिक अथवा पुनरोत्पादक प्रक्रिया है। इस मत के मानने वालों ने स्वीकार किया कि आवश्यकता पड़ने पर हम अपने पूर्व में अनुभव किये गये संस्कारों को ज्यों-का-त्यों प्रकट कर सकते हैं।

दूसरे समूह में वे मनोवैज्ञानिक आते हैं, जो यह स्वीकार करते हैं कि हम अपने पूर्व अनुभवों को ज्यों-का-त्यों अभिव्यक्त नहीं कर सकते; उनमें परिवर्तन आ जाता है।

अत: उपर्युक्त मतों के आधार पर कहा जा सकता है कि स्मृति एक पुनरोत्पादक रचनात्मक मानसिक प्रक्रिया है।

 

स्मृति की परिभाषा (Definition of Memory) :

1. विलियम जेम्स-“स्मृति मन की उस पूर्व दशा का ज्ञान है, जो चेतन स्तर से एक बार पहले ही हट चुकी थी अथवा यह उस घटना या तथ्य का ज्ञान है, जिसके विषय में हम अभी तक सोच नहीं रहे थे।”

See also  पाठ योजना का अर्थ, महत्व, विशेषतायें, उपागम, पाठ योजना के सोपान, गृहदत्त-कार्य योजना

2. मैक्डगल-“स्मृति का अर्थ घटनाओं का उस रूप में कल्पना करना है, जैसे कि उनका अनभव पहले हो चुका है आर यह पहचान लेना है कि वे उसके स्वयं के गत अनुभव हैं।”

उपर्यक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि स्मृति का अस्तित्व अधिगम से उपजता। है। अधिगम को प्रभावित करने वाले अनेक तत्त्व है और वे स्मृति को भी प्रभावित करते हैं।।

 

स्मृति की अवस्थाएँ (Phases of Memory) :

स्मृति एक जटिल प्रक्रिया है जो चार अवस्थाओं से होकर गुजरती है, जैसे, अधिगम,धारणा, प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञान।

अधिगम:

अधिगम की प्रक्रिया द्वारा कोई कार्य सीखा जाता है, सीखने की क्रिया में अनेक कारक अपना प्रभाव डालते हैं । प्रेसी के अनुसार, “सीखना उस अनुभव को कहते हैं जिसके द्वारा व्यवहार में परिवर्तन या समायोजन होता है, और जिससे व्यवहार को नयी दिशाएँ प्राप्त होती हैं ।”

जो विषयवस्तु जितनी सार्थक होती है, उसको याद करने में उतनी ही सरलता रहती है। निरर्थक विषय को याद रख पाना उतना ही कठिन होता है। सीखने का कार्य चेतन मन करता है। इसी अवस्था में जीवन के अनुभव मानसिक संस्कारों के रूप में हमारे मस्तिष्क में अंकित हो जाते हैं और आवश्यकता पड़ने पर पुनः वर्तमान चेतना में आ जाते हैं।

 

धारणा:

अधिगम में कोई भी वस्तु सीखी जाती है, स्मरण की जाती है । इसके बाद स्मरण की गई सामग्री को धारण करने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। धारण के कारण ही हम किसी वस्तु का प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञान कर सकते हैं, जैसे, किसी विषय को हम 30 मिनट में स्मरण करते हैं, कुछ दिनों भूल जाते हैं, जब पुनः याद करना प्रारम्भ करते हैं, तब पहले की अपेक्षा इस बार समय कम लगता है। दूसरी बार कम समय लगना धारणा के कारण ही होता है। मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि धारणा शक्ति का सर्वाधिक विकास मानव जीवन की 25 वर्ष की अवस्था तक हो जाता है । इसके पश्चात् धारणा शक्ति क्षीण पड़ने लगती है।

धारणा को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं,जैसे, स्मरण की गई सामग्री का स्वरूप, अधिगम की मात्रा, अधिगम करने की विधि,मस्तिष्क की संरचना, व्यक्ति का स्वास्थ्य,मानसिक चिन्तन तथा उस विषय की पुनरावृत्ति आदि।

 

प्रत्यारमरण :

किसी भी विषयवस्तु को पहले सीखा जाता है, फिर धारण किया जाता है। इन्हीं धारण किये गये गत अनुभवों को चेतना में पुनः लाने की क्रिया को प्रत्यास्मरण कहते हैं। प्रत्यास्मरण को भी अनेक तत्त्व प्रभावित करते हैं, जैसे, धारणा कैसी हुई ? संवेगात्मक तत्त्व, भावों में साहचर्य, जैसे- समानता, विरोधाभास, नवीनता, तीव्रता, प्राथमिकता तथा बारम्बारता आदि।

इसी प्रकार सुखद अनुभव हमें सरलता से याद हो जाते हैं और दुःखद अनुभव याद नहीं होते, क्योंकि इन दुःखद अथवा लज्जास्पद अनुभूतियों को मन सक्रिय होकर भुला देते हैं। इसी कारण सुखद अनुभवों का प्रत्यास्मरण आसानी से होता है, दुःखद अनुभवों को हम प्रत्यास्मरण नहीं करना चाहते।

 

प्रत्यभिज्ञान:

इसका अर्थ है-पहले देखी गई वस्तु अथवा विषय को पहचान लेना। यह प्रत्यास्मरण की तुलना में सरल होता है, क्योंकि प्रत्यास्मरण में एक विशेष बात को ही हम पुन: याद करने काप्रयत्न करते हैं.जबकि प्रत्यभिज्ञान में हमारे समक्ष अनेक वस्तुएं अगर रख दी जाएँ, तब हम पूर्व में देखी गई वस्तु को तुरन्त पहचान लेते हैं।

प्रत्यभिज्ञान स्मृति को पूर्णता प्रदान करता है । पूर्णाकारवादियों के अनुसार, प्रत्यभिज्ञान किसी अनुभव के अलग-अलग अंग विकसित नहीं होते, अपितु एक सम्पूर्ण चित्र उभरकर मानव मस्तिष्क पर आता है।

स्मृति का वर्गीकरण :

स्मृति के क्षेत्र में भी हमें वैयक्तिक विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। कुछ व्यक्ति किसी विषय को जल्दी याद कर लेते हैं, कुछ ऐसे होते हैं, जो बार-बार आवृत्ति आने के बाद भी विषय को ठीक ढंग से याद नहीं कर पाते, अगर याद कर भी लेते हैं तो जल्दी ही भूल भी जाते हैं। इन्हीं योग्यताओं के आधार पर स्मृति का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है :

 

harabart-shikshan-upaagam-in-hindi

1. तात्कालिक स्मृति-यह वह स्मृति है, जिसमें याद किया हुआ अंश या विषय तुरन्त ही प्रत्यास्मरण कर अभिव्यक्त करना पड़ता है।

2. स्थायी स्मृति-जब सीखी हुई वस्तु अथवा विषय का सीखने के कुछ समय बाद प्रत्यास्मरण किया जाता है, तब उसे स्थायी स्मृति कहते हैं।

3. आदतजन्य स्मृति-इसे रटन्त स्मृति भी कहते हैं। इसमें छात्र बिना समझे हुए विषय-वस्तु को रटता रहता है । धीरे-धीरे ये विषय कंठस्थ हो जाते हैं । शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था में कविता, रूप, श्लोक तथा पहाड़े आदि याद करने में यह विशेष सहायक होती है। इस स्मृति की भी जीवन में बड़ी उपयोगिता है।

4. वास्तविक स्मृति अथवा तार्किक स्मृति-इसमें विषयवस्तु को समझने के बाद याद किया जाता है तथा वस्तु के अवयवों तथा तत्त्वों में पारस्परिक सम्बन्ध होता है । इसमें सीखने के पूर्व सीखने वाले में उसके प्रति जिज्ञासा, आवश्यकता तथा आस्था होती है। आदतजन्य स्मृति की उपयोगिता सीमित होती है । वास्तविक स्मृति अथवा तार्किक स्मृति में किसी भी विषय की ऑचित्यता में तर्क-वितर्क करने की क्षमता होती है, अत: इसका स्थानान्तरण सम्भव होता है।

See also  अनुदेशन एवं प्रशिक्षण | शिक्षण, अनुदेशन तथा प्रशिक्षण में अन्तर | Instruction and Training In Hindi

5. सक्रिय स्मृति-अनुभवों एवं स्मरण किये गये तथ्यों का आवश्यकतानुसार स्मरण ही सक्रिय स्मृति है।

6. निष्क्रिय स्मृति-जब बिना किसी प्रयत्न के पूर्वानुभवों का स्मरण हो जाता है, तो उसे निष्क्रिय स्मृति कहते हैं।

 

अच्छी स्मृति की विशेषताएँ :

1. शीघ्र अधिगम होना,

2. धारणा का स्थायित्व होना,

3. प्रत्यास्मरण में शीघ्रता,

4. समयानुकूल उपयोग,

5. व्यर्थ की बातों को भूलना; एवं

6. शीघ अभिज्ञान करना।

उपर्यक्त पंक्तियों में स्मृति का सविस्तार वर्णन किया गया है जिससे स्मृति का स्वरूप पूर्णतः स्पष्ट होता है।

स्मृति स्तर के शिक्षण का प्रतिमान :

यह स्तर हरबर्ट द्वारा दिया गया है, इसके प्रारूप के चार पक्ष हैं :

(1) उद्देश्य-हरबर्ट महोदय ने स्मृति स्तर के शिक्षण हेतु निम्नलिखित उद्देश्यों का निर्धारण किया है, जिनसे वे क्षमताओं के विकास पर बल देते हैं :

(अ) तथ्यों का ज्ञान प्रदान करना,

(ब) सीखे हुए तथ्यों को याद करना,

(स) मानसिक पक्षों का प्रशिक्षण,

(द) सीखे हुए ज्ञान का प्रत्यास्मरण करना तथा पुन: प्रस्तुत करना।

 

(2) संरचना- हरबर्ट ने शिक्षण प्रक्रिया में पंचपदी प्रणाली का अनुसरण किया है, जो स्मृति स्तर के शिक्षण की संरचना का प्रारूप प्रदान करती है :

(i) योजना बनाना-शिक्षक पाठ्यवस्तु के सार्थक विचारों को अपने चेतन मस्तिष्क में लाता है और छात्रों को उन तथ्यों के लिए अनुभव प्रदान करता है, जिससे छात्र उन तथ्यों का प्रत्यास्मरण कर सकें, इसमें निम्नलिखित सोपानों को लिया जाता-

(अ) प्रस्तावना एवं तैयारी-इसमें छात्रों के पूर्वज्ञान की परीक्षा करने के लिए पढ़ाये जाने वाले पाठ से सम्बन्धित सरल प्रश्न पूछे जाते हैं, जिससे उन्हें नवीन ज्ञान को सीखने की जिज्ञासा हो। प्रस्तावनात्मक प्रश्नों के समापन के साथ छात्र आज पढ़ाये जाने वाले प्रकरण को श्यामपट्ट पर लिखता है तथा स्पष्ट उद्देश्य कथन करता है।

(ii) प्रस्तुतिकरण-यह पाठ का मूल अंश होता है, जिसमें शिक्षक द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं और छात्रों से अधिकाधिक अनुक्रियाएँ करवाई जाती हैं।

(iii) तुलना तथा सम्बन्ध-इस सोपान में पढ़ाई गई विषयवस्तु को अधिक बोधगम्य बनाने के लिए शिक्षक एक विषय का सम्बन्ध दूसरे से स्थापित करता है, वैसी ही घटना छात्रों के समक्ष प्रस्तुत कर विषय को स्पष्ट करता है।

(iv) निष्कर्ष अथवा सामान्यीकरण-इस पद को हरबर्ट महोदय ने प्रणाली अथवा व्यवस्था की संज्ञा दी है। मूल पाठ को समझाने के बाद इस पद में विद्यार्थियों को सोचने-विचारने के अवसर प्रदान किये जाते हैं तथा श्यामपट्ट सारांश के आधार पर छात्रों में पाठ के निष्कर्ष निकालने अथवा नियम बनाने हेतु प्रेरित किया जाता है।

(v) प्रयोग-इस सोपान के अनुसार सीखे हुए ज्ञान को नई परिस्थितियों में प्रयोग किया जा सकता है अथवा नहीं; इस बात की जाँच की जाती है । इस कार्य हेतु अभ्यास अथवा पुनरावृत्ति के प्रश्न छात्रों से पूछे जाते हैं।

(3) सामाजिक प्रणाली-शिक्षण प्रक्रिया के दो मुख्य अंग हैं-शिक्षक तथा शिक्षार्थी। यह एक सामाजिक प्रक्रिया है। स्मृति स्तर के शिक्षण में शिक्षक अधिक सक्रिय तथा प्रमुख होता है, छात्र निष्क्रिय तथा अनुसरणकर्त्ता होता है। इसमें शिक्षक के प्रमुख तीन कार्य होते हैं-पाठ्यवस्तु प्रस्तुत करना, विद्यार्थियों की क्रियाओं को नियन्त्रित करना तथा पढ़ने हेतु प्रेरणा प्रदान करना।

(4) मूल्यांकन प्रणाली-स्मृति स्तर के शिक्षण में रटने पर बल दिया जाता है, अतः मूल्यांकन करते समय भी वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को निबन्धात्मक प्रश्नों की तुलना में अधिक महत्त्व दिया जाता है। इसमें मौखिक तथा लिखित दोनों ही तरह की परीक्षा ली जाती है।

 

स्मृति स्तर पर शिक्षण को प्रभावित करने वाले कारक :

(1) मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य,

(2) अभिप्रेरणा,

(3) शान्तिपूर्ण वातावरण,

(4) रुचि,

(5) सामग्री अथवा विषयवस्तु की सार्थकता,

(6) साहचर्य,

(7) अधिगम का स्तर एवं स्थिरीकरण की मात्रा

(8) स्मरण,

(9) साहचर्य,

(10) अधिगम की विधियाँ,

(11) मस्तिष्क की संरचना,

(12) परीक्षणों का प्रयोग,

(13) अभ्यास एवं पुनरावृत्ति।

 

स्मृति स्तर पर शिक्षण को प्रभावशाली बनाने हेतु सुझाव :

(1) पाठ्यवस्तु को क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करना चाहिए,

(2) वह सार्थक तथा तथ्यपूर्ण होनी चाहिए,

(3) समय-समय पर पुनर्बलन भी किया जाना चाहिए,

(4) पुनरावृत्ति एक ही क्रम में होनी चाहिए,

(5) शिक्षण में पूर्णाकारवादियों के सिद्धान्तानुसार विषयवस्तु समग्र रूप में छात्रों के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिए,

(6) छात्र को पढ़ाने से पूर्व मानसिक रूप से तैयार कर लेना चाहिए,

(7) शिक्षक का यह भी प्रयास होना चाहिए कि वह छात्रों की ज्ञान प्राप्ति की ओर ध्यान दे,

(8) प्रत्यास्मरण की वृद्धि, अभ्यास एवं पुनरावृत्ति की सहायता से की जानी चाहिए; एवं

(9) छात्रों के थके होने पर शिक्षण नहीं करना चाहिए।

Disclaimer -- Hindiguider.com does not own this book, PDF Materials, Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet or created by HindiGuider.com. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: 24Hindiguider@gmail.com

Leave a Reply