राष्ट्रीय शिक्षा नीति क्या है?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति क्या है? | राष्ट्रीय शिक्षा नीति की आवश्यकता | National Education Policy In Hindi

राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली/नीति

राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली एक निश्चित स्तर तक सभी विद्यार्थियों को जाति, धर्म, स्थान या लिंग का भेदभाव किए बिना एक तुलनीय गुणवत्ता की शिक्षा अपना प्रमुख उद्देश्य मानती है और इसकी सम्प्राप्ति हेतु पर्याप्त वित्त पोषित कार्यक्रम प्रारम्भ करने के लिए के लिए तत्पर है। 1968 की शिक्षा नीति के निर्देशानुसार एक समान स्कूली शिक्षा को लागू करने के लिए यह कृत संकल्प है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति सम्पूर्ण देश में शिक्षा का एक समान स्कूली शिक्षा का ढाँचा लाग करने की नीति पर दृढ़ है। 10+2+3 के ढाँचे को देश के सभी प्रांतों ने स्वीकार कर लिया है। प्रथम 10 वर्षों की शिक्षा का विभाजन पाँच वर्षों की प्राथमिक, 3 वर्षो की उच्च प्राथमिक तथा 2 वर्ष की माध्यमिक शिक्षा-पूर्ववत् बनाए रखने का निर्णय लिया गया है।

राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली एक राष्ट्रीय पाठ्यचर्या संरचना (Framework) पर आधारित होगी जिसमें एक उभयनिष्ठ सार भाग (Common Core) सन्निहित होगा तथा साथ ही अन्य अवयव होंगे जो लचीले होंगे। उभयनिष्ठ सार भाग में भारत में स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, संवैधानिक दायित्व और अन्य विषयवस्तु जो राष्ट्रीय एकात्मकता (Identity) के पोषण के लिए आवश्यक हों, समाहित होंगे तथा प्रजातंत्र, धर्म निरपेक्षता, लैंगिक समानता, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक बाधाओं से छुटकारा, छोटे परिवार की उपयोगिता और वैज्ञानिक स्वभाव का मनःस्थापन जैसे मूल्यों का उन्नयन होगा। सभी शैक्षिक कार्यक्रम धर्म निरपेक्ष मूल्यों के अनुरूप संचालित किये जायेंगे।

सम्पर्ण विश्व को एक परिवार मानते हए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना का विकास किया जावेगा।

शिक्षा के प्रत्येक स्तर के लिए अधिगम के न्यूनतम स्तर निर्धारित किए जायेंगे। दश के विभिन्न भागों में निवास करने वाले लोगों की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा एवं कला का ज्ञान प्रत्येक छात्र को देने हेतु विशेष प्रयास किए जायेंगे। सम्पर्क भाषा को विकसित करने, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने तथा बहुभाषी शब्द कोष तैयार कराने के विशेष प्रयास किये जायेंगे।

शैक्षिक रूपान्तरण, सामाजिक, आर्थक विषमता को कम करने, प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण, प्रौढ सारक्षता, वैज्ञानिक तथा तकनीकी शोध के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में संसाधन सहायता प्रदान करना सम्पूर्ण राष्ट्र का उत्तरदायित्व है। उच्च शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा पाने के लिए छात्रों के अन्तक्षेत्रीय आवागमन को प्रोत्साहित किया जायेगा। विश्वविद्यालयों के सार्वभौम चरित्र को प्रचलित रखा जायेगा।

जीवनपर्यन्त शिक्षा शैक्षिक प्रक्रिया का एक दीर्घ वांछित उद्देश्य है। युवाओं, गृह पत्नियों, कृषि एवं उद्योग कार्यकर्ताओं और व्यावसायिकों को अपनी रुचि तथा अपनी गति के अनुसार शिक्षा जारी रखने के अवसर प्रदान किए जायेंगे। इसके लिए भावी प्रतिवल (Thrust) खुली एवं दूरस्थ शिक्षा की दिशा में होगा।

राज्यों की भूमिका और उत्तरदायित्व तो मूल रूप में अपरिवर्तित रहेंगे ही, केन्द्रीय सरकार भी शिक्षा के राष्ट्रीय एवं एकात्मक पक्ष को सुदृढ़ करने, गुणवत्ता और स्तर को बनाये रखने, अनेक स्तर पर शिक्षण व्यवस्था सहित और समान रूप से समस्त देश में शैक्षिक सूची स्तम्भ (Pyramid) के समस्त स्तरों पर श्रेष्ठता के उन्नयन हेतु अधिकाधिक उत्तरदायित्व स्वीकार करेगी।

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति की आवश्यकता | राष्ट्रीय शिक्षा नीति की विशेषताएँ

समानता के लिए शिक्षा

राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मूल लक्ष्य सबको शिक्षा प्राप्ति के समान अवसर प्रदान करना है, विशेष रूप से उन लोगों की ओर ध्यान दिया जायेगा, जो अब तक समानता से वंचित रहे हैं।

 

स्त्रियों की समानता के लिए शिक्षा

स्त्रियों के स्तर (Status) में मूल परिवर्तन लाने के लिए शिक्षा का उपयोग एक अभिकर्ता के रूप में किया जायेगा। राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की स्त्रियों के सशक्तीकरण में सकारात्मक एवं मध्यस्थ की भूमिका होगी। पुनः अभिकल्पित (Re-designed) पाठ्यर्चा, पाठ्य पुस्तकों, शिक्षकों, निर्णयकर्ताओं एवं प्रशासकों के प्रशिक्षण एवं अभिनवीकरण तथा शैक्षिक संस्थाओं के सक्रिय आवेष्टन (Involvement) द्वारा नवीन मूल्यों को प्रोत्साहित किया जायेगा। यह एक विश्वास और सामाजिक अभियांत्रिकी का कार्य होगा। यह भी। संकल्प किया गया है कि स्त्रियों की निरक्षरता के उन्मूलन और प्रारम्भिक शिक्षा में उनके। प्रवेश और अवधारणा को उच्च प्राथमिकता दी जायेगी।

 

अनुसूचित जनजाति की शिक्षा

अनुसूचित जनजातियों को अन्य लोगों के समान शिक्षा उपलब्ध कराने हेतु निम्नलिखित उपाय सुझाये गये हैं-

(1) जनजातीय क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालय खोलने को प्राथमिकता दी जाये।

(2) जनजातीय भाषाओं में पाठ्यक्रम और शिक्षण सामग्री विकसित की जाये।

(3) अनुसूचित जनजातियों के शिक्षित एवं होनहार युवक-युवतियों को उन क्षेत्रों में शिक्षण करने हेतु प्रोत्साहित एवं प्रशिक्षित किया जाये।

(4) आश्रम विद्यालय एवं आवासीय विद्यालय पर्याप्त संख्या में खोले जाएँ।

(5) जनजातियों की आवश्यकताओं और उनकी जीवन शैली को दृष्टिगत रखते हुए विशेष प्रोत्साहन योजनाएँ बनाई जायें। इन लोगों की हीन भावना को दूर करने के लिए उपचारात्मक पाठयक्रम एवं विशेष शिक्षा की व्यवस्था की जाए।

(6) जनजातियों की समृद्धि, सांस्कृतिक परम्परा और प्रचुर सृजनात्मक प्रतिभा के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने हेतु विशेष पाठ्यक्रम बनाए जाएँ।

अनुसूचित जातियों की शिक्षा

अनुसूचित जातियों का शैक्षिक विकास सवर्णों की शिक्षित जनसंख्या के मुकाबले पिडा हआ है। सभी स्थानों एवं स्तरों पर अनुसूचित जाति की साक्षर संख्या की देने वाली है। इन्हें शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने हेतु निम्नांकित उपाय सुझाए गये हैं-

(1) दीन-हीन परिवारों को अपने बच्चे 14 वर्ष तक की आयु तक नियमित रूप से विद्यालय में भेजने हेतु प्रोत्साहन (Incentives) देना।

(2) उन परिवारों के बालकों के लिये जो स्वच्छता, चमड़ा उतारने अथवा चर्म-शोधन कार्य में संलग्न हैं, पूर्व माध्यमिक छात्रवृत्ति योजना प्रारम्भ करना।

(3) अनुसूचित जाति के शिक्षकों की नियुक्ति।

(4) अनुसूचित जाति के छात्रों के लिये जनपद के मुख्यालयों पर छात्रावासों की व्यवस्था करना।

(5) विद्यालय भवन, बालबाड़ी और प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र ऐसे स्थानों पर स्थापित करना, जहाँ इन जातियों की पूर्ण सहभागिता हो।

(6) अनुसूचित जाति के लोगों को शिक्षित करना तथा अपव्यय एवं अवरोधन का हास करने हेतु नवीन पाठ्यक्रम एवं नवाचारों का सफल उपयोग करना।

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अन्य शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग और क्षेत्र

“समाज में पिछड़े समस्त वर्गों हेतु उपयुक्त प्रोत्साहनों की व्यवस्था की जायेगी। पर्वतीय एवं मरुस्थलीय जनपदों, दूरस्थ एवं दुर्गम क्षेत्रों और द्वीपों में पर्याप्त संस्थागत संरचना की व्यवस्था की जायेगी।”

 

अल्पसंख्यक

“शैक्षिक रूप से पिछडे अल्पसंख्यक वर्गों की शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाएगा जिसके अन्तर्गत संविधान में दिये गये निर्देशानुसार शैक्षिक संस्थाएँ स्थापित एवं संचालित करने, उनकी भाषा व संस्कृति को संरक्षण देने सम्बन्धी आश्वासन सम्मिलित हैं। पाठ्य पुस्तक की रचना व अन्य विद्यालयी कार्यक्रमों में वस्तुनिष्ठता प्रतिबिम्बित की जायेगी तथा राष्ट्रीय एकता के उन्नयन हेतु सार भाग पाठ्यचर्या के अनुरूप उभयनिष्ठ राष्ट्रीय लक्ष्यों एवं आदर्शों के गुणग्रहण (Appreciation) पर आधारित सभी सम्भव उपाय किये जाएँगे।” 

 

विकलांग

शारीरिक व मानसिक रूप से विकलांग लोग सामान्य समुदाय के साथ समान भागीदारी से कार्य कर सकें तथा चुनौतियों एव जीवन का सामना और विश्वास के साथ कर सकें, उन्हें इस योग्य बनाने की आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में अग्रलिखित उपाय किये जायेंगे-

(1) चालकीय (Motor) और सामान्य बाधाओं से ग्रस्त बालकों की शिक्षा अन्य बालकों के समान ही होगी।

(2) गम्भीर रूप से विकलांग बच्चों के लिये जनपद मुख्यालयों पर छात्रावासों सहित विशेष विद्यालयों की व्यवस्था की जायेगी।

(3) विकलांगों को व्यावसायिक शिक्षा देने के प्रबन्ध किये जायेंगे।

(4) शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों का पुनः अभिनवीनीकरण किया जावेगा।

(5) विकलांगों की शिक्षा हेतु समाज सेवी प्रयासों को प्रोत्साहित किया जायेगा।

 

प्रौढ़ शिक्षा

विकास के कार्यक्रमों में उन लोगों की भागीदारी आवश्यक है जिनको उनका लाभ मिलना है। प्रौढ़ शिक्षा का सुसम्बन्ध कार्यक्रम जो राष्ट्रीय लक्ष्यों यथा- गरीबी कम करने, राष्ट्रीय एकता, पर्यावरण संरक्षण, लोगों की सांस्कृतिक सर्जनात्मकता का क्रियाशीलन, छोटे परिवारों का प्रतिमान, स्त्रियों की समानता का उन्नयन आदि से सम्बद्ध होंगे। संगठित किये जायेंगे और वर्तमान कार्यक्रमों की समीक्षा की जायेगी और इन्हें अधिक सशक्त बनाया जायेगा।

निरक्षरता उन्मूलन के लिये राष्ट्रीय अभियान की आवश्यकता है। केन्द्र और राज्य सरकारों, राजनैतिक दलों और जन संगठनों, जन प्रचार माध्यमों तथा शैक्षिक संस्थाओं को विभिन्न प्रकार से जन साक्षरता कार्यक्रमों के प्रति समर्पित भाव से संलग्न होना पड़ेगा।

विभिन्न पद्धतियों और माध्यमों का उपयोग करते हुए प्रौढ़ शिक्षा तथा सतत शिक्षा का एक व्यापक कार्यक्रम क्रियान्वित किया जायेगा, जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित कार्यक्रम सम्मिलित हैं-

(1) ग्रामीण क्षेत्रों में सतत शिक्षा केन्द्रों की स्थापना।

(2) नियोजकों, मजदूर संगठनों और सम्बन्धित सरकारी अभिकरणों के द्वारा श्रमिकों की शिक्षा।

(3) उच्च शिक्षा की संस्थाओं द्वारा सतत शिक्षा।

(4) पुस्तकों के लेखन और प्रकाशन की तथा पुस्तकालयों और वाचनालयों को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन।

(5) इस कार्य हेतु रेडियो, दूरदर्शन और फिल्मों का उपयोग।

(6) दूर शिक्षण के कार्यक्रम।

(7) सीखने वालों के समूह और संगठनों का सृजन।

(8) स्वाध्याय एवं स्व-शिक्षण की व्यवस्था।

(9) आवश्यकता और रुचि पर आधारित व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम।

 

 

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