प्लेटो के विभिन्न विचार

प्लेटो के विभिन्न विचार- ईश्वर विचार और द्वव्द्व न्याय | Dialectic approaches of Plato in Hindi

विज्ञान और वस्तु में सम्बन्ध

प्लेटो के दर्शन में वस्तु और विज्ञान का भेद मौलिक है। वस्तु इन्द्रिय जगत् के पदार्थ हैं तथा विज्ञान अतीन्द्रिय जगत् के विषय है। वस्तु (जड़ तत्व) असत् रूप है तथा विज्ञान सत् रूप है। इस प्रकार प्लेटो के दर्शन में विज्ञान और वस्तु का दुत मूलतः प्रतीत होता है। वस्तु और विज्ञान में निम्नलिखित भेद है।

१. विज्ञान सामान्य है तथा वस्तु विशेष है।

२. विज्ञान एक है तथा वस्तु अनेक।

३. विज्ञान देश और काल से अनवच्छिन्न है तथा वस्तु देश काल से अवच्छिन्न है।

४. विज्ञान नित्य, निराकार और निर्विकार है तथा वस्तु अनित्य, सविकार और साकार है।

प्लेटो का इन्द्रिय जगत् हेरेक्लाइटस के मत से तथा अतीन्द्रिय जगत् इलियाई मत से प्रभावित प्रतीत होता है। हेरेक्लाइटस के अनुसार सब कुछ क्षणिक है, परिवर्तनशील और नश्वर है। प्लेटो का इन्द्रिय जगत् भी क्षणिक और परिणामी है। इसके विपरीत इलियाई मतानुसार तत्व नित्य, अपरिणामी और कूटस्थ है। प्लेटो का विज्ञान नित्य, निर्विकार तथा अपरिणामी है। इस प्रकार प्लेटो के दर्शन में विज्ञान और वस्तु का द्वैत मूलतः प्रतीत होता है, क्योंकि प्लेटो के दर्शन में दो मूल तत्व हैं:। प्रथम विज्ञान जो सत् रूप है तथा द्वितीय वस्तु जो असत् रूप है। प्रश्न यह है कि इन दोनों में कोई सम्बन्ध है या नहीं? वस्तु आर विज्ञान के सम्बन्ध की व्याख्या के लिए प्लेटो ने दो सिद्धान्तों का उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं:-

१. अंशवाद या सहभागितावाद (Participation theory)

२. प्रतिबिम्बवाद (Copy theory)

 

अंशः इस सिद्धान्त के अनुसार वस्तु विज्ञान के अंश हैं या वस्तु विज्ञान में भाग लेते है। उदाहरणार्थ, अनेक सुन्दर वस्तुएँ एक सौन्दर्य विज्ञान में भाग लेती हैं। श्वेत वस्तु श्वेत विज्ञान का भाग अंश है। इस सिद्धान्त से स्पष्टतः प्रतीत होता है कि विज्ञान ही वस्तु के कारण है। तात्पर्य यह है कि वस्तु विज्ञान का अंश है या इन्द्रिय जगत् विज्ञान जगत का अंश है, परन्तु इस सिद्धान्त में दोष है। इस सिद्धान्त को मान लेने पर परमार्थ और व्यवहार, इन्द्रिय और अतीन्द्रिय का भेद ही समाप्त हो जायेगा, क्योंकि वस्तुएँ तो विज्ञान के यथार्थ अंश है अथवा वस्तुएँ विज्ञान के सहभागी हैं।

प्रतिबिम्बः इस सिद्धान्त के अनुसार विज्ञान बिम्ब है तथा वस्तु प्रतिबिम्बा इन्द्रिय जगत् विज्ञान की प्रतिलिपि या प्रतिच्छाया मात्र है। वस्तु जहाँ तक विज्ञान के अनुरूप है, वहाँ तक सत् है तथा जहाँ तक विज्ञान के अनुरूप नहीं है, वहाँ तक असत् है| विज्ञान वस्तु की अस्पष्ट, क्षीण तथा अपूर्ण प्रतिलिपि है। परन्तु यह सिद्धान्त भी त्रुटिपूर्ण है। यह सिद्धान्त मान लेने पर व्यवहार पूर्णत: समाप्त हो जायेगा, क्योंकि इन्द्रिय जगत तो पूर्णत: असत् है। यदि यह सत्य है तो विज्ञान न तो वस्तुओं की व्याख्या करता है और न उनके पारस्परिक सम्बन्ध की।

प्लेटो के दर्शन में विज्ञान और वस्त का सम्बन्ध बड़ा ही विवादास्पद है। अंशवाद और प्रतिबिम्बवाद दोनों में कठिनाइयाँ हैं। सम्भवतः प्लेटो भी इन कठिनाइयों से परिचित थे। प्लेटो की पार्मेनाइडीज नामक कृति में इन कठिनाइयों का विवरण मिलता है। इस पुस्तक में विज्ञान और वस्तु के पारस्परिक सम्बन्ध में अनवस्था दोष बतलाया गया है तथा पुनः इसका खण्डन भी किया गया है। इन दोनों में कुछ सामान्य गुण या सादृश्य अवश्य होना चाहिये जिसके आधार पर दोनों में सम्बन्ध की व्याख्या हो सके परन्तु इस सादृश्य या सामान्य गुण के लिए हमें एक अन्य विज्ञान को स्वीकार करना होगा। यह अन्य विज्ञान एक तृतीय विज्ञान होगा। पुनः इसकी भी व्याख्या के लिए चतुर्थ विज्ञान की कल्पना करनी होगी। इस प्रकार अनवस्था दोष उत्पन्न होगा। प्लेटो इस दोष से परिचित थे। अतः उन्होंने इस दोष से मुक्त होने की आशा की है।

विज्ञान और वस्तु के सम्बन्ध में कठिनाई का एकमात्र कारण विज्ञान का अभौतिक या अतीन्द्रिय स्वरूप है। प्लेटो एक ओर तो विज्ञान को अभौतिक बतलाते हैं तथा दूसरी ओर अभौतिक वस्तुओं से विज्ञान का सम्बन्ध भी बतलाते हैं। यत्र-तत्र अंश और प्रतिबिम्ब दोनों शब्दों का व्यवहार प्लेटो ने किया है। उन्होंने स्पष्टतः बतलाया है कि ‘वस्तुएँ विज्ञान की प्रतिलिपि है। पुनः उनका कहना है कि “सुन्दर वस्तुएँ सौन्दर्य विज्ञान के अंश हैं। इस प्रकार के अनेक वाक्यों का व्यवहार प्लेटो करते हैं जिससे विज्ञान और वस्तु के सम्बन्ध को समझने में विवाद होता है। मूल्यांकन तो कठिन है। आलोचक इन वाक्यों की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से करते है। अतः सत्य का मूल्यांकन तो कठिन है।

प्रो० बर्नेट प्रभृति की व्याख्या से लगता है कि प्लेटो के विज्ञान मानसिक आदर्श हैं जिनकी अभिव्यक्ति विभिन्न वस्तुओं में होती है। किसी कलाकृति में कलाकार का एक आदर्श या लक्ष्य होता है। अपनी कला के माध्यम से कलाकार आदर्श को अपनाना चाहता है या लक्ष्य तक पहुँचाना चाहता है। अतः कलाकृति के प्रत्येक अंश में उस आदर्श या लक्ष्य की छाप रहती हैं, क्योंकि कलाकृति का प्रत्येक अंश एक ही लक्ष्य की ओर है। इस प्रकार कला के माध्यम से कलाकार आदर्श की अभिव्यक्ति करता है। परन्तु आदर्श काल्पनिक है, कलाकृति वास्तविक काल्पनिक पूर्णतः वास्तविक नहीं हो सकता। अभौतिक और भौतिक में भेद तो रहेगा ही, आदर्श और यथार्थ में अन्तर अवश्य होगा। अत: कलाकृति के माध्यम से कलाकार आदर्श की अभिव्यक्ति कर सकता है, परन्तु उसे यथार्थ वस्तु नहीं बना सकता। सम्भवतः यही बात प्लेटो के विज्ञान के साथ है। उनके विज्ञान आदर्श हैं जो वस्तुओं के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। ये विज्ञान ही लक्ष्य हैं जिनकी ओर वस्तुएँ निरन्तर अग्रसर होती जा रही हैं। प्लेटो वस्तु जगत का एक लक्ष्य स्वीकार करते हैं। उनके जगत् का लक्ष्य परम शिव (Highest Good) है। यह परम शिव विज्ञानों का विज्ञान है। सभी जागतिक पदार्थ इसी की ओर उन्मुख हैं। यही आदर्श है जिसकी अभिव्यक्ति समस्त सांसारिक वस्तुओं में होती हैं। अतः ‘वस्तु विज्ञान के अंश हैं’ का अर्थ है कि विज्ञान वस्तुओं के माध्यम से अभिव्यक्त होता है तथा ‘वस्तु विज्ञान की प्रतिलिपि है’ का अर्थ है विज्ञान ही वस्तुओं का आदर्श है।

 

एक और अनेक (One and Many)

प्लेटो के पर्व इलियाई दर्शन में भी एक और अनेक की समस्या महत्वपूर्ण थी। इलियाई मत में एक सत् है, नित्य है, अपरिणामी है। अतः अनेक असत् हैं। इस प्रकार सत् और असत् दोनों एक दूसरे के पूर्णतः विरोधी हैं। यदि एक सत् है तो अनेक असत् हैं। प्लेटो ने एक और अनेक, सत् और असत् की समस्या को दूसरे ढंग से सुलझाया है। यदि एक को सत् तथा अनेक को असत् मानते हैं तो एक से अनेक की व्याख्या सम्भव नहीं। इसी कारण प्लेटो इलियाई मत को नहीं स्वीकार करते।

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प्लेटो के अनसार एक और अनेक में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। एक का अनेक के बिना तथा अनेक का एक के बिना कोई अर्थ नहीं। एक अनेक नहीं है तथा अनेक एक नहीं है। अतः यदि अनेक नहीं है तो एक को नहीं समझ सकते तथा यदि एक नहीं तो अनेक को नहीं समझ सकते। इसीलिए प्लेटो के अनुसार अनेक के अभाव में एक अज्ञेय तथा अचिन्त्य है। उदाहरणार्थ, एक है, इस वाक्य में एक और है दो शब्द है। है’ का अर्थ सतत् है। अतः एक है’ का अर्थ है कि एक सत् है इस प्रकार एक दो है: पहले यह स्वतः एक है तथा दूसरे यह सत् है। ये दोनों एक हैं। अतः दो की कल्पना एक पर आश्रित है तथा एक की दो पर आश्रित है। इसी प्रकार सत तथा असत् भी है, दोनों अन्योन्याश्रित है।

किसी वस्तु का सत् अपने विरुद्ध का असत् है। उदाहरणार्थ, प्रकाश सत् है, इसका अर्थ है कि प्रकाश अपने विरोधी अन्धकार का असत् है| एक और अनेक के परस्पराश्रय को हम विज्ञान के उदाहरण से अधिक स्पष्ट समझ सकते हैं। प्लेटो के अनुसार विज्ञान अनेक हैं, क्योंकि विश्व में वस्तुयें अनेक है। संसार में जितने पदार्थ हैं, उतने ही उनके विज्ञान हैं, परन्तु विज्ञान असम्बद्ध नहीं सुसम्बद्ध है। विज्ञानों की एक श्रृङ्खला है। इस श्रृङ्खला की चरम सीमा परम शुद्ध विज्ञान है जो एक है, अद्वैत है। सभी विज्ञान एक ही श्रृङ्खला में सुसम्बद्ध है। अतः श्रृङ्खला तथा सामञ्जस्य की दृष्टि से एक है, परन्तु पृथक् पदार्थो की दृष्टि से विज्ञान अनेक हैं।

प्लेट के अनुसार विज्ञान की एक तारतम्यक श्रेणी है। प्रत्येक विज्ञान अपनी सजातीय वस्तुओं का सार है। विज्ञानों में भी एक विज्ञान सार है। इसी प्रकार विज्ञानों की एक श्रृखला है। उच्च विज्ञान निम्न विज्ञान का नियमन करते हैं। उदाहरणार्थ, रक्त, पीत, हरित आदि सभी रंग विज्ञान के अधीन है। मृदु, कटु आदि सभी रस विज्ञान के अधीन है। परन्तु रंग तथा रस दोनों रूप विज्ञान के अधीन हैं। इसकी प्रकार सामान्य तथा सार के आधार पर विज्ञानों की श्रृंखला निम्न से उच्च की ओर बढ़ती जाती है। इस श्रृंखला में चरम विज्ञान शुभ विज्ञान (Idea of Good), है जो सर्वोच्च विज्ञान है तथा जिसके अधीन सभी विज्ञान है। इस प्रकार हम विभिन्न वस्तुओं से प्रारम्भ कर एक परम विज्ञान पर पहुंचते हैं। अत: विज्ञान अनेक है तथा एक है। व्यक्तिगत पदार्थो की दृष्टि से विज्ञान अनेक है, परम विज्ञान की दृष्टि से विज्ञान एक है।

परम शुभ विज्ञान (Idea of the Good)

प्लेटो के अनुसार परम शुभ ही परम तत्व है। यह संसार का ‘पूर्ण आदर्श’ या मूल बिम्ब है। सम्पूर्ण विश्व इसी का प्रतिबिम्ब है। यही सृष्टि का प्रयोजन या उद्देश्य है। विश्व के सभी पदार्थ अपूर्ण है तथा पूर्ण आदर्श की ओर उन्मुख है। विश्व में विकास हो रहा है। यह विकास अपूर्ण से पूर्ण की ओर है। यह प्लेटो का प्रयोजनपूर्ण विकास है। परम शुभ विज्ञान ही इस विकास की चरम सीमा है। प्लेटो ने विभिन्न प्रकार से इसका वर्णन किया है। उनके अनुसार यही सर्वोच्च ज्ञान, सर्वोच्च मूल्य और सर्वोच्च सत्ता है। यह परम स्वतन्त्र, स्वप्रतिष्ठित और पूर्ण है। यह सत्यं, शिवं, सुन्दरं है। ज्ञान मीमांसा की दृष्टि से यह सर्वोच्च ज्ञान है।

मूल्य मीमांसा की दृष्टि से यह सभी मूल्यों का मापदण्ड है। मानव-जीवन का यही परम लाभ है। यही समस्त इच्छा, क्रिया और ज्ञान का लक्ष्य है| सम्पूर्ण सृष्टि का यह मन्तव्य है। बौद्धिक प्राणी, दिवगण, मानव, पशु, पक्षी और वनस्पति ही नहीं अपितु निखिल ब्रह्माण्ड इसी की प्राप्ति के लिये लालायित है। कई अन्य स्थानों में प्लेटो ने परम शुभ को अनिर्वचनीय भी कहा है। तात्पर्य यह है कि भाषा के द्वारा इसका निर्वचन सम्भव नहीं। भाषा के माध्यम से परम शुभ का वर्णन करने में भाषा में विरोधाभास होने लगता है। उदाहरणार्थ, परम शुभ सत्य के परे है तथा सर्वोच्च सत्य है। सत्, असत् के परे है तथा सभी सद् असद् वस्तुओं का आधार है, कारण है। यह अमूल्य है तथा सौन्दर्य आदि मूल्यों का कारण है।

इस प्रकार के वर्णनों से पता चलता है कि प्लेटो का शुभ शब्द के परे हैं, अवर्णनीय तथा अनिर्वचनीय है। परन्तु शब्दों के सहारे प्लेटो इसका। वर्णन करते हैं। प्लेटो अपनी ‘रिपब्लिक में शुभ का रोचक रूपक के साथ वर्णन करते हैं। मान लीजिए कुछ व्यक्ति अन्धकारमय गुफा में बाल्यकाल से ही रह रहे हैं। सभी व्यक्तियों के पैर जंजीरों से जकडे है। वे हिल नहीं सकते, केवल सामने देख सकते हैं। गुफा का मुख प्रकाश की ओर है। कुछ दूरी पर पीछे की ओर आग जल रही है। इसकी छाया गुफा के सामने पड़ती है। जिसे सभी व्यक्ति देखते हैं। यदि इनमें से किसी एक व्यक्ति को खोल दिया जाय तो सर्वप्रथम वह व्यक्ति मारे विस्मय से भर जायेगा। उसकी आँखें उस प्रकाश को देख नहीं सकेंगी जिसकी केवल छाया वह देखता रहा है। कुछ अभ्यास के बाद ही वह इसे देख सकेगा।

इसी प्रकार का अनुभव सांसारिक व्यक्तियों को पारमर्थिक शुभ के दर्शन में हो सकता है। इस प्रकार के रूपक द्वारा प्लेटो महोदय यह सिद्ध करना चाहते हैं कि शुभ सांसारिक शब्दों के परे है। यह सर्वाधार शुभ ही परम तत्व है। यह भारतीय दर्शन में ब्रह्म के समान अगम और अगोचर है। इसके लिए शब्द पर्याप्त नहीं। इसे ‘नेति’ की संज्ञा दी जा सकती है। इस विवरण से स्पष्टतः प्रतीत होता है कि अन्य दर्शनों में जो स्थान प्रायः ईश्वर को प्राप्त है वही स्थान प्लेटो के दर्शन में परम शुभ को प्राप्त है। यहाँ एक स्वाभविक प्रश्न होता है कि यदि परम शुभ ही सर्वोच्च ज्ञान, सर्वोच्च मूल्य है तो ईश्वर का प्लेटो के दर्शन में क्या स्थान है?

 

 

ईश्वर-विचार (Demi-urge)

अन्य ईश्वरवादियों के समान प्लेटो भी ईश्वर को जगत् का कर्ता मानते हैं। परन्तु प्लेटो का ईश्वर दूसरों से भिन्न है। प्लेटो के ईश्वर को हम विश्वकर्मा (Demi-urge) कह सकते हैं। वह मानव कलाकार के समान कवल सर्जन ही नहीं वरन विश्व में सामञ्जस्य तथा व्यवस्था भी प्रदान करता है। जिस कलाकार किसी मूर्ति को किसी साँचे से गढ़ता है उसी प्रकार प्लेटो का ईश्वर विज्ञान का निमित्त कारण है तथा विज्ञान इस विश्व का स्वरूप कारण है। विज्ञान बिम्बों को आदर्श मानकर ही ईश्वर उनके अनुरूप प्रतिबिम्बों (जागतिक की रचना करता है। प्लेटो के अनुसार सृष्टि के चार कारण हैं:

१. जड़ तत्व : इसे सृष्टि का आश्रय उपादान कारण कहा गया है। इसे का आश्रय (Locus) या क्षेत्र (Matrix) भी कहा गया है।

२. ईश्वर : यह सष्टि का निमित्त कारण हा ईश्वर जगत का कर्ता नहीं। इसलिए प्लेटो के ईश्वर को कलाकार भी माना गया है। इसे विश्वकर्मा कह सकते हैं।

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३. विज्ञान : यह जगत् का स्वरूप कारण है। विज्ञानरूपी नित्य साँचेको आदर्श मानकर ही ईश्वर इस विश्व की रचना करता है| विज्ञान नित्य साँचे (Eternal Archetypes), आदर्शरूप, मूल बिम्बरूप आदि कहे गये हैं तथा सम्पर्ण जगत् इन्हीं विज्ञान-बिम्बों का प्रतिरूप है|

४. परम शुभ विज्ञान : यही जगत् का प्रयोजन है। यह पूर्ण आदर्श है। विश्व के सभी पदार्थ अपूर्ण हैं, परन्तु वे नित्य पूर्णता की ओर अभिमुख हैं। सष्टि में सामञ्जस्य तथा व्यवस्था परम शुभ विज्ञान के कारण ही है। यही प्लेटो का प्रयोजनपूर्ण विकास है।

 

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्लेटो के ईश्वर साधारण स्रष्टा नहीं, वरन विश्वकर्मा हैं। ईश्वर ही जगत् का स्रष्टा, नियन्ता और शासक है। ईश्वर तो सर्वतोभावेन पूर्ण है, आप्तकाम है, नित्य है, कालातीत है| वह सौन्दर्य और उत्कर्ष की चरम सीम है। वह परम सत्, स्वतन्त्र तथा निरपेक्ष है। वह सर्वथा एकरूप रहता है। शुद्धता, पूर्णता, नित्यता आदि उसके गुण हैं। इस प्रकार ईश्वर सभी सदगणों का धाम है, परम शिव है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि परम शिव (ईश्वर) तथा शुभ (चरम विज्ञान) में क्या सम्बन्ध है? प्लेटो दोनों में भेद बतलाते हैं। परम शिव सगुण है तथा परम शुभ निर्गुण, परम शिव अपर है तथा परम शुभ पर। ईश्वर सृष्टि के निमित्त कारण और नियन्ता हैं, परम शुभ ईश्वर का भी पिता है। समस्त विज्ञानों और सृष्टि में परम शुभ अन्तर्यामी है और वह इन सबसे परे अनिर्वचनीय भी है। वह समस्त ज्योति का जनक है। वह सृष्टि का मुख्य उद्देश्य या लक्ष्य है। वह ईश्वर का भी ईश्वर और विज्ञानों का विज्ञान है। परम शिव तथा परम शूभ के सम्बन्ध के विषय में निम्नलिखित प्रश्न हो सकते हैं:-

१. परम शिव (ईश्वर) परम शुभ का अधिष्ठान हो सकता है परन्तु यह स्वीकार करने पर परम शुभ की निरपेक्षता तथा स्वतन्त्रता समाप्त हो जायेगी।

२. परम शुभ ही परम शिव का आधार हो सकता है। जिस प्रकार परम शिव सम्पूर्ण जगत् का आधार है उसी प्रकार ईश्वर का भी। परन्तु यह स्वीकार करने से ईश्वर की स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है।

३. परम शिव तथा परम शुभ दोनों स्वतन्त्र मौलिक सत्ता हो सकते हैं, परन्तु यह स्वीकार करने पर तो दो असम्बद्ध परम सत्ता को स्वीकार करना पड़ेगा जो प्लेटो को अभीष्ट नहीं।

इस प्रकार परम शिव और परम शभ का सम्बन्ध विवादास्पद है। सम्भवतः परम शिव तथा परम शुभ दोनों पर्यायवाची है। परन्तु इसमें भी एक कठिनाई यह है। कि ईश्वर की कल्पना मानव कलाकार रूप में अर्थात विश्वकर्मारूप में नहीं रह पायेगी। पुनः परम शिव सष्टि का निमित्त कारण है तथा परम शुभ सृष्टि का स्वरूप कारण है। दोनों एक नहीं। परम शुभ ‘साँचा’ माना गया है जिसको आदर्श मानकर या जिसके अनुरूप ही ईश्वर सष्टि का निर्माण करता है। इस प्रकार परम शिव तथा परम शुभ के सम्बन्ध की व्याख्या में दार्शनिक कठिनाई अवश्य है, परन्तु दोनों की सत्ता निःसन्देह है।

 

 

द्वन्द्व-न्याय (Dialectic)

प्लेटो के दर्शन में द्वन्द्वात्मक न्याय बड़ा महत्वपूर्ण विषय है। प्लेटो के पहले भी। द्वन्द्वात्मक न्याय का प्रयोग अच्छी तरह से होता था। इसके जन्मदाता सम्भवतः जेनो हैं। जेनो के लिए यह अपने विरोधी को परास्त करने की कला थी। जेनो विरोधी के आधार वाक्य को लेते थे तथा उससे दो विरोधी निष्कर्ष निकालते थे। विरोधी निष्कर्ष होने के कारण दोनों निष्कर्ष अमान्य हो जाते थे अत: जेनो के लिए यह विरोधात्मक निष्कर्ष निकालने का एक तर्क था। बाद में इसका प्रयोग वाद-विवाद की कला के रूप में होने लगा। विरोधी को विवाद में परास्त करने के लिए इसका प्रयोग होता था। प्लेटो के दर्शन में द्वन्द्वात्मक-न्याय प्रत्ययों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की कला है। अत: प्लेटो के अनुसार प्रत्ययात्मक ज्ञान सिद्धान्त का प्रमुख आधार है।

प्लेटो के अनुसार ज्ञान प्रत्ययात्मक है अर्थात् यथार्थ ज्ञान प्रत्ययों के माध्यम से प्राप्त होता है। प्रत्यय सामान्य हैं जिनकी उपलब्धि बुद्धि से होती है। इन्द्रियों के द्वारा हमें विशेषों का ज्ञान प्राप्त होता है तथा बुद्धि के द्वारा सामान्य (प्रत्यय) होता है। परन्तु प्रश्न यह है कि बुद्धि को प्रत्ययों की उपलब्धि कैसे होती है। अनुसार द्वन्द्वात्मक-न्याय के द्वारा ही बुद्धि को प्रत्ययों का बोध होता द्वन्द्वात्मक-न्याय प्रत्यय-प्राप्ति का साधन है। इन्द्रियों से हमें सुन्दर वस्त की उपलब्धि होती है। परन्तु सौन्दर्य-प्रत्यय (सामान्य) की उपलब्धि बलि होती है। बद्धि द्वन्द्वात्मक न्याय के माध्यम से ही प्रत्ययों की उपलब्धि में है।

द्वन्द्वात्मक न्याय के निम्नलिखित चार अंग है-

१. समान्यीकरण : किसी वर्ग के विभिन्न व्यक्तियों में हम कुछ स पाते हैं। इन सामान्यों को व्यक्ति से पृथक् करते हैं। यही जाति है। इस उपलब्धि हमें सामान्यीकरण के द्वारा होती है। यही जाति विज्ञान है। ये विचार विभिन्न वस्तुओं के सार-सामान्य हैं।

२. वर्गीकरण : विज्ञान किसी वर्ग के विभिन्न व्यक्तियों के सार है। संसार में जितने भी वर्ग हैं उनके उतने ही सार विज्ञान है। विभिन्न विज्ञानों में भी कछ साम्य या सार है। अत: उनका भी विज्ञान अवश्य होगा। इस प्रकार वर्गीकरण के द्वारा विज्ञान की उच्च-उच्चतर और उच्चतम श्रेणी होती चली जाती है| उदारहणार्थ लाल, नीला, पीला, हरा, उजला आदि में रंग-विज्ञान है| इसी प्रकार मीठा, तीता आदि में रस-विज्ञान है। इन दोनों में एक सार-विज्ञान होगा इत्यादि।

३. तर्क-वाक्य: यह विभिन्न विज्ञानों का पारस्परिक सम्बन्ध है। इसी से तर्क-वाक्यों का निर्माण होता है।

४. निगमनात्मक अनुमान : तर्क-वाक्यों के परस्पर सम्बन्ध के आधार पर निगमन या निष्कर्ष निकलता है। तर्क-वाक्य आधार-वाक्य कहलाते हैं तथा निगमन निष्कर्ष होता है। आधार-वाक्यों से निगमन निकलता है। उपरोक्त चारों अंग विज्ञान के अंग हैं। विज्ञान ही सर्वोच्च ज्ञान है। अतः द्वन्द्व-न्याय ज्ञान की सर्वोत्तम विधि है। इसी के द्वारा हमें यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है।

 

 

 

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