शिक्षण उद्देश्यों का अर्थ, परिभाषा एवं उद्देश्यों का वर्गीकरण

शिक्षण उद्देश्यों का अर्थ, परिभाषा एवं उद्देश्यों का वर्गीकरण | Teaching Objectives

 

शिक्षण एक निरन्तर चलने वाली सोद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है, अतः इसकी सफलता के लिए उद्देश्यों का पूर्व निर्धारण परमावश्यक होता है। उद्देश्यों का निर्धारण करते समय शिक्षक को सर्वप्रथम यह देखना आवश्यक है कि किन विद्यार्थियों को पढ़ाना है? क्या पढ़ाना है? कैसे पढ़ाना है? और कौन-कौन से व्यवहारगत परिवर्तन उनमें लाने हैं? ये व्यवहारगत परिवर्तन शिक्षण उद्देश्यों से जुड़े होते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण शिक्षण क्रिया का आधार, शिक्षण उद्देश्य ही है। शिक्षण उद्देश्यों को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- ज्ञानात्मक उद्देश्य, क्रियात्मक उद्देश्य और भावात्मक उद्देश्य।

जब हम विद्यार्थी के ज्ञान के स्तर को बढ़ाकर उसके ज्ञान पक्ष को प्रभावित करते हैं, तब वह शिक्षण का ज्ञानात्मक उद्देश्य होता है। जब छात्र को ज्ञानोपयोगी शिक्षण देते हैं, तब उसके व्यवहार को क्रियात्मक रूप प्रदान किया जाता है, यह शिक्षण का क्रियात्मक उद्देश्य है। जब छात्र के भाव, विचार तथा अभिवृत्तियों को प्रभावित किया जाता है, तब वह शिक्षण के भावात्मक उद्देश्य की पूर्ति करता है। किन्तु, शिक्षण उद्देश्यों को निर्धारित करने के लिए विद्यार्थी की विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तन, उसकी रुचि, योग्यता, अभियोग्यता आदि का ध्यान रखना चाहिए। समाज तथा समाज की आवश्यकता, समाज का स्तर, विषय-वस्तु की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए विद्यालय के स्तर (प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च) के अनुसार शैक्षिक उद्देश्यों का निधारण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त छात्र को अभिप्रेरित करने वाले तत्त्व कौन-कौन से हैं? और किन परिस्थितियों में किस प्रकार छात्र को अभिप्रेरित किया जा सकता है? ये बातें भी शिक्षण उद्देश्यों के निर्धारण का अंग होनी चाहिएँ। एडवर्ड ने शिक्षण का सामान्य प्रतिरूप इस प्रकार दिया है :

शिक्षण का सामान्य रूप

 

उपर्युक्त रेखाचित्र से ज्ञात होता है कि सुव्यवस्थित शिक्षण हेतु उद्देश्यों का पूर्वनिर्धारण अत्यन्त आवश्यक है।

 

 

शिक्षण उद्देश्यों का अर्थ एवं परिभाषा :

शिक्षण एक ऐसी अन्त:क्रिया है, जिसमें शिक्षक तथा शिक्षार्थी दोनों शिक्षण उद्देश्यों के माध्यम से एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ते हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य पूर्वनिर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति करना होता है। एन.सी.ई.आर.टी. के अनुसार, “उद्देश्य वह बिन्दु अथवा अभी जिसकी दिशा में कार्य किया जाता है अथवा उद्देश्य वह व्यवस्थित परिवर्तन है जिसे क्रिया कर प्राप्त किया जाता है अथवा जिसके लिए हम क्रिया करते हैं।” इस परिभाषा में तीन मुख्य बिन निहित हैं-दिशा, व्यवस्थित परिवर्तन एवं क्रिया, अर्थात् उद्देश्यों के पूर्वनियोजन से शिक्षक तथा शिक्षार्थी दोनों ही एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ते हुए व्यावहारिक वांछित परिवर्तन लाने में सफल होते हैं। कुछ शिक्षाविदों ने शिक्षण उद्देश्यों को निम्नलिखित रूप में पारिभाषित किया है :

1. बी. एस. ब्ल्यूम (B.S. Bloom)-“शैक्षिक-उद्देश्यों की सहायता से केवल पाठ्यक्रम की रचना व अनुदेशन के लिए निर्देशन ही नहीं दिया जाता, अपितु ये मूल्यांकन की प्रविधियों के विशिष्टिकरण में भी सहायक होते हैं।”

2. डेविस (Davis)-“अधिगम उद्देश्य प्रस्तावित परिवर्तनों का उल्लेख है।”

3. रॉबर्ट मेगर-“अधिगम अनुभव अर्जित करने के उपरान्त शिक्षार्थी में होने वाले व्यवहारगत परिवर्तनों की पूर्वसूचना शैक्षिक उद्देश्यों से ही प्राप्त होती है।”

4. डेविड ए पयने-“शैक्षिक उद्देश्यों से तात्पर्य छात्रों में होने वाले उन परिवर्तनों से है,जो शैक्षिक क्रियाओं द्वारा नियोजित रूप में लाये जाते हैं। ये परिवर्तन समाज द्वारा निर्धारित प्रतिमानों के प्रतिबिम्ब हैं।

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर उद्देश्यों की निम्नलिखित विशेषताएँ हो सकती हैं :

1. उद्देश्य उस गन्तव्य को बताते हैं, जहाँ हमें पहुँचना है।

 

शिक्षण उद्देश्यों की आवश्यकता एवं महत्त्व :

1. शिक्षण उद्देश्यों के निर्धारण से विद्यार्थियों के अन्दर ज्ञान, प्रयोग, कुशलता,रुचियों, मनोवृत्तियों, रसानुभूति, व्यक्तित्व आदि में अपेक्षित परिवर्तन सम्भव हो जाता है ।

2. विद्यार्थियों के नवीन ज्ञान में वृद्धि होती है।

3. छात्रों में जटिल समस्याओं को सुलझाने की योग्यता एवं कुशलता आ जाती है।

4. छात्र जीवन एवं समाज के प्रति अपनी अभिवृत्तियों तथा दृष्टिकोणों में संशोधन कर सकते हैं।

5. शिक्षक आधुनिक युग में शिक्षण के स्वरूप एवं प्रशिक्षण की विधियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर सकते हैं।

6. शिक्षक शिक्षण हेतु सहायक सामग्री के प्रयोग में उचित निर्णय ले सकते हैं।

 

 

उद्देश्य व लक्ष्य में अन्तर (Difference between Aims and Objectives)

उद्देश्य व लक्ष्य को प्रायः एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। वस्तुतः उद्देश्यों का स्पष्ट अर्थ समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम उद्देश्य व लक्ष्य के अन्तर को भी समझें :

1. उद्देश्य प्रकृति व स्वभाव से सीमित होते हैं, जबकि लक्ष्य व्यापक होते हैं।

2. उद्देश्यों का निर्माण शिक्षक अपने कार्यक्रमों, उपलब्ध साधनों तथा समय के अनुसार करता है, जबकि लक्ष्यों का निर्माण सामाजिक संस्कृति, रीति-नीति, आवश्यकता एवं सत्तारूढ़ दल की राजनैतिक विचारधाराओं के अनुसार हुआ करता है।

3. उद्देश्यों का निर्माण शिक्षक स्वयं शिक्षा उद्देश्यों के आधार पर करता है, जबकि लक्ष्यों का निर्धारण सम्पूर्ण समाज, समाज की परम्परायें एवं देश तथा उसका चिन्तन करता है।

4. उद्देश्य संकीर्णता के कारण अधिक विशिष्ट व सुनिश्चित होते हैं, जबकि लक्ष्यों में व्यापकता होने के कारण निश्चितता की कमी पायी जाती है।

5. उद्देश्यों के लिए कम समय व साधन की आवश्यकता होती है, क्योंकि ये दीर्घकालीन नहीं होते, जबकि लक्ष्य दीर्घकालीन होते हैं, अतः अधिक समय व साधन की आवश्यकता होती है।

6. उद्देश्यों की विशिष्टता व सुनिश्चितता के कारण इनका मूल्यांकन करना लक्ष्यों की अपेक्षा आसान होता है। उद्देश्य निश्चित रूप से बताते हैं कि शिक्षणोपरान्त छात्रों पर क्या परिवर्तन होगा, जबकि लक्ष्यों में अस्पष्टता पायी जाती है।

8. शिक्षक के कार्य में उद्देश्य सहायता करते हैं, जबकि लक्ष्य कोई विशेष सहायता नहीं करते।

9. उद्देश्य शिक्षण की नीतियों व मूल्यांकन में सहायक होते हैं, लेकिन लक्ष्य न तो शिक्षण की नीतियों और न ही उसके मूल्यांकन में सहायक होते हैं ।

 

शैक्षिक व शिक्षण उद्देश्यों में अन्तर :

1. शैक्षिक उद्देश्य में शिक्षण उद्देश्य निहित होते हैं, जबकि शिक्षण उद्देश्यों की सहायता से शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।

2. शैक्षिक उद्देश्य अधिक व्यापक होते हैं, जबकि शिक्षण उद्देश्य संकुचित होते हैं।

3. स्कूलों के सभी विषयों व सम्पूर्ण शिक्षा का सम्बन्ध शैक्षिक उद्देश्यों से होता है। जबकि स्कूल के विभिन्न विषयों के शिक्षण उद्देश्य अलग-अलग होते है।

4. शैक्षिक उद्देश्यों में सामाजिक व दार्शनिक तथा शिक्षण उद्देश्यों में मनोवैज्ञानिक आधार अधिक पाये जाते हैं।

5. शैक्षिक उद्देश्य लम्बे समय यथा, प्राथमिक से कॉलेज स्तर तक के शिक्षा स्तर में तथा शिक्षण उद्देश्य एक कालांश में ही प्राप्त किये जा सकते हैं।

6. शैक्षिक उद्देश्य से व्यक्तित्व का विकास, राष्ट्रीय एकता आदि तथा शिक्षण उद्देश्य से ज्ञान, कौशल, अभिरुचि आदि में विकास होता है।

7. शैक्षिक उद्देश्य परिवर्तनशील तथा शिक्षण उद्देश्य निश्चित होते हैं।

See also   सरस्वती यात्राएँ/शैक्षिक पर्यटन/भ्रमण विधि के उद्देश्य, विशेषताएँ, लाभ, सीमाएँ | Educational Excursions in Hindi

8. शैक्षिक उद्देश्य औपचारिक, सैद्धान्तिक व अप्रत्यक्ष होते हैं, जबकि शिक्षा उद्देश्य कार्यपरक (Functional) तथा प्रत्यक्ष (Direct) होते हैं। ये कक्षा के शिक्षण से सीखने की प्रक्रिया में गति प्रदान कर व्यवहारगत परिवर्तन लाते है।

 

शिक्षण उद्देश्यों का वर्गीकरण :

बी.एस. ब्लूम (B.S. Bloom) ने शिक्षण में सम्प्रेषण की सुविधा के लिए शैक्षिक उद्देश्यों को मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया है :

(1) ज्ञानात्मक उद्देश्य (Cognitive Objectives),

(2) भावनात्मक उद्देश्य (Affective Objectives),

(3) क्रियात्मक उद्देश्य (Psycho-motor Objectives).

 

(1) ज्ञानात्मक उद्देश्य (Cognitive Objectives) :

बी.एस. ब्लूम के अनुसार-“ज्ञानात्मक क्षेत्र उन उद्देश्यों को समावेशित करता है। जो ज्ञान के पुनः स्मरण एवं प्रत्याभिज्ञान तथा मानसिक योग्यताओं के विकास से सम्बन्धित है।” ज्ञानात्मक उद्देश्यों का सम्बन्ध सूचनाओं, ज्ञान तथा तथ्यों की जानकारी से होता है। अधिकांश शैक्षिक क्रियाओं द्वारा इसी उद्देश्य की प्राप्ति की जाती है। ब्लूम ने अपनी पुस्तक “ज्ञानात्मक शैक्षिक उद्देश्यों का वर्गीकरण” (Taxonomy of Educational Objectives of Cognitive) में ज्ञानात्मक पक्ष को व्यापक रूप से छ: भागों में विभक्त किया है तथा उन सभी वर्गों की विशिष्ट सीखने की उपलब्धियों तथा पाठ्यवस्तु की प्रकृति को बताया है, जिसे निम्नलिखित चार्ट में प्रस्तुत किया जा रहा है :

 

ज्ञानात्मक उद्देश्य

ज्ञानात्मक उद्देश्य

 

उपर्युक्त चार्ट के प्रत्येक वर्ग का विस्तृत वर्णन क्रमश: प्रस्तुत किया जा रहा है ।

 

1. ज्ञान (Knowledge)- ज्ञान का अर्थ है-पठित विषयवस्तु विचारों, तथ्यों आदि का पुनः स्मरण तथा प्रत्याभिज्ञान के द्वारा याद करना। इसमें वर्गीकरण, मानदण्डों, सिद्धान्तों, नियमों परिभाषा कहना, परिभाषा देना उसे पहचानना, नामकरण करना, रेखांकन करना, चिह्नित करना आदि क्रियायें छात्रों से करवाई जाती हैं, जैसे: 

(अ) पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान-गुणों, विशेषताओं या सम्बन्धों के आधार पर छात्रों को प्रत्येक विषय के तकनीकी शब्दों का ज्ञान कराना, उन परिभाषाओं को याद कराना तथा महत्त्वपूर्ण उदाहरणों एवं संकेतों का ज्ञान कराना।

(ब) सूचनाओं तथा तथ्यों का ज्ञान कराना-भाषा, कला, विज्ञान तथा समाज विज्ञान विषयों में छात्रों को तथ्य एवं सूचनाओं का ज्ञान देना आवश्यक होता है।

(स) तथ्यों का व्यावहारिक ज्ञान-इसमें पूछताछ की विधियाँ, काल क्रमागत क्रम, निर्णय के मानदण्ड आदि का व्यावहारिक ज्ञान करवाना आवश्यक होता है।

(द) परम्पराओं का ज्ञान- गद्य,पद्य, वैज्ञानिक पात्रों के स्वरूप एवं परम्पराओं से परिचय करवाना होता है।

(इ) प्रवृत्तियों एवं क्रमों का ज्ञान-इसमें प्रक्रियायें, दिशा, गतिविधियाँ, वर्तमान, आर्थिक, सामाजिक एवं वैज्ञानिक जीवन में आयी हुई नवीन प्रवृत्तियों का ज्ञान कराना आता है।

(उ) वर्गीकरण व श्रेणियों का ज्ञान करवाना।

(ऊ) मानदण्डों का ज्ञान।

(ओ) विविध विधियों-प्रविधियों का ज्ञान ।

(औ) प्रमुख विचारों व अमूर्त विचारों का ज्ञान ।

(अं) सिद्धान्तों एवं सामान्यीकरणों का ज्ञान ।

(अः) संरचनाओं एवं संगठनों का ज्ञान भी इसी के अन्तर्गत आता है।

 

2. अवबोध (Comprehension)-जिस पाठ्यवस्तु का ज्ञान प्राप्त किया गया है उस विचारों एवं पदार्थों के अर्थों को जानने की योग्यता इसके अन्तर्गत आती है। वह बोध जो कुछ सुना, पढ़ा अथवा देखा है उसको अच्छी तरह से अर्थ एवं भावसहित ही समझना है। इसमें निम्नलिखित क्रियायें शामिल हैं :

(अ) अनुवाद-इसके अन्तर्गत पाठ्यवस्तु को एक भाषा से दूसरी भाषा में बदलना, संक्षेपीकरण करना, कविता को गद्य में बदलना आते हैं।

(ब) व्याख्या एवं विवेचना-किसी विषय को समझकर सरलीकृत रूप में उदाहरण सहित प्रस्तुत करना, तथ्यों को विशद् व्याख्या करना, तुलनात्मक विवेचन करना आादि आते है।

(स) बाह्य गणना (Extrapolation)-इसमें छात्र न केवल यह बताता है कि जो उसने पढ़ा है, उसका अर्थ क्या है, अपितु उसके सम्भावित परिणामों को भी स्पष्ट का है, जैसे, पूर्वकथन तथा भविष्यवाणी करना,निष्कर्षों को निकालना, परिणामों का अनुमान लगाना आदि आते हैं।

 

3. प्रयोग (Application)-सीखे हए ज्ञान को व्यावहारिक रूप में लागू करना, पूर्वज्ञान को नवीन ज्ञान के साथ जोड़ना आदि इसमें आते हैं, जैसे, नवीन प्रयोग करना,सीखे गये शब्दों तथा नियमों को अपने कथनों में प्रयुक्त करना, प्रयोगों को स्वयं करके देखना आदि।

4. विश्लेषण-विश्लेषण में किसी सिद्धान्त अथवा समस्या के तत्त्वों या भागों को एक-एक करके खोलने, अन्त:सम्बन्धों को बताने, निगमन करने तथा संगठनात्मक सिद्धान्तों के समझाने पर बल दिया जाता है, जैसे :

(अ) तत्त्वों का विश्लेषण-प्रत्येक परिभाषा, शब्द, सिद्धान्त आदि में निहित तत्वों का विश्लेषण कर अकथित मान्यताओं को पहचानने की योग्यता प्राक्कल्पनाओं से तथ्यों को अलग करने की क्षमता, सारांश अथवा निष्कर्ष निकालने की क्षमता का विकास करना।

(ब) सम्बन्धों का विश्लेषण-महत्त्वपूर्ण विचार, समस्या या प्रकरण के तत्त्वों में निहित सम्बन्धों को बताना, उनकी संगति-विसंगति, उपयोगिता- अनुपयोगिता आदि सिद्ध करना, कथनों तथा निष्कर्षों की संगति की जांच करना, अनुकूल प्रसंगों एवं संदर्भो को बताना।

(स) संगठनात्मक सिद्धान्तों का विश्लेषण-इसमें लेखक के दृष्टिकोण या भाव को पहचानने की योग्यता, सामग्री या रचना में प्रयुक्त विधियों को समझने की को पहचानने की योग्यता, विरोध में निहित निर्धारकों को देखने की योग्यता,उपेक्षित-अपेक्षित पक्षों को पहचानने की योग्यता आती है।

5. संश्लेषण-इसमें एकीकरण व सम्पूर्णता पर विशेष बल देते हुए छात्र की सूझ-बूझ व सृजनशीलता को विकसित करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है, जैसे:

(अ) अनोखे या असाधारण संवाद का निर्माण-विचारों एवं कथनों का उत्कृष्ट आयोजन एवं अभिव्यक्ति, रचनात्मक लेखन की योग्यता, व्यक्तिगत अनुभवों को प्रभावी अभिव्यक्ति, तत्काल प्रभावी भाषण देने की योग्यता आदि के माध्यम से विचारों, भावों और अनुभवों को नवीन रूप प्रदान किया जा सकता है।

(ब) योजना या संक्रियाओं के प्रस्तावित समुच्चय का निर्माण करना-इसके अन्तर्गत अनुसन्धान के निष्कर्षों को समस्या से प्रभावी समाकलित करना, नवीन मांडल बनाना, अनुसन्धान को योजना बनाना, प्राक्कल्पना प्रमाणित करने के तरीके प्रस्तावित करना, नवीन ज्ञान को संश्लेषित करना आदि आते हैं।

(स) अमूर्त सम्बन्धों के समुच्चय को निकालना-इसके अन्तर्गत भिन्न-भिन्न दष्टिकोण से देखना,समझाना तथा उनको प्रयुक्त करने की योग्यता, नवीन सम्प्रत्ययों एवं समान्यीकरणों की खोज करने की योग्यता,कक्षा-कक्ष अधिगम हेतु नवीन सिद्धान्त के निर्माण की क्षमता उत्पन्न करना तथा तथ्यों के आधार पर नवीन अमर्त सम्बन्ध ज्ञात करना तथा उन्हें परिष्कृत करना आदि आते हैं।

 6. मूल्यांकन- यह ज्ञानात्मक पक्ष का अन्तिम एवं सर्वोच्च उद्देश्य माना गया है। इसमें पाठ्य-वस्तु के नियमों, सिद्धान्तों तथा तथ्यों के सम्बन्ध में आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाता है। उनके सम्बन्ध में निर्णय लेने में आन्तरिक तथा बाह्य मानदण्डों को प्रयुक्त किया जाता है कि शिक्षण के निर्धारित उद्देश्य प्राप्त हुए अथवा नहीं ? यदि हुए तो किस सीमा तक ? विद्यार्थियों में कक्षा के अन्दर जो सीखने के अनुभव उत्पन्न किये गये, वे प्रभावोत्पादक रहे अथवा नहीं? तथा शिक्षण के उद्देश्यों को कितने अच्छे ढंग से प्राप्त किया गया है ?

 

ज्ञानात्मक उद्देश्य की उपयोगिता :

(क) ज्ञानात्मक उद्देश्य का अर्थ छात्रों को केवल पुस्तकीय ज्ञान देना ही नहीं, अपितु विषय को समझकर उसे व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने योग्य बनाना है। 

(ख) यह अध्यापक को अपने शिक्षण में विषयवस्तु, शिक्षण विधि,सहायक सामग्री आदि का चयन एवं प्रस्तति छात्रों के स्तर के अनुसार करने में सहायता प्रदान करता है।

(ग) शिक्षक अपने शिक्षण के दौरान ज्ञानात्मक उद्देश्यों के विभिन्न वर्गों (जैसे, ज्ञान, बोध, प्रयोग, संश्लेषण, मूल्यांकन आदि), के अनुसार शिक्षण हो रहा है या नहीं; यह जाँच सकता है।

See also  शिक्षा के उद्देश्य तथा मूल्य, शैक्षिक लक्ष्य और शिक्षण लक्ष्य में अन्तर | Concepts Related to Education in Hindi

(2) भावात्मक उद्देश्य (Affective Objectives) :

क्रेथवाल, ब्लूम तथा मेरिया ने भावात्मक क्षेत्र को इन शब्दों में व्यक्त किया है “भावात्मक क्षेत्र के उद्देश्य वर्गीकरण के अन्तर्गत उस आन्तरिक विकास को सम्मिलित करते हैं, जो उस समय घटित होता है। जब व्यक्ति अभिव्यक्तियों, सिद्धान्तों, संकेतों तथा उन समाधानों को ग्रहण करता है, जो उसके मूल्य-निर्णयों का अनुमोदन तथा निदेशन करते हैं। इस उद्देश्य का सम्बन्ध छात्रों की रुचि, अभिवृत्ति एवं भावों से होता है । रुचि किसी अनुभव में लगे रहने। की मनोवृत्ति है। अभिवृत्ति किसी वस्तु, परिस्थिति या व्यक्ति के प्रति सकारात्मक अथवा नकारात्मक व्यवहार प्रदर्शित करती है। शिक्षक इन सबका महत्त्व तो जानते हैं, किन्तु बहुत कम शिक्षक ऐसे होते हैं, जो इस क्षेत्र की ओर अपना शिक्षण केन्द्रित करते हैं। इसमें कठिनाई यह है कि शिक्षक यह निर्णय नहीं कर पाते कि उनके विद्यार्थियों ने इस क्षेत्र में कितनी वृद्धि की है ? उसका मूल्यांकन कैसे करें ? आदि।

वस्तुतः भावात्मक उद्देश्यों का मूल्यांकन करना सबसे बड़ी समस्या है, क्योंकि भावात्मक पक्ष से सम्बन्धित तत्त्वों यथा, विचार, भाव व अभिवृत्ति में परिवर्तन तीव्रता से होता है और कई बार छात्र बनावटी व्यवहार कर सकता है, जिससे उसका सही मूल्यांकन कर पाना एक कठिन कार्य हो जाता है। इससे ज्ञात होता है कि ज्ञानात्मक क्षेत्री विद्यार्थियों को उद्देश्यों की जानकारी दी जानी चाहिए, ताकि वे जानें कि उनसे क्या आशा जाती है, किन्तु भावात्मक क्षेत्र में विद्यार्थियों को उद्देश्यों को देखने की अनुमति नहीं देनी चाहिए ताकि वे अपनी प्रतिक्रियाओं को बनावटी न बना सकें। भावात्मक क्षेत्र के मूल्यांकन हेतु निरीक्षण एवं आत्म-मूल्यांकन प्रश्नावली विधि का प्रयोग किया जा सकता है।

ब्लूम महोदय ने विद्यार्थियों के भावात्मक पक्ष को विकसित करने के लिए भावात्मक उद्देश्यों को 6 वर्गों में बाँटा हैः

 

 

1.ग्रहण करना- इसका अर्थ विद्यार्थियों की ग्रहण करने की इच्छा से है। ग्रहण करने का सीधा सम्बन्ध विद्यार्थियों की संवेदनशीलता से होता है, जो किसी क्रिया अथवा उद्दीपक की उपस्थिति में होती है। छात्र कक्षा में केवल शान्त बैठकर सुनता ही नहीं वरन् यह भी प्रदर्शित करता है कि उसे इस बात का आभास है कि शिक्षक क्या कह रहा है ? क्या पढ़ा रहा है?

2.अनुक्रिया- इसमें विद्यार्थी प्रेरित होते हुए नवीन ज्ञान को सक्रिय रूप से ग्रहण करते हैं। विद्यार्थी सुनने के साथ-साथ अमल भी रता है तथा सक्रिय रूप से भाग भी लेता है।

3. अनुमूल्यन- इस स्तर पर विद्यार्थी एक आन्तरिक प्रक्रिया द्वारा कुछ विशिष्ट मूल्य, एक वस्तु, एक रुचि किसी अन्य घटनाग से अपने को जोड़ लेता है जैसे किसी अभिनय को देखकर छात्र पुस्तको, टेलीविजन इत्यादि में अच्छे अभिनय की तलाश में रहता है।

4. विचारना- छात्र जैसे-जैसे मूल्यों के साथ वचनबद्धता करते हैं. वैसे-वैसे उनके सामने ऐसी स्थितियाँ आती हैं, जहाँ एक से अधिक मल्य उपयुक्त होते हैं, ऐसी स्थिति में वे यह विचार करते हैं कि वे कौनसे मूल्यों को धारण करें?

5. व्यवस्था-जब छात्र को ऐसी स्थिति मिलती है कि एक से अधिक मूल्य उपयुक्त होते हैं तो वे सोचकर ग्रहण किये गये मूल्यों की क्रमानुसार व्यवस्था करते हैं।

6. मूल्य समूह का विशेषीकरण-इस स्तर पर शिक्षक छात्रों के विशेष मूल्यों अथवा मूल्य-समूह के विशेषीकरण का ज्ञान सरलतापूर्वक कर सकता है।

 

(3) क्रियात्मक उद्देश्य (Psycho-motor Objectives) :

ब्लूम महोदय ने क्रियात्मक पक्ष को छ: वर्गों में विभक्त किया है :

(1) उद्दीपन (Impulsion),

(2) कार्य करना (Manipulation),

(3) नियंत्रण (Control),

(4) समायोजन (Co-ordination),

(5) स्वाभावीकरण (Naturalization),

(6) आदत पड़ना (Habit Formation) आदि।

क्रियात्मक उद्देश्य का सम्बन्ध विभिन्न प्रकार के मनोगत्यात्मक कौशल के विकास से होता है। शारीरिक क्रियाओं के प्रशिक्षण द्वारा इस उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। ब्लूम की भाँति ई.जी. सिम्पसन ने क्रियात्मक उद्देश्य को पाँच भागों में विभाजित किया है :

 

क्रियात्मक उद्देश्य

 

(a) प्रत्यक्षीकरण (Perception)-प्रत्यक्षीकरण एक मानसिक प्रक्रिया है, इसमें ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बाहा वस्तुओं के सम्बन्ध में व्यक्ति में रुचि तथा प्रेरणा जागृत होती है।

(ii) व्यवस्था (Set)-व्यवस्था का अर्थ उस प्रारम्भिक समायोजन से है, जो विशिष्ट प्रकार की क्रियाओं तथा अनुभवों के लिए किया जाता है।

(ii) निदेशात्मक अनक्रिया (Guided Response)-यह क्रियात्मक कौशल के विकास का प्रथम चरण है। इसमें अधिक जटिल कौशल के भाव वाली योग्यताओं पर बल दिया जाता है।

(iv) कार्यप्रणाली (Mechanism)-इसमें विद्यार्थी के अन्दर किसी कार्य को करने के लिए आत्मविश्वास और कौशल विकसित होता है, जिससे छात्र को उपयुक्त अनुक्रिया करने में सहायता मिलती है।

(४) जटिल प्रत्यक्ष अनुक्रिया (Complex overt Response)-इसमें छात्र में इतनी क्षमता एवं कुशलता उत्पन्न की जाती है कि वह जटिल से जटिल कार्य को कम से कम शक्ति तथा समय में पूरा कर सके।

पूर्वनिर्धारण :

पूर्व निर्धारण का सोपान उद्देश्यों के बनाने के बाद आता है। इसके दो मुख्य सिद्धान्त होते हैं:

(1) पूर्व निर्धारण सही है अथवा नहीं; यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस सीमा तक इस बात का मापन करता है कि उद्देश्यों में निहित व्यवहारगत परिवर्तन हो रहे हैं अथवा नहीं।

(2) पूर्व निर्धारण में अपनाई जाने वाली कोई भी विधि प्रत्यक्ष रूप से पूर्वनिर्धारण के सम्बन्ध में सूचना देने वाली होनी चाहिये। ।

 

शिक्षण विधियाँ(Instructional Method) :

कौन-कौनसी शिक्षण विधियाँ शिक्षण में प्रयुक्त की जाएँ; यह इस बात पर निर्भर करता है कि शिक्षण उद्देश्य क्या हैं ? और उनसे किस प्रकार के व्यवहारगत परिवर्तनों की अपेक्षायें हैं तथा विद्यार्थी की क्या आवश्यकतायें व योग्यतायें हैं ? शिक्षण की अनेक विधियाँ हैं, शिक्षक को उनमें से जो उद्देश्य प्राप्त करना है उसके अनुरूप सर्वाधिक उपयुक्त विधि का चयन करना चाहिये । इनमें प्रमुखतः व्याख्यान विधि, प्रश्नोत्तर विधि, प्रदर्शन विधि, वाद-विवाद विधि, सूचना विधि, समूह चर्चा, भ्रमण आदि शिक्षण विधियाँ आती हैं।

 

शिक्षण उद्देश्यों का मूल्यांकन एवं पृष्ठपोषण (Evaluation and Feedback of Teaching Objectives)

यह शिक्षण का अन्तिम चरण है। इसका प्रयोग शिक्षक अपने शिक्षण की सफलता ज्ञात करने हेतु करता है व यह देखने का प्रयास करता है कि जिन उद्देश्यों को लेकर उसने शिक्षण प्रारम्भ किया था, उसे प्राप्त हुए अथवा नहीं। मूल्यांकन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जिसको निम्न रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता हैः

 

शिक्षक सर्वप्रथम शिक्षण उद्देश्यों का निर्धारण करता है। तदुपरांत शिक्षण कार्य प्रारम्भ होता है, जिसमें छात्र अनेक अनुभव प्राप्त कर नई-नई चीजें सीखते हैं और इसके बाद उनमें व्यवहारगत परिवर्तन होते हैं। लेकिन जिन व्यवहारगत परिवर्तनों को शिक्षक ने अपने शिक्षण उद्देश्यों में रखा था. यदि वह उनको छात्रों में लाने में असफल रहता है, तो वह पुनः असफल रहे व्यवहारगत परिवर्तनों के लिए उद्देश्य निर्धारण करता है तथा इस प्रकार प्रक्रिया पुनः आगे चलती है जब तक कि शिक्षक व्यवहारगत परिवर्तनों को छात्रों में लाने में सफल नहीं हो जाता।

Disclaimer -- Hindiguider.com does not own this book, PDF Materials, Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet or created by HindiGuider.com. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: [email protected]

Leave a Reply