इलियाई सम्प्रदाय के दार्शनिक

इलियाई सम्प्रदाय क्या है-दार्शनिक(पार्मेनाइडीज, जेनो और मेलिसस) | Eleatic School in Hindi

दक्षिण इटली के इलिया नामक नगर के दार्शनिक इलियाई सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस सम्प्रदाय में तीन महत्वपूर्ण दार्शनिक हुए- पार्मेनाइडीज, जेनो और मेलिसस।

जेनोफेनीज (Zenophanes) [५७० ई.पू. से ४८० ई.पू.]

ये इलियाई दर्शन के संस्थापक माने जाते हैं। इन्हें संस्थापक भी औपचारिक रूप से ही कहा जाता है, क्योंकि इन्होंने किसी सुसम्बद्ध सिद्धान्त को जन्म नहीं दिया। ये एक चारण थे। प्रीतिभोज आदि विशेष अवसरों पर कविता सुनाया करते थे। इनकी कविता दार्शनिक भावों से पूर्ण हुआ करती थी। अतः इनका दर्शन इनकी कविताओं से ही पता लगता है।

जेनोफेनीज एकेश्वरवादी थे। ये ईश्वर को निराकार और अन्तर्यामी मानते थो। वे मानव कल्पित ईश्वर के घोर विरोधी थे। उन दिनों यूनान में ईश्वर अनेक प्रान्त धारणायें प्रचलित थीं। लोग देवताओं की कल्पना मानव रूप करते थे। देवताओं के सम्बन्ध में उनकी उक्ति बहुत प्रसिद्ध है-मनुष्य सोचते ईश्वर उनकी तरह उत्पन्न होता है, उसका स्वरूप भा मनुष्य के समान ही है। है, यदि बैलों, घोड़ों और शेरों के हाथ मनुष्य के समान होते और उन द्वा चित्र बना सकते, तो वे ईश्वर को क्रमशः बैल, घोड़े और शेर के रूप में : करते। इस प्रकार जेनोफेनीज के अनुसार ईश्वर नित्य, निराकार और अपरिणामी

 

पार्मेनाइडीज (Parmenides) [ ५४० ई.पू. से ४७० ई. पू.]

ये इटली के दक्षिण ईलिया के निवासी थे। ये पाइथागोरस के अनुयायी थे परन्त बाद में जेनोफेनीज के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। ये पाइथागोरस के गणित तथा रहस्यवादी साधना से भी प्रभावित थे। पार्मेनाइडीज अपने तत्त्व विषयक विचार के लिए ग्रीक दर्शन में सबसे प्रसिद्ध है। ये सर्वप्रथम दार्शनिक थे जिन्होंने अपनी तत्त्व विषयक धारणा को तर्क से सिद्ध किया। अतः तर्कसिद्ध तत्त्व की स्थापना इनकी देन कही जाती है। पार्मेनाइडीज ने अपने दार्शनिक सिद्धान्तों की व्याख्या छन्दों में की है। अतः उनकी दार्शनिक कविता (Philosophical didactic) प्रसिद्ध है। पार्मेनाइडीज ने अपनी एक दार्शनिक कविता में लिखा है कि ये स्वर्ग पहुँचते थे तथा वहाँ एक देवी इनको सत्य का दर्शन कराती थी।

पार्मेनाइडीज का दर्शन हेरेक्लाइटस का घोर विरोधी है। हेरेक्लाइटस ने क्षणिकवाद की स्थापना की है और पार्मेनाइडीज ने शाश्वतवाद की।

यदि संसार में सब कुछ क्षणिक, अनित्य, विनश्वर और परिणामी है तो ज्ञान को भी क्षणिक मानना होगा। अतः पार्मेनाइडीज के अनुसार तत्त्व शुद्ध सत् (Pure being) है। यह सत् मूलभूत, नित्य, शाश्वत, अविभाज्य तथा अपरिणामी है। पार्मेनाइडीज शुद्ध सत् की सिद्धि के लिए तर्क देते हैं कि ‘सत् की उत्पत्ति या तो सत् से हुई या असत् से। सत् से सत् की उत्पत्ति सम्भव नहीं, क्योंकि सत् पूर्व में ही विद्यमान था। सत् की उत्पत्ति असत् से भी नहीं हो सकती; क्योंकि शून्य से किसी वस्तु का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।

यह सत् शुद्ध सत् है। इसके लिए पार्मेनाइडीज अनेक विशेषणों का प्रयोग करते हा उनके अनुसार सत् शुद्ध सत्ता है जो अविभाज्य है। सत् का विभाजन सत् से सम्भव नहीं; क्योंकि किसी वस्तु का विभाजन दूसरी वस्तु से होता है। इसका विभाजन असत् से भी सम्भव नहीं, क्योंकि असत् की सत्ता ही नहीं। अविभाज्य होने के कारण ही यह शाश्वत है, क्योंकि इसका विनाश कथमपि सम्भव नहीं। विनाश के परे होने से यह अविनाशी तथा अपरिणामी है।

प्रश्न यह है कि इस प्रकार का अविनाशी अपरिणामी सत् क्या है? पार्मेनाइडीज के अनुसार यह कोई वस्तु नहीं, वरन् सभी वस्तुओं की शुद्ध सत्ता या भाव है। यह भाव या सत्ता सभी वस्तुओं का विचार है, सभी वस्तुओं की शुद्ध सत्ता तो केवल विचार ही है। हम विचार केवल सत् का ही करते हैं, असत् का विचार सम्भव नहीं। अतः विचार और सत्ता में तादात्म्य है। आगे चलकर हेगल आदि दार्शनिक इस सिद्धान्त से अत्यन्त प्रभावित हुए। हेगल ने सत्ता और बोध में तादात्म्य बतलाया है। सम्भवतः इसका बीज पार्मेनाइडीज के विचारों में विद्यमान है।

शुद्ध सत्ता का सर्वप्रथम प्रतिपादन इन्हीं के दर्शन में मिलता है। परन्तु इनका सत् सिद्धान्त बड़ा विवादास्पद है। एक ओर ये सत् को शुद्ध सत्ता, शाश्वत और अपरिणामी बतलाते हैं, दूसरी ओर इसे दैशिक, परिमित भी बतलाते हैं। शुद्ध सत्ता को किसी देश-विशेष, काल-विशेष और सीमा-विशेष में नहीं बाँधा जा सकता। यदि सत् दैशिक है तो वह जड़ पदार्थ है तथा पार्मेनाइडीज भौतिकवादी हैं। यदि सत् वस्तु नहीं विचार है तो पार्मेनाइडीज विज्ञानवादी हैं। इस प्रकार पार्मेनाइडीज की दोनों व्याख्याएँ की जाती हैं। बर्नेट आदि विद्वान पार्मेनाइडीज को भौतिकवादी मानते हैं। इनका कहना है कि सत् दैशिक है तथा सीमित है।

दैशिक और सीमित होना तो भौतिक या जड़ पदार्थ का लक्षण है। कहीं कहीं पर पार्मेनाइडीज अपने सत् को गोलाकार भी बतलाते हैं। जिसकी आकृति होगी वह अवश्य ही किसी स्थान में ही रहेगा। यह तो कोई जड़ या भौतिक पदार्थ ही हो सकता है। इस प्रकार पार्मेनाइडीज भौतिकवादी प्रतीत होते हैं। हेगल प्रभृति विद्वान पार्मेनाइडीज को विज्ञानवादी मानते हैं। उनका कहना है कि पार्मेनाइडीज का सत् तो शुद्ध सत्ता है। इसे देश और काल की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। सत्ता मात्र तो केवल विचार है, विज्ञान है। पार्मेनाइडीज का सत् वास्तविक नहीं, वरन् मानसिक है। सत् की सत्ता का ज्ञान हमें मन या बुद्धि से ही सम्भव है| मात्र सत्ता को हम आँखों से नहीं देख सकते। अतः यह इन्द्रियगम्य नहीं, वरन् बुद्धिगम्य है। बुद्धिगम्य तो विचार या विज्ञान है, वस्तु नहीं।

सत् और असत् का भेद पार्मेनाइडीज के दर्शन की बड़ी देन है। पार्मेनाइडीज के अनुसार सत् बुद्धिगम्य है,इन्द्रियगम्य नहीं। इन्द्रियों से हमें असत् का ज्ञान होता है। यह असत् मिथ्या या आभास मात्र है। इस प्रकार सत् और असत् की उपलब्धि के लिए भिन्न-भिन्न साधन है। यहाँ हमें इन्द्रिय ज्ञान और बौद्धिक ज्ञान में स्पष्ट भेद दिखलायी पड़ता है। पार्मेनाइडीज इस भेद-ज्ञान के जनक है। आगे चलकर इन दोनों का भेद पाश्चात्य दर्शन का महत्वपूर्ण अंग बना। प्लेटो, काण्ट और हेगल के दर्शन में इस पर पर्याप्त विचार है। हेगल ने स्पष्टतः सत् को बौद्धिक बतलाया है।

 

 

इलियाई-सम्प्रदाय-क्या-है

जेनो (Zeno) [४९० ई० पू० से ४३0 ई. पू. ]

जेनो इलिया के निवासी थे। ये इलियाई परम्परा के अन्तिम दार्शनिक थे। ये पार्मेनाइडीज के पक्के अनुयायी थे। जेनो के निषेधात्मक तर्क बड़े विख्यात हैं। जेनो को पाश्चात्य दर्शन के द्वन्द्वात्मक तर्क का जन्मदाता भी मानते हैं। जेनो की कृतियों में एम्पडोक्लीज की व्याख्या (Interpretation of Empedocles), विवाद (Disputation) तथा प्रकृति पर निबन्ध (Treatise on Nature) आदि प्रसिद्ध हैं।

जेनो के दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता उनकी निषेधात्मक तर्क प्रणाली है। जेनो अपने विरोधी के आधार वाक्य को लेते हैं तथा उससे दो परस्पर विरोधी निगमन निकालते हैं। परस्पर विरोधी होने के कारण दोनों निगमन स्वीकार नहीं किये जा सकते। निगमन के असिद्ध होने से आधार वाक्य भी असिद्ध हो जाता है तथा विरोधी ध्वस्त हो जाते है। यही द्वन्द्वात्मक तर्क है। जेनो द्वन्द्वात्मक तर्क के जन्मदाता माने जाते हैं। उदाहरणार्थ-

(क) गति के विरुद्ध तर्क :

१. गति प्रारम्भ ही नहीं हो सकती, क्योंकि किसी दूरी की यात्रा करने के लिए पहले हमें उसके आधे भाग की यात्रा करनी पड़ेगी तथा आधा भाग बच जायेगा। पुनः उस आधे भाग की यात्रा करने पर उसका आधा भाग ही शेष रह जायेगा। आधे भाग की सम्भावना बनी रहने के कारण यात्रा प्रारम्भ ही नहीं हो सकती।

२. एक्लीज (ग्रीक देश का पौराणिक व्यक्ति जो सबसे तेज दौड़ सकता था) कछुए को कभी पकड़ नहीं सकता। कछुए को पकड़ने के लिए उसे उस स्थान पर पहुँचना पड़ेगा जहाँ पहले कछुआ था। इतनी देर में कछुआ दूसरे स्थान पर पहुँच जायेगा। एक्लीज पुनः उस स्थान पर जब पहुँचेगा तो कछुआ तीसरे स्थान पर चला जायेगा। इस प्रकार दोनों के बीच की दूरी तो सदा बनी रहेगी और एक्लीज उसे पा नहीं सकता।

३. एक समय कोई एक वस्तु दो स्थान पर नहीं रह सकती। यदि कोई बाण छोड़ा जाय तो वह सर्वदा एक ही स्थान पर रहेगा। एक स्थान पर रहने का अर्थ स्थिर होना है, चलना नहीं। अतः वह बाण प्रत्येक क्षण में जहाँ जाता है स्थिर ही हो जाता है। अतः वह प्रारम्भ से लेकर अन्त तक स्थिर ही है। इस प्रकार गति का न आरम्भ है, न मध्य और न अन्त है। अतः गति असम्भव है| जेनो के सम्पूर्ण निषेधात्मक तर्कों का सारांश है, पार्मेनाइडीज का मण्डन तथा उनके विरोधी पाइथागोरस का खण्डन करना।

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(ख) देश के विरुद्ध जेनो का तर्क :

मान लिया जाय कि देश कोई चीज है, जिसमें वस्तुएँ स्थित हैं। यदि देश शून्य है तो इसमें वस्तुएँ नहीं रह सकती। यदि देश कोई वस्तु है तो इसके लिए भी अन्य वस्तु की अपेक्षा है जिसमें यह स्थित रहे। पुनः उस वस्तु के लिए अन्य देश की अपेक्षा होगी। इस प्रकार अनवस्था दोष होगा। अतः वस्तुएँ न तो देश में स्थित हैं और न शून्य में हैं।

जेनो पाश्चात्य द्वन्द्व न्याय के जन्मदाता माने जाते हैं। उनके तर्क सही नहीं हैं। परन्तु तार्किक प्रणाली तो अपूर्व है। राइल प्रभति विद्वानों का कहना है कि जेनो के तर्क छलपूर्ण हैं। परन्तु इससे जेनो का महत्व कम नहीं होता। काण्ट का द्वन्द्व-न्याय तथा हेगल का तर्क जेनो से निश्चित रूप से प्रभावित है। जेनो का विकल्पात्मक तर्क बड़ा ही महत्वपूर्ण है। कुछ लोग जेनो के तर्क को शुद्ध वितण्डावाद समझते हैं, अर्थात् जेनो के तर्क को केवल बुद्धि का व्यायाम मानते हैं परन्तु जेनो के तर्क निरर्थक नहीं हैं।

जेनो के तर्क का मुख्य उद्देश्य है पार्मेनाइडीज के सत्-सिद्धान्त को सिद्ध करना और पाइथागोरस के सिद्धान्तों का खण्डन करना। पार्मेनाइडीज सत् को एक मानते हैं, पाइथागोरस इसका खण्डन करते हैं। जेनो पाइथागोरस के प्रपञ्च का तार्किक उत्तर देकर पार्मेनाइडीज के सत् का समर्थन करते हैं। उदाहरणार्थ, पाइथागोरस अनेकता का मण्डन करते हैं। जेनो अनेकता का खण्डन कर एक सत् का समर्थन करते हैं। अत: जेनो का तर्क तत्व का प्रतिपादक है। जेनो का देश और काल सम्बन्धी तर्क आज भी बड़ा ही महत्वपूर्ण है।

 

मेलिसस (Melisus) [४७० ई० पू० से ४१० ई.पू.].

इनका जन्म स्थान सेमॉस (Samos) माना जाता है। ये पार्मेनाइडीज के शिष्य थे। इन्हें इलियाई द्वन्द्व-न्याय बड़ा प्रिय था। इसी कारण ये आयोनिक सम्प्रदाय को छोड कर पार्मेनाइडीज की ओर अधिक आकृष्ट थे। इन्होंने पार्मेनाइडीज के सिद्धान्तों को अपने तर्क से अधिक पुष्ट किया। पार्मेनाइडीज ने सत् को ही परम तत्व माना है। मेलिसस इसकी पुष्टि करते हुए प्रारम्भ करते हैं कि असत् का अभाव है। यदि किसी वस्तु का अभाव हो तो हम उसका वर्ण वस्तु मानकर नहीं कर सकते।

पार्मेनाइडीज के सत् के सम्बन्ध में भौतिक या अभौतिक होने की भ्रान्ति हो गयी थी। मेलिसस ने इस भ्रम को दूर किया तथा सिद्ध किया कि सत् विज्ञान रूप, एक, अनन्त, अविभक्त, निराकार सत्ता है जो अनन्त देश और अनन्त काल में व्याप्त रहता है। सत् यदि एक है तो भौतिक नहीं हो सकता, क्योंकि भौतिक वस्तु का एक होना सम्भव नहीं है। अतः सत् का स्वरूप भौतिक नहीं, वरन् विज्ञान रूप है जिसमें सब कुछ व्याप्त हैं।

 

हेरेक्लाइटस (Hereclitus) [५३0 ई. पू. से ४७५ ई. पू.]

ई० पू० छठवीं शताब्दी में इफसीस नगर में इनका जन्म हुआ था। इनका जन्म कुलीन परिवार में हुआ था परन्तु ये स्वभावतः विरक्त थे। अतः अपने छोटे भाई को उत्तराधिकारी बनाकर जीवनदर्शन की सृष्टि में लग गये। ये गर्वीले स्वभाव के व्यक्ति थे तथा अपने समय के बड़े से बड़े व्यक्ति जैसे होमर इत्यादि को भी तुच्छ दृष्टि से देखते थे। इन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है जिसके कुछ ही अंश उपलब्ध है। इन्होंने स्वतः कहा कि मेरा दर्शन कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए ही है, क्योंकि गधों को घास चाहिए, स्वर्ण नहीं।

हेरेक्लाइटस द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धान्त को क्षणभंगवाद कहते है। क्षणभंगवाद के अनुसार परिवर्तन, परिणाम ही वस्तु का स्वरूप है या गति, परिणाम ही एकमात्र तत्व है। नित्यता या स्थिरता केवल भ्रम है। संसार की प्रत्येक वस्तु में क्षण-क्षण परिवर्तन हो रहा है। किसी भी वस्तु का शाश्वत स्वरूप या मूल रूप विद्यमान नहीं है। जो भी वस्तु है वह परिणामी है, परिवर्तनशील है। संसार में कुछ भी नित्य नहीं सब अनित्य और क्षणिक है। विश्व गति है, परिणाम है, धारा है, प्रवाह है, सन्तान है।

क्षणिकवाद को सिद्ध करने के लिए नदी के प्रवाह तथा दीपशिखा का उदाहरण दिया जाता है। नदी में क्षण-प्रतिक्षण नये-नये प्रवाह उत्पन्न होते रहते हैं। कोई भी व्यक्ति एक नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकता है।2 प्रथम बार का प्रवाह बदल गया, उसके स्थान पर दूसरा प्रवाह आ गया। ‘एक नदी’ तो केवल भ्रान्त है। इसी प्रकार दीप-शिखा क्षण-क्षण बदलती रहती है, एक लौ दूसरी लौ को जन्म देकर विलीन हो जाती है। हम भ्रमवश ‘एक दीपशिखा’ की कल्पना करते हैं। इसी प्रकार संसार भी परिवर्तनशील है। क्षण-क्षण परिवर्तन या परिणाम ही इसका स्वभाव है। अत: सब कुछ प्रवाह मात्र (All is flux) है। कोई वस्तु नित्य नहीं।

पक्ष और विपक्ष का विरोध (Strife of opposites) :

हेरेक्लाइटस के अनुसार संसार की सभी वस्तुओं में उसका विरोधी सत्य विद्यमान है। विरोध ही जीवन का प्राण है। सत् में असत्, जीवन में मृत्यु, पुण्य में पाप, प्रेम में द्वेष विद्यमान है। इस प्रकार वस्तु में उसका विरोधी धर्म विद्यमान है। यह विरोधी धर्म ही गति या परिवर्तन है। विरोधी का अर्थ पूर्ण विरोध (Contradiction) नहीं, वरन् विपरीत होना (Contrary) है। प्रेम और द्वेष विरोधी हैं, इसका अर्थ है कि दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं। विपरीत होने का अर्थ परिवर्तन है। अतः विरोधी का समन्वय (Harmony of opposites) होता है। इसके लिए दो दृष्टान्त दिये जाते हैं। जब मनुष्य द्वारा जाण चलाया जाता है तो चलाने वाले के दोनों हाथ विरोधी दिशाओं में खिंचते हैं, किन्तु उनका लक्ष्य एक ही है। दूसरा, वीणा के तार भिन्न-भिन्न रीति से। खींचे जाते हैं, और तब भी विभिन्न स्वर एक ही राग को उत्पन्न करते हैं। अतः विरोध समन्वय का जनक है।

हेरेक्लाइटस के अनुसार संसार की सभी वस्तुओं में उसका विरोधी तत्व भी है। उदाहरणार्थ, सत् में असत्, जीवन में मृत्यु, पुण्य में पाप, प्रेम में घृणा आदि। जीवन में यदि मृत्यु विद्यमान नहीं होती तो मनुष्य क्यों मरता। मृत्यु जीवन में ही है, यह बाद में प्रकट होता है। अतः अप्रकट रूप में यह जीवन में ही है। प्रम में घृणा निहित है। प्रकट होने पर यह वास्तविक बन जाता है। दोनों का एक साथ रहना ही विरोध का समन्वय है। इसी समन्वय के आधार पर संसार टिका है।

यदि विरोधों का समन्वय न हो तो वस्तुओं का अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा। – हेरेक्लाइटस का दशर्न पार्मेनाइडीज प्रभृति इलियाई दर्शन से सर्वथा भिन्न है। पार्मेनाइडीज सत् को शाश्वत, नित्य मानत हैं, हेरेक्लाइटस इसे परिणामी बतलाते हैं। हेरेक्लाइटस के अनुसार कोई भी ऐसी सत्ता नहीं जिसमें परिणाम या परिवर्तन न होता हो। संसार की सभी वस्तुएँ अग्नि से उत्पन्न हुई हैं तथा अग्नि में ही सभी वस्तुएँ विलीन हो जाती हैं।

जिस प्रकार स्वर्ण आभूषणों में और आभूषण स्वर्ण रूप में परिवर्तित होते रहते हैं, उसी प्रकार अग्नि से सभी वस्तुएँ तथा सभी वस्तुओं से अग्नि रूप में सर्वदा परिवर्तन होता ही रहता है। अतः हेरेक्लाइटस के अनुसार मूल अग्नि (Primal Fire) ही जगत् का कारण है। यह सर्वदा परिवर्तशील है। इसमें दो परिवर्तन होते हैं-अवनत मार्ग तथा उन्नत मार्ग। प्रथम मार्ग के द्वारा मल अग्नि वायु में, वायु जल में और जल पृथ्वी में परिवर्तित होता है। दूसरा मार्ग से पृथ्वी जल में वायु में और वायु मूल अग्नि में परिवर्तित हो जाती हैं।

एस्पेडोक्लीज (Empedocles) [४९५ ई.पू. से ४५३ ई. पू.

ये सिसली के एग्रिगण्टूम नगर के निवासी थे। ये दार्शनिक होने के साथ-साथ राजनीतिज्ञ, वक्ता तथा धार्मिक सुधारक भी थे। अपने इन गुणों के कारण समाज में इनकी बहुत अधिक प्रतिष्ठा थी। ये अपने नगर के एक बार नेता भी चुन गये थे। एक बार इन्हें राज्य सिंहासन भी भेंट किया गया था, परन्तु इन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। कुछ इतिहासकार इन्हें सिसली के औषधि निकाय का संस्थापक भी मानते हैं। एम्पेडोक्लीज ने किसी स्वतन्त्र मत की स्थापना नहीं की, वरन् अपने समय के सभी मतों का समन्वय किया। विरोधों का परिहार ही उनका दार्शनिक लक्ष्य था।

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पार्मेनाइडीज के अनुसार परम तत्व, शाश्वत, नित्य अविकारी है। इसके विपरीत हेरेक्लाइटस के अनुसार नित्य तत्व तो केवल भ्रान्ति है। संसार में जो कुछ भी है वह क्षणिक तथा परिणामी है। एम्पेडोक्लीज दोनों विरोधी सिद्धान्तों का समन्वय करते हैं। थलीज के अनुसार जल परम तत्व है, ऐनेक्जिमेनीज इन सभी का समन्वय करते हैं। इनके अनुसार पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि सभी मौलिक तत्व हैं। अपने मूल रूप में ये नित्य अविकारी है। इनका मूल रूप अणु हैं। अणु रूप में इनकी उत्पत्ति तथा विनाश नहीं होता। इनका केवल संयोग और वियोग होता है। अतः सृष्टि चार महाभूतों का संयोग तथा इनका वियोग ही विनाश है| संयोग और वियोग को सिद्ध करने के लिए वे प्रेम (Love) और विरोध (Discord) का उदाहरण देते हैं। प्रेम संयोग का जनक है और विरोध वियोग का।

सृष्टि के प्रारम्भ में सभी तत्व प्रेम के कारण इकाई की अवस्था में थे, परन्तु कालान्तर में विरोध का आधिक्य होने के कारण इनमें भेद उत्पन्न हो गया। पुनः इनका परस्पर वियोग हो गया। सर्वप्रथम वायु पृथक् हो गया और तत्पश्चात् अग्नि। इसके बाद पृथ्वी उत्पन्न हुई। पृथ्वी में दबाव के कारण फूट कर जल उत्पन्न हुआ इत्यादि पहली अवस्था दिव्य लोक की थी जिसमें पूर्णतः प्रेम का साम्राज्य था। बाद में विरोध के कारण ये सभी अलग हो गये। पुनः प्रेम का प्राधान्य होने से ये सभी दिव्य लोक में संयुक्त हो जायेंगा।

एम्पेडोक्लीज सृष्टि की चार अवस्थायें मानते हैं। प्रथम अवस्था ‘प्रेम’ की है। इस अवस्था में चारों महाभूतों में पूर्णतः सामज्जस्य था। यह प्रारम्भिक अवस्था है। इसे एम्पेडोक्लीज सौभाग्यशाली शुभ (Blessed good) मानते हैं। दूसरी अवस्था ‘विग्रह’ की है। इस अवस्था में महाभूत पृथक् होने लगे। परन्तु इस अवस्था में पूर्णतः पृथक् नहीं होते। अतः इसे महाभूतों की अर्धमिश्रित अवस्था कहा गया है। तीसरी अवस्था ‘मिश्रण’ की है। इस अवस्था में महाभूत पूर्णतः पृथक् हो जाते हैं तथा अपने-अपने समान का निर्माण करते हैं। इस अवस्था में प्रेम बिल्कुल समाप्त हो जाता है तथा विग्रह का पूर्ण आधिपत्य स्थापित हो जाता है। अन्तिम अवस्था ‘विग्रह’ अथवा ‘विनाश की है। इसमें विग्रह की पूर्ण समाप्ति हो जाती है तथा प्रेम का आधिपत्य पुनः स्थापित होता है। इसी चौथी अवस्था में संसार की सृष्टि होती है।

संसार में प्रेम और घृणा प्रारम्भिक प्रेम और विग्रह के ही कारण है। इन दोनों के कारण ही विविध वस्तुओं की सृष्टि होती है। एम्पेडोक्लीज सृष्टि के सम्बन्ध में ‘चक्रीय प्रत्यावर्त्तन’ भी मानते हैं। तात्पर्य यह है कि सृष्टि और प्रलय की अनादि परम्परा चलती रहती हैं। सृष्टि का आदि तो है पर अन्त नहीं। सृष्टि का प्रारम्भ भमण्डल से होता है। सर्वप्रथम चारों महाभूत चारों ओर व्याप्त थे। यह महाभूतों की मिश्रित अवस्था है। इस अवस्था में केवल प्रेम का साम्राज्य था, परन्तु एक निश्चित समय में ‘विग्रह’ ने प्रवेश किया। फलतः महाभूतों का पृथक्करण प्रारम्भ हो गया। यही सष्टि का प्रारम्भ है, परन्तु इसका अन्त नहीं।

 

 

ल्यसिपस और डिमॉक्रिटस (Leusipus and Democritus)[ ४४0 ई.पू. से ३७० ई. पू.]

ल्यसिपस तथा डिमाँक्रिटस दोनों परमाणुवादी दार्शनिक हैं। ल्यूसिपस का जन्म  ४४० ई० पू० माइलेटश नगर में हुआ था। ये परमाणुवादी दर्शन के संस्थापक माने जाते हैं। डिमॉक्रिटस इनके शिष्य थे। इन दोनों परमाणुवादी दार्शनिको ने एम्पेडोक्लीज के परमाणुवाद को पूर्ण बनाया। ल्यसिपस ने ईलिया में अध्ययन किया था तथा एब्डरा में एक शिक्षण संस्था की स्थापना की। इनकी रचनाएँ तो अनेक हैं, परन्तु सभी डिमॉक्रिटस के साथ मिली-जुली हैं। इनके परम शिष्य डिमॉक्रिटस का जन्म एब्डरा में ४२० ई. पू. हुआ था। इन दोनों गुरु शिष्यों की रचनाओं में भेद करना कठिन है।

परमाणु का प्रारम्भ तो एम्पडोक्लीज से होता है, परन्तु उनका परमाणुवाद केवल बीज रूप है। ल्यूसिपस तथा डिमॉक्रिटस ने इसे पूर्ण विकसित सिद्धान्त बनाया। परमाणुवादी पार्मेनाइडीज के इस सिद्धान्त को पूर्णतः मानते हैं कि परम तत्व उत्पत्ति विनाश से रहित नित्य अविकारी है। मौलिक तत्वों की उत्पत्ति तथा विनाश नहीं हो सकता। पुन: परमाणुवादी हेरेक्लाइटस के क्षणभंगवाद को भी मानत हैं जिसके अनुसार गति, परिणाम या परिवर्तन वस्तु का धर्म है। परमाणुवादी एम्पेडोक्लीज तथा एनेक्जेगोरस के बीजों को परमाणूवादियों ने परमाणुओं से परिणत कर दिया है।

 

परमाणुवाद :

यदि हम विश्व के किसी द्रव्य का विभाजन करते जाएँ तो अन्त में एक ऐसी इकाई को प्राप्त करेंगे जिसका विभाजन कथमपि नहीं हो सकता। यह अविभाज्य इकाई परमाणु कहलाती है। यह किसी द्रव्य का न्यूनतम भाग है। इस अन्तिम अविभाज्य भाग का हमें इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, अतः इन्हें अतीन्द्रिय माना गया है। तात्पर्य यह है कि विश्व के न्यूनतम, अविभाज्य, अविनश्वर, नत्य, मूलरूप तत्व को परमाणु कहा गया है। ये परमाणु भौतिक हैं। गति इनका धर्म हा गति के कारण ही इनमें संयोग से सृष्टि तथा वियोग से विनाश होता है।

 

परमाणुवादी दार्शनिकों के अनुसार जगत के मूल में एक ही प्रकार के द्रव्य से बने हुए हैं। ये परमाणु गुणरहित हैं। तात्पर्य यह है कि परमाणुओं में गुणात्मक भेद नहीं होता, परन्तु उनमें परिमाणात्मक भेद है। परमाणु में विस्तार होता है। विस्तार के कारण परमाणुओं की आकृति में भेद होता है। कुछ परमाणुओं का आकार छोटा होता है तथा कुछ का आकार बड़ा। इसी प्रकार परमाणुओं में संख्या का भी भेद है। ल्यसिपस तथा डिमाँक्रिटस परमाणुओं के अतिरिक्त शून्याकाश (Empty space) का भी अस्तित्व मानते हैं।

शून्य की आवश्यकता को दो कारणों से है। प्रथम कारण है। परमाणु एक दूसरे से पृथक है। शून्य ही परमाणुआ अलग करता है। दूसरा कारण है, शुन्य ही परमाणुओं में गति का कारण है। इस प्रकार परमाणुवादियों के अनुसार सष्टि के दो मूल तत्व है-परमाणु और आकाश इन्हीं दोनों से सृष्टि होती है किन्तु केवल परमाणुओं से ही सृष्टि नहीं हो सकती। परमाणुओं में क्रिया की आवश्यकता है। क्रिया गति के कारण हो सकती है। अतः प्रश्न यह है कि परमाणुओं में गति कैसे उत्पन्न होती है। परमाणूवादियों का कहना है कि गति परमाणुओं का स्वाभाविक धर्म है। तात्पर्य यह है कि परमाणु स्वभावतः शक्तिसम्पन्न है, गतिशील हैं। परन्तु पनः प्रश्न होता है कि उनकी गति का चालक कौन है? डिमॉक्रिटस का कहना है कि परमाणओं में शक्ति का सञ्चालन स्वतः होता है| यन्त्रवत् इनका सञ्चालन होता है। इनका। सञ्चालक कोई अपूर्व शक्ति या अदृश्य ईश्वर नहीं। डिमॉक्रिटस देवी-देवताओं का खण्डन करते हैं। उनके अनुसार देवी-देवता में विश्वास का मुख्य कारण भय है।

 

एनेक्जेगोरस (Anaxagora) [५०० ई. पू. से ४२८ ई.पू.]

एनेक्जेगोरस का जन्म क्लजोमेनी नामक स्थान में हुआ था। बाद में ये एथेन्स जाकर बस गये। ये ग्रीक युग के अन्तिम मौलिक विचारक माने जाते हैं। एम्पेडोक्लीज के समान एनेक्जेगोरस भी विभिन्न मतों के समन्वय का प्रयास करते हैं। एम्पेडोक्लीज के अनुसार परम तत्त्व चार है। एनेक्जेगोरस के अनुसार मौलिक परम तत्त्व अनेक हैं। इन मौलिक तत्वों को वे बीज कहते हैं। ये बीज अनन्त है तथा इनके गुण भी अनन्त हैं। इन बीजों में गति उत्पन्न हुई। गति के कारण समान बीज मिल गय। इसी सम्मिश्रण से सृष्टि हुई। प्रथम अवस्था को प्राकृत अवस्था कहते हैं, जिसमें सभी बीज मिश्रित हुए। ये बीज भौतिक हैं, अतः इन्हें गति के लिए चित् शक्ति (Nous) की आवश्यकता हुई। यह चित् शक्ति ही परम विज्ञान है जो सभी प्रकार की गतियों (Revolutions) का अधिष्ठाता है। इसी परम विज्ञान को भी बीजों का बीज कह सकते हैं।

ग्रीक दर्शन में सर्वप्रथम चित् शक्ति की कल्पना एनेक्जेगोरस ने ही की। इनका विचार था कि भौतिक बीज स्वतः सक्रिय नहीं हो सकते। इसके अतिरिक्त सर्वप्रथम प्रयोजनवाद की कल्पना भी इन्होंने ही की। प्रकृति की घटनायें यान्त्रिक नहीं वरन् प्रयोजनपूर्ण हैं। इस प्रयोजन का कारण परम विज्ञान है। बाद में प्लटो और ग्रीक दर्शन नरस्त के दर्शन में इस परम विज्ञान का महत्व बढ़ गया; परन्तु इसका सूत्रपात लेक्जेगोरस ने ही किया। अतः चित् शक्ति तथा परम विज्ञान के सर्वप्रथम स्वीकार करने के कारण इनका महत्व और अधिक हो जाता है।

परम विज्ञान के स्वरूप के सम्बन्ध में बड़ा विवाद है। अरस्तू, अर्डमेन इत्यादि के अनुसार परम विज्ञान एक आध्यात्मिक सत्ता है। इसके विपरीत बर्नेट प्रभृति विद्वानों के अनुसार परम विज्ञान भौतिक सत्ता है।

 

 

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