ghatna-kriya-vigyan-kya-hai-phenomenology

घटना-क्रिया-विज्ञान के सिद्धांत का उल्लेख

इस पोस्ट में हम घटना-क्रिया-विज्ञान के सिद्धांत का उल्लेख कीजिए, घटना-क्रिया-विज्ञान क्या है। आदि प्रश्नों का अध्ययन करेंगे।

 

घटना-क्रिया-विज्ञान या फेनोमेनोलॉजी

मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति एवं मनुष्य की सर्वोत्तम उपलब्धि है मानव समाज तथा उसकी विचित्र घटनायें। मनुष्य की प्रकृति जिज्ञासु तार्किक एवं ज्ञान-पिपास है। इसीलिए मनुष्य ईश्वर की रचनाओं का आश्चर्यजनक भाग है। मनुष्य न केवल प्रकृति का ही अध्ययन करता है, अपितु स्वयं के बारे में भी उतना ही जिज्ञासु रहता है।

संसार अगणित रहस्यों से आच्छादित है। यह रहस्य ही मानव की सुप्त जिज्ञासाओं को जाग्रत करता है तथा इन रहस्यों को जानने के लिए प्रेरित करता है, रहस्यों का अनावरण करने की यह प्रवृत्ति मानव की सभ्यता ज्ञान एवं प्रगतिशीलता की परिचायक है। चूंकि मनुष्यों में रहस्य जानने की नवीनतम को खोज लेने की एवं अपने ज्ञान भंडार को समृद्ध करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक है इसीलिए मानव पशुओं से भिन्न है। मनुष्य भिन्न केवल इसीलिए नहीं है कि वह रहस्यों का अनावरण करने के लिए अद्यत रहता है, बल्कि इसलिए भी भिन्न है कि वह समस्त जीवन को सम्पूर्णता के साथ जीता है। मानव केवल अन्तःक्रिया ही नहीं करता है, वह उसकी व्याख्या भी करता है। वह केवल प्रत्युत्तर ही नहीं देता है, अपित् आविष्कार एवं सृष्टि भी करता है। इस क्रिया, प्रतिक्रिया एवं अन्तःक्रिया के बीच वह घटनाओं की वास्तविकता को जानने का प्रयास करता है। उसके इसी प्रयास का प्रतिफल ही घटना-क्रिया-विज्ञान है।

 

घटना-क्रिया-विज्ञान अध्ययन की पद्धति और कार्यप्रणाली पर विशेष बल देती है। मानव तर्क का उद्भव कैसे होता है, ज्ञान को किस रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तर्क का स्वरूप क्या है? इन्हें जानने की अपेक्षा मानव मस्तिष्क द्वारा अर्थ को समझने की योग्यता को जानना अधिक महत्वपूर्ण है। इस विधि को समाजशास्त्र में प्रयोग करने का श्रेय अल्फ्रेड शूट्ज को है। उसकी पुस्तक फिनोमिनोलाॅजी क ऑफ दि सोशल वर्ड(1932) ने घटना क्रिया विज्ञान के समाजशास्त्र के उद्भव की नींव रखी। इसमें बताया गया कि व्यक्ति किस प्रकार अविभेदीकृत अनुभव की मूलधारा से वस्तुओं तथा उनके व्यक्ति ही समाज की रचना करते हैं, वे ही उसे परिभाषित करते हैं। अतः समाजशास्त्र को यह खोजना चाहिए कि व्यक्ति किस प्रकार समाज की रचना करते हैं। घटना क्रिया विज्ञान समाजशास्त्र समाज की प्रक्रियाओं को आन्तरिक दृष्टि से अर्थात् कर्ता के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है।

 

घटना-क्रिया-विज्ञान की प्रकृति

घटना-क्रिया-विज्ञान सामाजिक घटनाओं के अध्ययन को एक विशिष्ट पालन शास्त्र है। इसे घटना-क्रिया-विज्ञान इसलिए कहा जाता है कि यह सामाजिक घटनाओं की व्याख्याकर्ता की क्रियाओं एवं दृष्टिकोण के संदर्भ में करता है। समाजशास्त्र का परम्परागत पद्धतिशास्त्र सामाजिक व्यवहार या क्रिया के ऐतिहासिक तथा प्रकार्यात्मक प्रकृति पर जोर देता है। इसके विपरीत घटना-क्रिया-विज्ञान सामाजिक जीवन के अध्ययन में व्याख्यात्मक दृष्टिकोण को स्वीकारता है तथा इस तथ्य पर जोर देता है कि सामाजिक क्रिया को सामाजिककर्ता के विचारों एवं दृष्टिकोण के संदर्भ में ही विश्लेषित किया जाना चाहिए।

See also  सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारक | Factors of Social Change in Hindi

मानव में स्वयं को तथा दूसरों के साथ अपने सबधों को जानने व समझने की एक आदिम इच्छा होती है। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए घटना-क्रिया-विज्ञान तीन प्रकार की घटनाओं को पहचानने एवं जानने का प्रयत्न करता है-

(अ) उस घटना का अथ जो लोग अपनी दुनिया, वस्तु, व्यक्ति आदि के बारे में जानने का प्रयत्न करते है।

(ब) वे दृष्टिकोण या संदर्भ जिसके द्वारा लोग स्वयं तथा दूसरों को देखते हैं।

(स) वे अभिप्राय जो मनुष्य के व्यवहार में अन्तर्निहित होते हैं। वास्तविकता तो यही है कि ये तीनों ही चीजें किसी भी सामाजिक या व्यावहारात्मक विज्ञान के लिए आधारशिला है। इसके संबंध में चिनाय एवं हीविट का कथन है कि कुछ लोगों का दावा है कि घटना क्रिया विज्ञान समाजशास्त्र का सारभूत भाग है।

 

 

प्रत्यक्षवादी पद्धतिशास्त्र एवं घटना-क्रिया-विज्ञान का तुलनात्मक विश्लेषण

घटना-क्रिया-विज्ञान को स्पष्टतः समझने के लिए प्रत्यक्षवादी पद्धतिशास्त्र की अवधारणा को समझना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि घटना-क्रिया-विज्ञान का दृष्टिकोण प्रत्यक्षवादी पद्धतिशास्त्र का ही सुधरा हुआ विकल्प है। प्रत्यक्षवादी पद्धतिशास्त्र की आधारशिला आगस्ट काम्टे ने रखी थी, किन्तु उसका वास्तविक प्रयोग एवं विकास इमाइल दुर्खीम ने किया था। दुर्खीम व्यक्ति को गौण मानते हैं तथा समाज को मुख्य। आपकी स्पष्ट घोषणा थी कि समाज ही वास्तविक देवता है। चूंकि समाज ही देवता है, अतः सर्वशक्तिमान  है, इस कारण व्यक्ति की समस्त क्रियायें समाज द्वारा निर्धारित एवं निर्देशित होती है।। आपका कथन था कि प्रत्येक सामाजिक घटना या क्रिया का वास्तविक कारक समाज है। व्यक्ति पूजा, आराधना या प्रार्थना जो कुछ भी करता है तो वह समाज की सामूहिक शक्ति के सम्मुख ही नतमस्तक हो रहा है। उदाहरणार्थ, अगर व्यक्ति आत्महत्या भी कर रहा है तो उसका कारण समाज की सामूहिक शक्ति है जो उस पर स्वयं को मार डालने के लिए दबाव डाल रही है। इस प्रकार प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण का सार यह है कि मनुष्य का व्यवहार ऐसी शक्तियों द्वारा निर्धारित एवं निर्देशित होता है जिस पर मनुष्य का नियंत्रण नहीं होता है। इस प्रकार कह सकते हैं कि दुर्खीम की परिभाषिक शब्दावली मानवीय व्यवहार को सामाजिक तथ्यों द्वारा निर्धारित मानती है।

घटना-क्रिया-विज्ञान प्रत्यक्षवादी पद्धतिशास्त्र की मान्यताओं को अस्वीकार करता। है क्योंकि इसमें कर्ता, उसकी क्रिया एवं उसके दृष्टिकोण को कोई स्थान नहीं दिया गया। है। इससे यह मान लिया गया है कि मानव समाज अथवा समूह के निर्देशों को यन्त्रवत् मानने के लिए बाधा है। स्वयं की उसकी क्रियाओं एवं विचारों का पद्धतिशास्त्र में कोई महत्त्व नहीं है। जो कुछ भी है, समाज ही है, वास्तविक नियंता वही है।

घटना-क्रिया-विज्ञान की यह मान्यता है कि कोई भी सामाजिक घटनाकर्ता या कर्ताओं द्वारा की गयी क्रिया या क्रियाओं का प्रतिफल होती है तथा वह क्रियाको द्वारा  लगाये अर्थों के अनुसार ही होती है।

See also  नव-मार्क्सवाद से आप क्या समझते हैं?

उदाहरणार्थ, हम विवाह-विच्छेद की सामाजिक घटना को ले सकते हैं, यह तब तक घटित नहीं होती जब तक कि विवाह के दोनों पक्षकार अर्थात् पति एवं पत्नी विवाह-विच्छेद की क्रियायें न करें। पति एवं पत्नी द्वारा इस प्रकार की कोई क्रिया करना इस तथ्य पर आधारित है कि वे विवाह अथवा वैधानिक जीवन का क्या अर्थ समझते हैं। यदि वे विवाह का अर्थ लगाते हैं कि विवाह प्रेम, अनुराग, त्याग, सुख-दुख, झगड़ा एवं सहयोग का मिलाजुला रुप है तो वे निश्चय ही इस प्रकार कोई क्रिया नहीं करेंगे जिससे, विवाह-विच्छेद की परिस्थितियों उत्पन्न हो। इसके विपरीत यदि विवाह का अर्थ व इससे भिन्न लगाते है तथा उसी के अनुसार क्रिया करते है तो विवाह-विच्छेद को रोका नहीं जा सकता है। घटना-क्रिया-विज्ञान की यही मान्यता है।

इस प्रकार घटना-क्रिया-विज्ञान के दृष्टिकोण से प्राकृतिक विज्ञान एवं सामाजिक  विज्ञान की अध्ययन वस्तु में एक आधारभूत भेद है। प्राकृतिक विज्ञानों में किसी न किसी वस्तु का अध्ययन किया जाता है जिसमें कोई चेतना नहीं होती है। इस कारण उसके व्यवहार को बाह्य उत्तेजना के प्रति एक प्रतिक्रिया मात्र कहा जा सकता है। पदार्थ उसी रूप में क्रिया करने को विवश होता है जैसी की उसकी प्रकृति होती है, उदाहरणार्थ- पानी न मिलने पर पौधे का सूख जाना। यह सभी जगह घटित होगा क्योंकि पौधे की स्वयं कोई चेतना नहीं होती है। इसके विपरीत मानव चेतनायुक्त प्राणी होता है, वह अपने संसार का अवलोकन करता है, अनुभव करता है एवं अर्थ लगाता है तथा उन अर्थो के सन्दर्भ में घटना का विश्लेषण करता है। उसके द्वारा समझे गये अर्थों को बाहरी व्यक्ति या समाज द्वारा उसके ऊपर लादा नहीं जा सकता है तथा न ही उसे एक निश्चित तरीके से कोई करने के लिए विवश किया जा सकता है। व्यक्ति के द्वारा लगाये गये अर्थों का निर्माण एवं पुनर्निर्माण सामाजिक अन्तःक्रिया के दौरान होता है।

 

 

इन्हें भी देखें-

 

 

 

 

कार्ल मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धांत की विवेचना

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Disclaimer -- Hindiguider.com does not own this book, PDF Materials, Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet or created by HindiGuider.com. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: 24Hindiguider@gmail.com

Leave a Reply