रेने देकार्त की मेडिटेशन्स कृति पार्ट -2

रेने देकार्त की मेडिटेशन्स कृति पार्ट -2 | Rene Descartes Meditations Part-2

तृतीय मनन या मेडिटेशनः ईश्वर-विचार

हम पहले विचार कर आये हैं कि निस्सन्देह सत्य की प्राप्त के लिए देकार्त ने सन्देह की प्रणाली को अपनया। इस प्रणाली से वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि विचार का स्पष्ट तथा स्वयंसिद्ध होना ही सत्य का मापदण्ड है। इस मापदण्ड के अनुसार सर्वप्रथम उन्होंने आत्म-तत्व की सत्ता को सन्देहातीत, स्वयंसिद्ध माना है। अतः देकार्त के अनुसार जो वस्तु आत्म-तत्त्व के समान निस्सन्देह, स्वयंसिद्ध हो वही सत्य है। सत्य के इस मापदण्ड के सहारे देकार्त अन्य विचारों की परीक्षा प्रारम्भ करते हैं। देकार्त के अनुसार हमारे विचार तीन प्रकार के हैं-

१. नैसर्गिक विचार (Innate ideas)

२ आकस्मिक विचार (Adventitious ideas) 

३. काल्पनिक विचार (Imaginative ideas)

नैसर्गिक विचार जन्मजात प्रत्यय हैं जिन्हें मनुष्य बाह्य संसार से नहीं प्राप्त करता। आकस्मिक विचार बाह्य संसार से जन्य होते हैं तथा काल्पनिक विचार शुद्ध कल्पना प्रसूत (Pure imaginations) हैं।

उपरोक्त तीन प्रकार के विचारों में ईश्वर विचार नैसर्गिक या जन्मजात है। हममें ईश्वर की धारणा जन्म से ही विद्यमान है। अन्य दोनों विचार भ्रामक हो सकते है, परन्तु ईश्वर-विचार भ्रामक नहीं। हम जन्म से ही जानते हैं कि ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी है, वह सत्य और शिवधाम है। वह सृष्टि का कर्ता, असीम तथा पूर्ण है। ईश्वर परम दयालु तथा सद्गुणों का भण्डार है। देकार्त ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिये अग्रलिखित प्रमाण देते हैं।

 

१. कार्य-कारणमूलक तर्क (Causal proof) कार्य- कारण नियम के अनुसार कोई भी घटना अकारण नहीं होती अर्थात् प्रत्येक कार्य का कोई कारण है और प्रत्येक कारण का कोई कार्य अवश्य है। सम्पूर्ण विश्व इसी कार्य-कारण नियम से बँधा है। बिना कारण के कार्य नहीं होता, असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं (Nothing produces nothing)| इस नियम का एक दूसरा स्वरूप है कि कार्य की सत्ता कारण से न्यून नहीं हो सकती। तात्पर्य यह है कि कार्य में किसी ऐसी शक्ति का आविर्भाव नहीं स्वीकार किया जा सकता जिसका कारण में सर्वथा अभाव हो (The cause must contain as much reality or perfection as the effect)

कार्य-कारण नियम के दोनों लक्षणों का ईश्वर में समन्वय हो जा रहा है। सर्वप्रथम हमारी बुद्धि में ईश्वर है ऐसा विचार जन्म से (Innate) विद्यमान है। यह विचार कार्य हुआ, अतः इसका भी कारण अवश्य होना चाहिये, अन्यथा इसमें अकारण घटना (Uncaused event) का दोष होगा। देकार्त का कहना है कि ‘ईश्वर है ऐसे विचार का कारण ईश्वर ही हो सकता है दूसरा कोई नहीं। पुनः ईश्वर को हम सर्वज्ञ, पूर्ण और अनन्त के रूप में जानते हैं। अल्पज्ञ, अपूर्ण और सान्त जीवन इसका कारण नहीं हो सकते। अतः सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईश्वर ही इसका कारण है, क्योंकि कारण की सत्ता कार्य से न्यून नहीं हो सकती। अतः ईश्वर सम्बन्धी सर्वज्ञता, परिपूर्णता आदि विचारों का जनक स्वयं ईश्वर ही है। ईश्वर पूर्ण तथा अनन्त है। हम अपूर्ण तथा सान्त व्यक्ति इसका कारण नहीं हो सकते। पूर्ण तथा अनन्त ईश्वर विचार का कारण स्वयं ईश्वर ही हो सकता है। अतः ईश्वर है।

 

२. सत्तामूलक तर्क (Ontological proof)- देकार्त का कहना है कि पूर्ण ईश्वर का ज्ञान ही उसकी सत्ता का द्योतक है। जैसे किसी त्रिभुज के ज्ञानमात्र से ही सिद्ध है कि उनके तीनों कोण मिलकर दो समकोण के बराबर होते हैं, उसी प्रकार ईश्वर के ज्ञानमात्र से ही उसकी सत्ता सिद्ध है। ईश्वर के अस्तित्व के बिना उसके पूर्ण तथा अनन्त होने का ज्ञान असम्भव है।

 इस तर्क के द्वारा देकार्त विचार और वस्तु में सामञ्जस्य स्थापित करते है। साधारणतः विचार और वस्तु में भेद है। यह आवश्यक नहीं कि हमारे सभी विचारों के अनुरूप वस्तु भी हो। परन्तु पूर्ण तथा अनन्त ईश्वर का विचार ईश्वर के बिना असम्भव है। संसार के सभी पदार्थ अपूर्ण हैं, परन्तु ‘अपूर्ण ईश्वर” तो वदतोव्याघात है। ईश्वर को पूर्ण तथा अनन्त मानकर भी उसके अस्तित्व का अभाव मानना कठिन है। तात्पर्य यह है कि यदि ईश्वर की सत्ता न होती तो हम उसे पूर्ण तथा अनन्त कैसे जानते।

कुछ लोगों का कहना है कि देकार्त का सत्तामूलक तर्क सन्त एन्सेल्म (St. Anselm) का अनुकरण मात्र है। एन्सेल्म ने ईश्वर विचार से ईश्वर अस्तित्व का अनुमान बतलाया है। परन्तु देकार्त का तर्क एन्सेल्म से भिन्न है। एन्सेल्म का तर्क सत्तामूलक है तथा देकार्त का तर्क कार्य-कारण मूलक है। एन्सेल्म के अनुसार ईश्वर-विचार से ही ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है, देकार्त के अनुसार हममें पूर्ण ईश्वर का विचार है। इस विचार का कारण केवल ईश्वर ही हो सकता है। एन्सेल्म महोदय के अनुसार मनुष्य का विचार ही वस्तु का द्योतक है। हममें ईश्वर का विचार है इससे स्पष्टतः ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है। परन्तु इस तर्क में एक दोष है। विचार से वस्तु की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती।

हमारे मस्तिष्क में अनेकों विचार हो संकते हैं, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि उसके अनुरूप वस्तु भी हो। उदाहरणार्थ, वन्ध्यापुत्र, स्वर्णिम पर्वत, आकाश’ पुष्प आदि के विचार हमारे मन में उत्पन्न हो सकते हैं, परन्तु इनके अनुरूप संसार में कोई वस्तु नहीं। देकार्त ने इस दोष को स्पष्टतः समझा था तथा इससे बचने के लिए ही उन्होंने कार्य कारणमूलक तर्क को अपनाया। सत्तामूलक तर्क में अनिवार्यता (Necessity) नहीं परन्तु कार्य कारणमूलक तर्क में अनिवार्यता है।

देकार्त के अनुसार अनिवार्यता वस्तु में है, विचार में नहीं। हम किसी काल्पनिक विषय पर विचार कर सकते हैं जिसका कोई अस्तित्व न हो, परन्तु ईश्वर का विचार बिना उनके अस्तित्व के सम्भव नहीं। देकार्त के तर्क का प्रारम्भ मनुष्य मस्तिष्क से नहीं वरन् ईश्वर से होता है। ईश्वर ही सृष्टि का जनक है। सृष्टि में कुछ ऐसे संकेत है जिससे ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है, अर्थात् सृष्टि में निहित संकेतों से ही दैवी सत्ता का आभास मिलता है। मानव अपूर्ण है, उसकी अपूर्णता ही पूर्ण ईश्वर की सत्ता सिद्ध करती है। हम सान्त हैं, अतः अनन्त की सत्ता सिद्ध है। सान्त तथा अपूर्ण होना ही अनन्तता तथा पूर्णता का संकेत है। इस प्रकार देकार्त का तर्क एन्सेल्म से पृथक् है।

 

३. सृष्टिमूलक तर्क (Cosmological proof)- ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता है। ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई इसका कर्ता नहीं हो सकता। मनुष्य सान्त है, वह अनन्त सृष्टि का कर्त्ता नहीं हो सकता। मुझमें पूर्णता का विचार विद्यमान है। यदि मैं स्वयं अपना कर्ता होता तो अपने आप को पूर्ण बना लेता, अर्थात् अपूर्ण न रहता तथा अपने आपको सान्त न बनाता। यदि मेरे माता-पिता ही मुझे उत्पन्न किये होते तो वे भी मुझे सान्त न बनाते। इससे स्पष्ट है कि मैं स्वत: अपनी उत्पत्ति का कारण नहीं तथा मेरे माता-पिता भी कारण नहीं। मुझे तथा सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करने वाला परमपिता परमेश्वर है। सृष्टि जड़ है, वह स्वयं अपना कारण नहीं हो सकती है। जड़ वस्तु केवल उपादान कारण (Material cause) हो सकती है। ईश्वर ही सृष्टि का निमित्त कारण स्वीकार किया गया है।

 

४. निगमनात्मक तर्क (Deductive proof)- स्पष्ट और निस्सन्देह सत्य को ही देकार्त सत्य मानते हैं। इस मापदण्ड के आधार पर सर्वप्रथम निस्सन्देह, स्पष्ट आत्मा की सद्यः अनुभूति उन्हें प्राप्त हुई। अतः वे आत्मा की सत्ता स्वतः सिद्ध मानते है। पुनः देकार्त का कहना है कि आत्म तत्त्व के समान ही ईश्वर तत्त्व का भी हमें स्पष्टतः अनुभव होता है। अतः ईश्वर की सत्ता भी सिद्ध है।

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आत्म-तत्त्व और ईश्वर-तत्त्व दोनों ही सिद्ध हैं। दोनों में अन्तर इतना ही है कि आत्म-तत्त्व स्वतः। सिद्ध साक्षात् अनुभूति है; परन्तु ईश्वर की सिद्धि आत्मा के समान सुस्पष्ट होने पर निर्भर है। अतः ईश्वर-तत्त्व सिद्धि ही सुस्पष्टता का आधार है। इसी कारण इस तर्क को निगमनात्मक माना गया है।

उपरोक्त तर्कों के आधार पर देकार्त ईश्वर की सत्ता सिद्ध करते हैं। देकार्त के अनुसार ईश्वर पूर्ण, अनन्त तथा सर्वज्ञ है। ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता है, दया का धाम तथा शुभ का आगार है। पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त के समान ही भारतीय दर्शन में भी ईश्वर को सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। प्रसिद्ध दार्शनिक श्री उदयनाचार्य ने ईश्वर सिद्धि के लिये नौ हेतु बतलाये है। उदयनाचार्य के समान ही अन्य दार्शनिक भी चारों प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शाब्दबोध) से ईश्वर की सत्ता सिद्ध मानते हैं। इस प्रकार प्राच्य और पाश्चात्य दोनों दर्शन में ईश्वर सत्ता की सिद्धि के लिये प्रमाण मिलते हैं।

देकार्त तथा उदयनाचार्य दोनों दार्शनिकों के दिये गए तर्कों में ईश्वर का सृष्टि कर्त्ता होना’ सबसे बलवान तर्क है। तात्पर्य यह है कि सृष्टि स्रष्टा के बिना सम्भव नहीं। अनादि और अनन्त संसार का स्रष्टा आदि और सान्त मानव नहीं हो सकता। इसके लिये अनन्त ईश्वर की आवश्यकता है, अन्यथा सृष्टि कार्य का कारण दूसरा कोई नहीं हो सकता। सभी ईश्वरवादी दार्शनिक ईश्वर को जगत्-कर्ता रूप में स्वीकार करते हैं तथा सृष्टि से स्रष्टा की सत्ता अनिवार्य मानते हैं। इसी कारण सभी ईश्वरवादी भक्त दार्शनिक प्रवर की सत्ता सिद्ध करने के लिए प्रमाण देते हैं। परन्तु ईश्वर की सिद्धि के लिये ही प्रमाण ईश्वर को प्रमेय सिद्ध करते हैं जबकि यथार्थ रूप में ईश्वर अप्रमेय है।

 

 

चतुर्थ मनन या मेडिटेशन : जगत्-विचार

आत्मा और परमात्मा की सिद्धि के बाद देकार्त संसार और सांसारिक पदार्थों ही सत्ता भी सिद्ध करते हैं। सांसारिक पदार्थों से देकार्त का तात्पर्य भौतिक पदार्थ या पोतन तत्त्व से है। संसार इन्हीं भौतिक पदार्थों से भरा पड़ा है। ये भौतिक पदार्थ विस्तृत हैं अर्थात् इनमें दैशिक विस्तार है। इस दैशिक विस्तार के बिना भौतिक वस्तु की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः विस्तार भौतिक वस्तु का प्रधान गुण या धर्म है। विस्तार के अतिरिक्त संख्या, घनत्व, स्थिति और गति आदि भी भौतिक वस्तु के ही गुण हैं। प्रश्न यह है कि देकार्त भौतिक वस्तुओं की सत्ता कैसे सिद्ध करते हैं? देकार्त ईश्वर-विचार की सहायता से भौतिक पदार्थों की सत्ता सिद्ध करते हैं।

देकार्त ईश्वर-विचार को नैसर्गिक या जन्मजात मानते हैं। तात्पर्य यह है कि जन्म से ही हमारे भीतर नित्य, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता, ईश्वर का विचार है। वह अनन्त और असीम शक्तियों का भण्डार है। इस विशाल विश्व को उत्पन्न करने में केवल वही समर्थ है। ईश्वर ही सर्वाधार है। हमें अपने आप का स्पष्ट ज्ञान है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मैं अपूर्ण हूँ मेरा कर्त्ता पूर्ण ईश्वर ही है, मेरा अस्तित्व ईश्वराधीन है। सृष्टि को उत्पन्न करने की सामर्थ्य केवल अनन्त शक्ति के स्रोत परमात्मा में ही है।

 

जगत्-विचार

ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के बाद देकार्त जगत् की सत्ता सिद्ध करते हैं। देकार्त का जगत् विचार भी ईश्वर पर ही आधारित है। वे ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानते हैं। यदि ईश्वर का सृष्टिकर्तृत्व सत्य है तो सृष्टि भी सत्य है। तात्पर्य यह है कि कर्ता को सत्य मानने से उसकी कृति या कार्य को सत्य मानना होगा। देकार्त का कहना है कि आत्मा तथा ईश्वर-विचार के अतिरिक्त हममें जगत् सम्बन्धी विचार भी स्पष्ट रूप से विद्यमान हैं। हम रूप, रस, गन्ध आदि का स्पष्ट रूप से अनुभव करते हैं। इन रूप, रसादि की संवेदनायें बाह्य विषयों से ही उत्पन्न होंगी। अतः बाह्य विषयों की सत्ता अवश्य है।

हमें दुःख, सुख, भूख, प्यास आदि का अनुभव होता है। इससे स्पष्ट है कि मेरे पास शरीर है, नहीं तो ये संवेदनाएँ नहीं उत्पन्न होंगी। ईश्वर हमें धोखा नहीं दे सकता। उन्होंने सभी बाह्य विषयों को उत्पन्न किया है जिसके कारण ये संवेदनाएँ हो रही हैं। अतः बाह्य विषयों को न मानना तो ईश्वर के अस्तित्व में अविश्वास करना है। ईश्वर प्रवञ्चक नहीं, अतः ईश्वर की बनाई हई सृष्टि भी प्रवञ्चना नहीं हो सकती। इस प्रकार ईश्वर में हमारा विश्वास सृष्टि (बाह्य संसार) को सत्य सिद्ध करता है।

उपरोक्त तर्क से स्पष्ट प्रतीत होता है कि देकार्त ईश्वर की सत्ता सृष्टि (कार्य) को सत्य मानकर सिद्ध करते हैं तथा पुनः सृष्टि (बाह्य संसार) की सत्ता ईश्वर को। सत्य मानकर सिद्ध करते है। तार्किक दृष्टि से इसमें ‘अन्योन्याश्रय’ दोष हो सकता है। परन्तु ईश्वर (कारण) को सत्य मानकर सृष्टि (कार्य) का निषेध करना असम्भव है।

 

पञ्चम मनन या मेडिटेशन : भौतिक वस्तु

आत्मा और परमात्मा को कर्त्ता सिद्ध करने के बाद देकार्त जड़ जगत् की सत्ता , भी सिद्ध करते हैं। देकार्त के अनुसार जड़ जगत् या बाह्य वस्तु की सत्ता का भी हम स्पष्टतः अनुभव करते है। जड़ तत्त्व का गुण विस्तार (Extension) है। संसार में रिक्त स्थान नहीं। सभी स्थानों में कुछ न कुछ विस्तार अवश्य ही पाया जाता है। अर्थात् सभी स्थानों में कोई न कोई बाह्य वस्तु या जड़ वस्तु अवश्य विद्यमान है| जड़ वस्तु के विस्तार की कोई सीमा नहीं अर्थात् जड जगत् असीम और अनन्त है।

देकार्त के अनुसार जड़ तत्त्व या बाह्य वस्तु का मौलिक गुण विस्तार (Extension) है। इसके अतिरिक्त हमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुणों की भी उपलब्धि होती है। देकार्त के अनुसार ये बाह्य वस्तु के मौलिक गुण नहीं। ये तो संवेदनाएँ हैं जो बाह्य वस्तु से जन्य होती है। ये संवेदनाएँ अकारण नहीं। ये संवेदनाएँ बाह्य वस्तु से उत्पन्न होती है। अतः इन संवेदनाओं के कारण रूप में हमें जड या बाह्य वस्तु की सत्ता अवश्य स्वीकार करनी होगी। परन्तु इन्द्रिय संवेदनाएँ हमें धोखा देती हैं। हम इनके धोखे में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि संवेदनाओं को बाह्य वस्तु का मौलिक गुण मान लेते हैं। वस्तुत: बाह्य वस्तु का मौलिक गुण तो बितान या विस्तार है। ये तो संवेदनाएँ है।

देकार्त के अनुसार बाह्य वस्तु का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। इन बाह्य या भौतिक वस्तुओं में दो गुण पाए जाते हैं-

१. मूल गुण (Primary quality)-इन मूल गुणों का ज्ञान पूर्णतः स्पष्ट रूप से होता है। विस्तार, आकार, गति, काल तथा संख्या मूल गुण है।

२. उप गुण (Secondary quality)-ये अस्पष्ट गुण है, अर्थात् इनका ज्ञान हमें अस्पष्ट रूप से होता है। ये संवेदनाएँ हैं। इनमें भेद यह है कि मूल गुण वस्तु के वास्तविक अविच्छेद्य धर्म हैं। इनकी उपलब्धि के लिये इन्द्रियों की अपेक्षा उपगण वस्तु के वास्तविक धर्म नहीं। ये संवेदनाएँ हैं जिनका ज्ञान हमें इन्द्रियों से होता है। अतः ये इन्द्रिय सापेक्ष हैं तथा व्यक्तिनिष्ठ हैं परन्तु मूल गुण इन्द्रिय-निरपेक्ष तथा विषयनिष्ठ हैं।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि विस्तार ही भौतिक वस्तु का सार गुण है। इससे सिद्ध है कि जहाँ भी विस्तार है वहाँ भौतिक वस्तु अवश्य है। सम्पूर्ण संसार इन्हीं सनिक वस्तओं से भरा है जिन्हें हम बाह्य वस्तु कहते हैं। संसार में कहीं शून्यता(vacuum) नहीं, क्योंकि सर्वत्र विस्तार है। यदि सर्वत्र विस्तार है तो सर्वत्र देश या दिक (Space) है| यदि देश है तो उसमें स्थित कोई वस्तु अवश्य है। पुनः विस्तार अनन्त है और अविभाज्य है, अत: अविभाज्य या अभेद्य अणु की सम्भावना नहीं। एक आवश्यक प्रश्न है कि भौतिक वस्तुओं में गति है या नहीं? देकार्त के अनुसार भौतिक वस्तु में गति है, परन्तु यह गति यान्त्रिक है। ईश्वर ने भौतिक वस्तु के निर्माण के समय ही उसमें गति भर दी है। जिसके कारण विश्व में गति है अन्यथा भौतिक वस्तु निष्क्रिय है। इनकी सक्रियता तो ईश्वरीय देन है।

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तत्त्व या द्रव्य विचार

देकार्त के अनुसार स्वतन्त्रता ही तत्त्व का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि तत्त्व वह है कि जिसका अस्तित्त्व किसी दूसरे पर आधारित न हो। इस लक्षण पर विचार करने से पता चलता है कि तत्त्व केवल ईश्वर ही हो सकता है, क्योंकि परमपिता परमेश्वर ही परम स्वतन्त्र है। ईश्वर का अस्तित्व किसी दूसरे पर आधारित नहीं। इसी कारण देकार्त द्रव्य को कारण रूप मानते हैं। कारण रूप का अर्थ है परम कारण, अर्थात् स्वयं अकारण भी ईश्वर सबका कारण है। तत्त्व का ज्ञान हमें गुणों द्वारा होता है। तत्त्व में अनेक गुण हैं, परन्तु उसमें एक परमावश्यक गुण है जिससे द्रव्य के स्वरूप की उपलब्धि सम्भव है। उस परमावश्यक गुण (Attribute) की उपलब्धि केवल उसी के माध्यम से होती है। अन्य गुण गौण (Secondary) होते हैं जो पर्याय (Modes) कहलाते हैं।

देकार्त के अनुसार द्रव्य के दो प्रकार हैं : निरपेक्ष और सापेक्ष। निरपेक्ष द्रव्य (Absolute Substance) केवल एक ईश्वर है, परन्तु सापेक्ष द्रव्य (Relative Substance) दो हैं : चित् और अचित्। इस प्रकार तत्व की संख्या तीन हुई-ईश्वर, चित् और अचित्। ईश्वर परम स्वतन्त्र तत्त्व है, अतः ईश्वर को निरपेक्ष व्य स्वीकार किया गया है; परन्तु चित् और अचित् का अस्तित्व ईश्वर पर ही निर्भर है। सापेक्ष का अर्थ ईश्वरापेक्ष है, अर्थात् चित्, अचित् का अस्तित्व ईश्वर पर आधारित है।

उपरोक्त द्रव्य की परिभाषा (स्वतन्त्रता) के अनुसार तो एक ही परम तत्त्व ईश्वर सिद्ध होता है, क्योंकि ईश्वर ही परम स्वतन्त्र, निरपेक्ष द्रव्य है। परन्तु देकार्त सापेक्ष द्रव्य (चित् और अचित्) की भी सत्ता स्वीकार करते हैं। यह कैसे सम्भव है? यदि स्वतन्त्रता ही द्रव्य की परिभाषा है तो चित् और अचित् सापेक्ष तत्त्व नहीं कहे जा सकते, क्योंकि इनका अस्तित्व ईश्वरापेक्ष है। देकार्त के सम्मुख यह बड़ी समस्या है। जिसे बाद के दार्शनिकों ने देकार्त के तत्त्व सम्बन्धी विचार में दोष बतलाया है।

रेने देकार्त के दर्शन में इसका समुचित उत्तर भी नहीं प्राप्त होता। तत्त्व का लक्षण तथा लक्षण से लक्ष्य (तत्त्व) की ओर सम्भवतः देकार्त की दृष्टि नहीं। देकार्त केवल तत्त्व की परिभाषा बतलाते हैं और तत्त्व के प्रकार भी बतलाते हैं। चित् तथा अचित तत्त्व (Mind and Matter) दोनों सापेक्ष द्रव्य है, अर्थात् ईश्वरापेक्ष हैं। यदि सापेक्ष हैं तो ये तत्त्व कैसे? देकार्त का उत्तर है कि चित् तथा अचित् आपस में निरपेक्ष है। अपनी-अपनी दृष्टि से चित् और अचित् दोनों स्वतन्त्र हैं, अर्थात् चित् का अस्तित्व अचित् पर और अचित् का अस्तित्त्व चित् पर आधारित नहीं। अतः इनमें पारस्परिक स्वतन्त्रता अवश्य है, परन्तु ये दोनों ईश्वर पर आधारित है।

देकार्त का कहना है कि चित् का गुण विचार है तथा अचित् का गुण विस्तार है। ये भी दोनों विरोधी गुण हैं। दोनों ईश्वर के द्वारा ही सृष्ट हैं। अतः इनका अस्तित्व ईश्वर पर आधारित है। देकार्त इन दोनों के सहारे विश्व की व्याख्या करते है। प्रश्न यह है कि चित् तथा अचित् तत्त्व से ईश्वर कैसे सम्बन्धित है? देकार्त का कहना है कि चित् तथा अचित् दोनों विभिन्न तत्त्वों से ईश्वर का सम्बन्ध भी अलग-अलग है। ईश्वर अचित् तत्त्व का निमित्त कारण (Efficient cause) है।

अचित् तत्त्व जड़ है, उसमें स्वयं क्रिया नहीं उत्पन्न हो सकती। किसी भी अचित् या जड़ तत्त्व का सञ्चालन किसी चेतन के द्वारा अवश्य होना चाहिए। ईश्वर ही सभी जड़ पदार्थों का सञ्चालन करता है, उनमें गति प्रदान करता है। अतः ईश्वर जड़ तत्त्व का सञ्चालक है। चित् तत्त्व से ईश्वर का सम्बन्ध एक दूसरे प्रकार का है। देकार्त का कहना है कि हम सांसारिक जीव अल्पज्ञ तथा अपूर्ण हैं। हम सर्वदा सर्वज्ञता तथा पूर्णता की ओर अग्रसर होने की प्रवृत्ति रखते हैं।

अतः इस प्रवृत्तिसे ही सिद्ध होता है कि पूर्ण तथा सर्वज्ञ ईश्वर ही हमारा लक्ष्य (Goal) है। इस प्रकार चित् तथा अचित् दोनों तत्त्वों से ईश्वर का सम्बन्ध भिन्न है। अचित् तत्त्व अर्थात संसार का ईश्वर निमित्त कारण है। चित् तत्त्व के लिए ईश्वर प्रयोजन या उद्देश्य (Teleology) है। हम अल्पज्ञ तथा सान्त है, अतः सर्वज्ञ तथा अनन्त ईश्वर ही हमारा साध्य है। मानव मस्तिष्क निरन्तर इसी सर्वज्ञता तथा पूर्णता की ओर अग्रसर होना चाहता है। अतः सान्त से अनन्त, अपूर्णता से पूर्णता की ओर अग्रसर होना ही प्रयोजन माना गया है।

 

षष्ठ मनन या मेडिटेशन : मन और शरीर

हम पहले विचार कर आये हैं कि देकार्त ईश्वर के अतिरिक्त चित् तथा अचित् और तत्त्व मानते हैं। मन का गुण है विचार (Thought) तथा शरीर का गुण (Extension) है। इस प्रकार चित् तथा अचित् के विचार तथा विस्तार दो। | मन तथा शरीर दोनों विरोधी तत्त्व है। मन सक्रिय है तथा शरीर निष्क्रिया विस्तार नहीं हो सकता तथा शरीर में विचार नहीं हो सकता। जड़ में चेतना नितान्त अभाव है तथा चेतना में जड़ता कैसी? इस प्रकार दोनों दो भिन्न तत्त्व है। प्रश्न यह है कि इन दो विभिन्न तत्वों में किसी प्रकार का सम्बन्ध है या नहीं? दोनों तत्त्व विरोधी है तो इनमें पारस्परिक सम्बन्ध नहीं हो सकता।

 

 

 

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