धर्म-दर्शन की आवश्यकता
इस अध्याय को समाप्त करने से पूर्व यहाँ संक्षेप में धर्म-दर्शन की आवश्यकता और उपादेयता पर भी विचार कर लेना प्रासंगिक होगा। पिछले खंडों में हम देख चुके हैं कि धर्म-दर्शन का प्रमुख उद्देश्य धर्म विषयक समस्त अवधारणाओं, प्रत्ययों, मान्यताओं, विश्वासों तथा सिद्धांतों का तार्किक विश्लेषण करके उनकी आलोचनात्मक परीक्षा करना है। इसका अर्थ यह है कि धर्म-दर्शन मनुष्य की धार्मिक क्रियाओं तथा उसके धार्मिक अनुभवों के निष्पक्ष मूल्यांकन के लिए तार्किक आधार खोजने का प्रयास करता है। धर्म-दर्शन के इस कार्य से यह स्पष्ट है कि मानव-जीवन में धर्म की व्यापक भूमिका के बौद्धिक आधार की दृष्टि से उसका विशेष महत्त्व है।
धर्म-दर्शन ही तार्किक आधार पर धर्म की आलोचनात्मक परीक्षा करके हमारे इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है कि क्या धर्म वास्तव में जादू-टोने और अंधविश्वास से भिन्न है। किसी भी धार्मिक मान्यता या विश्वास को स्वीकार करने तथा उसके अनुरूप आचरण करने से पूर्व हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि क्या वह सत्य और तर्कसंगत है। हमारे इस प्रश्न का संतोषप्रद उत्तर खोजने में केवल धर्म-दर्शन ही हमारी सहायता कर सकता है। यदि हम तार्किक आधार पर समुचित परीक्षा किए बिना प्रचलित धार्मिक मान्यताओं तथा विश्वासों को स्वीकार कर लेते हैं तो उनमें और तर्करहित अंधविश्वासों में कोई अंतर नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में हम किसी भी अंधविश्वास अथवा जादू-टोने को धार्मिक मान्यता या विश्वास के रूप में स्वीकार करने के लिए प्रेरित हो सकते है जो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के लिए अत्यंत घातक है। इस हानिकारक स्थिति से केवल धर्म-दर्शन ही हमें बचा सकता है।
वस्तुतः प्राचीन काल से अब तक धर्म के नाम पर मनष्यों में जो दुःखद रक्तरंजित संघर्ष होते रहे हैं और जो आज भी हो रहे हैं उनका मूल कारण यही है कि धर्म के संबंध में कोई संदेह करना, प्रश्न पूछना या तर्क करना घोर अपराध माना जाता है। धर्म के विषय में धर्मपरायण व्यक्तियों की यह तर्कहीन मनोवृत्ति मानव-समाज के लिए अत्यधिक घातक सिद्ध हुई है और यदि मनुष्य इस अंधविश्वासपूर्ण हानिकारक मनोवृत्ति से मुक्त न हो सका तो इसके फलस्वरूप उसके संपूर्ण सामाजिक जीवन के विघटित होने की आशंका है।
यह समझना कठिन नहीं है कि तर्कबुद्धि पर आधारित धर्म-दर्शन ही मनुष्य को धर्म के विषय में इस हानिकारक मनोवृत्ति से मुक्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त धर्म के स्वरूप को भलीभांति समझने तथा उसके संबंध में सत्य का अत्वेषण करने में भी केवल धर्म-दर्शन ही हमारे लिए सहायक सिद्ध हो सकता है। वस्तुतः धर्म-दर्शन के अभाव में धर्म का निष्पक्षा मुल्यांकन संभव नहीं है। इस प्रकार संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि उपर्युक्त सभी तथ्य व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए धर्म-दर्शन की आवश्यकता और उपादेयता को असंदिग्ध रूप से प्रमाणित करते हैं। यही कारण है कि वर्तमान वैज्ञानिक यग में दर्शन की अन्य शाखाओं की भाँति धर्म-दर्शन को भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
परंतु यह अत्यधिक आश्चर्य तथा खेद की बात है कि कछ धर्मपरायण विचारक धर्म-दर्शन की इस उपादेयता को अस्वीकार करते हैं और उसे धर्म के लिए अनावश्यक मानते हैं। इन विचारकों में कार्ल बार्थ, ऐमील बनर, रीनोल्ड नीबर आदि पाश्चात्य धर्मशास्त्रियों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये धर्मशास्त्री धर्म के लिए तर्कबद्धि के महत्त्व का पूर्णतः निषेध करते हैं। उनका मत है कि मनुष्य अनुभव और तर्कबुद्धि द्वारा धार्मिक सत्यों को जानने में नितांत असमर्थ है, अतः उसे इनके अन्वेषण के लिए प्रयास ही नहीं करना चाहिए। धार्मिक सत्यों के ज्ञान के लिए उसे पूर्ण रूप से ईश्वर की कृपा तथा श्रुति पर ही निर्भर रहना चाहिए। कार्ल बार्थ को धर्म संबंधी इस निषेधात्मक विचारधारा का प्रमुख प्रतिनिधि माना जा सकता है। उन्होंने ‘डॉक्ट्रिन ऑफ दि वर्ड ऑफ गॉड’ ‘दि वर्ड ऑफ गॉड ऐंड दि वर्ड ऑफ मैन’, ‘दि नॉलेज ऑफ गॉड ऐंड दि सर्विस ऑफ गॉड’ आदि अपनी पुस्तकों में इस परंपरागत निषेधात्मक विचारधारा की सविस्तार व्याख्या की है।
वे धर्म के संबंध में दर्शन और तर्कबुद्धि की भूमिका को पूर्णतः अस्वीकार करते हैं। उनका निश्चित मत है कि मनुष्य स्वभावतः पापी और पतित प्राणी है, अतः वह ईश्वरीय धार्मिक सत्यों को कभी नहीं जान सकता। उसे अपने अत्यंत सीमित अनुभव तथा अपनी नितांत भ्रष्ट तर्कबुद्धि द्वारा इन पवित्र सत्यों को जानने का गर्वपूर्ण दावा कभी नहीं करना चाहिए। अपनी पतित तर्कबुद्धि द्वारा धार्मिक मान्यताओं तथा विश्वासों की परीक्षा का प्रयास करना मनुष्य के लिए नितांत अनाधिकार चेष्टा, धृष्टता एवं पापपूर्ण अभियान के अतिरिक्त और कछ नहीं है। वह केवल ईश्वर के अनुग्रह तथा श्रुति की सहायता से ही पवित्र धार्मिक सत्यों को जान सकता है। इस प्रकार के दैवी ज्ञान के लिए अनुभव एवं तर्कबुद्धि पूर्णतः व्यर्थ हैं। जिस व्यक्ति पर स्वयं ईश्वर की कृपा होती है केवल वही यह पवित्र धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अन्य सभी व्यक्तियों को इस ज्ञान के लिए उसी पर निर्भर रहना पड़ेगा। यह दैवी ज्ञान प्रदान करने के लिए ईश्वर किस व्यक्ति पर कृपा करेगा, इस संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता: यह पूर्ण रूप से ईश्वर की अपनी इच्छा पर ही निर्भर है।
धार्मिक ज्ञान के विषय में अपनी इसी मान्यता को व्यक्त करते हुए बार्थ ने स्पष्ट कहा है कि:-“ईश्वर के वचनों को मानवीय तर्कबुद्धि द्वारा नहीं, अपितु स्वयं ईश्वर के अनुग्रह द्वारा ही समझा जा सकता है जिसका आधार केवल आस्था है और यह आस्था भी ईश्वर स्वयं अपनी इच्छानुसार किन्हीं विशेष व्यक्तियों को उपहार के रूप में प्रदान करता है। ईश्वर सभी मनष्यों को दैवी ज्ञान प्रदान नहीं करता: वह किन्हीं विशेष व्यक्तियों को यह ज्ञान प्रदान करता है” बार्थ यह मानते हैं कि ईश्वर ने उन्हें ही दैवी ज्ञान प्रदान किया है, अतः वे धर्म के विषय में जो कुछ कहते हैं उसे असंदिग्ध रूप से सत्य मानकर पूर्णतः स्वीकार किया जाना चाहिए। उसके विरुद्ध किसी प्रकार का तर्क देना अथवा कोई प्रश्न करमा केवल पापपर्ण निंदनीय अभिमान है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि बार्थ तर्कबुद्धि पर आधारित दर्शन को धर्म का विरोधी मानकर उसका पूर्ण रूप से निषेध करते हैं, अतः उनके अनुसार ‘धर्म-दर्शन’ नामक विधा का धर्म के लिए कोई महत्त्व नहीं है। बनर, नीबर आदि कुछ अन्य पाश्चात्य धर्मशास्त्री भी धर्म-दर्शन के संबंध में बार्थ की इस मान्यता का पूर्णतः समर्थन करते हैं।
परंतु मेरे विचार में धर्म तथा धर्म-दर्शन के विषय में उपर्युक्त रूढ़िवादी निषेधात्मक विचारधारा कुछ अभिमानी धर्म-प्रचारकों का स्वार्थपूर्ण दुराग्रह मात्र है जिसका कोई तर्कसंगत आधार नहीं है। हम देख चुके हैं कि बार्थ ईश्वरीय धार्मिक ज्ञान की विवेचना के प्रयास को मनुष्य का पापपूर्ण गर्व मानते हैं, किंतु अपनी धार्मिक विचारधारा को असंदिग्ध रूप से सत्य मानने का दावा करके स्वयं उन्होंने इसी निदनीय अभिमान को ही अभिव्यक्त किया है। मानवीय अनभव और तर्कबद्धि की अनिवार्य सीमाओं को ध्यान में रखते हए कोई भी विवेकशील व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि केवल उसी का मत पूर्णतः सत्य है। इस प्रकार का गर्वयुक्त दावा करना केवल अविवेकपूर्ण धृष्टता है जो बार्थ के धर्म संबंधी विचारों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। उनके इन विचारों का सतर्क अध्ययन करने से। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें इन के मिथ्या प्रमाणित हो जाने का अत्यधिक भय है. इसी कारण वे अपनी धार्मिक विचारधारा के विषय में किसी व्यक्ति द्वारा कोई प्रश्न उठाना नितांत अनचित और निंदनीय मानते हैं। परंतु जो विचारधारा निष्पक्ष तार्किक परीक्षा से इतनी अधिक भयभीत है उसके सत्य होने की कोई संभावना प्रतीत नहीं होती।
वस्तुतः बार्थ और उनके समर्थक इस आधारभूत तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि वर्तमान वैज्ञानिक यग में किसी भी विवेकशील व्यक्ति को ऐसी कोई विचारधारा मान्य नहीं हो सकती जिसकी सत्यता एवं प्रामाणिकता के संबंध में तार्किक परीक्षा का पहले से ही निषेध कर दिया गया हो। यह स्पष्ट है कि धर्म को भी इस महत्त्वपूर्ण तथ्य का अपवाद नहीं माना जा सकता। जो धर्म-प्रचारक धर्म को तार्किक विश्लेषण और आलोचनात्मक परीक्षा से बचाने का प्रयास करते हैं वे वास्तव में उसे भारी हानि पहुँचाते हैं। इसका कारण यह है कि यदि उनके मत को स्वीकार कर लिया जाए तो धर्म तथा अंधविश्वास में कोई भेद नहीं रह जाता और अंधविश्वास की भाँति वह भी हमारे लिए त्याज्य हो जाता है। धर्म को विवेक और तर्क से काट देना उसकी स्थिति को अत्यधिक दुर्बल बना देता है, क्योंकि तर्कबद्धि से असंबद्ध धर्म विवेकशील व्यक्तियों के लिए ग्राहय नहीं रह जाता।
आज का विचारशील मानव-समाज केवल ऐसे धर्म को स्वीकार कर सकता है जो कम से कम तर्कबद्धि के विरुद्ध तथा असंगतिपूर्ण न हो और जिसे बौद्धिक आधार पर जादू-टोने एवं अंधविश्वास से पृथक किया जा सके। केवल धर्म-दर्शन ही ऐसे धर्म के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकता है, बार्थ जैसे रूढ़िवादी धर्म-प्रचारकों की निषेधात्मक विचारधारा नहीं। धर्म-दर्शन ही हमें यह बता सकता है कि कौन-सा धार्मिक विश्वास-तर्कबुद्धि के अनुरूप होने के कारण हमारे लिए ग्राहय है और कौन-सा अयक्तिसंगत तथा नैतिकता के विरुद्ध होने के कारण वास्तव में त्याज्य है।
इस दृष्टि से धर्म-दर्शन अंततः धर्म के लिए सहायक सिद्ध हो सकता है। परंतु, जैसा कि हम पहले ही स्पष्ट कर चके हैं, धर्म-दर्शन का उद्देश्य धर्म का समर्थन या खंडन करना नहीं, अपित उसे भलीभाँति समझना और उसके संबंध में सत्य का अनसंधान करना ही है। जो मान्यता या विचारधारा धर्म-दर्शन के इस उद्देश्य की पूर्ति में बाधक सिद्ध होती है वह न तो धर्म के लिए सहायक हो सकती है और न ही कोई विवेकशील व्यक्ति उसे स्वीकार कर सकता है। इस प्रकार बार्थ और उनके समर्थक धर्मशास्त्रियों की उपर्युक्त निषेधात्मक विचारधारा तर्कबुद्धि के नितांत विरुद्ध होने के कारण आज के विचारशील मानव-समाज के लिए त्याज्य तथा स्वयं धर्म के लिए भी घातक है।
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