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कृषक समाज तथा भारतीय कृषक समाज की विशेषता

कृषक समाज क्या है? भारतीय कृषक समाज की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।

 

कृषक समाज की अवधारणा

 

कृषक समाज का आशय ग्रामीण समाज के उन सदस्यों से है, जिनकी रोजी-रोटी का मुख्य आधार कृषि ही है। वे पूरी तरह से कृषि पर ही निर्भर होते हैं । कृषक समाज को ग्रामीण समाज भी कहते हैं । कृषक समाज या ग्रामीण समाज की अपनी कुछ अलग विशेषतायें और संस्कृति होती हैं । कृषक समाज एक निश्चित भू-भाग में निवास करता है। समुदाय के सभी सदस्य इस भू-भाग के अन्तर्गत निवास करते हैं। उनमें आपस में। कभी-कभार कुछ मतभेद भी हो जाते हैं फिर भी इनमें एकता बनी रहती है । हेरॉल्ड एफ. ई. पी. के अनुसार ग्रामीण समुदाय परस्पर सम्बन्धित व्यक्तियों का वह समूह है, जो एक कुटुम्ब से अधिक विस्तृत है और जो कभी नियमित, कभी अनियमित रूप से निकटवर्ती गृहों में या कभी निकटवर्ती गली में निवास करते हैं । ये लोग कृषि योग्य भूमि में सामान्य रूप से खेती करते है और समतल भूमि को आपस में वितरित कर बंजर भूमि को पशुओं को चराने में प्रयुक्त करते हैं और इसकी निकटवर्ती सीमाओं तक अपने समुदाय के अधिकार का दावा करते हैं ।

इस प्रकार कृषक समाज एक ऐसा समाज है जो एक निश्चित भू-भाग में रहता  है. उनकी जीवन पद्धति में एकरूपता होती है । इनके धर्म, विश्वास, परम्परायें, व्यवसाय में भी एकरुपता होती है अगर किसी की जीवन पद्धति इससे भिन्न होती है, तो वह उस समाज से पृथक माना जाता है । कृषक समाज में अपनत्व की भावना होती है । इसी भावना के ही कारण वे एक दूसरे के हित की बात ज्यादा सोचते हैं । कृषक समाज का देवी-देवताओं तथा अलौकिक शक्तियों में बहुत विश्वास होता है । उनका अपनी मान्यताओं, परम्पराओं और रीति-रिवाजों पर बहुत ही गहरा विश्वास होता है। कोई भी अगर इन्हें बदलने की कोशिश करता है तो दे उसे समाज से अलग कर देते हैं ।

कृषि कार्य ही इनका मुख्य धंधा होता है, जो कि पीढ़ी-दर-पीढी हस्तान्तरित होता  रहता है । कृषक समुदाय आकार में सीमित होता है । उनके आपस में व्यक्तिगत समबन्ध  बहत ही घनिष्ठ होते है। उनके सम्बन्धों में दिखावटीपन नहीं होता है । जो कछ भी इनके  दिल में होता है, वही ये कहते और करते हैं । बुजुर्गों को सम्मान दिया जाता है, अगर कोई लडाई झगडा हो भी जाता है तो वे बडे बजर्गों के पास उसे ले जाते हैं । उनका  फैसला सभी को मान्य होता है। कृषक समाज एक दूसरे के सहयोग पर ही निर्भर होता है। सभी सदस्यों का कार्यों में सहयोग रहता है, तभी वे अपना कार्य ठीक तरह से सम्पन्न कर पाते हैं।

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भारत में कृषक समाज की विशेषताएं-

 

(1) कृषि पर निर्भरता –

भारत को किसानों का देश भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ की 80% जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है । भारतीय कृषक समाज का मुख्य कार्य कृषि ही है। उनकी आजीविका कषि पर ही निर्भर है । जो व्यक्ति अन्य कार्यों में लगे होते है। फिर भी फसल तैयार होते ही कृषि रूप से कृषि पर ही निर्भर है। अतः भारतीय कृषक समाज मुख्य रूप से कृषि पर ही निर्भर है।

 

(2) अत्यधिक विशाल जनसंख्या-

भारत में कृषक समाज की जनसंख्या बहुत अधिक है। भारत मे पशुओं के लिए चरागाह तथा जंगलों की कमी है। एक परिवार में प्रायः ही सात या आठ लोग पाये जाते है। उनका मानना है कि जितने अधिक हाथ होंगे उतना ही अधिक काम पूरा होगा। जनसंख्या में वृद्धि का कारण परिवार नियोजन जैसी संस्थाओं का अभाव होना भी है।

 

(3)अशिक्षा-

भारतीय कृषक समाज में अशिक्षा प्रत्येक जगह व्याप्त है । इसका कारण ग्रामों में विद्यालयों का न होना तथा उन्हें कोई शिक्षा का महत्व बताने वाला भी नहीं है । वे अपने पुराने तरीकों से ही कृषि कार्य में जुटे रहते हैं।

 

(4) नातेदारी का महत्व –

भारतीय कृषक समाज में रिश्ते-नातेदारी की महत्वपूर्ण मिका है। प्रत्येक काम-काज में इनका विशेष प्रभाव होता है । बिना नाते-रिश्तेदारों के वे कोई भी उत्सव नहीं मनाते हैं । वे सभी का मान-सम्मान करते हैं।

 

(5)परिवारों का विस्तृत होना –

भारतीय कृषक समाज में परिवार बहुत ही बड़े-बड़े होते हैं । यहाँ पर विस्तृत परिवारों का ही प्रचलन है। इसी आधार पर इनकी सामाजिक स्थिति का पता चलता है । प्रायः जाति व्यवस्था इनको आपस में जोड़ती हैं । एक जाति के लोग ही आपस में समुदाय बनाकर रहते है ।।

 

(6)जाति-व्यवस्था का पालन –

भारत कृषक समाज में जाति-पांति को बहुत माना। जाता है। व्यक्ति की समाज में क्या स्थिति है, इसका पता उसकी जाति से लगाया जाता है । प्रत्येक जाति का अपना अलग समुदाय परम्परायें मान्यताये तथा रीति-रिवाज होते है । प्रायः जाति का सम्बन्ध उनके व्यसाय से होता रहा है । जैसे- बढ़ई सिर्फ बढईगीरी ही करेगा, लहार सिर्फ लोहा ही कटेगा माली सिर्फ पेड-पौधों की देखभाल ही करेगा, इत्यादि ।

 

(7)गरीबी –

भारतीय कृषक समाज बहुत ही गरीब है वह स्वयं तो दूसरों के लिए अन्न उपजाता है लेकिन खुद ही भूखे पेट सोता है । स्वयं ही दूसरों के लिए कपास की खेती करती है लेकिन उसे ही तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं मिल पाते हैं । इसका कारण उनका अशिक्षित होना तथा ग्रामो में नई-नई कषि करने की तकनीकि, यंत्रो का अभाव है। अगर वह कृषि में नयी-नयी तकनीकियों का इस्तेमाल करेगा तो निश्चित ही उसे अधिक’ फसल प्राप्त होगी।

 

(8)सहयोग-

भारतीय कृषक समाज में सहयोग की भावना कूट-कूट कर भरी होती है। वे अपने सारे कार्यों को परस्पर सहयोग से ही निबटाते हैं। लोगों का आपस में बहुत ही निकटतम सम्बन्ध होता है। भारतीय कृषक समाज में व्यक्तिवादिता नहीं है ।

 

(9)गुटो में विभाजन –

भारतीय कृषक समाज के अपने-अपने अलग-अलग गुट बने हुए है। ये गुट जाति, टोले और गोत्र के आधार पर बने होते है । कृषक समाज में काई जन्म, मृत्यु,  विवाह तथा अन्य कोई उत्सव होते हैं तब इन गुटों का विशेष महत्व होता है। अगर एक गुट का दूसरे गुट के साथ कोई झगडा या मतभेद होता है तो वे एक दूसरे के काम-काज में शामिल नहीं होते हैं।

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(10)वैवाहिक निषेध एवं प्रतिबन्ध –

भारतीय कृषक समाज में विवाह के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध होते है, जैसे अन्तर्जातीय विवाह,  ग्राम बहिर्विवाह, सीमित  क्षेत्रीय बहिर्विवाह और गोत्र बहिर्विवाह ।अन्तर्जातीय विवाह सो पूर्णतः प्रतिबन्धित है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करना जरूरी है । ग्राम बहिर्विवाह में अपने गाँव से बाहर विवाह करना चाहिए । गोत्र-विवाह में अपने गोत्र से बाहर विवाह करना चाहिए।

 

(11)नवीनता का अभाव –

भारतीय कृषक समाज मुख्यतः अपने ही चलने में विश्वास करता है । वह अभी भी कृषि कार्य हेतु अपने पराने, ही इस्तेमाल कर रहा है । उसे या तो नये यंत्रों की जानकारी नहीं है या है कि ये अत्यधिक खर्चीले तथा समय का दुरुपयोग करने वाले हैं । कृषक समाज में नवीनता का अभाव है, अत: वह अपना जीवन-यापन पराने, करता चला आ रहा है।

 

(12)अत्यधिक स्थिरता –

भारतीय कृषक समाज में आज भी अत्यधिक देखने को मिलती है । नये-नये रोजगार, नवीन शिक्षा सुविधाओं के बावजद भी न की मान्यतायें अधिक प्रभावी हैं । वहाँ पर अभी भी उनके पुराने रीति-रिवाज मान्यतायें देखने को मिलेगी । वे आज भी नये-नये यंत्रों के इस्तेमाल से डरते हैं।

 

(13)गतिशीलता की निम्न दर –

भारतीय कृषक समाज में गतिशीलता बहुत ही कम पायी जाती है । वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में कतराते हैं । वे एक व्यवसाय  से दूसरे व्यवसाय को करने में डरते हैं । वे प्राय: उसी कार्यों को करना पसन्द करते हैं। जो उनके दादा-परदादा पीढ़ियों से चले आ रहे हैं। इनमें परिवर्तन करने का विचार भी उनके मन में नहीं आता है । अतः गतिशीलता की दर इनमें बहुत ही कम पायी जाती है।

 

(14) प्राथमिक समूहों का प्रभाव –

भारतीय कृषक समाज में उनके परिवार, जातीय पंचायतें जैसी प्राथमिक संस्थाओं का बहुत प्रभाव होता है । वे राजकीय कानून की अपेक्षा अपने पारिवारिक नियम-कानून और जातीय-पंचायतों को अधिक महत्व देते हैं । परिवार के नियमों का वे पालन करते हैं तथा उसका निर्णय ही स्वीकार करते हैं ।

 

(15) रहन-सहन का निम्न स्तर –

भारतीय कृषक समाज बहत निर्धन है । क्योंकि वह सिर्फ कृषि पर ही निर्भर होता है । जब कृषि कार्य नहीं होता है, तो वह बेकारी में । अपना समय काटता है । जो कुछ वह पैदा करता है, इस बेकारी की स्थिति में सब गवाँ देता है । इस प्रकार उसके रहने, खाने, ओढ़ने, पहनने का ढंग निम्न प्रकार का होता है ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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