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गुप्तकाल की सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशा

इस पोस्ट में हम गुप्तकाल की सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशा कैसी थी, गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्णयुग क्यों कहते हैं, गुप्त साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिये, मध्यकालीन स्थापत्य, मूर्तिकला तथा चित्रकला के बारे में आप क्या जानते हैं। आदि प्रश्नो का उत्तर देंगें।

Table of Contents

गुप्तकाल में भारतवर्ष की सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशाओं का विवेचना

(1) गुप्तकालीन सामाजिक दशा उत्तर-

गुप्तकालीन समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्णों के साथ अन्य जातियाँ भी थीं । ब्राह्मण अपने वर्ण के कार्य पठन-पाठन को छोड़कर अन्य जातियों के कार्य भी करते थे। चाण्डाल बस्ती से बाहर रहते थे तथा निम्न वृत्ति का पालन करते थे। अधिकांश लोग शाकाहारी थे । वेश-भूषा, अलंकार तथा प्रसाधन में उनकी विशेष रुचि थी। समाज में सार्वजनिक उत्सव धूमधाम से मनाये जाते थे । सवर्ण विवाह के साथ ही अन्तर्जातीय विवाह भी प्रचलित थे । धनिक वर्ग में बहुविवाह का प्रचलन था । गुप्तकाल में स्त्रियाँ अपने पति के साथ सामाजिक तथा धार्मिक कृत्यों में भाग लेती थीं।

(2) गुप्तकालीन सांस्कृतिक दशा-

गुप्तकाल सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है | इस काल में साहित्य, कला तथा विज्ञान की बहुत प्रगति हुयी । गुप्तकालीन सम्राट साहित्यानुरागी तथा उच्चकोटि के साहित्यकार थे । इस समय संस्कृत भाषा और साहित्य का बहुत विकास हुआ । हरिषेण, वत्सभट्टि जैसे प्रशस्तिकारों ने अपने लेखों में कला का सुन्दर स्वरूप प्रस्तुत किया है।

गुप्तकाल में कालिदास, शूद्रक तथा विशाखदत्त जैसे महान साहित्यकार हुए, जिन्होंने उच्चकोटि के साहित्य की रचना की । विष्णुशर्मा ने ‘पंचतंत्र’ तथा अश्वघोष ने ‘अमरकोष’ की रचना इसी काल में की । गुप्तकाल में धार्मिक ग्रन्थों की रचना हुयी । नारदस्मति तथा वृहस्पति स्मृति इसी युग में लिखी गयी । वाराहमिहिर जैसे खगोलशास्त्री तथा आर्यभट्ट जैसे गणितज्ञ इसी युग की विभूति थे ।

इस काल में कला की पर्याप्त उन्नति हुयी । इस समय के स्तूप, गुफाएँ, मन्दिर, चित्र अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं | सारनाथ का स्तूप, अजन्ता की गुफाएँ चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध हैं। गुप्तकालीन मन्दिर वास्तुकला के श्रेष्ठ नमूने हैं । इस काल में नृत्य तथा संगीत कला का स्तर बहुत ऊँचा था । गुप्तकाल भारतीय संस्कृति का स्वर्णयुग कहलाता है।

गुप्तकाल की आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक अवस्था का चित्रण कीजिये।

(1) गुप्तकालीन आर्थिक दशा-

गप्तकालीन अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी । कृषि का अत्यधिक विकास हुआ | भमि की नाप-जोख तथा सीमा-निर्धारण राजा द्वारा नियुक्त पदाधिकारी करते थे । सिंचाई की व्यवस्था सम्राट द्वारा की जाती थी । उद्योग-धन्धे तथा व्यापार उन्नत दशा में थे ।

विभिन्न शिल्पियों के निजी श्रेणी संगठनों द्वारा दैनिक उपयोग की वस्तुएँ बनायी जाती थीं। नगरों में व्यापारिक समितियाँ थीं, जो निगम कहलाती थीं । भारत का व्यापार, फारस, मिस्र, चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया आदि देशों से होता था ।

(2) गुप्तकालीन सामाजिक दशा गुप्तकालीन समाज में वर्ण-

व्यवस्था थी किन्तु जाति-बन्धन इस समय शिथिल पड़ गये थे। ब्राह्मण अपनी इच्छानुसार दूसरे वर्ग का कार्य अपना सकते थे । सार्वजनिक उत्सव धूमधाम से मनाये जाते थे । लोगों की वेषभूषा, अलंकार व प्रसाधन में गहरी रुचि थी । इस समय सवर्ण विवाह के साथ अन्तर्जातीय विवाह भी प्रचलित थे । स्त्रियों को समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त थी । पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।

(3) गुप्तकालीन धार्मिक दशा-

गुप्तकालीन सम्राट धार्मिक प्रवृत्ति के थे । वैष्णव धर्म गुप्तों का राजधर्म था । गुप्तकाल में वैष्णव, शैव, शाक्त आदि हिन्दू धर्म के प्रधान सम्प्रदाय विकसित हुए । आधुनिक हिन्दू धर्म की आधारशिला इसी काल में दृढ़ हुयी । गुप्त सम्राट सहिष्णु थे । लोगों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता थी । फलतः हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि धर्मों का विकास समान रूप से हुआ ।

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मध्यकालीन स्थापत्य, मूर्तिकला तथा चित्रकला के बारे में आप क्या जानते हैं?

गुप्तकालीन कलायें

(1) स्थापत्य कला-

गुप्तकाल में भारतीय स्थापत्य कला की अभूतपूर्व उन्नति हुई थी। स्थापत्य कला के अन्तर्गत स्तूप, गुफायें तथा मन्दिर आदि बनाये गये थे। गुप्तकालीन स्तूपों में सारनाथ का स्तूप दर्शनीय हैं । मन्दिरों में भूमरा का मन्दिर, जबलपुर का विष्णु मन्दिर, देवगढ़ का दशावतार मन्दिर आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

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(2) मूर्तिकला-

इस युग में मूर्तिकला की बहुत सराहनीय उन्नति हुई । बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्म के प्रमुख देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाई गईं । इस काल में निर्मित बद्ध की तीन प्रतिमायें आज भी अपनी भग्न अवस्था में मथुरा, सारनाथ और सुल्तान गंज में मिली हैं । गुप्तकाल की विष्णु की भी बहुत सुन्दर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । ये प्रतिमायें बड़ी सौम्य मुखाकृति वाली हैं और उनके हाव-भाव बड़े ही अद्वितीय हैं।

(3) चित्रकला-

गुप्तकालीन चित्रकला के अद्वितीय उदाहरण आज भी अजन्ता, एलोरा, बाघ, सित्तनवासल, आदि गुफाओं में सुरक्षित हैं | इन गुफाओं में चट्टानों को काट-काट कर उनकी दीवारों पर उच्च-कोटि की. चित्रकारी की गई है । गुप्तकाल की चित्रकला की एक विशेषता यह है कि इस काल की चित्रकला आध्यात्मिक भाव-भंगिमा से परिपूर्ण है । अजन्ता की चित्रकला अकेले ही गुप्तकाल को स्वर्ण युग कहलाने की अधिकारी है।

श्री बी० एन० लूनिया ने इस युग के कलात्मक चरमोत्कर्ष का उल्लेख करते हुए लिखा है, “इस युग में समस्त भारतवर्ष में कलाओं की अतुलनीय गतिविधि रही । मुद्रण-कला, वास्तुकला, चित्रकला और पकी हुई मिट्टी की मूर्तिकला ने यह पारेपक्वता, संतुलन और अभिव्यक्ति की स्वाभाविकता प्राप्त की थी, जिसकी श्रेष्ठता की तुलना आज तककोई नहीं कर सका है।”

गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्णयुग क्यों कहते हैं

गुप्तकाल को स्वर्णयुग कहने के निम्नलिखित कारण हैं

(1) महान सम्राटों का युग-

इस युग में समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त आदि वीर तथा साहसी हुए थे जिन्होंने साम्राज्य का निर्माण तथा संगठन किया था। इन सम्राटों ने विदेशियों को रणक्षेत्र में पराजित करके साम्राज्य को सुदृढ़ बनाया था और देश में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित की। समुद्रगुप्त को ‘भारत का नैपोलियन’ की उपाधि से विभूषित किया जाता है | इसी प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों को पराजित करके ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की थी। स्कन्दगुप्त ने हूणों को रणक्षेत्र में पछाड़ दिया था, जिसके महत्वपूर्ण परिणाम हुए। वस्तुतः गुप्त राजाओं का साम्राज्य परम शक्तिशाली, अति सुदृढ़ तथा भली-भाँति सुरक्षित था।

(2) राजनैतिक एकता का युग-

अशोक की मृत्यु के पश्चात् भारत की राजनैतिक एकता समाप्त हो गई थी और देश छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया था । विदेशियों ने बचीखुची एकता पर बार-बार प्रहार किये, फलतः समस्त भारत में राजनैतिक शक्ति जर्जरित हो गई थी। इस विलुप्त राजनैतिक एकता को गुप्तकाल में फिर से स्थापित किया गया ।

(3) उत्तम शासन-प्रबन्ध-

समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित शासन की स्थापना की थी । गुप्तकालीन शासन उदार तथा दयापूर्ण था। जनता को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी और वह वाह्य तथा आन्तरिक आपत्तियों से सुरक्षित थी। दण्ड-व्यवस्था कठोर न थी। राज्य की ओर से दीन-दुखियों तथा रोगियों की सहायता की पूरी व्यवस्था थी। लोगों का जीवन व सम्पत्ति सुरक्षित थी।

(4) साहित्य की उन्नति का युग-

गुप्तकाल में देश में पूर्ण शान्ति तथा सुव्यवस्था थी। अतएव साहित्य तथा दर्शन का इस काल में चूड़ान्त विकास हुआ । गुप्तकालीन सम्राट विद्या-प्रेमी तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे । इस समय संस्कृत भाषा की उन्नति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई थी और उसने राष्ट्रभाषा का रूप धारण कर लिया था। गुप्तकाल में अनेक महाकवि, नाट्यकार तथा दार्शनिकों का आविर्भाव हुआ था जिसमें कालिदास, शूद्रक, भर्तृहरि, विशाखदत्त, वत्सभट्टी, दण्डिन, भारवि, वसु-बन्धु, वाराहमिहिर अधिक प्रसिद्ध है।

इस काल में ही ‘कालिदास’ ने शकुन्तला नामक नाटक तथा मेघदूत और रघुवंश नामक काव्य-ग्रन्थों की रचना की। शूद्रक ने ‘मृच्छकटिक’ एवं विशाखदत्त ने ‘मुद्राराक्षस’ नाटक लिखे। प्रसिद्ध कोषकार अमरसिंह ने ‘अमरकोष’ की रचना की । पंचतन्त्र एवं हितोपदेश भी इसी काल की रचना हैं । वाराहमिहिर नामक ज्योतिषी ने ज्योतिष सम्बन्धी अनेक उत्कृष्ट ग्रन्थों की रचना की।

(5) धार्मिक सहिष्णुता तथा हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान-

गुप्तकाल की यह विशेषता थी कि यद्यपि गुप्त सम्राट विष्णु के उपासक थे परन्तु फिर भी वे अन्य धर्मों के पर सहिष्ण थे। उनमें धार्मिक पक्षपात न था। सभी लोग स्वतन्त्रतापूर्वक अपने-अपने धर्म का पालन कर रहे थे। गुप्त सम्राट ब्राह्मण धर्म के संरक्षक थे। उनके आश्रय में इस धर्म का खूब विकास हुआ । यज्ञों और ब्राह्मणों का महत्व बढ़ गया । वस्तुतः हिन्दू धर्म इस युग में अपनी उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच चुका था ।

(6) कला के चरम विकास का युग-

गुप्त युग भारतीय कला के चरम विकास का युग था । इस समय कला के क्षेत्र में चतुर्मुखी उन्नति हुई । कला के सभी अंगों-वास्तुकला, संगीतकला, मूर्तिकला एवं चित्रकला की उन्नति हुई । वास्तुकला के क्षेत्र में बड़े-बड़े राजप्रासादों व मंदिरों का निर्माण कराया गया । गुप्तकाल में निर्मित-नागोद भूमरा, देवगढ़, झाँसी, भितरगाँव, साँची एवं नचनाकुहार के मन्दिर अपनी कलाकारी के लिए बहुत ही प्रसिद्ध हैं | बौद्ध-धर्म के अनेक विहार, स्तूप तथा चैत्य इस काल में निर्मित हुए । इस काल में चट्टानों को काटकर कई प्रसिद्ध गुफाओं का निर्माण किया गया ।

गुप्त युग में मूर्तिकला का विकास चरम सीमा पर जा पहुँचा | बौद्ध, जैन एवं वैष्णव धर्म के पूज्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ बनाई गईं । मथुरा संग्रहालय एवं बरमिंघम संग्रहालय में रखी हुई गुप्तकालीन बुद्ध प्रतिमाएँ साक्षी हैं।

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चित्रकला की दृष्टि से गुप्तयुग सभी युगों से आगे बढ़ गया है | अजन्ता एवं बाघ के भित्ति चित्रों की प्रशंसा सभी विद्वानों ने की हैं । अजन्ता की चित्रकारी सैकड़ों वर्ष पहले की गई थी किन्तु यह आज भी वैसी ही बनी है । गुप्त सम्राट संगीतज्ञ भी थे । फलतः इनके संरक्षण में इस कला की भी अभूतपूर्व उन्नति हुई।

(7) विज्ञान की उन्नति-

इस काल में वैज्ञानिक उन्नति भी खूब हुई । वाराहमिहिर इस काल के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य थे, जिन्होंने कई वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रतिपादित किये । आर्यभट्ट इस युग के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य एवं गणितज्ञ थे जिन्होंने कई नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । उसने बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है जिससे दिन-रात होते हैं । उसने गणना में शून्य के महत्व की विवेचना की । रसायन विज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान का प्रचार-प्रसार था ।

(8) सांस्कृतिक प्रसार का युग-

गुप्तयुग में भारतीय संस्कृति का प्रसार अन्य देशों में हआ । चीन के साथ भारत का घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित हुआ । दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों में भारतीय संस्कृति का खूब प्रचार-प्रसार हुआ । यह इस युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। __(9) आर्थिक सम्पन्नता का युग-इस काल में भारत धन-धान्य से परिपूर्ण था । कृषि उद्योग-धन्धे विकसित थे । अतः प्रजा सुखी एवं सम्पन्न थी। करों का बोझ अधिक नहीं था । विदेशी व्यापार से भारत को बहुत लाभ होता था । लोगों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी थी । प्रजा खुशहाल थी ।

(9) व्यापारिक उन्नति का युग-

इस काल में सुदूर देशों से व्यापार होता रहता था। गुप्त युग में एक प्रतिनिधि मण्डल भारत से चीन भेजा गया था। इसका मुख्य उद्देश्य व्यापार था । इसके अलावा भारत का रोम, जावा, सुमात्रा, पर्सिया तथा काहिरा से भा व्यापार होता था । इस काल में मुद्राओं की व्यवस्था थी।

निष्कर्ष

उपर्युक्त कारणों से ही गुप्तकाल भारतीय इतिहास का स्वर्ण यग कहा जाता है । इस काल की समता भारतीय इतिहास का कोई दूसरा काल नहीं कर सकता, क्योंकि इस काल में जो सर्वाङ्गीण उन्नति हुई वह अन्य कालों में नहीं दिखाई पड़ती।

गुप्त साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिये।

गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण गुप्तवंश के पतन के अनेक कारण थे, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित थे :

(1) योग्य सम्राटों का अभाव-

गुप्तों के उत्कर्ष काल के सम्राट शूरवीर और प्रतापी थे । स्कन्दगुप्त के बाद जो सम्राट गद्दी पर बैठे उनमें न तो पराक्रम था और न योग्यता । सम्राटों की दुर्बलता एवं अयोग्यता का गुप्तवंश के शत्रुओं ने लाभ उठाया । राज्य में अव्यवस्था फैल गई, विदेशी आक्रमण होने लगे जिन्हें रोकने में निकम्मे गुप्त सम्राट सफल न हो सके।

(2) विस्तृत साम्राज्य-

गुप्त साम्राज्य बहुत विस्तृत था, जिसे नियन्त्रण में रखने की क्षमता एवं योग्यता सभी शासकों में न थी । स्कन्दगुप्त की मृत्यु अर्थात् 467 ई० तक यह साम्राज्य ज्यों-का-त्यों बना रहा । परन्तु इसके बाद के सभी गुप्त सम्राट अदूरदर्शी निकले । साम्राज्य में अव्यवस्था फैल गई और उसका विघटन होने लगा जिसे वे रोक न सके ।

(3) प्रान्तीय शासकों का स्वतन्त्र होना-

जब तक केन्द्र में शक्तिशाली शासक रहे, प्रान्तों तथा विषयों के अधिकारी स्वामिभक्त बने रहे परन्तु ज्यों ही केन्द्र में कमजोर राजाओं का शासन शुरू हुआ, प्रान्तों के शासकों ने उसका लाभ उठाना शुरू कर दिया । उन्होंने अपने लिए स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिये । बल्लभी, मालवा, थानेश्वर, कन्नौज आदि राज्यों का जन्म गुप्त साम्राज्य के अवशेषों पर ही हुआ था । इस प्रक्रिया का गुप्त साम्राज्य पर गहरा आघात पहुँचा ।

(4) उत्तराधिकार का निश्चित नियम न होना-

गुप्त शासकों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था । फलतः एक शासक के मरने के बाद गद्दी के लिए प्रायः संघर्ष होता था । गुप्त सम्राटों के इसी आपसी संघर्ष एवं कलह ने गुप्त साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया को तीव्र कर दिया ।

(5) सीमा की सुरक्षा की ओर ध्यान न देना-

अन्तिम गुप्त सम्राटों ने अपनी सीमा की सुरक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया । फल यह हुआ कि हूण आक्रमणकारी बिना रोकटोक के भारत में घुस आये और उन्होंने साम्राज्य को भारी क्षति पहुँचाई।

(6) आर्थिक संकट-

गुप्त सम्राटों को अनेक युद्ध करने पड़े जिसके कारण उनकी आर्थिक दशा खराब हो गई । इसका गुप्त साम्राज्य के स्थायित्व पर बुरा प्रभाव पड़ा।

(7) हूणों के आक्रमण-

गुप्त साम्राज्य पर हूणों के कई आक्रमण हुए। हण आक्रमणकारी तोरमाण एवं मिहिरकुल ने गुप्तों के अनेक इलाकों को अपने अधिकार में कर लिया । इस प्रकार हूणों के आक्रमण ने गुप्त साम्राज्य को छिन्न भिन्न कर दिया।

(8) बौद्ध-धर्म का अनुसरण-

स्कन्दगुप्त के बाद के कई गुप्त सम्राटों ने बौद्ध धर्म को ग्रहण कर लिया था । बौद्ध धर्म की अहिंसावादी नीति के प्रभाव से वे सैनिक दृष्टि से निष्क्रिय हो गये होंगे, उनकी इस नीति का भी गुप्त साम्राज्य पर बुरा प्रभाव पड़ा ।

इन सब कारणों का कुपरिणाम यह हुआ कि प्राचीन भारत का अत्यन्त शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और उसके अवशेषों पर अनेक छोटे-छोटे राज्यों का जन्म हुआ।

 

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