गौतम-बुद्ध-के-उपदेश-Gautam-buddha-ke-updesh

गौतम बुद्ध के उपदेश | Gautam buddha ke updesh

दोस्तों इस पोस्ट में हम गौतम बुद्ध के बारें जानेगें । गौतम बुद्ध के उपदेशों का वर्णन करेगें, उनके जीवन पर प्रकाश डालेगें। गौतम बुद्ध की क्या शिक्षा थी। गौतम बुद्ध के प्रथम उपदेश क्या थे , गौतम बुद्ध के सिद्दान्त क्या थे। गौतम बुद्ध के विचार कैसे थे। गौतम बुद्ध के नैतिक तथा दार्शिनिक विचार कैसे थे , गौतम बुद्ध के चार आर्य सत्य क्या थे, आदि का वर्णन हम करेगें।

बौद्ध धर्म के उपदेशों का वर्णन कीजिये तथा उसकी उन्नति के कारणों पर प्रकाश

(1980) महात्मा बुद्ध का जीवन-चरित्र-महात्मा बुद्ध का जन्म ई. पूर्व 563 के लगभग कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी वन में हुआ था। इनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के प्रधान थे। इनकी माता का नाम मायादेवी था। महात्मा बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था। बाल्यावस्था से ही सिद्धार्थ में विचारशीलता और करुणामय प्रकृति के अंकुर दिखाई देने लगे थे। सांसारिकता की ओर से अपने पुत्र को उदासीन पाकर राजा ने उनका विवाह एक शाक्य सरदार की सुन्दरी एवं गुणवती पुत्री यशोधरा से कर दिया। उससे राहुल नामक एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ। उसके जन्म पर सिद्धार्थ ने कातर स्वर में कहा, “आज मेरे बन्धन की श्रृंखला में एक कड़ी और जुड़ गई।” अतः एक रात अपनी स्त्री और नवजात शिशु को निद्रावस्था में छोड़कर राजप्रासाद को त्याग कर अपने सारथि छन्दक के साथ उन्होंने वन के लिए प्रस्थान कर दिया। इस घटना को महाभिनिष्क्रमण कहते हैं। इस समय इनकी अवस्था 30 वर्ष के लगभग थी।

सत्य की खोज में-घर त्यागने के बाद ये सत्य की खोज में इधर-उधर भटकने लगे। आरम्भ में उन्होंने तपस्वी ब्राह्मणों का शिष्यत्व ग्रहण किया, शास्त्रों तथा दर्शन का अध्ययन किया परन्तु इससे उनके चित्त को शान्ति न मिली। उन्होंने घोर तपस्या भी की और उससे भी ज्ञान न मिला। अन्त में गया के निकट नैरन्जना नदी के तट पर एक पीपल के वृक्ष के नीचे वै समाधिस्थ होकर बैठ गये। समाधि के टूटते ही उनके हृदय में एक प्रकाश सा जान पड़ा और उन्हें मानव कष्टों से मुक्ति पाने का साधन मिल गया। तभी से सिद्धार्थ को ‘बुद्ध’ कहा जाता है और उस वृक्ष को बोधिवृक्ष।

उपदेश-कार्य-ज्ञान-प्राप्ति के बाद बुद्ध ने संसार को ज्ञान का मार्ग दिखाने का निश्चय किया। सर्वप्रथम वै आधुनिक वाराणसी के निकट सारनाथ आये और अपने पुराने पाँच साथियों से मिले जो इनका साथ छोड़कर चले गये थे। पाँचों साथियों को सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश देकर उन्हें अपना शिष्य बना लिया। यह उपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ और ये पाँचों शिष्य-“पंचवर्गीय” कहलाये।

महापरिनिर्वाण-पैंतालिस वर्ष तक बुद्ध ने भारत के महलों से लेकर झोपड़ियों तक निर्वाण का अपना सन्देश दिया और इस प्रकार उपदेश करते हुए कुशीनगर नामक स्थान पर 483 ई०पू० में उनकी मृत्य हो गई। इस घटना को ‘महापरिनिर्वाण’ कहते हैं। इस समय वे 80 वर्ष के थे।

महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ महात्मा बुद्ध के उपदेश सरल एवं व्यावहारिक हैं। वे अपने उपदेश सरल भाषा में दिया करते थे।

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महात्मा बुद्ध  के नैतिक एवं दार्शनिक उपदेश

1. गौतम बुद्ध के नैतिक मार्ग क्या थे-

गौतम बुद्ध के नैतिक उपदेशों ‘चार आर्य सर्त्य’ का बड़ा महत्व है। ये चार आर्य सत्य इस प्रकार हैं

(क) दुःख- यह संसार दुःखमय है।

जीवन दुःखमय है क्योंकि इसमें वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु है, क्योंकि अपने प्रिय का वियोग तथा अप्रिय का संयोग है, अपनी इच्छाओं और वासनाओं का अपूर्ण रह जाना दुःख का कारण है। सभी इस दुःख से ग्रसित हैं।

(ख) दुःख-समुदाय-

गौतम बुद्ध ने इसे दुःख का समुदाय अर्थात् कारण भी बतलाया। उन्होंने बताया कि दुःख का मूल कारण तृष्णा है। तृष्णा का तात्पर्य है लौकिक वस्तुओं और भौतिक सुखों के प्रति स्पृहा । तृष्णा की वृद्धि से अहंकार, कलह, द्वेष, दुःख आदि उत्पन्न होता है।

(ग) दुःख-निरोध-

उन्होंने यह भी बताया कि निरोध संभव है। तृष्णा के नाश से जन्म, मरण तथा उससे सम्बन्धित सभी दुःखों का अन्त हो जाता है। सम्पूर्ण तृष्णा का अन्त हो जाने पर मनुष्य दुःखरहित हो जाता है और निर्वाण प्राप्त हो जाता है।

(घ) दुःख-निरोध का इसी संसार में है-

मार्ग-बुद्ध जी ने दुःख के निरोध या निर्वाण का मार्ग भी बतलाया। दुःख को समाप्त करने के लिए उन्होंने आचरण के आठ नियम बताये जिन्हें ‘अष्टांगिक मार्ग कहा जाता है। वे इस प्रकार हैं-

(1) सम्यक दृष्टि,

(2) सम्यक् संकल्प,

(3) सम्यक् वाक्,

(4) सम्यकर्म,

(5) सम्यक जीविका,

(6) सम्यक उद्योग,

(7) सम्यक् स्मृति,

(8) सम्यक् समाधि।

यह मध्यम मार्ग है। इस मार्ग में न तो सांसारिक भोग-विलास में लिप्त हो जाने का आदेश है और न कठोर तप करने का ही आदेश है।

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2.शील तथा आचरण की प्रधानता-

बुद्ध ने शील के दस आचरणों का पालन के लिए तथा गृहस्थों के लिए प्रथम पाँच आचरणों का पालन जरूरी बतलाया। ये दस आचरण निम्नलिखित हैं-

(1) अहिंसा,

(2) सत्य,

(3) अस्तेय (चोरी न करना),

(4) अपरिग्रह (वस्तओं का संगह न करना),

(5) ब्रह्मचर्य,

(6) नृत्य-गान का त्याग,

(7) सुगन्ध, मालादि का त्याग

(8) असमय में भोजन का त्याग,

(9) कोमल शैया का त्याग

(10)कापिली कंचन का त्याग

दार्शनिक उपदेश

 गौतम बुद्ध दार्शनिक नहीं थे। वे केवल धर्म-सुधारक थे। उन्होंने कुछ सरल नैतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जिससे मनुष्य जाति का कल्याण हो। वे ईश्वर तथा आत्मा के विषय में मौन रहे । परन्तु कुछ विद्वानों ने बुद्ध के अन्तिम शब्दों में दार्शनिक सिद्धान्तों की कल्पना की है।

(3) अनीश्वरवाद एवं अनात्मवाद-

ईश्वर में बुद्ध जी का विश्वास नहीं था। महात्मा बुद्ध आत्मा में भी विश्वास नहीं करते थे। उनका विश्वास था कि शरीर अनेक तत्वों से बना है और मृत्यु के बाद वे तत्व अलग-अलग हो जाते हैं और आत्मा नाम की कोई चीज स्थायी नहीं रह जाती।

(4) वेदों का बहिष्कार एवं जाति प्रथा का खण्डन-

महात्मा बुद्ध वेदों की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। वैदिक देवताओं में न तो उनका कोई विश्वास था और न कोई श्रद्धा थी। उन्होंने यज्ञों तथा पशु-बलि का घोर विरोध किया। जाति-व्यवस्था का भी उन्होंने विरोध किया और कहा कि यह समाज का अप्राकृतिक विभाजन है। वे ऊँच-नीच के भेदभाव को नहीं मानते थे।

(5) कर्म तथा पुनर्जन्म में विश्वास-

उनका विश्वास था कि इस जीवन में अच्छे कर्म करने से ही दूसरी बार अधिक श्रेष्ठ जीवन मिलता है। इस प्रकार प्रत्येक जीवन में व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठतम होता जायगा और अन्त में वह पुनर्जन्म के चक्कर से छूट जायेगा। बुरे कर्मों से मनुष्य का जीवन दुःखमय हो जाता है और उसका पतन होता है और अन्त में उसको निर्वाण नहीं प्राप्त होता है।

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(6) निर्वाण अन्तिम लक्ष्य-

मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है, ऐसा बुद्ध ने बतलाया है। यह निर्वाण सभी जातियों के मनुष्यों को अच्छे आचरण तथा सत्कर्मों द्वारा प्राप्त हो सकता है। इसके लिए कर्मकाण्ड आदि की आवश्यकता नहीं है। वे सब व्यर्थ हैं।

निर्वाण का अर्थ है “स्वयं का शून्य हो जाना’ । जब मनुष्य मरता है तो वह निर्वाण या शून्य अवस्था को प्राप्त होता है और मनुष्य सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है। बौद्ध धर्म के अनुसार यही व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य होना चाहिए और इसकी प्राप्ति के लिए उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए।

“छठी शताब्दी ईसा पूर्व बौद्धिक क्रान्ति का युग था।” 

 उत्तर-छठी शताब्दी (600 ई० पू० से 500 ई० पू०) न केवल भारत के इतिहास में : वरन् विश्व इतिहास में महान वैचारिक और धार्मिक क्रान्ति के नाम से विख्यात है। इस काल में अज्ञानता तथा अन्धविश्वास का अन्धकार दूर हुआ तथा धर्म और विचारों का नवीन आलोक विश्व में फैल गया। छठी शताब्दी का विश्व के इतिहास में अद्वितीय महत्त्व है। इस शताब्दी में चीन में कनफ्यूशियस, ईरान में जरथुस्त्र, यूनान में सुकरात, ” भारत में महावीर और गौतम बुद्ध जैसे महान विचारक अवतरित हुए। इन विचारकों ने विश्व की भ्रमित मानवता को ज्ञान और कल्याण की नई राह दिखाई।

छटी शताब्दी ई० पू० में भारतीय इतिहास ने एक नया मोड़ लिया। उत्तर वैदिक काल में धर्म में जो कर्मकाण्ड आ गये थे तथा यज्ञों में नरबलियाँ प्रारम्भ हो गई थीं उनसे। मानवता भ्रमित थी। पुरोहित धर्म के स्वरूप को बिगाड़ने पर तुले थे।

जैन धर्म और बौद्ध धर्म ने धार्मिक जागति उत्पन्न की। दोनों धर्मों के प्रवर्तकों ने कर्मकाण्ड, जाति-पाति तथा बलि का घोर विरोध किया। इन्होंने भिक्ष संघों की स्थापना करके धर्म के क्षेत्र में एक नया प्रयोग किया तथा भ्रम और अज्ञानता में भटकती हुई मानवता को कल्याण की नई राह दिखाई। उत्तर वैदिक काल में लिखे गये उपनिषदों ने धार्मिक कर्म-काण्डों के विरुद्ध जो आवाज उठाई वह छठी शताब्दी में आकर आवश्यकता बन गई। जैन और बौद्ध धर्म द्वारा चलाई गई भिक्षु परम्परा वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम से समानता रखती थी।

छठी शताब्दी में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन भी हुए। छठी शताब्दी में गाँवों के साथ-साथ नागरिक बस्तियों का भी विकास हुआ। व्यापार तथा उद्योगों का प्रचलन भी बहुत तीव्रता से हुआ। इस काल में कलाओं तथा शिल्पियों का खूब बिकास हुआ तथा व्यापारिक संघों की भी स्थापना हुई। आर्थिक परिवर्तन के साथ-साथ नई सामाजिक समस्याओं का भी जन्म हुआ।

नये समाज ने जिस नये धर्म की माँग की, उसे जैन और बौद्ध धर्म ने पूरा किया। इन धर्मों के प्रवर्तकों ने गृह का त्याग कर वैराग्य का मार्ग ग्रहण किया तथा मानव जीवन के परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने का उपाय खोज निकाला। इस प्रकार यह काल धार्मिक, सामाजिक एवं बौद्धिक नवजागरण का प्रतीक है। छठी शताब्दी के इस वैचारिक एवं धार्मिक क्रान्ति के काल में भारत में अनेक विचारक पैदा हुए उनके धार्मिक उपदेशों और विश्वासों को ग्रहण कर मानव अपने कल्याण की राह पर निकल पड़ा। यही कारण है कि छठी शताब्दी को बौद्धिक क्रान्ति का युग कहते हैं।

 

 

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