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अकबर का शासक के रूप में कार्यकाल क्या था

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अकबर की धार्मिक नीति का वर्णन कीजिये।

अकबर धार्मिक दृष्टि से बड़ा उदार सम्राट था। भारत के मुसलमान शासकों में वही एक ऐसा सम्राट था, जिसने इस देश के लोगों को धार्मिक स्वतन्त्रता दी और धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया । इसी कारण उसे एक राष्ट्रीय शासक की संज्ञा दी जा सकती है। उसका शासन मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति के क्षेत्र में एक नये अध्याय का श्रीगणेश करता है।

अकबर की धार्मिक उदारता के कार्य

अकबर ने अपनी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय अनेक कार्यों के द्वारा दिया । उसके उन कार्यों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:

(1) मसलमानों के शासन काल में लोगों की जबर्दस्ती मुसलमान बनाया जाता था । अकबर ने इसका विरोध किया और यह आदेश दिया कि जो लोग बलात मसलमान बनाय गये हवे पनः हिन्द बन सकते हैं।

(2) अकबर ने 156 में जजिया कर को समाप्त कर दिया । यह कर केवल हिन्दुओं को हिन्दू होने के नाते देना पडता था। इस कर को समाप्त करके उसने हिन्दू और मुसलमानों को समान स्तर पर खडा कर दिया।

(3)अकबर ने 1563 ई० में तीर्थ-स्थानों की यात्रा करने वाले कर को समाप्त कर दिया ।

(4) हिन्दुओं को नये मन्दिर बनवाने की और पुराने मन्दिरों का जीणोद्धार कराने की स्वतंत्रता मिली । इसका परिणाम यह हुआ कि अनेक सुन्दर मन्दिरों का निर्माण इस काल में हुआ।

(5) सरकारी भेदभाव समाप्त हो गया। सरकारी पदों पर नियुक्तियाँ योग्यता के आधार पर होने लगी।

अकबर की उत्तरी भारत की विजयों का वृत्तान्त

अकबर साम्राज्यवादी भावनाओं से ओतप्रोत था। उसने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए देश-विजय की नीति का अनुसरण किया। उसकी मान्यता थी कि शासक को सदैव विजय के लिए कतसंकल्प रहना चाहिए अन्यथा उसके पड़ोसी उसका सशस्त्र विरोध करेंगे। उसने चालीस वर्षों के शासन में अनेक राज्यों को अपने साम्राज्य में मलाकर सम्पूर्ण उत्तर एवं मध्य भारत का राजनैतिक एकीकरण कर दिया। उसकी उत्तर भारत की विजय निम्नवत् है|

(1) मालवा विजय-

1561 ई० में आसफखाँ तथा पीर मुहम्मद ने मालवा को जीत लिया। उनके अत्याचार से जन-असन्तोष व्याप्त हो जाने पर राजबहादुर ने मालवा पर अधिकार कर लिया। उसने 1570 ई० में अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। मालवा  मुगल शासन का अंग बन गया।

(2) गोंडवाना विजय-

1554 ई० में अकबर ने आसफ खाँ को गढ़कटगा विजय के लिए भेजा। वर्तमान मध्य प्रदेश के उत्तरी जिले इसके अन्दर शामिल थे। उसका राजा अल्पवयस्क था अतः उसकी माँ दुर्गावती ने वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए अपने प्राण त्याग |दिये। गोंडवाना मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।

(3) राजपूताना विजय-

गोंडवाना विजय के पश्चात् अकबर ने राजपूताना जीतने का निश्चय किया। इसके लिए उसने कटनीति तथा शक्ति दोनों का प्रयोग किया। कुछ राजाओं ने उससे संधि कर ली, किन्तु जिन्होंने टक्कर लेनी चाही उन्हें निर्दयतापूर्वक कुचल दिया। इसके अतिरिक्त बहुत से राजपूत शासकों से वैवाहिक सम्बंध स्थापित किये। उसकी राजपूताना विजय निम्नवत् थी-

(1) चित्तौड़ विजय-

मेवाइ दिल्ली से गुजरात के मार्ग में स्थित था। अतः अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर आक्रमण कर दुर्ग को घेर लिया। राणा उदयसिंह डर कर जंगलों में भाग गया। फिर भी राजपूत विवश नहीं हुए और उन्होंने जयमल और फत्ता के नेतृत्व में शत्रुओं का सामना किया। दोनों के वीरगति प्राप्त करते ही राजपूत निराश हो गये और मुगलों ने किले पर अधिकार कर लिया।

(2) रणथम्भौर विजय-

1568 ई० में अकबर ने अपनी सेना रणथम्भौर विजय की लिए भेजी। 1569 ई० मुगल सेना ने दुर्ग घेर लिया। एक माह के घेरे के पश्चात मालो का किले पर अधिकार हो गया। सुर्जन राय से संधि करने के बाद अकबर दिल्ली वापस लौट गया।

(3) कालिंजर विजय-

अकबर ने 1569 ई० में मजन खा काकशान के अधीन एक सेना कालिंजर भेजा। यहाँ का वर्तमान राजा रामचन्द्र ने शीघ्र आत्म-समर्पण कर दिया। अकबर ने उसे इलाहाबाद के निकट अरत का परगना जागीर में दे दिया।

(4) राजपूत राज्यों पर अधिकार-

आमेर के शासक भारमल, जोधपुर के राजा चन्द्रसेन, बीकानेर शासक रायसिंह तथा जैसलमेर के शासक रावल हरसहाय ने अकबर का प्रभुत्व स्वीकार कर वैवाहिक सबंध स्थापित किये।

(5) गुजरात विजय-

व्यापारिक दृष्टि से गुजरात महत्वपूर्ण था, अतः इसे लिए 1572 ई० मैं अपनी सेना भेजी। सामान्य प्रयल के बाद उसका अधिकार हो गया। 1573 ई० में उसे पुनः विजय प्राप्त करनी पड़ी।

(6) बिहार और बंगाल विजय-

अकबर ने 1574 ई० में बिहार के शाम पर आक्रमण कर बिहार पर अधिकार कर लिया। दाऊद ने भागकर बंगाल में। अतः 1576 ई० मे अकबर ने बंगाल जीतकर उसे भी अपने साम्राज्य में मिला था।

(7) काबुल बिजय-

1581 ई० में अकबर ने काबुल पर आक्रमण का शासक मिर्जा मुहम्मद हकीम को परास्त किया। अकबर की अधीनता स्वीकार कर पर उसे क्षमा कर दिया गया।

(8) कश्मीर विजय-

1556 ई० में अकबर ने कश्मीर पर चढ़ाई कर दी। बत शासक युसुफ खाँ ने अकबर से बिना लड़े उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

(9) सिन्ध विजय-

1590 ई० में अकबर ने सिन्ध के शासक मिर्जा जारी देगी परास्त कर सिन्ध पर अधिकार स्थापित कर लिया।

(10) उड़ीसा विजय-

1590 ई० में राजा मानसिंह ने उड़ीसा पर आक्रमण कर उसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया।

(11) बलूचिस्तान विजय-

अकबर ने 1595 ई० में मीर मासूम के नेतृत्व में सेना बलूचिस्तान भेजी। वहाँ के अफगानों को पराजित करके बलूचिस्तान का सम्पूर्ण क्षेत्र मुगल साम्राज्य में मिला लिया। इस तरह अकबर का सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार स्थापित हो गया।।

अकबर की दक्षिणी नीति की समीक्षा

सम्पूर्ण उत्तरी एवं मध्य भारत पर अधिकार स्थापित करने के बाद अकबर ने। दक्षिण की ओर ध्यान दिया। अकबर की दक्षिणी नीति साम्राज्यवादी थी। अकबर ने आक्रमण के पूर्व खानदेश, अहमदनगर, बीजापुर और गोलकण्डा के शासकों के पास संदेश भेजा कि वे बिना यद किये अधीनता स्वीकार कर लें। खानदेश के शासक ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली किन्तु अन्य शासकों ने विनम्रतापूर्वक प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया । अतः अकबर ने 1593 ई० में अब्दुर्रहीम खानखाना तथा अपने द्वितीय पुत्र मुराद के नेतृत्व में एक सेना अहमदनगर पर आक्रमण के लिए भेजी। दुर्ग का घेरा डाल दिया गया। दूसरी ओर से युद्ध का संचालन चाँद बीबी ने किया। उसने वीरतापूर्वक दुर्ग की रक्षा की। परिणामस्वरूप मुगलों को विवश हो संधि करनी पड़ी। संधि के अनुसार बरार मुगलों को दे दिया गया तथा अकबर की आधीनता में बुरहान निजामशाह के पौत्र बहादरशाह को अहमदनगर का सल्तान मान लिया गया किन्तु यह संधि अधिक समय तक नहीं चली। मुगल सेना ने पुनः अहमदनगर को घेर लिया। बीबी ने वीरतापूर्वक शत्रु का सामना किया, किन्तु षड़यंत्रकारियों ने उसकी हत्या कर दी। अन्ततः मुगलों का अहमदनगर के दुर्ग पर अधिकार हो गया। बहादुर निजामशाह जेल में डाल दिया गया। खानदेश के शासक मीरन बहादुर द्वारा अधीनता स्वीकार कर दिये जाने के कारण अकबर ने खानदेश की राजधानी बरहानपर पर विजय प्राप्त कर लिया तथा असीरगढ़ दुर्ग घेर लिया। अकबर ने चतुरता से इस पर अधिकार कार लिया। मीरन बहादुर बंदी बना कर ग्वालियर भेज दिया गया। इस प्रकार फारुकी वंश का अंत हो गया।

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अकबर ने दक्षिण के इन विजित प्रदेशों अहमदनगर, बरार तथा खानदेश को तीन सूबों में संगठित किया। शहजादा दानियाल को सूबेदार नियुक्त किया। अहमदनगर और असीरगढ़ के विजय से दक्षिण का मार्ग खुल गया। मुगलों के पग दक्षिण में दृढ़ता से जम गये और उनका दक्षिणी सल्तनत पर अधिकार करने का मार्ग प्रशस्त हो गया।

अकबर की राजपूत नीति का वर्णन

राजपूत नीति के कारण अकबर अत्यन्त दूरदर्शी शासक था। वह राजपूतों के महत्व को अच्छी तरह समझता था। वह मुगल साम्राज्य को सुदृढ़ बनाने के लिए राजपूतों का सहयोग तथा समर्थन प्राप्त करना चाहता था। फलतः उसने हिन्दुओं विशेषतया राजपूतों के प्रति उदार नीति का अवलम्बन किया। इस उदार नीति को अपनाने के निम्नलिखित कारण थे-

(1) स्थायी तथा शान्तिपूर्ण शासन की स्थापना में योग-

अकबर इस बात से भली-भाँति अवगत था कि हिन्दू प्रधान देश भारत पर राजपूतों को शत्रु बनाकर स्थायी तथा शान्तिपूर्ण शासन स्थापित करना ही कठिन नही वरन असंभव था। अतः मुगल साम्राज्य को तथा सुदृढ़ बनाने के लिए इनका सहयोग प्राप्त करना आवश्यक समझा।

(2) राजपूतों के गुण-

अकबर राजपूतों के सैनिक तथा मानसिक गुणों से भी आकृष्ट हुआ था। राजपूत बड़े ही बीर, साहसी, विकट सेनानी, ईमानदार, सत्यवादी एवं स्वामिभक्त थे। वे न मृत्यु से भयभीत होते थे और न संकटकाल में किसी प्रलोभन के कारण शत्रु से उनके मिल जाने की आशंका ही रहती दी। अतः अकबर ने ऐसी जाति का सहयोग प्राप्त करना उपयोगी समझा।

(3) विदेशीपन पर आवरण-

अकबर इस बात को समझता था कि राजपूतों का सहयोग प्राप्त कर लेने पर उसका विदेशीपन दब सकता था और उसे राष्ट्रीय सदभावना प्राप्त हो सकती थी। यह उसके वंश के लिए भी हितकर था।

(4) राजस्थान का भौगोलिक महत्व-

राजस्थान, आगरा एवं दिल्ली के इतना करीब था कि राजधानी की रक्षार्थ यह आवश्यक था कि या तो राजपतों की शक्ति का उन्मलन कर दिया जाय या उनके साथ मंत्री-सम्बन्ध स्थापित कर लिया जाय। अकबर ने राजपूतों की और मैत्री का हाथ बढ़ाया।

(5) विद्रोहियों की समस्या-

अपने राज्यारोहण के समय से ही अकबर को मुसलमान पदाधिकारियों के विद्रोहों का सामना करना पड़ा। इसके अतिरिक्त अभी तक अफगानों का विरोध भी पूरी तरह शान्त नहीं हुआ था। वे अब भी दिल्ली पर अपना अधिकार समझते थे। बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के विस्तृत भू-भागों पर उनका अब भी अधिकार था। इन सबकी शक्ति को तोड़ने के लिए अकबर न राजपता को मित्र बनाना आवश्यक समझा।

(6) अकबर का स्वभाव-

कुछ लोगों ने उसकी स्वाभाविक उदारता को भी इस नीति का एक कारण बताया है।

राजपूतों को मित्र बनाने का उपाय

इन्हीं कारणों से प्रभावित होकर अकबर ने उदार राजपूत नीति अपनाई । उसने निम्नलिखित उपायों के द्वारा राजपूतों का समर्थन प्राप्त किया

(1) वैवाहिक सम्बन्ध-

अकबर ने राजपूतों का सहयोग प्राप्त करने के लिए राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। 1562 ई० में उसने आमेर के राजा भारमल की कन्या के साथ अपना विवाह किया, जिससे शाहजादा सलीम उत्पन्न हुआ । इसी प्रकार उसने अन्य राजपूत वंशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये । इससे अकबर और राजपूतों में मित्रता स्थापित हुई।

(2) राजपूतों को उच्चतम पदों पर नियुक्त करना-

अकबर ने राजपूतों को उनकी प्रतिष्ठा एवं योग्यता के अनुसार उच्च पदों पर नियुक्त किया । भगवान दास एवं मानसिंह की वफादारी तथा कर्तव्य परायणता से वह बहुत प्रभावित हुआ था। इसी कारण उसने राजपूतों को उच्च एवं उत्तरदायित्वपूर्ण पद दिये।

(3) विजित राजपूत राज्यों को अभयदान-

यदि किसी राजपूत राजा के दुर्ग को अकबर जीत लेता था और यदि विजित राजपूत उसकी अधीनता स्वीकार कर लेता था। तो वह उसका सम्पूर्ण राज्य लौटा देता था और आन्तरिक शान्ति का उत्तरदायित्व उसी। पर सौप कर उसे वाह्य शत्रुओं के बचाव से अभयदान देता था।

(4) दुर्गों का हस्तान्तरण-

यदि साम्राज्य के हितों के दृष्टिकोण से वह किसी दुर्ग पर अपना सीधा अधिकार रखना चाहता था तो उसके बदले में वह पराजित राजपूत को। अन्य जागीर दे देता था।

(5) सामन्तों के साथ अच्छा व्यवहार-

राजपूत शासकों के अधीन सामन्तों को अपने वश में करने के लिए उन्हें स्वतन्त्र शासक मानकर अकबर ने उनसे संधि कर ली और उनको स्वतन्त्र शासक के समान सुविधाएं तथा सम्मान प्रदान किया।

(6) राजपूतों का सम्मान-

अकबर राजपूतों को सम्मान एवं प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखता था । उसने उन्हें राज-दरबार में आदर एवं सम्मान का स्थान दिया और उन्हें कभी हेय दृष्टि से नहीं देखा । उन्हें कभी यह महसूस नहीं हुआ कि एक मुसलमान राजा के सेवक है।

(7) धार्मिक स्वतंत्रता देना-

अकबर ने भारत में राष्ट्रीय राज्य की स्थापना की। अपनी सम्पूर्ण प्रजा के साथ समान व्यवहार किया। उसने ‘जजिया’ व ‘तीर्थ यात्री कर समाप्त कर दिया और सबको धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की।

राजपूत नीति के परिणाम

राजपतों के साथ अकबर ने जिस उदारता तथा मित्रता की नीति का अनुसरण किया। उसके निम्नलिखित परिणाम हुए :

(1)वेणी प्रसाद ने अकबर की राजपूत नीति को एक युगान्तकारी नीति बतलाया है।  कि इसके कारण केन्द्रीय सरकार को उच्चकोटि के शासक तथा कुछ महानतम सेनापति और कूटनीतिज्ञा प्राप्त हुए ।

(2) ईश्वरी प्रसाद इस नीति को सामाजिक एवं राजनीतिक प्रगति में सहायक स्वीकार करते हैं। अकबर ने राजपूतों व मुसलमानों के साथ समान व्यवहार किया । हिन्दू व मुसलमान एक-दूसरे के निकट आये।

(3) राजपूतों के सहयोग के फलस्वरूप मुगल सम्राटों की सैनिक शक्ति बहुत बढ़ गई और राजपूतों का विरोध समाप्त हो गया ।

(4) अकबर की राजपूत नीति के कारण मुगल वंश का प्रभाव तथा सम्मान शीघ्रता से बढ़ गया । राजपूत लोग मुगल शासन के समर्थक बन गये ।

(5) इससे आर्थिक समृद्धि बड़ी और हिन्दू व मुसलमान संस्कृतियों का समन्वय हुआ।

अकबर की राजपूत नीति का मूल उद्देश्य था, अपने राजवंश को दृढ़ करना और अपने साम्राज्य को विस्तृत करके राजनीतिक एकता की स्थापना करना । अकबर अपनी दूरदर्शिता की परिचायक है। इस नीति में सफल रहा । उसकी यह उदार राजपूत नीति उसकी राजनीतिज्ञता तथा दूरदर्शिता की परिचायक है।

राष्ट्रीय शासक के रूप में अकबर का मूल्यांकन

निम्नलिखित कारणों से अकबर को महान सम्राटों को कोटि में रखा जाता है-

(1) वह मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था,

(2) वह महान विजेता था.

(3) वह कुशल शासक एवं उच्चकोटि का कूटनीतिज्ञ था,

(4) वह प्रजा की भलाई करना। अपना सर्वप्रथम कर्त्तव्य मानता था,

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(5) उसने धर्म के आधार पर कभी भेद-भाव नहीं किया, उसने राजनीति को पूरी तरह से धर्म के नियन्त्रण से मुक्त करके राष्ट्रीय राज्य की स्थापना की

(6) वह मानवता का सच्चा मित्र था,

(7) वह एक समाज-सुधारक भी था,

(8)उसने दीन-इलाही को जन्म दिया,

(9) अत्यधिक न्यायी सम्राट था,

(10) सांस्कृतिक अभिरुचि का सम्राट था, उसने कला एवं साहित्य को प्रोत्साहन दिया ।

(11) वह एक राष्ट्र-निर्माता था।

अकबर को राष्ट्रीय सम्राट क्यों कहते हैं ?

(1) उसने इस देश को अपना देश समझा और इसकी उन्नति के लिए प्रयल किया।

(2) उसने देश में राजनैतिक एकता स्थापित की और अपने पूरे साम्राज्य में समान प्रशासकीय व्यवस्था लागू की,

(3) उसने हमारे समाज की बुराइयों को दूर करके इसे स्वस्थ रूप प्रदान करने की कोशिश की,

(4) उसने देश की आर्थिक सम्पन्नता के लिए प्रयत्न किया,

(5) उसने विभिन्न धर्मों में समन्वय करने की कोशिश की,

(6) उसने धर्मनिरपेक्ष राज्य स्थापित किया.

(7) उसने देश में सांस्कृतिक एकता स्थापित करने का प्रयत्न किया । अकबर एक ऐसे राष्ट्र की स्थापना करना चाहता था जिसमें धर्म या जाति का भेदभाव न हो और जिसमें सबको समानता प्राप्त हो ।

अकबर का इतिहास में स्थान

(1)प्रो० के० टी० शाह के अनुसार, “अकबर बादशाह मुगल बादशाहों में सबसे महान और यदि शक्तिशाली मौर्य शासकों के काल से नहीं तो कदाचित १००० वर्ष तक भारतीय शासकों में सबसे महान् था ।”

(2) लारेंस विलियम के अनुसार “अकबर का सबसे महान् कार्य एक शासक के रूप में विभिन्न राज्यों, जातियों तथा धर्मों का एकीकरण करना था।”

अकबर के शासन-प्रबंध का संक्षिप्त वर्णन

मध्यकालीन शासकों में अकबर अग्रगण्य है। उसका शासन शेरशाह तथा विदेशी प्रणालियों का एक उत्तम सम्मिश्रण था। उसने भारत, फारस तथा अरब की सन प्रणालियों की उत्तमताओं का अपूर्व संग्रह अपनी शासन व्यवस्था में किया था । प्रोफेसर सरकार के शब्दों में

“अकबर का शासन भारतीय सन्दर्भ में अरब और फारसी पद्धतियों का सम्मिश्रण था।”

 

अकबर का शासन उसके उच्च राजनैतिक सिद्धान्तों पर आधारित था जिसकी रूप रेखा इस प्रकार थी-

अकबर का शासन-प्रबन्ध

केन्द्रीय शासन-सम्राट-

अकबर एक सर्वशक्तिमान सम्राट था। शासन की संपूर्ण शक्तियों का स्रोत स्वयं अकबर धा । वह समस्त विभागों-न्याय, सेना इत्यादि का सर्वोच्च  पदाधिकारी था । सम्पूर्ण शासन की अन्तिम शक्ति उसी में निहित थी । वह सर्वोच्च न्यायाधीश और अपनी सेना का प्रधान सेनापति था। उसका शब्द ही कानून था । उसका अधिकारों की कोई सीमा न थी।

मन्त्री एवं सहायक-

राजा की सहायता के लिए अनेक मन्त्री एवं सहायक होते थे । उनकी नियुक्ति स्वयं सम्राट करता था । राजा इनकी राय के अनुसार काम करने के लिए। बाध्य नहीं था । वकील सबसे बड़ा अधिकारी था जिसे प्रधानमन्त्री कहा जा सकता है। राजस्व मन्त्री को दीवान कहते थे । मीरबख्शी सेना विभाग की देखभाल करता था । दान विभाग के अध्यक्ष को मुख्य सद्र कहते थे । मतहासिब मादक द्रव्यों की बिक्री एवं नर्तकियों पर नियन्त्रण रखता था।

अन्य पदाधिकारी-

न्याय विभाग का प्रमुख काजी था । डाक और सूचना विभाग की देखभाल दरोगा-ए-डाक चौकी करता था । खानसामा शाही महल एवं भोजनालय का प्रबंध करता था । मुद्रा विभाग का प्रधान दरोगा-ए-टकसाल होता था।

प्रान्तीय शासन-प्रबन्ध

अकबर का साम्राज्य 15 सूबों में बँटा था। उसकी प्रान्तीय शासन प्रणाली केन्द्रीय। प्रणाली जैसी ही थी। प्रान्तीय अधिकारियों पर केन्द्र का कड़ा नियन्त्रण रहता था। प्रान्त का सबसे बड़ा अफसर सिपहसालार अथवा सूबेदार होता था। वह सेना का प्रबन्ध करता। तथा केन्द्रीय आदेशानसार यद्ध और संधि करता था। वह मालगजारी वसल करने में कर्मचारियों की सहायता करता था। सबेदार के अतिरिक्त केन्द्र की ही तरह प्रत्येक प्रान्त में अन्य कर्मचारी होते थे। दीवान राजस्व विभाग का अध्यक्ष होता था, बख्शी सन्य विभाग की देखभाल करता था। न्याय विभाग का प्रधान काजी होता था एवं आमिल राजकोष तथा भूमि व्यवस्था का अधिकारी होता था।

जिले का शासन

प्रत्येक प्रान्त कई सरकारों (जिलों) में विभक्त था। सरकार का सबसे बडा पदाधिकारी फौजदार होता था। उसे सूबेदार क नियन्त्रण में रहकर कार्य करना पड़ता था। उसके पास एक छोटी सेना होती थी। सरकार में शान्ति व व्यवस्था स्थापित करना उसी का काम था। वह मालगुजारी वसूल करने में मालगुजार की सहायता करता था।

जिले का दूसरा प्रमुख पदाधिकारी मालगुजार होता था। इसका काम मालगुजारी वसूल करना था इसके अतिरिक्त वह चोर-लुटेरों को सजा देता था। उसकी सहायता के लिए अनेक कर्मचारी होते थे। इसके अतिरिक्त प्रत्येक जिले में एक काजी एवं कोतवाल होता था।

परगने का शासन

प्रत्येक सरकार कई परगनों में विभक्त थी । परगने का शासन-प्रबन्ध शिकदार आमिल, फोतदार और कानूनगो नाम के कर्मचारियों के हाथ में रहता था । परगने में लगान वसूल करने का कार्य आमिल का था । शिकदार को शान्ति की व्यवस्था करनी पड़ती थी। फोतदार परगने का खजान्ची था। परगने भर के पटवारी कानूनगो की अधीनता में कार्य करते थे। वह परगने की पैदावार, मालगुजारी आदि बातों का लेखा रखता था।

गाँव का शासन

प्रत्येक परगने में अनेक गाँव होते थे। गाँव का प्रधान कर्मचारी मुकद्दम होता था। गाँव में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करना उसी का काम था । वह लगान की वसूली भी। करता था। पटवारी एवं धानेदार गाँव के अन्य अधिकारी थे। पटवारी लगान का हिसाब-किताब रखता था एवं थानेदार गाँव में शान्ति स्थापित करता था।

भूमिकर प्रबन्ध-

अकबर ने भूमि-कर का उत्तम प्रबन्ध कराया था। खेती योग्य सम्पूर्ण भूमि को नपवाया गया और औसत पैदावार के आधार पर भूमि-कर निर्धारित  किया गया।

न्याय-व्यवस्था-

अकबर न्याय-प्रिय सम्राट था । सम्राट न्याय विभाग का प्रधान था। न्याय इस्लामी कानून के आधार पर होता था, किन्तु अकबर ने इसे अत्यधिक व्यावहारिक बनाने का प्रयल किया था । दण्ड-विधान कठोर था। हिन्दुओं के मुकदमों का निर्णय करने के लिए हिन्दू न्यायाधीश थे।

सैन्य-व्यवस्था-

अकबर ने एक विशाल सेना का संगठन किया था। उसकी सेना के पाँच भाग थे-

(1) पैदल सेना,

(2) अश्वारोही सेना,

(3) हस्ति-सेना,

(4) नौ-सेना,

(5) तोपखाना ।

स्थायी सेना के अतिरिक्त मनसबदारों की सेना होती थी । घोड़ों पर दाग लगाने एवं सैनिकों की हुलिया लिखने की प्रथा प्रचलित थी। सेना की साज-सज्जा एवं अस्त्र-शस्त्र की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था।

मनसबदारी प्रथा-

अकबर ने सेना में से जागीरदारी प्रथा को समाप्त करके मनसबदारी प्रथा चलाई । प्रत्येक अधिकारी को मनसब दिया जाता था । मनसबदार 331 प्रकार के थे । सबसे छोटा मनसब 10 का और सबसे बड़ा सात हजार का था। प्रत्येक मनसबदार को निश्चित संख्या में सिपाही एवं घोड़े रखने पड़ते थे। आवश्यकता के समय मनसबदार राजा को सैनिक सहायता देते थे। मनसबदार सरकारी कर्मचारी थ, जो राजा के नियन्त्रण में रहते थे।

गुप्तचर व्यवस्था-

सम्राट अकबर ने सुशासन के लिए गुप्तचर विभाग का भी संगठन किया था। साम्राज्य भर में गतचरों की नियुक्ति की गई, जो राज्य में होने वाली घटनाओं की सचना सम्राट तक पहुँचाते थे। इसके कारण साम्राज्य में आन्तरिक शान्ति एवं व्यवस्था करने में बड़ी सहायता पहुंची।

पुलिस व्यवस्था-

अकबर ने पलिस विभाग के संगठन की ओर भी ध्यान दिया । नगर का शान्ति एवं सुरक्षा के लिए नगर कोतवाल उत्तरदायी था। फौजदार जिला पुलिस अधिकारी था एवं गाँवों में पुलिस का काम गाँव का मुखिया करता था। गाँवों में होने वाले अपराधों के लिए गाँव का मखिया जिम्मेदार होता था।

सामाजिक सुधार-

अकबर ने कछ सामाजिक सुधार भी किये । उसने गुलामी की प्रथा एवं सती प्रथा को बन्द कर दिया । विधवा-विवाह की कानूनी मान्यता दी गई एवं लड़के-लड़कियों के विवाह की निम्नतम आय निश्चित कर दी। वेश्याओं को शहर के बाहर रहने का आदेश दिया एवं भिखमही को बंद करने का प्रयल किया।

साहित्य तथा कला की उन्नति-

अकबर ने साहित्य एवं कला में भी रुचि ली । उसके दरबार में अबुलफजल, फैजी, अब्दुर्रहीम खानखाना, जैसे साहित्यकार थे, जिन्होंने उच्चकोटि के ग्रन्थों की रचना की। अनेक ग्रन्थों का अनुवाद हुआ। अकबर न फतहपुर साकरी तथा आगरा में अनेक सन्दर इमारतों का निर्माण कराया। सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ, तानसेन अकबर के नवरत्नों में से थे।

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