भारत-में-आर्यों-का-आगमन-कब-हुआ
भारत-में-आर्यों-का-आगमन-कब-हुआ

भारत में आर्यों का आगमन कब हुआ?

आर्यों का आदि स्थान कहाँ था, इस सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है । अभी तक इस विषय पर कोई ऐसा सन्तोषजनक मत प्रस्तुत नहीं किया जा सका है, जो सर्वमान्य हो । वैसे आर्यों के आदि देश के सम्बन्ध में निम्नलिखित चार प्रमुख सिद्धान्त है-

(1) आर्यों का आदि देश यूरोप में था

कुछ विद्वानों ने भाषा-विज्ञान के आधार पर आर्यों का मूल स्थान यूरोप बतलाया है। विलियम जोन्स ने बताया कि संस्कृत के मातृ एवं पितृ शब्द पेटर, फादर, मदर, मेटर आदि शब्द एक ही अर्थ में यूरोप के विभिन्न देशों में प्रचलित हैं । इस प्रकार सर जोन्स इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इन विभिन्न भाषाओं के बोलने वाले अतीत काल में निश्चय ही एक साथ निवास करते रहे होंगे।

इसी तरह पेन्का तथा अन्य जर्मन विद्वानों ने जर्मनी को आर्यों का आदि स्थान माना है । नेहरिंग ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि आर्यों का आदि देश दक्षिणी रूस में स्टेप्स का मैदान था लेकिन ये दोनों मत ठोस प्रमाणों पर आधारित नहीं हैं।

(2) आर्यों का मूल निवास स्थान हंगरी था

इस सम्बन्ध में डॉ० गाइल्स ने यह प्रमाणित किया है कि आर्यों का आदि देश हंगरी था । डॉ० गाइल्स इण्डो-यूरोपियन भाषाओं का अध्ययन करने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आर्यों को गाय, बैल, भेड़, घोड़ा, कुत्ता, सूअर, हिरन आदि पशुओं का ज्ञान था । वे जौ और गेहूँ की खेती करते थे। ये सब वस्तुएँ समशीतोष्ण कटिबन्ध में पाये जाते हैं । डॉ० गाइल्स का कहना है कि यूरोप में हंगरी का मैदान ही ऐसा स्थान है जहाँ वे सभी पशु एवं वनस्पति उपलब्ध हैं । अतः यही क्षेत्र आर्यों का मूल स्थान होना चाहिए।

(3) आर्यों का मूल निवास स्थान मध्य एशिया था

जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने भारतीय आर्यों के धर्म-ग्रन्थ वेद और ईरानी आर्यों के धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता के अध्ययन के उपरान्त यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि आर्यों का आदि देश मध्य एशिया था क्योंकि वेदों तथा अवेस्ता में वर्णन की गई बहुत-त वस्तुएँ मध्य एशिया में उपलब्ध हुई हैं । मैक्समूलर के मत का समर्थन डॉ० ह्वीलर न भा किया है।

 

भारत में आर्यों का आगमन कब हुआ?

 

मध्य एशिया के सिद्धान्त की आलोचना

इस सिद्धान्त के आलोचकों का कहना है कि मध्य एशिया में जल का अभाव था तथा भूमि उपजाऊ नहीं थी जब कि आर्यों का निवास स्थान खेती करने योग्य भूमि पर था । दूसरे यदि मध्य एशिया आर्यों का मूल निवास स्थान होता तो मातृभूमि में कुछ आर्यों का रहना स्वाभाविक था, परन्तु यहाँ पर एक भी आर्य नहीं रह गये हैं । अतः मध्य एशिया आर्यों का आदि-स्थान नहीं हो सकता।

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(4) आर्यों का मूल निवास स्थान आर्कटिक प्रदेश था

यह मत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने प्रकट किया था । उनका कहना है कि आर्य लोग छह मास की रात्रि तथा छह मास के दिन से परिचित थे । ऋग्वेद में ऊपा की भी स्तुति की गई जो दीर्घकालीन ऊषा है । ये सभी बातें उत्तरी ध्रव प्रदेश में ही मिलती है। अतः यही स्थान आर्यों का मूल स्थान था । उन्होंने उत्तरी ध्रुव छोड़ने का कारण तुषारापात बतलाया है जिनका वर्णन वेदों में भी उपलब्ध है।

(5) आर्यों का मूल निवास-स्थान भारत था

अविनाश चन्द्र दास, स्वर्गीय गंगानाथ झा, डॉ० ए० द्विवेदी, देवकी नन्दन तथा एल० डी० कल्ला ने क्रमशः सप्त-सैन्धव, ब्रह्मावर्त्त मुल्तान के समीप तथा कश्मीर और हिमालय प्रदेश को आर्यों का आदि स्थान माना है । उन्होंने अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। आर्यों का मूल निवास स्थान

(1) आर्य ग्रन्थों से यह प्रमाणित होता है कि वे बाहर से नहीं आये । यदि वे बाहर से आये भी होंगे तो वेदों की रचना काल से इतना पहले आये थे कि वे अपने देश की स्मृति बिल्कुल खो बैठे होंगे। आर्य भारत के मूल निवासी

(2) यदि आर्य बाहर से भारत आये तो उनका साहित्य अन्य स्थानों पर भी क्यों नहीं मिलता है । इससे यह सिद्ध होता है कि वेदों की रचना भारत में हुई और आर्य भारत में बहुत पहले से रहे होंगे । आर्य लोग भारत से ही बाहर गये होंगे जो भारत में रहने वाले आर्यों की अपेक्षा कम सभ्य रहे होंगे।

(3) ऋग्वेद के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इसकी रचना ऐसे प्रदेश में हुई जहाँ वे सभी भौगोलिक बातें पाई जायँ जिनका उल्लेख इसमें मिलता है। ऐसा प्रदेश पंजाब तथा उसके समीप का प्रदेश था 

 

निष्कर्ष

बहुत पर अपेक्षा अध्ययनाय जिनमहड़प्पा की सभ्यता आर्य-सभ्यता से प्राचीन है । जब भारत की प्राचीनतम सभ्यता अनार्य थी तब तो यह निष्कर्ष निकलता है कि आर्यों का आदि देश भारत नहीं था । कछ विद्वानों का कहना है कि सम्पूर्ण भारत में संस्कृत भाषा प्रचलित नहीं थीं। दक्षिण भारत में तथा उत्तरी भारत के कुछ भाग में खासतौर से बिलोचिस्तान में द्रविण भाषा बोली जाती थी । इससे यह सिद्ध होता है कि किसी समय द्रविड़ भारत में फैले हुए थे।

द्रविण काल के पहले संस्कृत के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता । अतः यह तो निश्चित है कि आर्य बाहर से भारत में आये, परन्तु उनका मूल निवास स्थान कहाँ था; यह कहना कठिन है। वर्तमान में डॉ० गाइल्स का मत सत्य से अधिक निकट प्रतीत होता है ।

 

वैदिक सभ्यता की विशेषताएँ-

वैदिक सभ्यता की विशेषताएँ वैदिक सभ्यता को दो भागों में विभक्त किया गया है-ऋग्वैदिक कालीन वैदिक सभ्यता तथा उत्तर वैदिक सभ्यता  ऋग्वैदिक कालीन सभ्यता उस सभ्यता को कहते हैं जिसका ज्ञान केवल ऋग्वेद से होता है। शेष तीन वेदों से विदित सभ्यता को उत्तर वैदिक सभ्यता कहते हैं ।

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इस प्रकार ऋग्वैदिक सभ्यता पहले की है और उत्तर वैदिक सभ्यता बाद की । ऋग्वेद से हमें आर्यों के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है। आर्य जाति से संबंधित विभिन्न विचार-

 

राजनीतिक जीवन

राजा

वैदिक काल में शासन राजतन्त्रात्मक था। राष्ट्र का प्रधान राजा होता था । राजा का पद वंशानुगत था । दिवोदास एवं सुदास आदि राजाओं के उदाहरणों से इस कथन की पुष्टि होती है । पर ऋग्वेद के सूक्तों से यह प्रमाणित है कि स्थायी राजसत्ता के लिए लोकमत का समर्थन आवश्यक था । राजा का स्थान सर्वोच्च समझा जाता था । राजा के मुख्यतः तीन कर्त्तव्य थे । वह युद्ध के समय सेना का संगठन एवं नेतृत्व करता था। युद्ध काल में राजा प्रजा की रक्षा करता था |

वेद में उसे पूरा भत्ता’ नगरों को लूटने वाला तथा ‘गोप जनस्य’ लोगों की रक्षा करने वाला कहा गया है । शान्ति के समय शासन एवं यज्ञादि कर्मों का अनुष्ठान करता था । तीसरे, वह न्यायाधीश के कर्तव्यों का भी पालन करता था। वह अपराधियों को दण्ड देता था तथा जनता के आचरण की देखभाल करने के लिए गुप्तचरों की नियुक्ति करता था । राजा शासन के महत्वपूर्ण मामलों में सेनानी, पुरोहित तथा ग्रामणी की सहायता लेता था। आर्य कौन सी जाति होती है

 

समिति तथा सभा

राजा की सत्ता नियवित करने के लिए समिति एवं सभा नाम की दो संस्थाएँ होती थीं । ये लोकमत को प्रकट करती थीं। लुडविग (Ludwig) के मतानुसार समिति एवं सभा दो भिन्न संस्थाएँ थीं । एक सम्पूर्ण जनता की संस्था थी और दूसरी वयोवृद्ध लोगों की, जिसमें उच्चकुल के होते थे ।

ऐसा जान पड़ता है कि ‘सभा’ निर्वाचित व्यक्तियों की एक छोटी संस्था थी और समिति में हर व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार था । राजा इन संस्थाओं के निर्णय का सम्मान करता था । ये राजा की निरंकुशता पर नियन्त्रण रखती थीं।

 

सैनिक संगठन

राजा तथा योद्धा रथों पर सवार होकर युद्ध करते थे और साधारण सेना पैदल ही युद्ध करती थी । युद्ध में मुख्यतः धनुष-बाण और भाला का प्रयोग किया जाता था । स्वरक्षा के लिए योद्धा कवच, शिरस्राण और हस्तरक्षक का प्रयोग करते थे।

 

राजनैतिक संगठन

राजनैतिक व्यवस्था की मूल इकाई कुटुम्ब होता था जिसका प्रधान ‘ग्रामणी’ होता था । कई ग्रामों को मिलाकर एक ‘विश’ की रचना होती थी जिनका प्रधान विशपति होता था । कई विशों को मिलाकर ‘जन’ बनता था जिसका संचालन गोप के हाथों में होता था जो प्रायः राजा स्वयं ही होता था।

 

 

 

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