स्पिनोजा (Spinoza)[सन् १६३२ से सन् १६७७ ]
बरूथ बेनेडिक्ट डी स्पिनोजा (Baruch Benedict de Spinoza) का जन्म हॉलैण्ड (Holland) के एम्स्टरडम (Amsterdam) नामक नगर में हुआ था। इनके पिता यहूदी व्यापारी थे। अत: प्रारम्भ से ही स्पिनोजा को यहूदी धर्मग्रन्थों की शिक्षा दी गई। बचपन से ही स्पिनोजा बड़े प्रतिभाशाली थे। थोडे ही दिनों में इन्होंने यहूदी धर्म-ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया। इनक विचार प्रारम्भ से ही क्रान्तिकारी थे। इन दिनों धार्मिक शिक्षा अन्धविश्वास तथा रूढिवादी परम्परा के अनुकूल हुआ करती थी।
अतः प्रारम्भ में ही स्पिनोजा के हृदय में ऐसी शिक्षा के प्रति असन्तोष उत्पन्न हुआ। बाद में यही असन्तोष विद्रोह का रूप धारण कर लिया। स्पिनोजा धार्मिक शिक्षा को छोड़ गणित, दर्शन तथा विज्ञान की ओर उन्मुख हए। इस दिशा में उनक प्रसिद्ध गुरु वान एण्डे ने बहुत अधिक प्रोत्साहन प्रदान किया। स्पिनोजा की प्रतिभा बहमुखी थी। ये जर्मन, लैटिन, ग्रीक आदि सभी भाषाओं के महान पण्डित थे। ये डच, स्पेनिश, फ्रेञ्च, पोर्तुगीज, इटालियन आदि सभी भाषाओं के वेत्ता थे।
अनेक भाषाओं में धर्म-ग्रन्थों के अध्ययन से स्पिनोजा के हृदय में नये धार्मिक विचारों का जन्म हुआ। उन्होंने ईश्वर तथा धर्म सम्बन्धी अनेक धारणाओं में आमूल परिवर्तन करना चाहा। स्पिनोजा के विचार यहूदी तथा इसाई दोनों धर्मों के विपरीत था अतः दोनों सम्प्रदाय इनक घोर विरोधी बन गये। जनता स्पिनोजा के प्रगतिशील विचारों की कड़ी आलोचना करने लगी। स्पिनोजा पर मुकदमा चलाया गया और सन् १६५६ में उनको देश निष्कासन की सजा दी गयी। उन्हें धर्म का विरोधी करार। किया गया तथा देश के व्यक्ति को स्पिनोजा से मिलने, बात करने तथा उनकी सहायता करने की पूरी मनाही की गयी। यहां तक कि स्पिनोजा को जाति-द्रोही बतलाया गया। एक युवक ने स्पिनोजा की हत्या करने का भी प्रयास किया। उस युवक का विश्वास था कि ईश्वर विरोधी स्पिनोजा के वध से सम्भवतः ईश्वर प्रसन्न होंगे। इस घटना से स्पिनोजा के जीवन में बहुत परिवर्तन हुआ स्पिनोजा ने अपना नाम बेनेडिक्टस रख लिया तथा अपना पुराना नाम बारूच बदल दिया।
लोगों से तंग आकर उन्हें बार-बार अपना निवास स्थान भी बदलना पड़ा। अपने प्रगतिशील विचारों के कारण उन्हें जीविका-निर्वाह में भी कठिनाई होती रही। १६७३ ई. में उन्हें हिडेलवर्ग के विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद पर नियुक्त किया गया, परन्तु अपने स्वतन्त्र विचारों में ठेस लगने के कारण स्पिनोजा ने इसे स्वीकार नहीं किया। अपने विचारों के कारण स्पिनोजा सर्वथा कठिनाइयों का सामना करते रहे। उनका जीवन अत्यन्त सादा तथा ऋषिकल्प था। वे चश्मा का शीशा बनाकर अपना जीवन निर्वाह करते थे। वे आजीवन अविवाहित रहकर सांसारिक सुखों से विरक्त बने रहे। ४५ वर्ष की अवस्था में सन् १६७७ ई. में उनका अन्तकाल हुआ।
स्पिनोजा की प्रमुख कृतियाँ(Main Work of Spinoza)
१. दी प्रिन्सिपल्स ऑफ दी फिलॉसफी आफ देकार्त (The Principles of the Philosophy of Descartes, 1670)
२ दी थियोलॉजिको-पॉलिटिकल टिटाइज तथा पॉलिटिकल ट्रिटाईज (The Theological Political Treatise and the Political Treatise 1670)।
३. आचार-शास्त्र (Ethics)
४. ट्रैक्टस डी इण्टेलेक्टस एमेडेटोन (Traclus de Intellectus Emendatone Epistoale)
५. गॉड एण्ड मैना (God and Man, Treatises)
स्पिनोजा की सभी कृतियों में आचार-शास्त्र (Ethics) अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस आचार-शास्त्र में केवल नियमों का वर्णन ही नहीं, वरन् स्पिनोजा के विचारों का सारांश निहित है। इस ग्रन्थ के पाँच भाग हैं। प्रथम भाग में ईश्वर विचार है, दूसरे भाग में मानव-बद्धि की व्याख्या है, तीसरे भाग में संवेग का वर्णन है, चौथ भाग में बन्धन-निरूपण है तथा पाँचवें भाग में मोक्ष-निरूपण’ किया गया है। यह ग्रन्थ विद्वत-समाज में अत्यन्त प्रख्यात है। यह ग्रन्थ लैटिन भाषा में लिखा गया, परन्तु इसकी शैली रेखागणित की है। इस ग्रन्थ से स्पिनोजा के सभी दार्शनिक विचारों का परिचय प्राप्त होता है। ईश्वर, आत्मा, जगत् बन्धन, मोक्ष आदि सभी विषयों पर। पूर्ण प्रकाश डाला गया है।
स्पिनोजा की प्रणाली(Method of Spinoza)
देकार्त के समान स्पिनोजा भी गणित के महान प्रेमी थे। गणित-प्रणाली का प्रारम्भ देकार्त से होता है, परन्त स्पिनोजा के दर्शन में इसका चरम उत्कर्ष है। स्पिनोजा दार्शनिक समस्याओं का विश्लेषण ज्यामिति के साध्य के समान ही करते है। उनका आचार-शास्त्र (Ethics) ज्यामिति की पुस्तक प्रतीत होता है। ज्यामिति के समान ही स्पिनोजा सर्वप्रथम परिभाषा देते है, पुनः विश्लषण करते हैं तथा अन्त में निष्कर्ष ज्यामिति के निष्कर्ष के समान ही आवश्यक तथा निश्चित होत है, उनमें सन्देह का कोई स्थान नहीं।
स्पिनोजा की दार्शनिक पद्धति मुख्यतः प्रज्ञात्मक (Intuition तथा निगमनात्मक (Deduction)है। दार्शनिक सत्यों के मौलिक आधार वाक्य प्रज्ञा-जन्य है, बुद्धि जन्य नहीं। हमारी बुद्धि इन्हीं प्रज्ञात्मक (स्वानुभूति जन्य) सत्यों से निगमनात्मक रीति से निष्कर्ष निकालती है। स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर-विचार (Idea of God) ही मौलिक विचार है, आधार-वाक्य हैं। परन्त ईश्वर-विचार का सम्बन्ध हमारी आन्तरिक प्रज्ञा से हैं। अन्य सभी ईश्वर-विचार पर आवश्यक रूप से आधारित है। जिस प्रकार गणित (ज्यामिति में) आधार-वाक्यों की सत्यता मान लेने पर अन्य वाक्यों की सत्यता स्वतः निगमनात्मक रीति से सिद्ध हो जाती है।
उसी प्रकार दर्शनशास्त्र में भी ईश्वर-प्रत्यय (आधार वाक्य) को मान लेने से अन्य सभी विचार स्वयं निगमनात्मक पद्धति से निकल आते हैं। निष्कर्ष के बारे में स्पिनोजा का विचार है कि बुद्धि प्रज्ञा-जन्य वाक्यों को आधार मानकर स्वयं अपना निगमन निकाल लेती है। विचार करने की प्रक्रिया में एक विचार से दूसरा विचार उत्पन्न होता है। पहला विचार दूसरे का साधक या कारण का कार्य करता है। इस प्रकार विचारों की श्रृंखला तब तक चलती रहती है जब तक यथार्थ निष्कर्ष न प्राप्त हो जाया।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि देकार्त के समान स्पिनोजा की दार्शनिक प्रणाली भी प्रज्ञात्मक तथा निगमनात्मक है। इन दोनों ने गणित को आदर्श माना है तथा दर्शनशास्त्र में गणित के समान निश्चयात्मक निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया है। दोनों ही आधार-वाक्य को प्रज्ञा-जन्य मानते हैं। अन्य सभी वाक्यों की सत्यता आधार वाक्यों की सत्यता पर आधारित है। परन्तु दोनों दार्शनिकों के आधार-वाक्यों में थोडा अन्तर है।
देकार्त के लिए आत्मा का विचार मौलिक प्रत्यय है। मैं सोचता है इसलिये मैं हूँ यह देकार्त के दर्शन में आधार वाक्य है। जिस प्रकार दकार्त आत्मा को स्वतः सत्ता सिद्ध मानकर ही अन्य दार्शनिक निष्कर्ष निकालते है, उसी प्रकार स्पिनोजा ईश्वर की सत्ता स्वतः सिद्ध सुनिश्चित सत्य मानकर ही अन्य निश्चित ज्ञान की ओर बढ़ते हैं।
देकार्त भी ईश्वर की सत्ता स्वतः सिद्ध या सुनिश्चित मानत हैं, परन्तु आत्म-सिद्धि के आधार पर अतः दोनों दार्शनिकों के प्रारम्भ भिन्न-भिन्न है। देकार्त निस्सन्देह सत्य की प्राप्ति के लिए सन्देह को माध्यम बनाते है, निर्विवाद की प्राप्ति के लिये विवाद का सहारा लेते हैं। स्पिनोजा के दर्शन में सन्देह का कोई स्थान नहीं। देकार्त ने सत्य की प्राप्ति के लिये सन्देह का मार्ग बनाया, परन्तु स्पिनोजा ने सत्य से सत्य प्राप्ति की। स्पिनोजा का कहना है कि सत्य स्वयं सिद्ध है, स्वप्रकाश है। इसकी सिद्धि के लिये किसी साधन की आवश्यकता नहीं।
स्पिनोजा के पद्धति की समालोचना
पहले हम विचार कर आये हैं कि देकार्त के समान स्पिनोजा की पद्धति भी गणित से प्रभावित है। देकार्त ने भी इसी से प्रारम्भ किया था। स्पिनोजा के दर्शन में इस पद्धति का चरम उत्कर्ष है। स्पिनोजा की पद्धति वस्तुत: ज्यामितीय पद्धति (Geometrical method) है। यूकलिड (Euclid) की ज्यामिति के समान स्पिनोजा के नीतिशास्त्र (Ethics)में २७ परिभाषा, (Definitions), २० स्वय सिद्ध सत्य (Axioms) तथा ८ आधार-वाक्य (Postulates) है। इससे स्पष्टतः प्रतीत होता है कि स्पिनोजा का नीतिशास्त्र प्रकृत्या ज्यामिति शास्त्र ही है। स्पिनोजा की ज्यामितीयपद्धति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें व्यवस्था क्रम तथा निश्चयात्मकता है।
स्पिनोजा के पूर्व दार्शनिक विचार कविता, (Verse) आत्मकथा, (Autobiography) सम्भाषण (Dialogue) आदि में अभिव्यक्त होते थे। इन पद्धतियों में क्रम तथा व्यवहार का अभाव था। सम्भवतः इसी कारण दर्शनशास्त्र विवादों का अखाड़ा बन गया था। अत: दार्शनिक प्रणाली को सुव्यवस्थित तथा क्रमबद्ध बनाना स्पिनोजा की देन है। इस देन के अतिरिक्त स्पिनोजा की ज्यामिति प्रणाली के कुछ दोष भी बतलाए जाते हैं जो निम्नलिखित हैं-
१. आलचकों का कहना है कि दर्शनशास्त्र ज्यामिति से भिन्न है, क्योंकि दोनों के प्रतिपाद्य विषय भिन्न-भिन्न है। अतः दोनों की पद्धति एक नहीं हो सकती।
२. दर्शनशास्त्र गणित से अधिक आलोचनात्मक है। हम गणित की प्रणाली को दर्शन में निश्चयात्मक आदि के लिये अपनाते हैं, परन्तु गणित में आधार वाक्यों (Axioms)को सत्य मानकर ही निश्चित निष्कर्ष निकाल सकता है। हमें आधारवाक्यों की सत्यता की परीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं। तात्पर्य यह है कि गणित के आधार-वाक्य सत्य मान लिये जाते हैं। दर्शन-शास्त्र में मान्यताओं का कोई स्थान नहीं। दार्शनिक किसी भी मान्यता तथा पर्वाग्रह से प्रारम्भ नहीं करता। दर्शनशास्त्र में प्रत्यक पग पर कैसे और क्यों (How and Why) का प्रश्न है। परन्तु ज्यामिति आदि के आधार-वाक्यों में ये प्रश्न नहीं हो सकते, अर्थात् आधार-वाक्य स्वयं मान लिये जाते हैं।
३. ज्यामिति की पद्धति विषयगत (Objective)है तथा प्रतिपाद्य विषय बाह्य है। परन्तु दर्शन के आलोच्य विषय अध्यात्मपरक हैं। अतः आत्मा-परमात्मा आदि पर विचार करने की पद्धति त्रिभुज चतुर्भुज आदि से भिन्न है।
४. स्पिनोजा का सर्वेश्वरवाद (Pantheism) उनकी ज्यामितीय प्रणाली का ही प्रतिफल है। ज्यामिति में हम एक अनन्त, विभुरूप दिक की कल्पना करते है तथा अनेक त्रिभुज, चतुर्भुज आदि की सत्यता को इसी अनन्त दिक् का विकार मानते है। इसी प्रकार स्पिनोजा भी एक अनन्त अद्वैत रूप ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते है। तथा विश्व के नाम रूपों को ईश्वर का ही विकार मानते हैं। अतः उनका सर्वेश्वरवाद ज्यामितीय-पद्धति से सुस्पष्ट प्रभावित सिद्ध होता है।
५. स्पिनोजा का नीतिशास्त्र ज्यामिति की पुस्तक प्रतीत होता है परन्तु नीतिशास्त्र का मुख्य विषय है कि मानव का आचरण कैसा होना चाहिए (Ought) अर्थात् हम ऐसे नैतिक मूल्यों पर विचार करते है जिसका आचरण मानव के लिए। वाञ्छनीय है। ज्यामिति का इसमें कोई सम्बन्ध नहीं। पुनः नैतिक निर्णयों में इच्छा स्वातन्त्र्य (Freedom or will) का उचित स्थान है। ज्यामिति का इच्छा-स्वातन्त्र्य से कोई सम्बन्ध नहीं।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि ज्यामिति की पद्धति दर्शन से भिन्न है। स्पिनोजा ने नितान्त आवश्यक निष्कर्ष तथा तार्किक निश्चयात्मकता (Strict logical) necessity) के कारण ही ज्यामिति की पद्धति को अपनाया। यह सत्य है कि ज्यामिति तथा दर्शन की समस्याएँ भिन्न है, क्षेत्र अलग-अलग है, परन्तु दार्शनिक निष्कर्षों को गणित के समान सर्वमान्य सत्य का रूप प्रदान करने के लिए गणित का सहारा लेना आवश्यक है। इसी कारण देकार्त तथा स्पिनोजा दोनों दार्शनिकों ने गणित की प्रणाली को आदर्श बतलाया है।
द्रव्य-विचार (Substance)
स्पिनोजा के दर्शन में द्रव्य-विचार सबसे प्रमुख विचार है। स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर ही परम द्रव्य है जिससे सम्पूर्ण सृष्टि उद्भूत हा स्पिनोजा के अनुसार द्रव्य वह है जिसकी सत्ता स्वतन्त्र हो, जिसका ज्ञान किसी दूसरे ज्ञान की अपेक्षा न करता हो। तात्पर्य यह है कि द्रव्य की सत्ता तथा ज्ञान दोनों स्वतन्त्र है। दूसरे शब्दों में, द्रव्य स्वयं में है तथा उसका ज्ञान भी स्वयं उसी के माध्यम से हो सकता है, अर्थात् जिस प्रत्यय का सहायक कोई दूसरा प्रत्यय न हो। संक्षेप में, स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर ही परम द्रव्य है। वह एक अद्वैत, परम स्वतन्त्र, सवका कारण होते हुए भी स्वयं अकारण स्वयम्भू, स्वतः सिद्ध है। उपरोक्त द्रव्य की परिभाषा का विश्लेषण करने से द्रव्य (ईश्वर) के अग्रलिखित लक्षण स्पष्टतः प्रतीत होते हैं।
१. द्रव्य स्वतन्त्र है। द्रव्य को स्वतन्त्र कहने का तात्पर्य यह है कि द्रव्य सबका आधार होते हुए भी स्वयं निराधार है।
२. द्रव्य निरपेक्ष है। द्रव्य स्वयं अकारण होने के कारण सापेक्ष नहीं। जो कारण होते हैं, वे कारणापेक्ष कहे जाते हैं। अकारण होने से द्रव्य निरपेक्ष है।
३. द्रव्य अद्वितीय है। द्रव्य को एक से अधिक मानने से उसकी सत्ता सीमित होगी। अतः द्रव्य को स्वतन्त्र मानने के लिए उसे अद्वितीय स्वीकार करना आवश्यक है।
४ द्रव्य अपरिच्छिन्न तथा अपरिमित है। सार्वभौम, एक परम स्वतन्त्र होने से द्रव्य की सत्ता किसी अन्य पर आश्रित नहीं। एक होने से वह असीम है।
५. द्रव्य स्वतः सिद्ध है। स्वतः सिद्ध कहने से तात्पर्य यह है कि द्रव्य-ज्ञान का आधार द्रव्य ही है। द्रव्य ज्ञान में किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं, अर्थात द्रव्य स्वयं अपना प्रमाण है, स्व-संवेद्य है।
तात्पर्य यह है कि द्रव्य की उत्पत्ति तथा ज्ञप्ति दोनों स्वतन्त्र हैं। स्पिनोजा का द्रव्य उपनिषद् के ब्रह्म के समान निर्गण और निराकार है परन्तु एक स्वाभाविक प्रश्न है कि निर्गुण और निराकार का लक्षण कैसे सम्भव है? एक अद्वितीय रूप द्रव्य की परिभाषा कैसी? यदि द्रव्य के गुणों से द्रव्य का संकेत किया जा सकता है तो द्रव्य निर्गुण कैसे? इन विचारों से स्पष्टतः प्रतीत होता है कि स्पिनोजा का द्रव्य या ईश्वर के दो स्वरूप है। पहला स्वरूप निर्गुण है। इसके अनुसार स्पिनोजा का द्रव्य मन और वाणी के परे, एक अद्वितीय रूप है। यह स्वरूप उपनिषद् के निर्गुण ब्रह्म के समान है। इसे द्रव्य का स्वरूप लक्षण कहा जा सकता है। दूसरा स्वरूप सगुण है। स्पिनोजा का द्रव्य स्वयं निराधार होते हए भी सृष्टि का आधार है। तात्पर्य यह है द्रव्य (ईश्वर) सृष्टिकर्ता भी है। उपनिषद में सृष्टिकर्ता होना ब्रह्म का तटस्थ लक्षण माना गया उपनिषद् के समान स्पिनोजा के द्रव्य का यह दूसरा लक्षण कहा जा सकता है।
स्पिनोजा और देकार्त में तुलना
हम पहले विचार कर चुके हैं कि देकार्त के अनुसार द्रव्य वह है जो स्वतन तथा जिसका ज्ञान भी स्वतन्त्र हो। देकार्त के अनुसार द्रव्य दो प्रकार का है स्वतन्त्र तथा परतन्त्र। ईश्वर ही स्वतन्त्र द्रव्य है तथा चित् और अचित् परतन्त्र द्रव्य । स्पिनोजा के अनुसार देकार्त के इस द्रव्य विचार में दोष स्पष्ट है। देकार्त द्रव्य को स्वतन्त्र मानते हुए भी परतन्त्र द्रव्यों की सत्ता मान लेते हैं। यदि द्रव्य स्वतन्त्र है तो चित्, अचित् द्रव्य नहीं कहे जा सकते। स्पिनोजा के अनुसार द्रव्य परम स्वतन्त्र है। यह द्रव्य केवल एक अनन्त ईश्वर है। स्पष्टतः स्पिनोजा स्वतन्त्रता को ही सत्ता का स्वीकार करते हैं। यदि द्रव्य स्वतन्त्र है तो वह एक अनन्त, सार्वभौम, स्वयम्भू और स्वनियत (Self determined) ही होगा। द्रव्य की संख्या एक से अधिक नहीं हो सकती।
एक से अधिक द्रव्य की संख्या स्वीकार करना तो द्रव्य की स्वतन्त्रता का निषेध करना है। तात्पर्य यह है कि यदि द्रव्य परम स्वतन्त्र है तो वह निश्चित ही एक होगा। इस प्रकार चित और अचित ईश्वर परतन्त्र हैं, उनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं। अतः वे द्रव्य नहीं। स्पिनोजा के अनुसार सापेक्ष द्रव्य (Relative substance) तो वदतोव्याघात है। द्रव्य वही है जो स्वतन्त्र हो, अतः परतन्त्र द्रव्य की सत्ता नहीं। स्पिनोजा ने देकार्त के द्रव्य सम्बन्धी विचार को और सुदृढ़ बनाया। इसी कारण दकार्त का द्वैतवाद स्पिनोजा के अद्वैतवाद में परिणत हो जाता है।
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