धर्मनिरपेक्षीकरण क्या है तथा इसके प्रभाव

धर्मनिरपेक्षीकरण क्या हैं? तथा धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रभाव | Whats is Secularization in Hindi

 

धर्मनिरपेक्षीकरण/लौकिकीकरण का अर्थ

एक प्रक्रिया, जिसमें किसी समाज के सदस्यों के विचार और व्यवहार के निर्धारण हेतु धार्मिक मान्यताओं, प्रतीकों और संस्थाओं की अवेक्षा विद्धिसंगत तथा तार्किक दृष्टिकोँ को अधिक महत्व  प्रदान किया जाता है, लौकिककीकरण या धर्मनिरपेक्षता कहलाती है। धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा यह मानती है कि धर्मनिर्पेक्षता औद्योगिक समाज एवं संस्कृति के आधुनिकीकरण की एक अपरिहार्य विशेषता है। इस अवधारणा के पक्ष में यह कहा जाता है कि आधुनिक विज्ञान ने परम्परागत विश्वासों के महत्व को कम कर दिया है, जीवन-जगतों के बहुवादीकरण ने धार्मिक प्रतीकों के एकाधिकार पर कड़ा प्रहार किया है। नगरीकरण की प्रवृत्ति ने व्यक्तिकवादी तथा मानक शून्यतावादी जगत को जन्म दिया है, पारिवारिक जीवन के विच्छेदन ने धार्मिक संस्थाओं को कम सार्थक बना दिया है, प्रौद्योगिकी ने परिवेश पर नियंत्रण कर ईश्वर की सर्वव्यापकता के विचार को कमजोर कर दिया है। वेबर के अनुसार, धर्म निरपेक्षीकरण को समाज के विवेकीकरण के एक माप के रूप में प्रयोग किया जा रहा है।

व्यक्ति के व्यवहार में तार्किकता का समावेश उसके जीवन में परम्परागत धार्मिकता की भावना को कमजोर करता है। धार्मिकता की भावना में होने वाला यह ह्रास ही धर्मनिरपेक्षीकरण या लौकिकीकरण (Secularization) कहा जाता है। धर्मनिरपक्षीकरण का सरल अर्थ यह है कि जो कुछ पहले धार्मिक माना जाता था, वह अब वैसा नहीं माना जा रहा है। लौकिकीरण से धर्म की रुढ़िवादिता कम होती है और धार्मिक सहनशीलता बढ़ती है। भारत में यह प्रक्रिया इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत एक ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ है (धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी भी धर्म को न मानना नहीं, बल्कि ‘सर्वधर्म-समभाव’ है। यह आधुनिकता का एक लक्षण है। वर्तमान भारतीय समाज में पवित्रता एवं अपवित्रता की धारणा को धर्म से न जोड़कर व्यावहारिक जीवन, स्वास्थ्य और सफाई से जोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

धर्मनिरपेक्षीकरण को उस सामाजिक प्रक्रिया, विचार या प्रवृत्ति के रूप में समझा जा सकता है, जिसके द्वारा धार्मिक, प्रथा या परम्परागत व्यवहारों में धीरे-धीरे तार्किकता का समावेश होता जाता है। दूसरे शब्दों में, जन जीवन के व्यवहारों का उद्देश्य धार्मिक न होकर, व्यावहारिक उपयोग होता है। फलस्वरूप जो वस्तु पहले पारलौकिक समझी जाती थी, अब उसकी व्याख्या लौकिक संदर्भ में होने लगती है। स्पष्ट है कि पारलोकिक, परम्परानुगत, जैवीय अथवा धार्मिक आदर्शों की मानवीय, सामाजिक, व्यावहारिक या तार्किक व्यवख्या ही धर्मनिरपेक्षीकरण है।

डा0 एम0 एन0 श्रीनिवास के अनुसार, “धर्मनिरपेक्षीकरण (लौकिकीकरण) शब्द का अर्थ यह है कि जो कुछ पहले धार्मिक माना जाता था, वह अब वैसा नहीं माना जा रहा है। इसका तात्पर्य विभेदीकरण की एक प्रक्रिया से भी है, जो कि समाज के विभिन्न पहलुओं – आर्थिक, राजनीतिक, कानूनी एवं नैतिक – के एक दूसरे से अधिक से अधिक पृथक होने में दृष्टिगोचर होती है।”

 

 

धर्मनिरपेक्षीकरण के मुख्य तत्त्व

 

1. धार्मिकता का ह्रास – धर्मनिरपेक्षता की वृद्धि के साथ-साथ धार्मिक कट्टरता एवं संकीर्णता का ह्रास होता जाता है। इससे तार्किक व्यावहारिक स्तर पर धर्म के अनुचित प्रभाव से मुक्ति मिलती है।

2. तार्किकताधर्मनिरपेक्षीकरण का सर्वप्रमुख तत्त्व तार्किकता है, जिसके अन्तर्गत विश्वासो, विचारों, परम्परागत अन्धविश्वासों और कुसंस्कारों को तर्क की कसौटी पर परखा जाता है। परम्परागत विश्वासों तथा विचारों को आधुनिक ज्ञान और विवेक के आधार पर बदलना ही तार्किकता है। तार्किकता का बढ़ना ही धर्मनिरपेक्षीकरण है।

3.विभेदीकरण की प्रक्रिया- धर्मनिरपेक्षीकरण/लौकिकीकरण प्रक्रिया से अभिप्राय यह है कि इससे समाज में विभेदीकरण बढ़ता है। समाज के विभिन्न पहलू – आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक कानूनी, आदि एक दूसरे से पृथक होते जाते हैं। इन सभी क्षेत्रों में धर्म का प्रभाव/महत्व कम होता जाता है।

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धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रमुख कारक/कारण

प्रत्येक प्रक्रिया के कोई न कोई कारण अवश्य होते हैं। भारत में चल रही निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया के पीछे कुछ कारण रहे हैं। यद्यपि इस प्रक्रिया के सभी कारणों को स्पष्ट करना कठिन है, फिर भी अग्रलिखित कारणों को उल्लेखनीय माना गया है –

1.नगरीकरण,

2. आधुनिक शिक्षा,

3. यातायात और संचार साधनों में उन्नति-प्रगति

4. सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलन,

5. धार्मिक संगठनों का अभाव,

6. पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता।

7. भारतीय संस्कृति का धर्म निरपेक्षीकरण और

8. सरकारी पर्यटन/प्रयास।

स्पष्ट है कि भारत में धर्मनिरपेक्षीकण की प्रक्रिया में विभिन्न कारक उत्तरदायी हैं और सहायक कारकों के रूप में रहे हैं। सभी कारक इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण माने जाते हैं, न कोई कम है, न अधिक है। भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया ब्रिटिश शासनकाल में शुरू हुई तथा अनेक अन्य कारकों ने उसे सहयोग देकर उसका विकास किया।

 

 

भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण की वर्तमान स्थिति

भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रभावों को निम्नलिखित विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है –

  1. परिवार पर धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रभाव – सामाजिक जीवन में परिवार एक मुख्य संस्था है। भारत में संयुक्त परिवार व्यवस्था रही है। कृषि प्रधान देश होने के कारण खेती का कार्य परिवार के आधार पर किया जाता रहा है, जिसके लिए कई लोगों की आवश्यकता होती है। किन्तु संयुक्त परिवारों के विघटन से स्थिति बदल गई है। परिवार में मुखिया का महत्व कम हो गया है। यद्यपि परिवार में परम्परागत त्यौहार अब भी मनाये जाते हैं, लेकिन नाम मात्र के लिये। अब त्यौहारों को धार्मिक त्यौहार न मानकर, एक सामाजिक अवसर अधिक समझा जाता है। परिवार में होने वाली पूजा पाठ, कथा, साधु सन्तों में विश्वासादि सभी बातों में लौकिकता सम्बन्धी बातों का समावेश हआ है।
  2.  जातिगत संरचना पर धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रभाव – धर्मनिरपेक्षीकरण के फलस्वरूप जातिगत संरचना में बदलाव आया है। आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के महत्व के कारण ब्राहमणों की स्थिति में गिरावट आयी है। आज हरिजनों की स्थिति पहले जैसी नहीं रही है। पिछली जातियाँ राजनीतिक सत्ता का मुख्य आधार बन रही हैं। अनसचित जातियों जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में राज्य द्वारा नौकरियों, विधान-मण्डलों, मंत्रिपरिषदों, आदि में आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है। जातिगत व्यवसाय समाप्त हो गये हैं। अन्तर्जातीय विवाह मान्य हैं। इससे जन्म के आधार पर आधारित ब्राह्मणों की परम्परागत प्रभुत्ता को गहरा धक्का पहुँचा है। ब्राहमणों की धार्मिक क्रियाओं का भी लौकिकीकरण हुआ है। अब वे भी पैन्ट कमीज पहन कर धार्मिक संस्कार कराते हैं। नगरों में पूजा-पाठ, संस्कारादि बहुत कम होते हैं, अतः ब्राहमण भी परम्परागत पेशे को त्यागकर नये पेशे अपनाने लगे हैं। ।
  3. पवित्रता एवं अपवित्रता की अवधारणा में परिवर्तन – भारतीय समाज के जीवन और धर्म में पवित्रता और अपवित्रता के विचार को विशेष स्थान दिया जा रहा है। अपवित्रता को गन्दगी, मलिनता, अस्वच्छता माना जाता रहा है, जबकि पवित्रता को स्वच्छता और धार्मिकता के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। किन्तु वर्तमान समय में व्यवसाय जाति या वित्रता एवं अवित्रता के आधार पर नहीं अपनाये जाते। व्यवसाय की उच्चता और निम्नता की माप धन और सत्ता, आदि के आधार पर की जाती है, न कि शुद्धता और अशुद्धता के आधार पर। वर्तमान समय में एक पुरोहित का व्यवसाय एक अधिकारी के व्यवसाय से निम्न श्रेणी का माना जाता है। आज परम्परागत रूप से जन्म, मृत्यु और स्त्रियों के मासिक धर्म, आदि के समय किये जाने वाले अपवित्र कार्यों को अपवित्र नहीं समझा जाता । व्रत, उपवास, श्राद्ध आदि के अवसर पर भी पवित्रता एवं अपवित्रता के विचार भी समाप्त होते जा रहे। हैं। जते-मोजे पहनकर मेज-कुर्सी पर भोजन किया जाता है। वर्तमान समय की शिक्षित पलियाँ शुद्धता से अधिक स्वच्छता और स्वास्थ्य का ध्यान रखती हैं।
  1. जीवन-चक्र और संस्कारों पर प्रभाव – परम्परागत हिन्दु सामाजिक जीवन में संस्कारों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। सम्पूर्ण जीवन-चक्र में व्यक्ति को अनेक संस्कार करने का विधान है, यथा – गर्भाधान, नामकरण, कर्णवेध, मुण्डन, यज्ञोपवीत या उपनयन, समावर्तन, विवाह, अन्त्येष्ठि संस्कारादि, ये सभी संस्कार पहले अत्यधिक महत्वपूर्ण थे, किन्तु लौकिकीकरण की प्रक्रिया, इनके महत्व को कम करती जा रही है। इनमें से अनेक संस्कार तो सर्वथा विलुप्त हो गये हैं। पहले विवाह संस्कार 5-6 दिनों में सम्पन्न होता था, आज एक रात में 2-3 घण्टों में ही सम्पन्न हो जाता है। विवाह सम्बन्धी अनेक उप-संस्कार नाममात्र के लिये किये जाते हैं। विवाह एक धार्मिक संस्कार के स्थान पर एक सामाजिक उत्सव का अवसर बन गया है।
  2. धार्मिक जीवन पर धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रभाव – धर्मनिरपेक्षीकरण के फलस्वरूप धार्मिक जीवन भी प्रभावित हुआ है। पूजा-पाठ के आसन पर घण्टों बैठने के स्थान पर स्नान करते समय ही पूजा-पाठ की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है। भजन, कीर्तन, प्रवचन, हरिकथा, आदि को रेडियो अथवा टेलीविजन पर घर बैठे सुन लिया जाता है। वर्तमान समय में पण्डितों को दान-दक्षिणा देने के स्थान पर शिक्षा संस्थाओं, चिकित्सालयों, अनाथाश्रमों, आदि को प्राथमिकता देने लगे हैं। शिक्षित व्यक्ति तीर्थ स्थलों की यात्रा स्वर्ग प्राप्ति के उददेश्य से नहीं, बल्कि मनोरंजन और पर्यटन के दृष्टिकोण से करते हैं।
  3. ग्रामीण समुदाय पर धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रभाव – नगरीय समुदाय के साथ-साथ भारतीय ग्रामीण समुदाय भी धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया से प्रभावित हुआ है। ग्रामीण समुदाय में ‘जाति पंचायतों’ की शक्ति और उनका प्रभुत्व कम हो गया है तथा उनका स्थान ग्रामीणों द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों से गठित ‘ग्राम पंचायतों ने ले लिया है। ग्रामीण समुदायों में राजनीतिकरण की प्रक्रिया चल रही है। गाँवों में प्रत्येक व्यक्ति राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेने का इच्छुक हो उठा है। देश-विदेश की राजनीतिक घटनाओं और गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त करने में रुचि लेता है। सायंकालीन चौपाल पर धार्मिक-सामाजिक बातों पर चर्चा करने के साथ ही राजनीतिक बातों पर भी बहस होने लगी है। वर्तमान ग्रामीण पहले की भांति भोला-भाला. सीधा, सरल और दबू नहीं रहा है। वह अपने अधिकारों कप्रति जागरूक हो रहा है। वर्तमान ग्रामीण समुदाय के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक र धार्मिक जीवन में पर्याप्त लौकिकीकरण हो रहा है। गाँवों में अन्तर्जातीय विवाह होने। है। बाल विवाह की प्रथा समाप्त होती जा रही है। पहले की तरह आज वह रुढ़िवादी और अंधविश्वासी नहीं रहा है। धार्मिक बातों को अब वह उतना महत्व नहीं देता, जितना कि पहले देता था।
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इन्हें भी देखें-

 

 

 

 

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इतिहास/History–         

  1. प्राचीन इतिहास / Ancient History in Hindi
  2. मध्यकालीन इतिहास / Medieval History of India
  3. आधुनिक इतिहास / Modern History

 

समाजशास्त्र/Sociology

  1. समाजशास्त्र / Sociology
  2. ग्रामीण समाजशास्त्र / Rural Sociology

 

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