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सामाजिक रूपांतरण क्या है और स्वतंत्रता के बाद की रणनीति | What is Social Transformation in Hindi

 सामाजिक रूपान्तरण क्या है?

सामान्यतः किसी समाज के सामाजिक संगठन, उसकी किन्हीं संस्थाओं या सामाजिक भूमिकाओं के प्रतिमानों में या सामाजिक प्रक्रियाओं में होने वाले किसी भी तरह के परिवर्तन अथवा परिष्करण को सामाजिक रूपान्तरण कहा जाता है।

भारत में आजादी के बाद से आज तक विभिन्न बड़े-बड़े बदलाव हुए हैं, जिनके फलस्वरूप आज हमें बहुत सी चुनौतियों तथा नए-नए अवसरों का सामना करना पड़ रहा है। विचारधारात्मक स्तर पर, हमारे यहाँ सामाजिक रूपान्तरण के जिन उद्देश्यों पर विचार  किया जाता है, उनको सार रूप में क्रान्तिकारी तथा नियोजन प्रणाली की दृष्टि से उद्विकासीय कहा जाता है।

स्वतन्त्रता आन्दोलन के सूत्रधार इस तथ्य से पूर्णतः अवगत थे कि सामाजिक ढाँचा, इतिहास तथा परम्परा, जो किसी समाज की रचना की मौलिक स्थितियाँ हैं, वे सामाजिक रूपान्तरण की नीतियों, लक्ष्यों एवं विधियों को निर्धारित व परिभाषित कर सकने में किस सीमा तक समर्थ हैं। इस क्षेत्र में महात्मा गांधी अग्रदूत बने, जबकि उनके उत्तराधिकारी और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने सामाजिक रूपान्तरण के प्रति भारतीय दृष्टिकोण के संदर्भ में एक मॉडल को विकसित करने की प्रक्रिया को पूरा किया। इस मॉडल के माध्यम से यह बात मानी गई कि यदि सामाजिक परिवर्तन लोकतांत्रिक सहभागिता के माध्यम से लाया गया है, तो भारत की सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक संरचनाओं तथा मूल्यों में क्रान्तिकारी बदलाव लाना अनिवार्य है।

वास्तव में सामाजिक रूपान्तरण का जो मॉडल भारत द्वारा स्वीकार किया गया है, वह देश के संविधान में निहित है। यह उन प्रतिमानात्मक सिद्धान्तों की बुनियाद डालता है, जो कि सामाजिक परिवर्तन की सम्पूर्ण नीति या योजना पद्धति के सबसे अनिवार्य तत्व है। यह मॉडल संदीय लोकतन्त्र, स्वतन्त्रता, न्याय, जिनकी व्यापकता के सम्मुख सामाजिक व्यवस्था में होने वाली अन्य सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रियाओं को सहायक या गौण माना जा सकता है।

भारतीय संविधान के माध्यम से सामाजिक रूपान्तरण का जो चित्रण हुआ है, वह बहुलतावादी तथा संकल्पवादी है। इसमें सरकारी भूमिका इस कारण अधिक महत्वपूर्ण है। कि यह विभिन्न प्रतिमानों, नीतियों का विकास करती है। संघीय शासन तथा राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन या वितरण, सत्ता के विकेन्द्रीकरण की प्रणाली तथा राजनीतिक संस्था का प्रकृति में यह तथ्य स्पष्टतः दिखलाई पड़ता है। भारतीय माॅडल में समाजवादी एवं पूजीवादी अभिमुखनों वाली नीतियों तथा सामाजिक परिवर्तन एवं आधुनिकीकरण की शुरुआत करने वाली संस्थाओं का एक समन्वित रूप भी दृष्टिगोचर होता है।

वर्तमान समय में सामाजिक विकास तथा परिवर्तन का भारतीय प्रयत्न संसदीय लोकतंत्र की संरचना के अन्तर्गत समाजवादी रूपान्तरण की दिशा, सामाजिक परिवर्तन की नीतियों एवं योजनाओं पर स्वयं ही कुछ सीमाओं को देता है। इन नीतियों में स्पष्ट रूप से ऐसे तत्व पाए जाते है, जो कि अपने लक्ष्यों में पूँजीवादी और समाजवादी दोनों ही है। कृषि जैसे सामाजिक जीवन तथा अर्थव्यवस्था संभागों में पूँजीवादी दृष्टिकोण के अनुरूप कृषको के स्वामित्व की नीति के क्रियान्न उपरान्त समाजवादी लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु कृषि भूमि की चकबन्दी जैसे कई भूमि कार्यक्रम आयोजित किये गये। इसके फलस्वरूप भारतीय समाज में मध्यमवर्गीय की जड़ों के सुदृढ़ होने के साथ-साथ सामन्तीय समाज का प्रभुता सम्पन्न जातीय तथा पारिवारिक तत्वों को पनपने का अवसर भी प्राप्त हुआ है।

 

भारतीय गांवों में सामाजिक रूपान्तरण का विश्लेषणात्मक वर्णन

 

कृषि प्रधान भारत स्वभावतः गाँव प्रधान समाज है, जहाँ की लगभग 72 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। वर्तमान समय के ग्रामीण भारत में होने वाले परिवर्तन, जो समाज के एक काफी बड़े हिस्से में दिखाई देते हैं, सामाजिक संरचना के पुनर्निर्माण की तीव्र प्रक्रिया का सूत्रपात करते दिखाई दे रहे हैं। इसके फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन की आंशिक प्रकृति खण्डित हो रही है। गाँवों में नए मध्यम वर्ग शक्ति सम्पन्न होते जा रहे हैं। कृषि के क्षेत्र में विज्ञान और तकनीकी का उपयोग बढ़ रहा है, मूल्यों और आस्थाओं में भी परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहे हैं। देश में हुई हरित क्रान्ति न केवल उत्पादों में वृद्धि का, वरन् उत्पादन प्रक्रियाओं में नई तकनीकी के प्रयोग तथा अभिनव सामाजिक सम्बन्धों का भी प्रतीक है। ऐसी प्रगति ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था और समाज में परिवर्तनों के नवीन चरण को भी एक विशिष्ट रूप प्रदान किया है। ग्रामीण भारत में अब तकनीकी, सामाजिक सम्बन्ध तथा संस्कृति के मध्य एक नवीन अन्तःक्रिया शुरू हो गई है। इसके प्रभाव/परिणाम, सामाजिक गतिशीलता, नवीन शक्ति संरचना के उदय तथा दलित और वंचित वर्गों के शोषण तथा उत्पीड़न के रूप में देखे जाते हैं और इससे ग्रामीण समाज में नए अन्तर्विरोधों का जन्म हुआ है।

सामाजिक दृष्टि से हरित क्रान्ति मुख्यतः मध्यमवर्गीय कृषकों की ही देन है, जो पारम्परिक रूप से भूमि के साथ बहुत गहरा लगाव रखते आए हैं। उनमें कृषि कार्य को जीविकोपार्जन की एक जीवन पद्धति मानने की सहज प्रवृत्ति भी दिखाई देती रही है। उत्तर भारत में जाटों, यादवों और कुर्मियों ने, महाराष्ट्र में मराठों ने, आन्ध्र प्रदेश में राजुओं तथा रेड्डियों ने, तमिलनाडु में नाडारों एवं सन्नियारों ने और गुजरात में पटेलों, कुनबियों व पारीदारों, आदि ने हरित क्रान्ति का नेतृत्व संभाला है। यह नेतृत्व परम्परागत कृषक जातीय ढाँचे में आज भी विद्यमान है। हरित क्रान्ति परम्परागत कृषि प्रणाली से एक मौलिक भेद प्रदर्शित करती है। यद्यपि उत्पादन की पारिवारिक पद्धति आज भी चल रही है, किन्तु इस। पर नियन्त्रण की बागडोर बुजुर्गों तथा वरिष्ठ लोगों के हाथ से निकलकर युवा लोगों के हाथों में चली गई है।

 नवीन कृषि प्रणाली में कृषकों के लिए बैंको, राजस्व अधिकारियों, पुलिस प्रशासन, बाजार व्यवस्था में सम्बद्ध निकायों तथा प्रखण्ड विकास प्रशासन के साथ सम्पर्क बनाये रखने की दृष्टि से कुशलता प्राप्त करना आवश्यक हो गया है। कृषकों के लिए अब खेतों की सिंचाई, मृदा परीक्षण, बीजों एवं उर्वरकों के प्रयोग की दृष्टि से विशेषज्ञों और तकनीशियनों की राय जानना भी जरूरी हो गया है। किसानों की अपेक्षाकृत अधिक पुरानी पीढ़ी के द्वारा सविधाजनक तरीके से कर पाना असम्भव कार्य प्रतीत होता है। किन्तु महाविद्यालय/कॉलेजों में शिक्षित या इनसे जुड़े युवा पीढ़ी के लोग इस भूमिका को निभाने के लिए अधिकाधिक तत्पर दिखाई देते हैं। पंचायती चुनावों तथा ग्रामीण चुनावी राजनीति में भी यह परिवर्तन दिखाई दे रहा है।

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ग्रामीण जनों की मूल्य व्यवस्था तथा विचारधारा में बदलाव आना इसी प्रकार की एक अन्य प्रक्रिया है, जो स्वाधीनता, जातिवाद, सम्प्रदायवाद की प्रवृत्तियों को उभारती और प्रोत्साहन देती है। फलस्वरूप कृषक वर्गों तथा ग्रामीण निर्धनों के मध्य पारस्परिक संघर्ष और शोषण पर आधारित सम्बन्ध बन गये हैं। इसका परिणाम कार्य, प्रस्थिति एवं महिलाओं समका से सम्बन्धित नकारात्मक धारणाओं के रूप में दिखाई पड़ता है। पुरुष वर्ग के वर्चस्ववाद का पुनरोदय, दहेज प्रथा में अतिशय बढ़ोत्तरी तथा सांस्कृतिक रूढ़िवादिता सांस्कृतिक क्षेत्र में दृष्टिगोचर होने के दुष्परिणाम हैं। स्पष्ट है कि ग्रामीण समाज के सम्पूर्ण ढांचे में सामाजिक परिवर्तन ने कुछ सीमा तक संघर्ष तथा तादात्मयहीनता की स्थितियों को जन्म दिया है।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त प्रथम दो दशकों के दौरान भारतीय समाज  में होने वाले परिवर्तन भी अतीत के परिवर्तनों की भांति आंशिक थे, सर्वतोमुखी नहीं। किन्तु  इन दोनों में कुछ अन्तर भी थे। वास्तव में परवर्ती सामाजिक रूपान्तरण की सम्भावना एवं परिधि पूर्ववर्ती सामाजिक रूपान्तरण की तुलना में बहुत अधिक रह गयी थी। इसने एक वास्तविक संरचनात्मक आयाम को प्राप्त कर लिया था, जिसकी परिधि में सम्पूर्ण समाज आ गया था। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या रेडियो एवं टेलीविजन, समाचार पत्र-पत्रिकाएं, समाज में युवा पीढी के प्रतिनिधियों की राजनीतिक सहभागिता की अधिक स्पष्ट अभिव्यक्ति आर सार्वजनिक सम्मेलनों जैसे जनसम्पर्क माध्यमों से अधिक प्रगाढ होते हए परिचय, आदि ऐसे विशिष्ट कारक थे, जिन्होंने लोगों में एक नई सामाजिक तथा राजनैतिक चेतना को संचारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

भारतीय संविधान में देश की अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों हेतु सरकारी नौकरियों में आरक्षण सम्बन्धी कल्याणकारी नीतियों, भूमि सुधारों, विकास कार्यो के नियोजन के फलस्वरूप समाज के निम्नतम स्तरों के व्यक्तियों की एक ऐसी श्रेणी को भी उभर सकने  का अवसर प्राप्त हुआ, जो अपनी वंचना के प्रति पूर्ण रूप से आत्म सचेत थे, अपने समुदाय को नेतृत्व देने में सक्षम थे। उनको संगठित होने तथा प्रतिवाद एवं प्रतिरोध करने के लिए। एक प्लेटफार्म (मंच) पर, एक झण्डे के नीचे लाने में भी समर्थ थे। ऐसी सामाजिक शक्तियों के साथ ही, विज्ञान तथा तकनीकी, कृषि उद्योग, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में भारी पूँजी का निवेश हुआ । इन सबका सम्मिलित परिणाम 1970 और 1980 के दशकों में प्रकट हुआ। इस अवधि में देश के विभिन्न ग्रामीण इलाकों में हरित क्रान्ति सफल रही तथा कृषकों के नवीन मध्यम वर्गों को उदित होने का अवसर प्राप्त हुआ।

भारत में यद्यपि नगर औद्योगिक परिदृश्य पर एक अभिनव व्यापारिक उद्यमी वर्ग का उत्थान तो अवश्य हुआ है, किन्तु संस्कृति एवं राष्ट्रीय विचारधारा के क्षेत्र में सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, आम सहमति तथा सहभागिता के मूल्य लगातार दबाव में आते रहे। हैं। इन्होंने भारत की राजनीतिक संस्कृति और  उसके भविष्य के लिए गंभीर परिणामों को जन्म दिया, जिसके दुष्परिणाम 1990 के बाद के दशकों में स्पष्ट हुए हैं। आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि हम इन शक्तियों को जाने-पहचानें, अपनी रणनीतियों को पुनः परिभाषित और परिष्कृत करें और देश के भविष्य के लिए निरपेक्ष सम्बन्धी एक सन्तुलित प्रक्रिया को शुरू करें।

 

 स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में सामाजिक रूपान्तरण की रणनीति

 

15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्रता प्राप्ति और देश विभाजन के उपरान्त भारत में सामाजिक रूपान्तरण की आवश्यकता को अनुभव किया गया । यद्यपि स्वतंत्रता परिवर्तनों की भाँति आंशिक ही थे, किन्तु दोनों में कुछ अन्तर थे। परवर्ती यानि स्वतंत्रता बाद के सामाजिक रूपान्तरण की परिधि तथा सम्भावना पूर्ववती यानि स्वतंत्रता पूर्व रूपान्तरम की। तुलना में बहुत अधिक थी। इसमें एक यथार्थ संरचनात्मक आयाम को प्राप्त कर दिया था और जिसकी परिधि में सम्पूर्ण समाज आ गया था जो तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या समाज में युवा पीढ़ी के प्रतिनिधियों की प्रधानता, राजनीतिक सहभागिता भी अधिक स्पष्ट अभिव्यक्ति, रेडियो, समाचार-पत्र, टेलीविजन, सार्वजनिक सम्मेलनों जैसे जन-सम्पर्क से अधिक प्रगाढ़ होते हुए परिचय, आदि ऐसे विशेष कारक/तत्व थे, जिन्होंने देश और समाज में एक नई सामाजिक राजनीतिक चेतना का तेजी से संचार किया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त देश की अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े हुए वर्गों के लिए आरक्षण की कल्याणकारी नीतियों, भूमि सम्बन्धी सुधारों तथा अधिनियमों और शिक्षा तथा विकास कार्यक्रमों के नियोजित किये जाने के कारण समाज के निम्नंतर स्तरों के लोगों की एक ऐसी श्रेणी को उभर सकने का अवसर उपलब्ध हुआ जो कि अपनी संरचना के प्रति पूर्णतः जागरूक थे, अपने समुदाय का नेतृत्व करने में सक्षम थे एवं उन्हें संगठित होने तथा प्रतिवाद एवं प्रतिरोध करने के लिए एक मंच पर, एक झण्डे के नीचे जाने में भी समर्थ थे। देश में इन सामाजिक शक्तियों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ विज्ञान और तकनीकी कृषि उद्योग और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पूंजी का निवास हआ। इस प्रकार के सभी कार्यों का संचित परिणाम 1970-80 के दशकों में स्पष्ट हुआ। इसी अवधि में कई ग्रामीम क्षेत्रों में ‘हरित क्रान्ति हुई और परम्परागत कृषकों के एक नवीन ‘मध्यम वर्ग’ का उदय हुआ।

देश में यद्यपि नगरीय एवं औद्योगिक परिदृश्य पर एक अभिनव व्यापारिक उद्यमी वर्ग का उत्थान तो हुआ है, किन्तु संस्कृति एवं राष्ट्रीय विचारधारा के क्षेत्र में लौकिकी / धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय, आम सहमति और सहभागिता सम्बन्धी मूल्य निरन्तर दबाव में आते रहे है। उन्होंने भारत की राजनैतिक संस्कृति और उसके भविष्य गम्भीर परिणाम उत्पन्न कर दिये हैं। अतः वर्तमान समय म आवश्यकता इस बात की है कि हमें इन शक्तियों को समझना बूझना चाहिए।

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भारत में नवें दशक की शुरूआत के साथ ही नई आर्थिक व्यवस्था को अपनाया। गया है। निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों को स्वीकार किया गया है। इनका प्रभाव शहरी समाज पर अधिक पड़ा है, जिससे ग्रामीण समाज भी किसी न किसी तक प्रभावित हो रहा है। इससे समाज का एक छोटा सा वर्ग ही लाभान्वित हो रहा है शेष वर्ग मंहगाई और भ्रष्टाचार से पीड़ित है। इस स्थिति में आवश्यक है कि सामाजिक रूपान्तरण की रणनीतियो को पुनः परिभाषित किया जाये और भविष्य के लिए नियोजन की कोई सन्तुलित प्रक्रिया को शुरू किया जाये, अन्यथा सामाजिक रूपान्तर के सकारात्मक परिणाम नहीं प्राप्त होंगे।

सामाजिक-सांस्कृतिक रूपान्तरण में वैश्वीकरण के प्रभावों का विश्लेषण

 

वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण (Globalization) एक प्रक्रिया है, जो कि आधुनिकता से जुड़ी हुई संस्थाओं को सार्वभौमिक दिशा की ओर रूपान्तरित करती हैं। यह एक बहुआयामी खुली अवधारणा है, जो व्यापार, प्रौद्योगिकी, उद्योग तथा अर्थव्यवस्था के रूपान्तरण को सार्वभौमिक दिशा की ओर इंगित करती है। वैश्वीकरण एक सांस्कृतिक प्रक्रिया भी है, लेकिन पश्चिमी औद्योगिक दृष्टि से विकसित देशों, विशेषतः अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस जर्मनी एवं इटली द्वारा संसारव्यापी विधा के रूप में प्रदर्शित है। सांस्कृतिक संदर्भ  में यह संसार की संकुचन और समग्र विश्व चेतना की सघन सचेष्टतता की ओर इंगित करती है। पूँजीवाद, उद्योगवाद, हिंसा के साधनों का एकाधिकार, प्रखर अभिसूचना वैश्वीकरण के संस्थात्मक निहितार्थ माने जाते हैं।

गिडनेन ने सामाजिक रुपांतरण में वैश्वीकरण के प्रभावों के बारे में कहा है, वैश्वीकरण एक प्रक्रिया है जो आधुनिकता से जुड़ी संस्थाओं को सार्वभौमिक दिशा की ओर रूपान्तरित करती हैं | उद्योगवाद, प्रखर अभिसूचना, पूँजीवाद हिंसा के साधनों का एकाधिकार इसकी संस्थात्मकता में शामिल है।

वैश्वीकरण के कुछ मूल अवरोधों तथा लक्षणों को भारत जैसे विकासशील देशों के संदर्भ में निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है –

  1. वैश्वीकरण एक व्यापारिक विधा के रूप में एक नया अधिगम है, जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद पनपता गया। समाज विज्ञानियों तथा नीति नियोजकों ने 1960 के दशक में वृद्धि काल के रूप में 1970 को आधुनिकीकरण 1980 को सामाजिक रूपान्तरण एवं विकास और 1990 को संवहनीय विकास के रूप में व्याख्यायित किया। उन्होंने बीसवीं शताब्दी के समापन के दौरान उदारीकरण तथा निजीकरण पर विशेष जोर देकर वैश्वीकरण का उद्घोष किया।
  1. बाजार की खोज, प्रौद्योगिकी व इलेक्ट्रॉनिक सम्बन्धी नवीन उपकरण एवं कम्प्यूटर से जुड़ा विश्व सूचना संकुल यानी कम्प्यूटर नेटवर्क तथा बहुराष्ट्रीय विनिवेश वैश्वीकरण को आगे बढ़ाने वाले मुख्य प्रेरक हैं। ।
  2. वैश्वीकरण विरोधाभास का पहलू है। सामाजिक एवं आर्थिक असमानता, विषमता, असुरक्षा की प्रवृत्ति, जो विश्व के समाजों की अर्थव्यवस्था, शासन तंत्र तथा सामाजिक ढाँचे में विद्यमान है।
  3. औद्योगिक और तकनीकी दृष्टि से विकसित राष्ट्र संसार की कुल आबादी के मात्र 20 प्रतिशत का ही प्रतिनिधित्व करते हैं, कि विश्व संसाधनों के 80 प्रतिशत पर नियन्त्रण रखते हैं। उत्तरी अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी तथा इटली औद्योगिक अर्थव्यवस्था से ऊपर उठकर उत्तर औद्योगिक अर्थव्यवस्था के रूप में प्रतिष्ठित हए है।।
  4. विकसित राष्ट्र अपने उत्पादों की बिक्री के लिए त्वरित बाजार क्षेत्रों की आवश्यकता से व्यग्र हुए हैं।
  5. इन राष्ट्रों को विकासशील देशों यानी लैटिन अमेरिका, एशिया और अफ्रीका के देश विकल्प बाजार के रूप में दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
  6. विकासशील देश तकनीकी इलेक्ट्रानिक साम्राज्यवाद के अनिच्छुक है।

विकासशील देशों में हुए विकास तथा आधुनिकीकरण के पश्चिमी उदघोष तथा कार्यक्रमों ने गत दशकों में उनकी प्रत्याशाओं को पूरा नहीं किया है। अतः वे उदासीन है। क्योंकि इन मनभावन कार्यक्रमों के परिणाम विकासशील देशों में निरन्तर बढ़ती हुई विषमता, असन्तुलन, विसंगति, विभेदीकरण तथा सम्पन्नता एवं विपन्नता के मध्य बढ़ती हुई खाई के रूप में स्पष्ट हुए हैं। विकास सम्बन्धी समतामूलक, वैचारिकी तथा उदारवादी समानता का दर्शन भ्रमपूर्ण सिद्ध हुआ है। वर्तमान समय में विकसित पश्चिमी राष्ट्र अपने उत्पादों के विपणन, व्यापार के प्रति अधिक चिन्तित है। अपने उत्पादों की बिक्री के लिए उन्हें एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देश खपत-क्षेत्र लग रही है, जहां वैश्वीकरण कार्यक्रम के अन्तर्गत कच्चे माल की तलाश तथा बाजार के विस्तार की पर्याप्त सम्भावना है।

कल्याणकारी और समाजवादी राज्यों से जुड़े सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को वैश्वीकरण कार्यक्रम में उपेक्षित रखा गया है। तकनीकी व इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों तथा संसाधनों (कम्प्यूटर, इंटरनेट, ई-मेल, आदि) की सुलभता समान रूप से सभी देशों को उपलब्ध नहीं है। भारत जैसा विकासशील देश विस्तृत वृत्तान्तों एवं सिद्धान्तों की ऐतिहासिकता से जुड़ा है, जहाँ ऐतिहासिक मिथक, उपाख्यान तथा सृष्टि के उद्भव से जुड़े हुए व्यापक सिद्धान्तों की ऐतिहासिकता है। वैश्वीकरण इन सबको अपने में समाहित नहीं कर सकता है। भारत एवं अफ्रोशियाई विकासशील देश सदैव ऐतिहासिक अस्मिता एवं वैश्विक विकास के मध्य विशिष्ट सम्मिश्रण को प्रस्तुत करते रहेंगे।

 

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