सामाजिक विकास के मुख्य तरीके/पक्ष

सामाजिक विकास के मुख्य तरीके/पक्ष | Methods of Social Development in Hindi

भारत में सामाजिक विकास के विभिन्न तरीकों का उल्लेख

सामाजिक विकास के मुख्य तरीके/पक्ष को निम्नानुसार स्पष्ट किया जा सकता है

1. शिखर से विकास –

इसका तात्पर्य यह है कि प्रशासन की केन्द्रीय/सर्वोच्च सत्ता द्वारा विकास की योजना तैयार करके उसे कार्यान्वित करना चाहिए। दूसरे शब्दों में केन्द्रीय संगठन को विकास की प्रकृति और दिशा का निर्धारण करके परियोजनाएँ बनानी चाहिए तथा उन्हें जनता पर लागू करना चाहिए। इस तरीके की मान्यतानुसार, जिन लोगों का विकास किया जाना है, वे अपनी आवश्यकताओं को समझने, स्वयं ही विकास योजनाएँ बना सकने और उन्हें लागू करा पाने में अक्षम हैं। अतः उनके विकास हेतु बाहरी विशेषज्ञों और अभिकरणों की आवश्यकता है।

किन्तु यह मान्यता आधारहीन है। सत्ता के शीर्ष पर आसीन अभिजनों (Elites) के इस विचार के मूल में उनके निहित स्वार्थ हैं। उनका स्वार्थ संसाधनों पर अपना नियन्त्रण बनाये रखना और उन्हें अपने निजी लाभ के लिए उपयोग में लाना है। राजधानी में बैठे हए मन्त्री एवं अफसर ग्रामीणों की समस्याओं/कठिनाइयों को पूर्णतः समझे बिना उनके लिए विकास योजनायें बनाते हैं। जनता के पास ऐसी विकास योजनाओं को स्वीकार करने का अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होता। किन्तु सत्ता के शिखर से लागू की जाने वाला अधिकतर विकास योजनाओं के परिणाम आशानुरूप सिद्ध नहीं होते।

विकास के इस तरीके की सबसे बड़ी कमी/दोष यह है कि इसके अन्तर्गत उन व्यक्तियों को विकास प्रक्रिया में सम्मिलित नहीं किया जाता जिन्हें विकास के लाभ मिला है। अतः उनमें अलगाव की भावना विकसित होती है। शिखर से विकास के तरीका अंगीकार करने से केन्द्रीकरण एवं नौकरशाही वर्ग का प्रभाव काफी बढ़ जाता है। भारत में विकास योजनाओं की बड़ी राशि योजना संचालित करने वालों द्वारा नियुक्त अधिकारी, न कर्मचारी किसी न किसी प्रकार से हड़प लेते हैं।

 

2. कार्यक्षेत्र के आधार पर विकास –

इकाई के आधार पर विकास के तीन तरीके प्रचलित हैं- कार्यक्षेत्र, इलाके और लक्ष्य समूह के आधार पर विकास। कार्य क्षेत्र के आधार विकास के तरीके में अर्थव्यवस्था के किसी विशेष क्षेत्र (कृषि, उद्योग, आदि) को लेकर विकास योजनाएं बनाई/लागू की जाती हैं। भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त योजनाकारों ने औद्योगिक विकास पर बल दिया। इसके लिए उन्होंने देशी तकनीक को विकसित करने और विदेशी तकनीक को आयात करने की योजनाएं तैयार की। तकनीकी शिक्षा पर विशेष  ध्यान दिया गया। देश में स्वतन्त्र रूप से सोवियत संघ, अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों के सहयोग से कई संस्थान और कॉलेज स्थापित किए गए।

इस्पात, सीमेन्ट और वस्त्रोद्योग के लिए समुचित धन की व्यवस्था की गई। 1960 के दशक की शुरुआत में जब खाद्यान्न समस्या उत्पन्न हुई, तो योजनाकारों ने कृषि के क्षेत्र के विकास पर ध्यान दिया। फलस्वरूप देश में विभिन्न कृषि विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालय स्थापित किए गए। अनुसन्धान करके अधिक उपज देने वाली किस्मों, कीटनाशकों, थ्रेसरों, आदि उपकरणों को विकसित किया गया। किसानों को कृषि की नवीन तकनीक की जानकारी देने और उसको अपनाने के लिए गाँवों में विस्तार सेवाएँ (Extension Services) भी चलाई गई। इन सभी कार्यक्रमों के परिणामस्वरूप देश में ‘हरित क्रान्ति’ हुई और खाद्यान्न के क्षेत्र में भारत आत्मनिर्भर बन पाया।

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3. इलाके के आधार पर विकास –

देश के समस्त इलाकों में एक समान विकास नहीं होता है। कुछ इलाके अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध होते हैं, तो कुछ में समुचित विकास न होने के कारण रेलवे, सड़कें, बिजली आदि बुनियादी सुविधाओं की किल्लत/अभाव हो सकता है अथवा सूखे और बाढ़ जैसी समस्याएँ हो सकती हैं। इलाके के विकास के तरीके एम किसी विशेष इलाके में विकास सम्बन्थी बुनियादी सुविधाओं को जुटाया जाता है। भारत में 1974 में आरम्भ की गई कमाण्ड क्षेत्र विकास योजना’ इलाके के विकास की योजना एक ऐसा ही उदाहरण है, जिसमें कुछ क्षेत्रों में सिंचाई सम्बन्धी सुविधाएँ उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई।

 

4. लक्ष्य-समूह का विकास –

विकास के इस तरीके में किसी विशेष वर्ग के लोगों के विकास पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। यथा – किसान, महिलाएँ, कृषि श्रमिक, आदि। छोटे किसानों के विकास की एजेन्सी, सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण इसी तरीके के उदाहरण माने जाते हैं। इसी तरह किसी विशेष कस्बे/गाँव का समग्र विकास भी लक्ष्य समूह (Target Group) के विकास का तरीका। इसको सामुदायिक विकास (Community Development) का तरीका कहा जाता है। विकास के इस तरीके में आर्थिक सामाजिक गतिविधियों, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य बुनियादी सुविधाओं के विकास पर अधिक बल दिया जाता है।

 

5. सबसे निचले स्तर से विकास –

इस स्तर से विकास करने के समर्थकों की मान्यता है कि जिन लोगों का विकास किया जाता है, उनमें सही और गलत को समझने की पर्याप्त समझ एवं क्षमता दोनों होती हैं। इस तरीके के अन्तर्गत लोगों का विकास जुडाव तथा उनकी माताओं को इस्तेमाल करना आवश्यक समझा जाता है। इसके अन्तर्गत लोगों को यह अवसर प्रदान किया जाता है कि वे अपनी कठिनाइयों एवं समस्याओं को बताएं तथा उनको हल करने का मार्ग या उपाय भी बताएं । उनको प्रशिक्षित, सक्षम तथा अपनी सहायता स्वयं ही करने के योग्य बनाया जाता है।

सरकारी अथवा स्वयंसेवी संगठनों से मिलने वाले या स्थानीय स्तर पर जुटाए गए संसाधनों का उपयोग किस प्रकार से होना चाहिए, यह तत्य भी जनता अथवा स्थानीय स्तर पर उनके प्रतिनिधियों के द्वारा ही निर्धारित किया जाता है। स्पष्ट है कि विकास के इस तरीके में बड़े पैमाने पर विकेन्द्रीकरण एवं लोगों की अधिक सहभागिता/हिस्सेदारी होती है।

यद्यपि योजनाकार निचले स्तर से विकास करने की बात स्वीकार करते हैं तथा यह दावा भी करते हैं कि वे इस तरीके को अंगीकार करते हैं, किन्तु व्यवहारतः वे शिखर से विकास के तरीके को ही अपनाते हैं। फलस्वरूप विकास की योजनाओं का कोई नि लाभ नहीं प्राप्त होता है।

 

सामाजिक विकास के मार्ग मेंं पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की भूमिका

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अपनी कई विशेषताओं के कारण सामाजिक विकास में सहायक सिद्ध होती है। इस अर्थव्यवस्था में देश में उद्योग, व्यवसाय, वाणिज्य, व्यापार अर्थात् उत्पादन के साधनों का स्वामित्व निजी हाथों में रहता है। व्यापार एवं उद्योग पर सरकार का कोई विशेष नियन्त्रण नहीं होता। उसका दायित्व केवल प्रशासनिक एवं न्यायिक क्षेत्रों तक ही सीमित होता है। वस्तुओं की कीमतें बाजार की शक्तियों पर निर्भर करती हैं। सरकार कभी-कभी उपभोक्ताओं के हित में लाभ को नियंत्रित करती है। कुछ उद्योगों एवं कारोबारों पर लाइसेन्सिंग प्रणाली और गुणवत्ता के नियम भी लागू किये जाते है। पूँजी के स्रोत प्रायः निजी और स्वतन्त्र होते हैं। सरकारी बैंको एवं वित्तीय संस्थानों से उद्योगपतियों को ऋण के रूप में सहायता भी दी जाती है। बाजार में खुली प्रतियोगिता चलती है। अतः उपभोक्ता महत्वपूर्ण होता है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था सरकारी नियंत्रण, नौकरशाही से स्वतन्त्र होती है और इसका उद्देश्य लाभ अर्जित करना होता है। अतः बाजार में वस्तुएं एवं सेवाओं को अच्छे ढंग से उपलब्ध कराया जाता है, ताकि प्रतिद्वन्द्वितापूर्ण खुली बाजार व्यवस्था में सफलता प्राप्त की जा सके।

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  2. ग्रामीण समाजशास्त्र / Rural Sociology
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