Table of Contents
आधुनिक पाश्चात्य दर्शन
ऐतिहासिक दृष्टि से पाश्चात्य दर्शन का आधुनिक युग १४५३ ई० से प्रारम्भ होता है। इसी समय पूर्वी यूरोपीय साम्राज्य की राजधानी कुस्तुन्तुनिया का पतन हुआ तथा इस पर तुर्कों का अधिकार स्थापित हो गया। इस घटना के कारण सहस्रो यूनानी विद्वान् अपने देश से निर्वासित हो इटली चले गये तथा वहाँ से अपने पाण्डित्य का प्रकाश सारे यूरोप में फैलाने लगे। लगभग इसी समय एक दूसरी ऐतिहासिक घटना हुई। सन् १४९२ में कोलम्बस ने समुद्री यात्रा प्रारम्भ की। उसने भारत के धोखे में अमेरिका की खोज कर डाली। सन् १४९८ में वास्को-डि-गामा ने यूरोप से भारत का पथ खोज निकाला। इसका परिणास यह हुआ कि यूरोप का व्यापार बढ़ने लगा तथा पूर्वीय दृष्टिकोण जहाजों में लद-लद कर यूरोप पहुंचने लगा।
सन् १५१८ में मार्टिन लूथर (Martin Luther) का धर्म सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। इस आन्दोलन से इसाई मत की कैथोलिक शाखा से जनता का विश्वास उठने लगा तथा लोग प्रोटेस्टेण्ट मत की ओर झुकने लगे। उन दिनों कैथोलिक सम्प्रदाय ही इसाई मत का एकमात्र प्रतीक था तथा पोप धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि बनकर जनता पर शासन किया करते थे। मार्टिन लूथर ने चर्च की प्रभुता का घोर विरोध किया तथा पोप की प्रभुता को समाप्तप्राय कर दिया। धीरे-धीरे यह धार्मिक आन्दोलन सारे यूरोप में फैलने लगा तथा समाज ने पोप के बन्धन से अपने को मुक्त कर लिया। सौभाग्य से इस युग में कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान हुए जिनसे लोगों का दृष्टिकोण बदला।
सन् १४७४-१५४३ में कोपरनिकस ने पता लगाया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, सूर्य नहीं। उसने यह भी सिद्ध किया कि पृथ्वी सृष्टि में एक लघु बिन्दु है। अतः लोगों की यह धारणा कि पृथ्वी सृष्टि के केन्द्र में स्थित है तथा मनुष्य सृष्टि का सिरमौर है, गलत सिद्ध हो गया| कोपरनिकस के महत्त्वपूर्ण अनुसन्धानों से लोगों का धर्म-ग्रन्थों में विश्वास उठ गया। इसी समय छापे की मशीनों का आविष्कार हुआ जिससे ज्ञान का दिनानुदिन विस्तार होने लगा। ज्ञान केवल गिरिजाघर की चहारदीवारियों तक सीमित नहीं रहा तथा बाइबिल पढ़ने का केवल पादरियों का अधिकार समाप्त हो गया।
गैलीलियो (सन् १५६४ से सन् १६४२) और केपलर (सन् १५७१ से सन् १६७०) आदि वैज्ञानिकों ने गणित तथा ज्योतिष में अनेक आविष्कार किये जिनसे कोपरनिकस के मत की पुष्टि हुई इन वैज्ञानिकों के आविष्कार ने धार्मिक मान्यताओं की जड़ें हिला दी। इन वैज्ञानिक अन्वेषणों के फलस्वरूप लोग इसाई धर्म की मान्यताओं को झूठा समझने लगे। पृथ्वी सृष्टि का केन्द्र है, मनुष्य सृष्टि का सिरमौर है, सृष्टिकर्ता ईश्वर स्वर्ग में निवास करता है, इत्यादि बातों में लोग विश्वास खो बैठे। अच ये बातें कपोल कस्थिती लगने लगी तथा इनमें विश्वास करने वाले केवल धर्मगुरु पादरी लोग ही रह गये। इस प्रकार धर्मगुरु तथा धर्मग्रन्थों के प्रति एक भीषण अनास्था मिल गयी।
मध्य युग की समीक्षा
१. मध्ययुगीन समाज और राष्ट्र पर पोप का सार्वभौम सामान्य या धर्म की ओट में पोप के द्वारा किये गए अत्याचारों के प्रति असन्तोष फैलते सगात परिणामस्वरूप यूरोप के देश एक-एक करके अपने को पोप के धर्म चक्र से मुक्त करने लगे। इसे हम सांस्कृतिक पुनर्जागरण (Renaissance) कहते है। इस पुनर्जागरण का पहला लक्षण चर्च की प्रभुता के प्रति विद्रोह है। मध्य युग इसाई मत के योलिक सम्प्रदाय के प्रभुत्व का युग माना जाता है। इस युग मे धर्मगुरु पोप का सार्वभौम निरकुंश शासन था। सांस्कृतिक पुनर्जागरण से ही इस निरकुश शासन का अन्त होता है। वैज्ञानिक प्रगति के कारण लोगों की आँखें खुल गयी। इसलिये धार्मिक अन्धविश्वास के प्रति विद्रोह होने लगा।
२. मध्य युग में दर्शन की प्रणाली निगमनात्मक (Deductive) थी इस प्रणाली में आधार-वाक्य (Premises) को सत्य मानकर निगमन या निष्कर्ष निकाला जाता है। निगमनात्मक प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि आधार वाक्यों की परीक्षा नहीं की जाती| आधार-वाक्य के दोष निगमन में स्वभावतः चले आते है। मध्य युग के दार्शनिक रूढ़िगत धार्मिक मान्यताओं को आधार-वाक्य मानते थे तथा इनसे अनिवार्य निष्कर्ष निकालते थे। ये निष्कर्ष उनकी धार्मिक मान्यताओं के अनुकूल तो अवश्य होते थे, परन्तु इनमें आगमन प्रणाली (Inductive method) की स्वतन्त्र मौलिकता का सर्वथा अभाव रहता था।
३. मध्य युग में सत्य का मापदण्ड दोहरा था-धर्मग्रन्थ (बाइबिल) तथा धर्मगुरु (पोप)। इसाई धर्म का सबसे पवित्र धर्मग्रन्थ बाइबिल है जो आप्तवचन या ईश्वर वचन है। परन्तु इस धर्मग्रन्थ की व्याख्या करने का अधिकार केवल पोप अर्थात् धर्मगरु को था, क्योंकि पोप धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि माने जाते थे तात्पर्य यह है कि धर्मगुरु ही धर्मग्रन्थ के अधिकारी थे। समाज में धर्म का साम्राज्य था तथा पोप का शासना ऐसी दशा में सत्य के दो मापदण्ड थे। धर्मगुरु तथा धर्मग्रन्था आगे चलकर इस दोहरे शासन का अन्त हुआ। सांस्कृतिक पुनर्जागरण धर्मगुरु (पोप) के सत्य में लोगों की आस्था समाप्त हो गयी।
४. मध्य युग सन्त दार्शनिकों का युग था। इन धार्मिक दार्शनिको के हाथ दर्शन धर्म का दास बन गया। प्रायः ये लोग धार्मिक सत्यों को दार्शनिक युक्ति से सिख किया करते थे। धर्मगुरु लोग अपने आदेशों का सिक्का जमाने के लिए तर्क का सहारा लेने लगे। अरस्तू की तर्क पद्धति को मनमाने ढंग से चलाकर अपने अन्धविश्वास का समर्थन करने लगे। तर्क से धर्म का समर्थन करने के कारण तर्क का स्थान ऊपर उठने लगा तर्क की नींव पर धर्म की दीवार स्वतः धराशायी होने लगी। लोगों में बुद्धिवाद और स्वातन्त्र्यवाद पनपने लगा। लोग धार्मिक सत्यों को तार्किक कसौटी पर कसने लगे। अन्धविश्वास से ओतप्रोत धर्म खरा न उतरा और लोगों में अनास्था बढ़ी।
५. मध्य युग के सन्त रहस्यवादी थे। इन रहस्यवादी सन्तों ने यह बतलाना शुरू किया कि साधना की स्थिति में ईश्वर से सम्पर्क स्थापित हो जाता है तथा ईश्वरीय आनन्द की अनुभूति होती है। इसके फलस्वरूप चर्च की ठेकेदारी और पोप की दलाली का अन्त हो गया। लोगों में विश्वास जमने लगा कि बिना पोप के प्रमाण पत्र के ही ईश्वर से मिल सकते हैं। अतः लोगों में व्यक्तिगत साधना के प्रति निष्ठा बढी। इसका परिणाम आगे चलकर व्यक्तिवाद हुआ। व्यक्तिवादी भावनाओं की वृद्धि से पोप का सर्वाधिकार समाप्त होने लगा।
आधुनिक युग की विशेषताएँ (Characteristics of Modern Philosophy)
१५वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी के दार्शनिक विचारों को आधुनिक विचार कहा जाता है। इसे सांस्कृतिक पुनर्जागरण काल (Renaissance period) भी कहते हैं, क्योंकि इस युग में यूरोप के सांस्कृतिक जीवन में सामूहिक क्रान्ति हुई। मध्ययुगीन समाज जर्जर हो चका था। उसके सभी मल्य जीर्ण, शीर्ण हो गये थे। अतः समाज ने नये सजीव मूल्यों को अपनाया। इसे प्रबुद्धकाल (Age of enlightenment) भी कहते हैं, क्योंकि चर्च युग की रात्रि बीत चुकी थी तथा वैज्ञानिक अनुसन्धानों की रश्मियों ने जनता को जगा दिया था।
ऐतिहासिक दृष्टि से कुस्तुन्तनियों के पतन से यह युग प्रारम्भ होता है। इस ऐतिहासिक घटना के बाद सभी यूनानी विद्वान इटली चले गये तथा वहाँ रहकर उन लोगों ने अपने ज्ञान प्रकाश को सारे यरोप में फैलाया। आधुनिक युग की विशेषताएँ अनेक हैं, जिनमें सबसे प्रमुख हैं, चर्च की अवनति तथा विज्ञान की उन्नति। ये दोनों आधुनिक युग के प्रबलतम कारण माने गए हैं।
1. चर्च की अवनतिः मध्य युग में चर्च सर्वाधिक शक्तिसम्पन्न संस्था थी। इसके अन्तर्गत सत्य वह था जो धर्मग्रन्थों में लिखा था और धर्मग्रन्थों में क्या लिखा था वह केवल धर्मगुरु (पादरी) लोगों को ही मालूम था। सत्य का मापदण्ड केवल पोप का आदेश था। पोप राजा से अधिक शक्तिशाली थे। पोप की आज्ञा का राजा भी उल्लंघन नहीं कर सकता था। इस प्रकार समाज में चर्च का ही शासन चल रहा था। नवजागरण के पश्चात् चर्च की प्रभुता के प्रति विद्रोह होने लगा।
लूथर के चार आन्दोलन प्रारम्भ हुए। यह सुधार आन्दोलन फ्रान्स, इंग्लैण्ड, स्पने आदि सभी मों में जोर पकड़ने लगा। इस सुधार आन्दोलन के फलस्वरूप इसाई मत में पोटेस्टेण्ट शाखा का जन्म हुआ; क्योंकि जनता कैथोलिक शाखा के अत्याचारों से कब गयी थी। फलतः मध्य युग (कैथोलिक चर्च) की सभी मान्यताएँ समाप्त होने लगी। गिरिजाघर के पादरियों के अत्याचारों और स्वेच्छाचार के कारण धर्म में भी अनास्था होने लगी। धर्म का मूल्यांकन प्रारम्भ हुआ।
२. वैज्ञानिक उन्नतिः आधुनिक युग की सबसे बड़ी विशेषता वैज्ञानिक अन्वेषण और अनुसन्धान है जिसने मानव को नया रास्ता दिखलाया। वैज्ञानिक खोजों के कारण मनुष्य के दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन हो गया। इसाई धर्मशास्त्रों में बतलाया गया है कि पृथ्वी ही सृष्टि का केन्द्र है और मनुष्य सृष्टि का सिरमौर है। मित वैज्ञानिक कोपरनिस ने सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी सष्टि का केन्द्र नहीं है तथा सर्य पृथ्वी की ओर नहीं घूमता। सृष्टि का केन्द्र सूर्य है तथा पृथ्वी ही सूर्य की ओर घमती है। इसी प्रकार अन्य वैज्ञानिकों ने यह असिद्ध कर दिया कि ईश्वर सृष्टि का सम्राट है, वह स्वर्ग धाम में स्थित है तथा वहीं से अपने साम्राज्य की देखभाल करता है।
केपलर के गणित और ज्योतिष सम्बन्धी अनुसन्धानों से कोपरनिकस के मत की पष्टि हुई। इसी समय छापे की मशीनों की खोज हुई। छापाखाने की खोज ने ज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया। अब ज्ञान का प्रकाश केवल चर्च तक ही सीमित नहीं रहा, वरन् चारों ओर फैलने लगा। अब सभी लोग धर्मग्रन्थ (बाइबिल) का अध्ययन करने लगे जिसे पढ़ने का अधिकार पहले केवल पादरी को ही था। इसी प्रकार गैलीलियों तथा न्यूटन के वैज्ञानिक अनुसन्धानों ने मानव की दृष्टि में आमूल परिवर्तन ला दिये। इन वैज्ञानिकों ने दर्शन के लिये नया मसाला तैयार कर दिया जिससे दार्शनिकों को मध्ययुगीन दर्शन फीका मालूम पड़ने लगा। विज्ञान पोषित होने के कारण आधुनिक दर्शन में नवीन जागृति तथा अनुपम प्रगति आने लगी। इन दोनों के अतिरिक्त भी कई विशेषताएँ हैं-
१. बौद्धिकताः मध्ययुगीन दर्शन धर्म-केन्द्रित होने के कारण विश्वास प्रधान दर्शन था। ज्ञान धर्मग्रन्थों तक सीमित था तथा धर्मग्रन्थ धर्मगुरुओं तक धर्म को समझने के लिए धर्मगुरु में विश्वास आवश्यक था। इस प्रकार ज्ञान केवल धर्मगुरु (पादरी) तक ही सीमित था। पादरी लोग जनता में अन्धविश्वास फैलाया करते थे। जनता को अपनी बुद्धि से विचार करने का कोई अधिकार नहीं था। आधुनिक युग में चर्च की प्रभुता समाप्त हो गयी। अतः लोग सभी विषयों पर स्वतन्त्र चिन्तन करने लगे। इस युग में प्रत्येक सत्य की परीक्षा प्रारम्भ हुई। इस प्रकार अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता का अन्त हो गया।
२. व्यक्तिवादः चर्च के प्रति विद्रोह के कारण आधुनिक दर्शन व्यक्तिवादी है। मध्य युग में आप्तवचन अर्थात् धर्मगुरुओं के वचन को ही प्रमाण माना जाता था। वैज्ञानिक प्रगति के कारण लोगों का आप्तवचन में विश्वास समाप्त हो गया। सभी विषयों का स्वतन्त्र विचार से उन्मुक्त वातावरण में निरपेक्ष और परीक्षण करने के कारण व्यक्तिगत विचारों का महत्त्व बढ़ा| व्यक्ति को अपना ही स्वतन्त्र निर्णय मान्य होने लगा। अत: इस युग में मौलिकता का महत्त्व बढ़ा। इस प्रकार आधुनिक युग स्वतन्त्र विचार, परम्परा के प्रति विद्रोह, प्रभुत्व के प्रति विद्रोह का युग माना गया है।
इस युग में स्वतन्त्र चिन्तन, स्वतन्त्र भावना तथा स्वतन्त्र कर्म पर बल दिया गया है। चिन्तन पर बल के कारण ही इस युग को बुद्धि प्रधान या बौद्धिक युग कहा गया है। इस युग को वैज्ञानिक (Scientific) भी कहा गया है, क्योंकि इस युग के विचार नये वैज्ञानिक अनुसन्धानों से प्रभावित हैं। नये आविष्कार ने मनुष्य के सामने नया रास्ता उत्पन्न कर दिया तथा नयी जागृति भी उत्पन्न की।
पुनर्जागरण(Renaissance)
यूरोप के इतिहास में १४वीं, १५वीं और १६वीं शताब्दी को सांस्कृतिक पुनरुद्धार का काल माना जाता है। इस काल में मध्ययुगीन परम्परा और सामाजिक जीवन का अन्त हो गया तथा साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्र में नये-नये विचारों का जन्म होने लगा। मध्य युग में जिज्ञासा के स्थान पर अन्धविश्वास, आलोचना के बदले अनुकरण और बौद्धिकता के स्थान पर पुराणपन्थी भावनाओं का बोलबाला था। पुनर्जागरण के प्रारम्भ होते ही मध्ययुगीन मान्यताओं का अन्त हो गया और जिज्ञासा, आलोचना और बौद्धिकता आदि की नयी लहरें गूंजने लगी। जब कुस्तुन्तुनियाँ पर बर्बर तुर्को अधिकार स्थापित हो गया तो वहाँ के विद्वान् दल के दल यूरोप के कोने कोने में फैलने लगे।
नये-नये शिक्षा केन्द्र स्थापित हुए तथा नई प्रणाली से शिक्षा प्रदान की जाने लगी। इस युग में साहित्य और कला का अत्यधिक विकास हुआ। छापाखाने के आविष्कार ने पुस्तकों की संख्या में असीमित वृद्धि कर दी। इस समय यूनान और रोम के प्राचीन साहित्य का पुनरुद्धार हुआ। मध्य युग के विद्वान भी यूनान और रोम के साहित्य से अपरिचित नहीं थे, परन्तु मध्य युग के विदान इस प्राच्य साहित्य को धार्मिक दृष्टि से देखते थे। इस साहित्य कला और सौन्दर्य से वे परिचित नहीं थे। आधुनिक युग के विद्वानों की दृष्टि इस पर पड़ी। इस भाग में पारलौकिक जीवन की अपेक्षा लौकिक जीवन को प्रधानता दी जाने लगी। इसके फलस्वरूप इस युग के लोगों ने यूनान और रोम के प्राचीन साहित्य को एक नयी दृष्टि से देखा। अब लोगों को आध्यात्मिक चिन्तन तथा आत्म-संयम आदि के स्थान पर लौकिक इच्छाओं की पूर्ति में विशेष आनन्द आने लगा।
धार्मिक आन्दोलन(Reformation Movement)
मध्ययुगीन समाज अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता का समाज था। मध्य युग में चर्च सबसे प्रभावशाली संस्था थी और पोप सबसे प्रभावशाली शासक समझे जाते थे। पोप की आज्ञा सर्वोपरि थी, क्योंकि पोप धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि समझा जाता था। चर्च अपनी शक्ति की सीमा पार कर रहा था। चर्च का अपना न्यायालय था, कानून थे, न्यायाधीश थे और कारागार थे| पोप चर्च का सर्वोच्च शासक था। पोप का शासन जनता और राजा दोनों पर था।
पोप अपने विरोधियों को न्यायालय में मृत्यु दण्ड तक दिलवा सकता था। राजा भी पोप के आतंक से डरे रहते थे। पोप ग्रेगरी सप्तम ने किसी अपराध के फलस्वरूप हेनरी चतुर्थ को निष्कासित कर दिया था। इस आज्ञा को वापस लेने के लिए हेनरी को पोप के द्वार पर नंगे पैर खड़ा रहना पड़ा। इस सब कारणों से जनता और राजा दोनों में चर्च के प्रति अनास्था फैलने लगी।
धार्मिक आन्दोलन के लिए मार्टिन लूथर का नाम विख्यात है। लूथर पहले कैथोलिक था। १५१२ ई० में लूथर ने रोम की यात्रा की। वहाँ पोप की विलासप्रियता और अत्याचार को देखकर लूथर को बहुत सन्ताप हुआ और चर्च के प्रति उसकी श्रद्धा समाप्त होने लगी। १५१७ ई० में एक और घटना घटी। इस वर्ष पोप का प्रतिनिधि टेटजल पोप के लिये धन इकट्ठा करने के लिये क्षमा-पत्रों को बेचता हुआ जर्मनी आया। लूथर को यह देख बड़ा क्रोध हुआ। उसने २१ अक्टूबर १५१७ को ब्रिटेनवर्ग चर्च के द्वार पर पोप के क्षमा-पत्रों के विरुद्ध १५ प्रश्न लिखकर टाँग दिये।
इन प्रश्नों पर वाद-विवाद करने के लिये पोप के प्रतिनिधि को लूथर ने चुनौती दी। इस वाद-विवाद में लूथर ने क्षमा-पत्रों की निस्सारता सिद्ध कर दी। इसका जनता पर बड़ा प्रभाव पडा और परिणामस्वरूप जर्मनी में धार्मिक संघर्ष प्रारम्भ हो गय। इसी समय प्रोटेस्टेण्ट चर्च की नींव पड़ी। लूथर ने जनता के सामने सिद्ध कर दिया कि पापों से मक्ति क्षमा पत्रों को खरीदने से नहीं मिल सकती। पाप के प्रायश्चित के लिये मनुष्य को परमेष्वर पर विश्वास करना चाहिये। प्रायश्चित के लिये जा उपासना आदि निरर्थक हैं। मोक्ष पाने के लिये श्रद्धा और विश्वास नहीं, वरना आवश्यक है।
उपवास, तीर्थयात्रा आदि सब व्यर्थ हैं। लूथर ने पुरोहितों का भी विरोधी करना आरम्भ कर दिया। उसने घोषित किया कि इसाई जिसका वैपतिस्मा संस्कार हो चुका है वह स्वयं एक पुरोहित है। उसे ईश्वर की कृपा के लिये पोप की आवश्यकता नहीं। इन सब बातों का जनता पर बहुत असर पड़ा। अब जनता में पोप और पादरी लोगों के विरुद्ध हर स्थान पर विरोध होने लगा। धीरे-धीरे यही विरोध सम्पूर्ण यूरोप में फैल गया।
मानवतावाद(Humanism)
मानवतावाद पुनर्जागरण और धार्मिक आन्दोलन के फलस्वरूप हुआ। लोगों की देवी-देवताओं के स्थान पर मनुष्य में आस्था जगी। अब समाज की सेवा को ही ईश्वर की यथार्थ सेवा का रूप दिया गया। पारलौकिक जीवन के बदले लौकिक जीवन को सुखी और सम्पन्न बनाने के लिये नए प्रयल होने लगे। तात्पर्य यह है कि लोगों की दृष्टि ईश्वर केन्द्रित न होकर मानव केन्द्रित हो गयी। इस समय के मुख्य मानवतावादी विचारकों के नाम तथा उनकी कृतियाँ निम्नलिखित हैं:-
मेकियाबेली का प्रिन्स (The Prince), दान्ते (Dante) का डिवाइन कामेडी (Divine Comedy), पेटार्क का सानेट (Sonnets) इत्यादि कृतियाँ मानवतावादी विचारों से ओत-प्रोत मानी जाती हैं।
आधुनिक दर्शन की धाराएँ
आधुनिक दर्शन की दो धाराएँ है: बुद्धिवाद (Rationalism) और अनुभववाद (Empiricism) आगे चलकर काण्ट ने इन दोनों धाराओं का समन्वय स्थापित किया है। इन दोनों धाराओं का मूल आधार ज्ञान की समस्या है। बुद्धिवाद शास्त्रीय युग की मान्यताओं का निषेध करता है तथा अनुभववाद बुद्धिवाद की मान्यताओं का खण्डन करता है।
बुद्धिवाद(Rationalism)
मध्य युग मूलतः धार्मिक युग था। इस युग में बाइबिल, बाइबिल की टीकाएँ, अरस्तु के ग्रन्थ आदि ही दार्शनिक ज्ञान के आधार माने जाते थे। धर्म, ईश्वर, नीतिशास्त्र आदि का ज्ञान प्राप्त करना ही उस युग में दर्शनशास्त्र का विषय था। परन्तु आधुनिक युग में स्वयं ज्ञान ही दर्शन का विषय बन गया। आधुनिक युग में इस प्रकार के प्रश्न उठने लगे: ज्ञान क्या है? ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है? ज्ञान की सीमा क्या है, अर्थात् किन-किन विषयों का यथार्थ ज्ञान मनुष्य प्राप्त कर सकता है? क्या ज्ञान केवल इन्द्रियों तक ही सीमित है? अतीन्द्रिय विषयों का ज्ञान प्रामाणिक है या नहीं इत्यादि।
बुद्धिवादी दार्शनिकों की सामान्यतः मान्यता है कि ज्ञान आत्मा का गुण है। जिस प्रकार शरीर का गुण विस्तार है उसी प्रकार मन या आत्मा का गुण विचार है। बुद्धि ही ज्ञान को सार्वभौम (Universal) और अनिवार्य(Necessary) मानते है। इस प्रकार का ज्ञान जन्मजात प्रत्ययों(Innate ideas) पर आधारित रहता है। उदाहरणार्थ, दो वस्तु यदि किसी एक वस्तु के बराबर हो तो आपस में भी बराबर होंगी। क और ख में प्रत्येक यदि ग के बराबर हो तो क और भी आपस में बराबर होंगे। इस प्रकार का सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान माना गया है। ऐसा ज्ञान हमें अनुभव से प्राप्त नहीं हो सकता।
अनुभव से हम वस्तु विशेष का निरीक्षण और परीक्षण करते हैं परन्तु संसार में उदाहरण अनन्त है। सभी उदाहरणों का निरीक्षण और परीक्षण करना मानव के लिये सम्भव नहीं। अतः ऐसे मार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान को जन्मजात माना गया है। यह यथार्थ ज्ञान है और इसके लिये अनुभव आवश्यक नहीं। अनुभव से तो केवल जन्मजात ज्ञान का विकास या विस्तर होता है। इस प्रकार बुद्धिवाद की मान्यताएँ निम्नलिखित हैं:-
१. बुद्धि निष्क्रिय नहीं, वरन् सक्रिय (Active) है। बुद्धि की क्रिया से ही आत्मा में अन्तर्निहित जन्मजात प्रत्यय बाहर निकलते हैं। इस प्रकार बुद्धि ही ज्ञान की जननी है या उत्पन्न करने वाली है।
२. जन्मजात प्रत्ययों की पहचान स्पष्टता है। उदाहरणार्थ, गणित शास्त्र में स्पष्ट जान पाया जाता है, इसीलिये गणित ही आदर्श ज्ञान है। देकार्त, स्पिनोजा आदि सभी गणित को ही आदर्श मानते है, क्योंकि गणित का ज्ञान स्पष्ट तथा निस्सन्देह है। दर्शन में ऐसे ज्ञान की आवश्यकता है।
३. बुद्धिवादी ज्ञान को अनिवार्य तथा सार्वभौम मानते है| अनिवार्य तथा सार्वभौम ज्ञान हमें अनुभव से कदापि प्राप्त नहीं हो सकता। अनुभव से अर्जित ज्ञान प्राप्त होता है, अनिवार्य नहीं।
अनुभववाद(Empiricism)
अनुभववाद के अनुसार अनुभव ही ज्ञान की जननी है। जन्म के समय हमारा मन कोरे कागज के समान रहता है जिस पर कुछ भी लिखा नहीं रहता। दिन प्रतिदिन के अनुभव से ही हमारे ज्ञान का भण्डार भरता है। अनुभववाद की मान्यताएँ निम्नलिखित हैं:-
१. जन्म के समय मन कोरे कागज या साफ स्लेट के समान रहता है। इसे अन्धकारमय कमरा बतलाया गया है जो अनुभव के प्रकाश से भरता है। संवेदना और स्व-संवेदना ही ज्ञान के वातायन हैं।
2. कोई भी ज्ञान जन्मजात नहीं, सभी ज्ञान अर्जित है। जन्म से हममें कोई ज्ञान नहीं रहता।
3. अनुभवादी आगमनात्मक प्रणाली(Inductive method) को आर्दश मानते है। इस प्रकार बुद्धिवाद एवं अनुभववाद दोनों एक दूसरे के विरोधी है। बुद्धिवादी दार्शनिक है- दार्कात, स्पिनोजा, लाइबनिट्ज आदि। अनुभववादी दार्शनिक है- लाॅक, बर्कले, ह्यूम आदि।
आप को यह भी पसन्द आयेगा-
- दर्शन का स्वरूप क्या है? दर्शन, विज्ञान तथा धर्म में सम्बन्ध | What is Philosophy in Hindi
- ग्रीक दर्शन क्या है?, उत्पत्ति तथा उपयोगिता | Greek Philosophy in Hindi
- माइलेशियन मत के दार्शनिक(थेल्स, एनेक्जिमेण्डर और एनेक्जिमेनीज) | Milesians School in Hindi
- इलियाई सम्प्रदाय क्या है-दार्शनिक(पार्मेनाइडीज, जेनो और मेलिसस) | Eleatic School in Hindi
- ग्रीस में सॉफिस्ट दर्शन क्या है | What is Sophistic Philosophy in Hindi
- सुकरात का दर्शन-जीवनी, सिद्धान्त तथा शिक्षा पद्धति | Socrates Philosophy in Hindi
- महात्मा सुकरात के अनुयायी कौन थे? | Followers of Mahatma Socrates in Hindi
- प्लेटो का जीवन परिचय और दर्शन की विवेचना | Biography of Plato, Philosophy in Hindi
- प्लेटो का विज्ञानवाद क्या है? | Plato’s Scientist in Hindi
- प्लेटो के विभिन्न विचार- ईश्वर विचार और द्वव्द्व न्याय | Dialectic approaches of Plato in Hindi
- प्लेटो का प्रयोजनवाद, आत्मा, नीति मीमांसा | Plato’s Pragmatism, Soul, Ethics in Hindi
- प्लेटो का शुभ, आनन्द और सन्तुलित जीवन क्या है | Plato’s Happy, Joyful and Balanced Life in Hindi
- अरस्तू की जीवनी, तर्कशक्ति, कारण सिद्धान्त की विवेचना | Aristotle’s Biography in Hindi
- अरस्तू का नीतिशास्त्र-सद्गुणों का स्वरूप, वर्गीकरण | Aristotle’s Ethics, Nature of virtues
- अरस्तू के बाद दार्शनिक सम्प्रदाय- एपिक्यूरियन, स्टोइक | Philosophical schools after Aristotle in Hindi
-
मध्यकालीन युग की दार्शनिक समस्या तथा पोपशाही | Philosophical Problems of Medieval Ages
-
सन्त ऑगस्टाइन-सन्त ऑगस्टाइन के दार्शनिक विचार | St. Augustine in Hindi
Disclaimer -- Hindiguider.com does not own this book, PDF Materials, Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet or created by HindiGuider.com. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: [email protected]