दर्शन क्या है

दर्शन का स्वरूप क्या है? दर्शन, विज्ञान तथा धर्म में सम्बन्ध | What is Philosophy in Hindi

हैलो दोस्तो! आज हम लोग दर्शन का स्वरूप, दर्शन और विज्ञान में सम्बन्ध(Philosophy and Science) , दर्शन और धर्म में क्या सम्बन्ध क्या है, दर्शन और धर्म में भेद आदि विषयों पर चर्चा करेंगें।

दर्शन का स्वरूप (Nature of Philosophy)

दर्शन अत्यन्त व्यापक है। सभी लौकिक तथा पारलौकिक विषय दार्शनिक माने जाते हैं। अत: इसकी विशालता तथा व्यापकता के कारण इसके स्वरूप का निर्धारण कठिन कार्य हो जाता है। किसी विषय के स्वरूप का निर्धारण करना तो विषय की सीमाओं को बतलाना है। परन्तु जिसके विषय ससीम और सान्त से लेकर असीम और अनन्त सभी हो, उसकी सीमा का निर्धारण एक दुस्कर कार्य बन जाता है। परन्तु इस कठिनाई का अर्थ यह नहीं कि उसका स्वरूप निर्धारण नहीं हो सकता। जिसके स्वरूप का पता नहीं लग सकता, उसके विवेच्य-विषय का भी हमें ज्ञान नहीं हो सकता। अतः दर्शन का विवेच्य विषय या विषय-वस्तु क्या है उस पर विचार करने से ही दर्शन के स्वरूप का ज्ञान हो सकता है।

दर्शन के स्वरूपज्ञान में सम्भवतः दर्शन की परिभाषा सहायक है। परन्तु दर्शन की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं उसकी समस्याएं परिवर्तनशील हैं। अत: उसकी परिभाषा में भी परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन काल से लेकर आज तक अनेक परिभाषायें दी जा चुकी है। परन्तु कोई परिभाषा अन्तिम नहीं। दर्शन शब्द स्वयं बड़ा ही व्यापक है। अंग्रेजी में दर्शन या ‘फिलासफी’ शब्द दो शब्दों के योग से बना हैफिलास तथा सोफिया जिसका अर्थ है ज्ञान के प्रति प्रेम (love for knowledge) है। प्रेम श्रद्धा या निष्ठा का सूचक है। अतः यह ज्ञान के प्रति निष्ठा है। हम किसी विषय के सम्बन्ध में अन्धकार में है। अतः उस विषय को समझना या जानना चाहते हैं जिससे विषय सम्बन्धी प्रकाश प्राप्त हो। अतः ज्ञान के प्रति यह श्रद्धा तो किसी जिज्ञासा की शांति है। इसीलिये दार्शनिकों का कहना है कि दर्शन का प्रारम्भ जिज्ञासा से होता है| जिज्ञासा आध्यात्मिक भूख या प्यास है। इस जिज्ञासा के कारण ही दार्शनिक विश्व की सभी वस्तुओं को आश्चर्य की दृष्टि से देखता है। सभी वस्तुओं की उत्पत्ति और स्थिति के सम्बन्ध में जानना चाहता है। इसीलिये पाश्चात्य दर्शन के महान दार्शनिक प्लेटो का कहना है कि दर्शन का प्रारम्भ आश्चर्य से होता है। (Philosophy begins in wonder) आश्चर्य ज्ञान का ही एक रूप है। दार्शनिक सभी विषयों या वस्तुओं का मूल कारण जानना चाहता है। सभी वस्तुओं की बौद्धिका व्याख्या चाहता है। इसी दृष्टि से वेबर महोदय कहते हैं कि दर्शनशास्त्र समग्र प्रकृति के मूल कारणों की खोज है। सभी वस्तुओं की व्याख्या का प्रयास है।

 एक आवश्यक प्रश्न यह है कि विश्व के सभी वस्तुओं का अध्ययन तो विज्ञान की विशेषता है। उदाहरणार्थ, प्राकृतिक विज्ञान (natural science) प्रकृति की प्रत्येक वस्तु का अध्ययन करना चाहता है। इस दृष्टि से तो दर्शन और विज्ञान का क्षेत्र एक ही प्रतीत होता है। परन्तु दोनों में भेद है। विज्ञान विश्व के किसी एक विभाग का सुव्यवस्थित अध्ययन (systematic study of the particular department of the world) है। उदाहरणार्थ, वनस्पति विज्ञान वनस्पति जगत् का सुव्यवस्थित अध्ययन है। दर्शनशास्त्र विश्व के किसी एक विभाग का नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व का अध्ययन है। सभी विषयों के मूल कारण की व्याख्या करने का प्रयास दर्शन ही करता है। इस प्रकार दर्शन की विधि विज्ञान की अपेक्षा अधिक व्यापक है। उसके अध्ययन का विषय विश्व का कोई विभाग नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व है। सम्पूर्ण विश्व का अध्ययन ही समग्रता है जो दर्शन की विशेषता है। यह वनस्पति, जीव, रसायन, आदि विभागों में नहीं विभाजित करता।

 

दर्शन के विभाग

दर्शन के प्रमुख तीन विभाग है-तत्त्वमीमांसा (Metaphysics) ज्ञानमीमांसा, (Epistemology) और नीतिमीमांसा (Ethics) उसके भी अवान्तर विभाग अनेक हैं। तत्त्वमीमांसा में परम तत्व के स्वरूप और संख्या पर विचार किया जाता है। उदाहरणार्थ, परम तत्व भौतिक है या आध्यात्मिक, परम तत्व चेतन है या अचेतन, संसार की उत्पत्ति भौतिक तत्वों से होती है या ईश्वर जगत् का कर्ता है। यह दर्शन शास्त्र का सबसे प्रमुख विभाग है और साधारणतः हम लोग दर्शनशास्त्र का अर्थ तत्वशास्त्र ही समझते हैं। महान् दार्शनिक अरस्तू ने दर्शन को तत्वशास्त्र माना है तथा इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उन्होंने ही किया है। ज्ञान मीमांसा में ज्ञान के स्वरूप, साधन, प्रामाणिकता आदि प्रश्नों पर विचार किया जाता है। नीति मीमांसा आचरण के औचित्य पर विचार करता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। अतः समाज में उसे कैसा आचरण करना चाहिये, किस कार्य को उचित और किसे अनुचित कहा जाय इत्यादि?

दर्शनशास्त्र का सबसे प्रमुख विभाग तत्वशास्त्र है। पाश्चात्य दर्शन के प्रारम्भ से ही तत्व पर विचार होता रहा है। ग्रीक युग, मध्ययुग और आधुनिक युग आदि सभी में तत्वविचार की प्रधानता रही है। परन्तु समकालीन युग (contemporary age) में उसमें परिवर्तन हुआ है। समकालीन दर्शन का एक महत्वपूर्ण सम्प्रदाय ताकिक भाववाद (logical positivism) है जो तत्वशास्त्र का घोर विरोधी है। इस सम्प्रदाय का मुख्य कार्य तत्व मीमांसा का निरसन (elimination of Metaphysics) है| इसके अनुसार तत्व मीमांसा के सभी वाक्य निरर्थक (meaningless) होते हैं। इसका विवरण तार्किक भाववाद में देखें।

 

दर्शन का अध्ययन विषय (subject matter)

दर्शन का अध्ययन क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। लोक, परलोक में ऐसा कोई विषय ही नहीं जो दर्शन का विषय न हो अर्थात सभी लौकिक और पारलौकिक विषय दर्शन के अध्ययन क्षेत्र के अन्तर्गत हैं। हम मुख्यतः दर्शन के तीन विभाग (तत्व, ज्ञान और नीति) मानते हैं। परन्तु दर्शन के विभागों का कहीं अन्त नहीं। इस अनन्तता का कारण यह है कि दर्शन समग्र या सम्पूर्ण जीवन का अध्ययन करता है। जीवन की समस्याएँ अनन्त हैं, अत: दर्शन का विषय भी अनन्त है। इसी दृष्टि से प्रो. केयर्ड का कहना है कि मानव ज्ञान का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, सम्पूर्ण तत्व के क्षेत्र में ऐसा कोई विषय नहीं, जो दर्शन के क्षेत्र के परे हो अथवा जो दार्शनिक गवेषणा की पहुँच के बाहर हो। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण मानव ज्ञान ही दर्शन का विषय है। जब सम्पूर्ण मानव जीवन ही दर्शन का विषय है तो सम्पूर्ण मानव ज्ञान भी दार्शनिक ज्ञान ही है। इस प्रकार दर्शन की परिधि के परे कुछ भी नहीं। दर्शन जीवन है और जीवन दर्शन है। इसी दृष्टि से कनिघम महोदय का भी कहना है कि दर्शन का जन्म तो साक्षात् जीवन और उसकी आवश्यकताओं से होता है। जीवन तो प्रत्येक व्यक्ति को जीना ही है। अत: कोई भी व्यक्ति यदि विचारपूर्ण जीवन जीता है, तो किसी सीमा तक वह दार्शनिक अवश्य है। दर्शन के बिना जीना तो व्यावहारिक स्तर पर भले ही सम्भव हो, वैचारिक स्तर पर असम्भव है।

 

दर्शन, विज्ञान तथा धर्म (Philosophy, Science and Religion)

दर्शन का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इस व्यापकता के कारण उसका सम्बन्ध प्राय: सभी विद्याओं से है। परन्तु विज्ञान और धर्म से उसका सम्बन्ध अत्यन्त महत्वपूर्ण है।। अतः दर्शन का विज्ञान और धर्म से सम्बन्ध की व्याख्या आवश्यक है।

 

दर्शन और विज्ञान (Philosophy and Science) :

दर्शन और विज्ञान का सम्बन्ध गम्भीर विवाद का विषय बना रहा है। प्रायः इनको एक दूसरे का विरोधी भी स्वीकार किया जाता है। परन्तु विचार करने पर स्पष्ट होता है कि ये सहयोगी है। तात्पर्य यह है कि उनमें विरोध तो अवश्य है, परन्तु उनके विरोध का समन्वय सहयोग में होता है।

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दर्शन और विज्ञान में विरोध स्वीकार करने वालों का कहना है कि जहां दर्शन है वहां विज्ञान नहीं और जहां विज्ञान है वहां दर्शन नहीं। अत: दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं। यदि सम्बन्ध भी है तो निषेधात्मक (Negative) है। दोनों ऐकान्तिक हैं। एक दूसरे से नितान्त भिन्न हैं। जिनमें नितान्त भेद होता है उनमें से एक का भाव दूसरे का अभाव सिद्ध करता है। यह अभाव निषेध है। विज्ञान की परिभाषाओं में एक प्रचलित परिभाषा यह है कि विज्ञान विश्व के किसी एक विभाग का सुव्यवस्थित। अध्ययन (a systematic study of the particular department of the universe) है। इसी दृष्टि से किसी विज्ञान को विशिष्ट अध्ययन (specialized study) माना जाता है। उदाहरणार्थ, भौतिक विज्ञान भौतिक पदार्थों का विशिष्ट अध्ययन है तो रसायन विज्ञान रासायनिक पदार्थों का विशिष्ट अध्ययन है। दर्शनशास्त्र भी विश्व का अध्ययन करता है। परन्तु सामान्य (general) ढंग से। दर्शनशास्त्र जब विश्व की उत्पत्ति, स्थिति आदि के विषय में विचार करता है तो सम्पूर्ण या समग्र विश्व के सम्बन्ध में विचार करता है। समग्रता का विचार सामान्य होगा। समग्रता या सम्पूर्णता की दृष्टि से ही हम विश्व के सम्बन्ध में मौलिक प्रश्नों पर दर्शन में विचार करते हैं। ये मौलिक प्रश्न ही सामान्य प्रश्न कहे जाते हैं जिन्हें कोई भी उठा सकता है। इस प्रकार दर्शन और विज्ञान में सामान्य और विशेष अध्ययन का भेद है। सामान्य अध्ययन विशेष अध्ययन नहीं हो सकता। इस कारण दोनों का अध्ययन-क्षेत्र भिन्न है।

अध्ययन क्षेत्र के साथ-साथ दोनों की अध्ययन-प्रणाली (Method) भी भिन्न-भिन्न है। दर्शन की प्रणाली परिकल्पनात्मक (speculative) है| विज्ञान की प्रणाली प्रयोगात्मक (experimental) है। दर्शन में अति-भौतिक या अतीन्द्रिय जगत के विषयों पर भी चिन्तन-मनन किया जाता है। इन विषयों का सांसारिक तथ्यों के आधार पर अध्ययन सम्भव नहीं, क्योंकि अतीन्द्रिय सत्य इन्द्रिय जगत के तथ्य नहीं हो सकते। ऐसे अतीन्द्रिय सत्यों के सम्बन्ध में केवल कल्पनाएं की जा सकती है। उसके विपरीत, विज्ञान में भौतिक या इन्द्रिय जगत के विषयों का अध्ययन किया जाता है। जो सांसारिक तथ्य कहे जाते हैं। इन तथ्यों की परीक्षा सम्भव है। उसी आधार पर वैज्ञानिक प्रणाली को प्रयोगात्मक माना जाता है। इस प्रणाली का प्रयोग दर्शन में नहीं हो सकता। अतीन्द्रिय सत्यों के सम्बन्ध में हम कुछ कल्पना ही कर सकते हैं।

प्रणाली भेद के कारण दर्शन और विज्ञान के निष्कर्षों में भी भेद होता है। विज्ञान के निष्कर्ष परीक्षित होते हैं। हम प्रयोग के आधार पर परीक्षित सत्य को ही निष्कर्ष स्वीकार करते हैं। यदि इनमें सन्देह या शंका हो तो पुनः इनकी परीक्षा सम्बन्धी सत्यता की जांच भी हो सकती है। इस प्रकार विज्ञान का निष्कर्ष सर्वदा परीक्षा का विषय है। उसके विपरीत दार्शनिक विधि तो परिकल्पनात्मक है। अत: इसके निष्कर्ष रूप में केवल हमें मान्यताएं प्राप्त होती हैं। किसी मान्यता के पक्ष या विपक्ष में तर्क तो दिया जा सकता है। परन्तु इसकी परीक्षा सम्भव नहीं तथा जिसकी परीक्षा सम्भव नहीं, वह कोरी कल्पना या मान्यता ही हो सकती है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि दर्शन और विज्ञान एक दूसरे के नितान्त विरोधी हैं। परन्तु वर्तमान युग में उन दोनों की दूरी को समाप्त करने का सफल प्रयास किया जा रहा है तथा दोनों में निकटता भी दिखलायी पड़ रही है। समकालीन युग में दर्शन अवैज्ञानिक होकर जीवित नहीं रह सकता तथा विज्ञान अदार्शनिक रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। आज दर्शन का एक महत्वपूर्ण विभाग विज्ञान का दर्शन (philosophy of science) है जो दर्शन और विज्ञान का मिलनविन्दु (meeting point) कहा जा सकता है। तार्किक अणुवाद (logical Atomism) और तार्किक भाववाद (logical positivism) में दर्शन की प्राचीन मान्यताओं का निराकरण है तथा आधुनिक और वैज्ञानिक मान्यताओं का समर्थन है|

भाषाविश्लेषण (linguistic analysis) आज के दर्शन का एक प्रमुख अंग है। परन्तु उसमें व्याकरण के नियमों के आधार पर भाषा की शुद्धता पर विचार नहीं किया जाता। उसमें अवधारणाओं या प्रत्ययों का विश्लेषण (conceptual analysis) किया जाता है। जिसके कारण अवधारणायें अधिक स्पष्ट होती हैं। दर्शनशास्त्र में हम अवधारणाओं पर विचार करते हैं। अवधारणायें भाषा के माध्यम से ही स्पष्ट होती हैं, परन्तु दार्शनिक अवधारणाओं को स्पष्ट करने वाली भाषा दुरूह तथा दुर्गम होती है। इन्हें सुगम तथा सुबोध बनाने की आवश्यकता है। जिसके लिये भाषा में अवधारणाओं का विश्लेषण अत्यन्त आवश्यक है। अब दर्शन में वैज्ञानिक प्रत्ययों का भी विश्लेषण किया जा रहा है। अतः कुछ दार्शनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं का स्पष्टीकरण, दर्शन का एक प्रमुख कार्य स्वीकार कर रहे हैं। ।

कुछ विद्वान तो विज्ञान और दर्शन के विषय को भी मिलाने का प्रयास कर रहे हैं। उनका कहना है कि विज्ञान अपने विषयों का निरीक्षण-परीक्षण अवश्य करता है। अतः परीक्षा पद्धति तो विज्ञान की विशेषता है। इसीलिये इसके निष्कर्ष सर्वमान्य होते है। परन्तु विज्ञान कुछ मौलिक मान्यताओं को यथावत् स्वीकार करता है। उन मान्यताओं की परीक्षा नहीं करता। उदाहरणार्थ, कार्य-कारण नियम, दिक्-काल आदि की वस्तुनिष्ठ अवधारणाएँ आदि की विज्ञान परीक्षा नहीं करता। इन मान्यताओं को समस्या मानकर दर्शन इनकी विवेचन करता है। अतः विज्ञान की पूर्व मान्यताएं तो दर्शन की समस्याएं (the presuppositions of sciences are the problems of philosophy) हैं। इससे स्पष्ट है कि दर्शन विज्ञान की नींव को अधिक सुदृढ बनाने में साधक है। अतः दर्शन विज्ञान का विरोधी नहीं। विज्ञान के मार्ग में बाधक नहीं। कुछ विद्वान तो यहां तक स्वीकार करते हैं कि दर्शन विज्ञान को विषय भी प्रदान करता है।

प्राचीन काल से जिन विषयों पर दार्शनिक चिन्तन होते रहे हैं, वे अब विज्ञान के महत्वपूर्ण विषय बन गये हैं। उदाहरणार्थ, परमाणुवाद आज के विज्ञान का बहु-चर्चित विषय है। परन्तु यह दर्शन का बड़ा ही पुराना विषय है। हम ग्रीक काल से ही परमाणुवादी अवधारणाओं से सुपरिचित है। अतः आज के वैज्ञानिक परमाणुवाद का आधार तो प्राचीन दार्शनिक परमाणुवाद ही कहा जा सकता है। भेद इतना ही है कि जिस परमाणुवाद की स्थापना दार्शनिक परिकल्पना पर किया करते थे, उसे वैज्ञानिक प्रयोगशाला में सिद्ध कर रहे हैं। अतः परिकल्पना का परमाणुवाद प्रयोग का परमाणुवाद हो गया है।

विज्ञान के कुछ ऐसे भी विभाग हैं जहां परिकल्पना और प्रयोग एक साथ कार्य करते हैं। उदाहरण के लिये मनोविज्ञान (psychology) तो विज्ञान की शाखा है। परन्तु उसमें परिकल्पना (speculation) और प्रयोग (experiment) दोनों को अपनाया जाता है। अतः मनोविज्ञान के क्षेत्र में दर्शन और विज्ञान का पारम्परिक विरोध समाप्त हो जाता है तथा दोनों एक दूसरे के निकट आ जाते है।

वर्तमान युग में दर्शन और विज्ञान की दूरी को समाप्त करने का अधिक प्रयास किया जा रहा है। कुछ महत्वपूर्ण दार्शनिक वैज्ञानिक भी हैं। वी. रसेल, ए. एन. वाइट हेड, अल्फ्रेड आइन्सटीन आदि विद्वान दर्शन और विज्ञान दोनों क्षेत्रों में प्रसंशा के पात्र हैं। इन विद्वानों ने कुछ ऐसे विषयों पर विचार किया है जो दर्शन और विज्ञान दोनों क्षेत्रों में उपयोगी है। वी. रसेल की प्रिन्सिपिआ मेथेमेटिका दर्शन और विज्ञान दोनों के लिये महत्वपूर्ण है। रसेल का तार्किक अणुवाद (लाजिकल अटोमिज्म), वाइट हेड का समय सातत्य और आइन्सटीन का सापेक्षतावाद दोनों क्षेत्रों में उपयोगी माने जाते हैं।

वी. रसेल ने तो यहां तक स्वीकार किया है कि दर्शनशास्त्र प्राकृतिक विज्ञानों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। उनका कहना है कि दर्शनशास्त्र में सम्पूर्ण विश्व सम्बन्धी कल्पनाओं को अवश्य रखना चाहिये, क्योंकि विज्ञान ऐसी कल्पनाओं की न तो पुष्टि करता है और न निराकरण। सम्पूर्ण विश्व सम्बन्धी कोई भी सिद्धान्त न तो सिद्ध हो सकता है और न असिद्ध परन्तु ये सिद्धान्त तो दर्शन की देन हैं जिन्हें स्वीकार या अस्वीकार करने में विज्ञान लगा रहता है। ऐसे वैज्ञानिक विषयों को दर्शन के अतिरिक्त कौन दे सकता है? उसी प्रकार सी. डी. बोड का कहना है कि दर्शन के दो प्रमुख कार्य है2-समीक्षा (criticism) और परिकल्पनात्मक विचार (speculative thought) पहला वैज्ञानिक सत्यों का मूल्यांकन है तो दूसरा विज्ञान के लिये नवीन विषयों को प्रदान करना है। इस प्रकार समीक्षा और परिकल्पना द्वारा दर्शन विज्ञान का सहयोग करता है। अतः दर्शन और विज्ञान विरोधी नहीं सहयोगी हैं। दोनों वर्तमान युग में जीव और जगत का निष्पक्ष (neutral) तथा वस्तुनिष्ठ (objective) अध्ययन करना चाहते हैं। परम्परागत पक्षपात तथा पूर्वाग्रह से मुक्त हो स्वतंत्र सत्यों का प्रतिपादन दोनों का लक्ष्य है। अतः विश्व के वस्तुनिष्ठ अध्ययन में दोनों समानतः उपयोगी भी हैं।

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दर्शन और धर्म (Philosophy and Religion) :

दर्शन तथा धर्म का पारम्परिक सम्बन्ध विवादास्पद विषय रहा है। कुछ लोक दर्शन को धर्म मानते हैं तो कुछ लोग धर्म को दर्शन स्वीकार करते हैं। अतः दोनों की सीमा का निर्धारण और दोनों का पृथक्करण तो प्रायः असम्भव है, परन्तु दोनों एक दूसरे से किस सीमा तक प्रभावित हैं इस प्रश्न पर विचार सम्भव है। भारतीय दर्शन के परिप्रेक्ष्य में तो दोनों का पृथक्करण हो ही नहीं सकता, क्योंकि यहां प्रत्येक दर्शन एक सम्प्रदाय की देन है। और सम्प्रदाय का सम्बन्ध धर्म या धार्मिक मान्यताओं से है। अतः दर्शन धर्म से पृथक् नहीं। परन्तु पाश्चात्य परम्परा में यह सम्बन्ध विवादास्पद है। मध्य-युग का दर्शन ईसाइ दर्शन कहलाता है। इस युग के दार्शनिक संत कहलाते हैं और उन संत-दार्शनिकों का प्रमुख कार्य, धार्मिक आस्था को प्रबल बनाना है। अतः इस युग में ईसाई दर्शन तो ईसाई धर्म है। दोनों को पृथक् नहीं किया जा सकता।

१६ वीं शताब्दी के बाद धर्म और दर्शन का क्षेत्र पूर्णतः पृथक् प्रतीत होता है। देकाते, स्पीनोजा, लाइबनिट्ज आदि मुख्यतः दार्शनिक समस्यओं को धार्मिक मान्यताओं से । पृथक् स्वीकार करते हैं। अतः धर्म और दर्शन का पृथक्करण तो पूर्णतः पृथक् नहीं किया जा सकता। उसका कारण है कि दोनों की समस्याएं किसी सीमा तक समान हैं। इन समान समस्याओं के कारण ही धर्म-दर्शन (Philosophy of Religion) स्वीकार किया गया है। धर्म-दर्शन धर्म का दार्शनिक या बौद्धिक विवेचन है अथवा धर्म का दार्शनिक अध्ययन है। दर्शन के बिना धर्म अन्धा है तथा धर्म के बिना दर्शन रिक्त या खोखला है। दोनों में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है।

सामग्री और स्वरूप के समान दोनों किसी वस्तु के अपरिहार्य अंग हैं। जिस प्रकार स्वरूप के बिना सामग्री नहीं और सामग्री के बिना स्वरूप नहीं उसी प्रकार धर्म के बिना दर्शन नहीं और दर्शन के बिना धर्म नहीं। दर्शन में तर्क और व्याख्या की प्रधानता है, परन्तु तर्क और व्याख्या के तो मूल उपादान धर्म से ही प्राप्त होते हैं। धार्मिक सत्य तो दार्शनिक व्याख्या के आधार-वाक्य हैं। पुनः सामग्री अपने मूल रूप में ग्राह्य नहीं हो सकती। इन्हें ग्राह्य बनाना तो दर्शन की देन है। धर्म के मूल वाक्य प्रायः अस्पष्ट होते हैं। इन्हें सुस्पष्ट बनाना दर्शन का कार्य है। अतः दर्शन और धर्म में घनिष्ठ सम्बन्ध है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि दोनों एक हैं। दोनों के क्षेत्र भिन्न-भिन्न है।

 

 

दर्शन क्या है

 

दर्शन और धर्म में भेद 

 

(क) दर्शन की उत्पत्ति जिज्ञासा से होती है। मनुष्य ईश्वर, स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म आदि विषयों को जानना चाहता है। मनुष्य एक प्रकार के असन्तोष का अनुभव करता है। दर्शन ज्ञान की पिपासा है। धर्म की उत्पत्ति आध्यात्मिक भूख के कारण होती है। मनुष्य अपने को निर्बल और असहाय सा महसूस करता है। वह देवी-देवता आदि अदृष्ट शक्तियों का सहारा लेना चाहता है। अगोचर शक्तियों से सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य कुछ अपेक्षा करता है। इस आध्यात्मिक भूख से ही धर्म की उत्पत्ति होती है।

(ख) दर्शन आध्यात्मिक तत्त्वों की खोज करता है तो धर्म आध्यात्मिक मूल्यों की खोज करता है। ईश्वर, जीव, जगत् आदि का यथार्थ स्वरूप क्या है-यह दर्शन के विषय हैं। धर्म, ईश्वर आदि विषयों की मानव के लिए उपयोगिता पर बल देता है। पहले के लिए ईश्वर परम-तत्त्व है। दूसरे के लिए ईश्वर परम मूल्य है, जिसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य हर सम्भव प्रयास करता है। ईश्वर के स्वरूप का निर्देश करना दर्शन का कार्य है परन्तु ईश्वर-साधन का मार्ग बतलाना धर्म का कार्य है।

(ग) दर्शन बुद्धि प्रधान है और धर्म भावना प्रधान है। पहले में तर्क का महत्व है, दूसरे में आस्था का तर्क की कसौटी पर धार्मिक तथ्यों को परखना दर्शन का कार्य है परन्तु तर्क से अगम्य रहस्यात्मक अनुभूति को बतलाना धर्म का कार्य है। दोनों की प्रक्रिया में अन्तर है।

(घ) दर्शन सैद्धान्तिक है और धर्म व्यावहारिक दर्शन प्रायः जीवन-दर्शन न होकर तत्त्व-दर्शन होता है। दर्शन को हम जीवन से अलग कर सकते हैं। धर्म जीवन-यापन की प्रणाली है, इसे जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। मनुष्य अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जीवन-यापन करता है, परन्तु दार्शनिक सिद्धान्तों का सम्बन्ध हमारे जीवन से कम है। हम गैर ईसाई होकर ईसाई दर्शन के प्रामाणिक ज्ञाता हो सकते हैं परन्तु ईसाई हुए बिना ईसाई-धर्म का यथार्थ रसास्वादन नहीं कर सकते।

(ङ) दर्शन और धर्म के लक्ष्य में भेद है, दर्शन मुख्यत: ज्ञानात्मक है। यह परम-तत्त्व के यथार्थ ज्ञान पर बल देता है। धर्म का लक्ष्य परम-तत्त्व को प्राप्त करना है। दार्शनिक तर्क-वितर्क का प्रयोग कर ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान को स्पष्ट करता है। धार्मिक व्यक्ति ईश्वरीय अनुभूति को प्राप्त करना चाहता है। वह ईश्वर-प्राप्ति के विभिन्न साधन जैसे कर्म, भक्ति, ज्ञान आदि पर बल देता है।

(च) दर्शन का क्षेत्र धर्म की अपेक्षा अधिक व्यापक है। संसार के सभी विषय दर्शन के विषय हो सकते हैं। ऐसा कोई ज्ञान नहीं जिसका कोई दर्शन न हो। परन्तु धर्म का क्षेत्र संकुचित है। यह ईश्वर, आत्मा, जन्म, मरण आदि विषयों पर ही विचार करता है। संसार के बहुत से धर्म ईश्वर केन्द्रित हैं परन्तु संसार के बहुत से दर्शन ईश्वर-मुक्त हैं। ईश्वर के बिना दर्शन का कार्य चल सकता है, परन्तु धर्म का कार्य प्रायः नहीं चल सकता।

(छ) दार्शनिक विषयों के अध्यय में तटस्थता तथा निष्पक्षता अधिक होती है, परन्तु धार्मिक विषयों के अध्ययन में अन्धविश्वास और कट्टरता अधिक होती है।

यही कारण है कि धर्म में मतभेद अधिक उत्पन्न होता है। धार्मिक विश्वास इतने प्रबल होते हैं कि वे मनुष्य को हठधर्मी बना देते हैं, परन्तु दर्शन के क्षेत्र में तटस्थ विचारों का महत्व अधिक है।

वस्तुतः धर्म और दर्शन एक दूसरे के पूरक हैं। दर्शन धर्म की सहायता करता है और धर्म दर्शन की| दर्शन धर्म की बौद्धिक व्याख्या कर धर्म को प्रगतिशील बनाता है। इससे धर्म रूढ़िवादिता और अन्ध-विश्वास से ग्रसित नहीं हो पाता। दूसरी ओर धर्म भी दर्शन का सहायक है। धर्म के कारण ही दर्शन के शुद्ध बौद्धिक सत्य जीवन के लिए उपयोगी बनते हैं। तात्पर्य यह है कि धर्म, दर्शन को व्यावहारिक बनाता है। इसलिये कहा जाता है कि धर्म दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है तथा दर्शन धर्म का सैद्धान्तिक पक्ष।

 

 

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