samaj-sashtra-ki-prakriti-aur-vishtaye

समाजशास्त्र की प्रकृति और समाजशास्त्र मुख्य विशेषताएं

दोस्तो इस पोस्ट में हम लोग समाजशास्त्र से संबंधित कुछ तथ्य जानने का प्रयास करेंगे जैसे कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की विशेषताएं,समाजशास्त्र की प्रकृति से संबंधित मुख्य विशेषताएं क्या है?,समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की प्रकृति और उपयोगिता आदि विषयों पर चर्चा करेंगे।

समाजशास्त्र की प्रकृति से संबंधित मुख्य विशेषताएं क्या है?

 

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त तर्क पर आधारित वह अवधारणा है, जो कि क्षेत्र  की दृष्टि से सीमित तथा आडम्बरहीन है। व्यवस्थित समाजशास्त्रीय सिद्धान्त प्रारम्भिक सिद्धान्तों के विभिन्न भागों का संग्रह है, जो कि अनुसन्धान कार्य द्वारा जाँच किये जाने के बाद भी अपना अस्तित्व बनाये रखता है। स्पष्ट है कि समाजशात्रीय सिद्धान्त एक चट्टान के टुकड़े के समान है, जो अनेक तत्वों से मिलकर बना होता है।

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की प्रकृति

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त शब्द व्यापक रूप से समाजशास्त्रीय कहलाने वाले व्यावसायिक समूह के सदस्यों द्वारा किए गये परस्पर सम्बन्धित, लेकिन स्पष्ट क्रियाकलापों की उपजों को बताने के लिए प्रयोग किया जाता है। किन्तु ये सभी उपज समाजशास्त्रीय सिद्धान्त नहीं हो सकते हैं।

राबर्ट के0 मर्टन के अनुसार, प्रायः छ: प्रकार के कार्यों को एक साथ जोड़कर समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की रचना की जाती है –

1 अध्ययन की प्रणाली या अध्ययन पद्धति या पद्धतिशास्त्र।

2. सामान्य समाजशास्त्रीय अभिमुखन या अभिविन्यास।

3. समाजशास्त्री संकल्पनाओं (Concept) का विश्लेषण

4. तथ्योत्तर समाजशास्त्रीय निर्वचन या व्याख्याएँ।

5. समाजशास्त्र के अनुभव पर आधारित (प्रयोगसिद्ध) सामान्यीकरण।

टिमासेफ के मतानुसार, समाजशास्त्रीय सिद्धान्त कुछ समस्याओं के चारों ओर घूमता है। प्रश्नों के रूप में समस्याएँ हैं-

  1. समाज क्या है तथा संस्कृति क्या है?
  2. वे कौन सी मौलिक इकाइयाँ हैं, जिनके अन्तर्गत समाज एवं संस्कृति को विश्लेषित किया जाना चाहिए।
  3. समाज, संस्कृति तथा व्यक्तित्व के बीच परस्पर क्या ‘सम्बन्ध है? ।
  4. ऐसे कौन से कारण हैं, जो किसी भी समाज या संस्कृति की दिशा को या उसमें होने वाले परिवर्तनों का निर्धारण करते हैं। –
  5. समाजशास्त्र क्या है तथा उसकी उपर्युक्त विधियाँ क्या हैं?

 कोहन के मतानुसार, समाजशास्त्रीय सिद्धान्त विभिन्न कारणों से विज्ञान की कसौटी पर खरे नहीं सिद्ध होते हैं। ऐसे कारणों में मुख्य कारण हैं —

  1. कुछ समाजशास्त्रीय सिद्धान्त विश्लेषणात्मक सिद्धान्तों से मिलते-जुलते होते हैं। अतः अनुभवों के आधार पर उनका परीक्षण सम्भव नहीं होता है। ।
  2. कई समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का परीक्षण इस कारण कठिन होता है, क्योंकि वे अस्पष्ट होते हैं तथा उनका परीक्षण सम्भव नहीं हो पाता।
  3. कुछ समाजशास्त्रीय सिद्धान्त न तो सार्वभौम (Universal) कथन होते हैं और न तथ्यों के कथन ही होते हैं। इसी कारण उन्हें वैज्ञानिक रूप से सही सिद्धान्त के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। मूल्यों पर आधारित सिद्धान्त इसी प्रकार के होते हैं।
See also  परिवार क्या हैं,अर्थ,परिभाषा व विशेषताएं

उपरोक्त विचारों के आधार पर समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की प्रकृति निम्नानुसार है।

  1. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त केवल तथ्यों पर आधारित सामान्यीकरण (Generalization) ही नहीं होता, वरन् उच्च स्तर की अमूर्त एवं सम्बन्धित अवधारणाओं पर आधारित सामान्यीकृत सिद्धान्त होता है।
  2. तत्सम्बन्धित उपकल्पनाओं (Hypothesis) के आधार पर ही समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का विकास सम्भव होता है।
  3. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त अमूर्त (Abstract) होता है।
  4. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त अनुसन्धान को प्रेरित करके अनुसन्धानिक आधार पर ही निर्मित होता है।
  1. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त उपकल्पनाओं के निर्धारण और उनकी सत्यता जाँच करने यानी परीक्षण में सहायक होता है।
  2. संकलित/उपबन्ध तथ्यों से सार्थक या निरर्थक समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की प्रतिपादन/निर्माण समाज वैज्ञानिक पर ही निर्भर होता है।
  3. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त दीर्घकालीन अथवा अल्पकालीन महत्व/उपयोगिता के होते हैं।
  4. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सामाजिक घटनाओं के सन्दर्भ में भविष्यवाणी (Prediction) करने में सहायक होता है।

स्पष्ट है कि कोई भी समाजशास्त्रीय सिद्धान्त तत्काल नहीं बन जाता है, क्योंकि इसके निर्माण की एक निश्चित प्रक्रिया होती है। यही कारण है कि प्रत्येक समाजशास्त्रीय  सिद्धान्त का अनिवार्य रूप से इस प्रक्रिया में से होकर गुजरना पड़ता है। इसी प्रक्रिया को समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की प्रकृति कहा जाता है। एक सिद्धान्तकार अपने पूर्ववर्ती  सिद्धान्तकारों के कन्धे पर खड़ा रहता है। सर्वप्रथम तथ्यों का निर्माण/संकलन होता है। फिर उनसे अवधारणा बनती है। तदुपरान्त अवधारणा में पाए जाने वाले तार्किक सम्बन्धों का निर्माण होता है। समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की रचना एक मानसिक क्रिया है, जिसमें विभिन्न विचारों को विकसित और पोषित किया जाता है, ताकि उनके माध्यम से तथ्य की व्याख्या की जा सके। घटनाएँ क्यों और कैसे घटित होती हैं, इसका निर्माण अनेक मौलिक तथ्यों से होता है। यदि किसी सिद्धान्त की गठरी को खोला जाए, तो उसमें सबसे नीचे तथ्य एवं अवधारणाएँ होंगी और उनके ऊपर चर तथा चरों के चारों तरफ कथन होंगे। इन सबके समन्वित स्वरूप की अभिव्यक्ति किसी न किसी प्रारूप (Format) होगी। समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के निर्माण में उपरोक्त सभी तत्व पाए जाते हैं।

See also  हिन्दू विवाह क्या है,अर्थ,उद्देश्य व विशेताएं

 

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की विशेषताएं

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की उपयोगिता को निम्नानसार स्पष्ट किया जा सकता है –

  1. प्रत्येक विज्ञान की अपनी एक अध्ययन पद्धति होती है, जिसके माध्यम से शोध कार्य किया जाता है। समाजशास्त्रीय सिद्धान्त अपनी अध्ययन पद्धति के सामान्य निष्कर्षों/परिणामों को सही दिशा प्रदान करता है।
  2. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त प्रयोगसिद्ध सामान्यीकरण में उपयोगी सहायता करता है।
  3. विभिन्न समाजशास्त्रीय सिद्ध ऐसे होते हैं, जिन्हें अनेक सिद्धान्तों के निष्कर्षों के रूप में प्राप्त किया जाता है। कुछ सिद्धान्त इस प्रकार के भी होते हैं जिनको विभिन्न तर्क वाक्यों में जोड़ा या प्रयोग किया जा सकता है।।
  4. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त अनेक तर्कवाक्य भी प्रदान करता है, जिससे निष्कर्ष निकाले जाते हैं।
  5. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त यह भी स्पष्ट करता है कि अनुसन्धानकर्ता का सामान्य दृष्टिकोण वैज्ञानिक है अथवा नहीं।
  6. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त कुछ अवधारणाओं द्वारा बनता है। यह तभी उपयोगी हो सकता है, जबकि अनुसन्धान द्वारा सिद्धान्त की वैज्ञानिकता और तार्किकता की जाँच की जाती है।

 

 

इन्हें भी देखें-

 

 

 

 

 

Disclaimer -- Hindiguider.com does not own this book, PDF Materials, Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet or created by HindiGuider.com. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: [email protected]

Leave a Reply