ग्रामीण विकास और भूदान आन्दोलन
भारत के ग्रामीण पुनर्निर्माण की दृष्टि से भूदान आन्दोलन का सूत्रपात प्रसिद्ध गाँधीवादी और सर्वोदयी नेता आचार्य विनोबा भावे ने किया। उनका विचार था कि भूदान एक सूत्र है, जिसका अभिप्राय है – धार्मिक अनुष्ठान की भावना से उत्प्रेरित होकर सबके द्वारा, सबके लिए त्याग और बलिदान है। भूदान आन्दोलन द्वारा सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाया जा सकता है। उनकी मान्यता थी – सबै भूमि गोपाल की, यानी भूमि प्रकृति की निःशुल्क भेंट है, अतः इस पर सभी का समान अधिकार है। देश में लगभग 5 करोड़ भूमिहीन रहते हैं, जिनके लिए 5 करोड़ एकड़ भूमि की आवश्यकता है।
भूदान का अर्थ और आवश्यकता
भूदान का अर्थ है – अपनी भूमि को यानी जमीन को दान कर देना। जो लोग भूमिहीन हैं, जिनके पास जीवन यापन का कोई साधन नहीं है, उन्हें भूमि को दान करना ही भूदान है। विनोबा जी इस कार्य को यज्ञ मानते थे. अतः ‘भूदान यज्ञ‘ भी कहा जाता है। उत्तर प्रदेश भूदान अधिनियम में कहा गया है, “भूदान यज्ञ वह आन्दोलन है, जो कि आचार्य विनोबा भावे ने भूमिहीनों के बीच वितरण करने के लिए चलाया है एवं जिसमें दाता स्वेच्छापूर्वक भूमि अर्पित करता है, ताकि भूमिहीन उसे प्राप्त कर सके।” आचार्य विनोबा भावे का कथन था कि जिस प्रकार जल और वायु ईश्वरीय देन हैं, वैसे ही भूमि भी ईश्वर की देन है। अतः भूमि पर सभी का समान अधिकार होना चाहिए। हमारा देश एक कृषि प्रधान समाज है। गाँवों में 72 प्रतिशत से भी अधिक लोग किसी न किसी प्रकार से कृषि पर ही निर्भर रहते हैं, किन्तु कृषि भूमि पर कुछ ही लोगों का अधिकार है। शेष भूमिहीन हैं। ऐसे लोगों के जीवन यापन की समस्या अत्यन्त ही कठिन है। अतः इन लोगों को भूमि उपलब्ध कराना ही भूदान का मुख्य लक्ष्य है।
भूमिहीन कृषक दूसरों की भूमि पर दिन-रात कठिन मेहनत करने के बाद भी निम्न एवं कष्टकर जीवन व्यतीत करते हैं। दूसरी ओर जिनके पास अत्यधिक जमीन है, वे दूसरों से अपनी जमीन जुतवाते हैं और निरन्तर धनवान होते जाते हैं। इसी का परिणाम है कि देश में एक ओर गरीबी और दूसरी तरफ अमीरी, एक तरफ असीम भूमि का संग्रहण, दूसरी तरफ भूमि से वंचित कृषक एवं मजदूर की संख्या बढ़ रही है। ऐसी विषमता को दूर करने की दृष्टि से भूदान यज्ञ की सफलता अत्यावश्यक है। भूदान केवल जमीन के पुनःवितरण का ही कार्यक्रम नहीं है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक क्रान्ति लाने का गाँधीवादी तरीका है। भूदान नए जीवन का सिद्धान्त और व्यवहार है। यह एक नया सामाजिक दर्शन है। नई मानवता और नई सभ्यता का सूत्रपात है। स्पष्ट है कि भूदान केवल भूमि के पुनर्वितरण से ही सम्बन्धित कार्यक्रम नहीं है, वरन इसका लक्ष्य ग्रामीण उद्योग धन्धों सो पुनर्जीवित करना गाँवों में बेरोजगारी कम करना और गाँवों में शक्ति को विकेन्द्रित करके ग्रामीणों में शारीरिक श्रम के प्रति आकर्षण उत्पन्न करना भी है।
विनोबा भावे ने भूदान यज्ञ के तीन लक्ष्य निर्धारित किए थे –
1. गाँवों में शक्ति का विकेन्द्रीकरण करना,
2. प्रत्येक व्यक्ति का भूमि एवं सम्पत्ति पर अधिकार होना तथा
३. मजदरी में भेदभाव नहीं बरता जाए। इन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु विनोबा भावे गाँव घमकर भूमि दान करने के लिए लोगों से अनुनय-विनय यानी प्रार्थना करते है।
भूदान यज्ञ/आन्दोलन का कार्यक्रम
1. भूदान यज्ञ लोगों को यह सोचने की प्रेरणा देता है कि वे स्वयं से पहले ही अपने पड़ोसियों के विषय में सोचें और यदि वे लोग भूमिहीन हैं तो उन्हें भूमि उपलब्ध कराएं।
2. केवल भूमि का पुनर्वितरण ही भूदान का लक्ष्य नहीं है। भूदान का लक्ष्य सम्पूर्ण राष्ट्र का नैतिक उत्थान करना भी है। भूदान यज्ञ के माध्यम से लोगों की आर्थिक कठिनाइयों और समस्याओं का समाधान भी होगा।
3. ग्रामीण उद्योग धन्धों को फिर से जीवित करना भूदान यज्ञ का एक अन्य लक्ष्य है। इससे गाँवों में व्याप्त बेरोजागरी की समस्या हल हो सकेगी। भूमि के समान वितरण के बिना ग्रामीण उद्योग धन्धों का सुचारु रूप से संचालन असम्भव होगा।
4. भूदान आन्दोलन का एक कार्यक्रम यह भी है कि शिक्षितों और अशिक्षितों को साथ-साथ कार्य करने का अवसर उपलब्ध कराया जाए, ताकि उनके बीच पाई जाने वाली दूरी/खाई दूर हो सके। विनोबा जी भूदान के माध्यम से शिक्षित लोगों में श्रम के प्रति सम्मान की भावना उत्पन्न करना चाहते थे। अतः उन्होंने श्रमदान को भूदान का एक आवश्यक अंग स्वीकार किया। उनता मत था कि श्रमदान से लोगों के जीवन में बदलाव आएगा। उन्होंने भूदान से प्राप्त होने वाली ‘पड़त भूमि‘ को श्रमदान तथा छात्रों के सहयोग से कृषि योग्य बनाने का लक्ष्य रखा था।
5. विनोबा भावे भूदान के साथ ही सम्पत्ति दान भी चाहते थे। उनका कहना था कि हमारे देश की अधिकांश सम्पत्ति सोने-चाँदी के रूप में मृत पड़ी है, अतः इसका लाभ सम्पूर्ण देशवासियों को मिलना चाहिए। जिन व्यक्तियों के पास ऐसी सम्पत्ति एकत्रित हो, उन्हें उसका एक भाग दान के रूप में दे देना चाहिए।
भूदान आन्दोलन का प्रारम्भ
स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त हैदराबाद के तेलंगाना क्षेत्र में कम्युनिस्टों ने भूमि वितरण की समस्या को लेकर भारी रक्तपात किया। उन्होंने भूस्वामियों से भूमि को छीनकर उसे भूमिहीन कृषकों और लघु कृषकों में वितरित करना शुरू किया। विनोबा जी को भूमि दान की प्रेरणा 1951 ई० में उस समय प्राप्त हुई, जब वे तेलंगाना क्षेत्र की यात्रा कर रहे थे। उन्होंने भूदान यज्ञ को कम्युनिस्ट कार्यक्रम के विकल्प के रूप में चुना। 18 अप्रैल. 1951 को जब वह तेलंगाना के नलकोण्डा जिले में स्थित पोचमपल्ली गाँव में पहुंचे तो वहाँ के हरिजनों ने उन्हें घेर लिया तथा निवेदन किया कि न तो उनके पास भूमि है, न काम है. फिर वे अपना जीवन किस प्रकार चलाएं। यदि हमें 80 एकड़ भूमि, 40 एकड़ सूखी एवं 40 एकड़ भीगी भूमि मिल जाए तो हमारी दशा में सुधार हो सकता है। विनोबा जी के मन में विचार आया कि सरकार से भूमि माँग ली जाए। किन्तु उन्होंने उपस्थित जनसमह से कहा कि है कोई ऐसा दाता जो इस माँग को पूरा करेगा। रामचन्द्र रेड्डी नामक एक भूस्वामी ने अपनी 100 एकड़ भूमि का दान करने की घोषणा की। यहीं से विनोबा भावे का भूदान आन्दोलन प्रारम्भ हुआ।
उन्होंने हिसाब लगाया कि यदि 5 करोड़ एकड़ भूमि को दान में प्राप्त कर लिया जाए तो इस देश के लिए यह पर्याप्त होगी। तेलंगाना क्षेत्र में मात्र बारह दिनों में ही उन्हें 12201 एकड़ भूमि दान में प्राप्त हो गई। सन् 1952-54 तक विनोबा भावे को करीब 3 करोड़ एकड़ भूमि दान में मिल गई थी।
भूदान आन्दोलन का महत्व एवं लाभ
भूदान एक धार्मिक, आर्थिक और वैज्ञानिक विचार है, जिसमें धर्म, अर्थ और विज्ञान तीनों तत्व पाए जाते हैं। धर्म हमें करुणा का पाठ पढ़ाता है, अर्थ धनोपार्जन की शिक्षा देता है और विज्ञान सहयोग का सन्देश प्रदान करता है। भूदान यज्ञ आर्थिक विषमता से उत्पन्न होने वाली हिंसक क्रान्ति से बचने का उपाय है, जिसका उद्देश्य बेरोजगारी को दूर करना है। यह समाजवादी और समतावादी समाज की स्थापना का अन्तिम कदम भी है, जो देश और समाज का नक्शा बदल सकता है । भूदान आन्दोलन द्वारा एक ऐसा अनुकूल मनोवैज्ञानिक वातावरण निर्मित हो सकता है, जिससे हमारी भावी समस्याएँ अत्यन्त सरल बन सकती हैं। भूदान यज्ञ के महत्व को निम्नानुसार स्पष्ट किया जा सकता है –
1. भूदान कार्यक्रम के माध्यम से भूमिहीन कृषकों एवं श्रमिकों में अहिंसात्मक तरीके से भूमि का वितरण हो जाएगा। भू-स्वामी अपनी इच्छाओं से ही भूमि को दान में देते हैं। साम्यवादी व्यवस्था के समान रक्तपात और जोर-जबर्दस्ती से भूमि छीनने की आवश्यकता नहीं होती है।
2. भूदान से प्राप्त भूमि के लिए सरकार को मुआवजा नहीं देना पड़ता, जिससे सरकार पर व्यय का भार नहीं बढ़ता।
3. इससे खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ता है। क्षेत्रफल बढ़ने से अन्न उत्पादन बढ़ता है तथा देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होता है।
4.भूदान आन्दोलन का एक उद्देश्य देश में सामाजिक क्रान्ति लाना है, ताकि मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण और उत्पीड़न समाप्त हो एवं अधिकतम हित कल्याण हो।
5. भूदान आन्दोलन द्वारा भूमिहीन कृषकों और श्रमिकों की आर्थिक दशा सुधरती है, उनकी सुख शान्ति बढ़ती है।
6. यह सहकारिता को प्रोत्साहित करने वाला आन्दोलन है। अतः सहकारी खेती को बढ़ावा मिल सकता है।
7. भूदान से प्राप्त जमीन के स्वामी बनने से भूमिहीनों की बेकारी की समस्या दूर होगी।
8. इससे पडी या बंजर भूमि पर उत्पादन होने लगेगा, फलस्वरूप ग्रामीण समद्धि में वृद्धि होगी।
9. धनी और निर्धन लोगों के बीच का अन्तर कम होगा और वर्गहीन तथा शोषणविहीन समाज की स्थापना सम्भव होगी।
भूदान आन्दोलन की कमियाँ एवं आलोचना
1. भूदान यज्ञ से प्राप्त हुई अधिकांश भूमि पथरीली, अनुपजाऊ और कषि की दधि से पिछड़ी हुई थी या उस भूमि पर मुकदमा चल रहा था। कुछ भूमि ऐसी भी थी जिस पर काननी रूप से दानदाता का अधिकार समाप्त हो गया था, अथवा जो सीलिंग काटना एवं जमींदारी उन्मुलन अधिनियम के अन्तर्गत सरकार के अधिकार में आ रही थी। ऐसी जामीन के पुनःवितरण में कई कानूनी अड़चनें थीं। भूमि के पुनःवितरण में कई व्यक्तियों ने अपने प्रभाव का अनुचित प्रयोग किया था। कई स्थानों में पुनः वितरण में अनावश्यक विलास भी हुआ था।
2. इस आन्दोलन की सबसे बड़ी कमी यह थी कि इसमें केवल धनिक और भू-स्वामीक वर्ग से प्रार्थना की गई थी, गरीबों तथा भूमिहीनों से नहीं। उन्हें भी इस बात के लिए जागरूक किया जाना चाहिए था कि उन्हें दी गई जमीन जमीदार उनसे पुनः छीन न ले और भूमि की आवश्यकता है।
3.देश में पहले से ही भूमि के छोटे-छोटे टुकड़े हैं। भूदान के फलस्वरूप ऐसे टुकड़ों की संख्या और भी अधिक बढ़ गई। इसका उत्पादन पर बुरा प्रभाव देखा गया।
4.जिन लोगों को भूमि प्रदान की गई, उनके पास खेती करने के लिए न तो आवश्यक, उपकरण थे, न धन-सम्पत्ति। फलस्वरूप कृषि उपज बहुत गिरी हुई दशा में ही रही। साधनों की कमी के कारण बहुत सारी भूमि पर कृषि कार्य किया ही नहीं गया।
5. कुछ आलोचकों के अनुसार, भूदान एक अपर्याप्त आन्दोलन था। भूमिहीन कृषकों को केवल भमि दे देना ही काफी नहीं था। भूमि के साथ-साथ उसे जोतने-बोने के साधनों को उपलब्ध कराना आवश्यक था, जिसकी भूदान आन्दोलन ने पूर्ण उपेक्षा की थी।
6. भारतीय कृषकों में अपनी भूमि से असीम प्रेम रहता है। अतः उनसे दान में भूमि प्राप्त करना कठिन है। यही कारण है कि इस आन्दोलन को अभी तक कुल 50 लाख एकड़ भूमि मिल सकी है, जो लक्ष्य का 1/10 भाग से भी कम है और इसमें भी काफी बड़ा भाग बंजर और ऊसर भूमि का है।
7. इस आन्दोलन की एक कमी यह भी है कि दान में प्राप्त भूमि का पुनर्वितरण शीघ्र ही नहीं हो पाता। भूदान आन्दोलन में प्राप्त हुई 45 लाख एकड़ भूमि में से केवल 12 लाख एकड़ भूमि का ही वितरण अभी तक किया जा सका है।
उपरोक्त कमियों/दोषों के बाद भी यह स्वीकार किया जाता है कि भूदान आन्दोलन का विचार निःसन्देह अपनी तरह का एक अनूठा विचार है, जो हमारे देश की समृद्धि की दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त है। यह आन्दोलन देश में महत्वपूर्ण भूमि-सुधारों के लिए अनुकूल परिवेश उत्पन्न करने में गौरवपूर्वक सफल हुआ है। भूदान आन्दोलन के माध्यम से भारत ने संसार को दिखा दिया है कि भूमि वितरण की जटिल समस्या को शान्तिपूर्ण तरीके से हल किया जा सकता है। इस आन्दोलन की प्रगति यद्यपि अधिक तेज नहीं रही है, फिर भी भारत जैसे विशाल देश और बहल समाज में इसकी शरुआत आशाजनक रही है।
समय आ गया है कि इस आन्दोलन को कुछ भागों में बांट दिया जाए – प्रथम भाग का कार्य भूमि एकत्रण करने तक ही सीमित रखा जाए। दूसरे भाग का कार्य एकत्रित भूमि को उपजाऊ बनाना होना चाहिए. ताकि भूमि प्राप्त करने वाला गरीब कृषक उस पर तुरन्त खेती कर सके। तीसरे भाग का कार्य धन एकत्रण होना चाहिए, ताकि भूमि को उपजाऊ बनाने और अन्य कार्यों में धनाभाव न रहे। भूमि वितरण में होने वाली अनावश्यक देरी को दूर किया जाना भी आवश्यक होगा। भूमि केवल उन्हीं भूमिहीनों को दी जानी चाहिए, जिसकी उनको सबसे अधिक आवश्यकता है, जो तुरन्त उस भूमि पर खेती करने की दशा में हो।
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