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हण्ट शिक्षण प्रतिमान : चिन्तन स्तर का शिक्षण | Hunt Teaching Model in Hindi

इस पोस्ट में हम लोग हण्ट शिक्षण प्रतिमान, चिन्तन स्तर का शिक्षण, चिन्तन स्तर शिक्षण को प्रभावित करने वाले कारक, चिन्तन स्तर के शिक्षण का प्रतिमान, चिन्तन स्तर के शिक्षण की आलोचना, हण्ट शिक्षण मॉडल, चिन्तन स्तर के शिक्षण सुधार हेतु सुझाव आदि विषयों में चर्चा करेगें।

 


 

हण्ट शिक्षण प्रतिमान: चिन्तन स्तर का शिक्षण

चिन्तन स्तर को विचारयुक्त (Thoughtful) शिक्षण स्तर की संज्ञा भी दी जाती है। इस स्तर में उपर्युक्त वर्णित स्मृति तथा बोध दोनों स्तरों का शिक्षण सम्मिलित होता है। इन दोनों स्तरों पर शिक्षण में जितनी सफलता मिलती है, चिन्तन स्तर का शिक्षण भी उतना ही सफल होता है। चिन्तन स्तर का शिक्षण समस्या केन्द्रित होता है। इसमें छात्र कार्य करने के स्थान पर विषय की ओर एक मौलिक काल्पनिक तथा समीक्षात्मक विधि का अनसरण करता है और समझी हुई पाठ्य-वस्तु पर गहनता एव गम्भीरता से मनन करता है और उसके सम्बन्ध में अपना मौलिक दृष्टिकोण अपनाने का प्रयत्न करता है।

चिन्तन स्तर के शिक्षण में छात्र अधिक क्रियाशील रहता है या कक्षा का वातावरण भी खुला होता है। इसमें छात्रों के बौद्धिक व्यवहार के विकास के लिए अवसर प्रदान किया जाता है तथा सृजनात्मक क्षमताओं के विकास में भी सहायक सिद्ध होता है। चिन्तन स्तर के शिक्षण के बारे में बिग्गी ने लिखा है, “चिन्तन स्तर पर कक्षा में अधिक सजीव, प्रेरणादायी, सक्रिय, आलोचनात्मक तथा संवेदनशील वातावरण उत्पन्न किया जाता है। यह वातावरण नवीन तथा मौलिक चिन्तन को खुला अवसर प्रदान करता है। इस प्रकार का शिक्षण बोध स्तर के शिक्षण की अपेक्षा अधिक उत्पादक होता है।”

वारेन ने ‘चिन्तन’ को परिभाषित करते हुए कहा है, “चिन्तन प्रतीकात्मक प्रकृति वाली, व्यक्ति के सम्मुख उपस्थित किसी समस्या अथवा काम से प्रारम्भ होने वाली, कुछ प्रयत्न और भूल सम्मिलित करने वाली, परन्तु उसकी समस्या तत्परता से प्रभावित और समस्या के निष्कर्ष या हल पर पहुँचाने वाली एक प्रत्यात्मक क्रिया है।”

कार्टर वी. गुड के अनुसार, ‘चिन्तन’ का अर्थ:

(1) मानसिक क्रिया जो संवेदना से विशिष्ट है एवं सहयोगी तथा समस्या समाधान प्रस्तुत करती है,

(2). कुछ व्यवहारवादियों द्वारा प्रस्तुत आंशिक व्यवहार, जैसे, आहिस्ता बोलना, जो बाह्य व्यवहार को क्रम से प्रकट करता है, इस प्रकार चिन्तन के माध्यम से समस्या समाधान में क्रिया-क्रम एवं ‘अन्वीक्षा तथा विभ्रम’ प्रकट होते हैं तथा सूक्ष्म कार्य अनुक्रिया के रूप में प्रकट होते हैं।

 

चिन्तन स्तर शिक्षण को प्रभावित करने वाले कारक

(1) रुचि व लगन,

(2) बुद्धि,

(3) सतर्कता व लचीलापन,

(4) सशक्त प्रेरणा,

(5) भाषा का ज्ञान,

(6) प्रत्ययों का निर्माण,

(7) अन्धविश्वासों का प्रभाव एवं

(8) समय सीमा।

 

चिन्तन स्तर के शिक्षण का प्रतिमान

श्री हण्ट ने चिन्तन स्तर के शिक्षण प्रतिमान को प्रतिपादित किया। हण्ट ने चिन्तन स्तर के शिक्षण के प्रतिमान को निम्नलिखित सोपानों में वर्णित किया है : 

1. उद्देश्य (Focus)-चिन्तन स्तर शिक्षण के प्रमुख रूप से तीन उद्देश्य होते हैं :

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(अ) समस्या समाधान की क्षमताओं का विद्यार्थियों में विकास करना।

(ब) विद्यार्थियों की स्वतन्त्र तथा मौलिक चिन्तन करने की शक्ति का विकास करना,

(स) विद्यार्थियों में आलोचनात्मक व सृजनात्मक चिन्तन का विकास करना।

2. संरचना (Syntax)-चिन्तन स्तर के शिक्षण की संरचना में चार सोपानों का अनुसरण किया जाता है :

(क) चिन्तन स्तर के शिक्षण में सर्वप्रथम शिक्षक छात्रों के सामने समस्यात्मक परिस्थिति उत्पन्न करते हैं,

(ख) छात्र समस्या समाधान हेतु उपकल्पना का निर्माण करते हैं,

(ग) तत्पश्चात् उपकल्पनाओं की पुष्टि के लिए आवश्यक प्रदत्तों का संकलन किया जाता है,

(घ) चौथे सोपान में उपकल्पना का परीक्षण किया जाता है और उसके अनुसार निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

संरचना में समस्यात्मक परिस्थितियाँ 

1. डीवी की समस्यात्मक परिस्थिति (Dewey’s Problematic Situation) :

डीवी महोदय ने व्यक्तिगत समस्या की तीन परिस्थितियाँ बताई हैं :

(अ) प्रथम स्थिति में व्यक्ति को अपने लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग में बाधायें दिखाईदेती हैं इसे ‘पथरहित परिस्थिति’ (Non-Path Situation) कहते है। इसमें व्यक्ति बाधाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए समाधान सोचता है,

(ब) दूसरी स्थिति में व्यक्ति के सामने दो लक्ष्य होते हैं जो उसे समान रूप से आकर्षित करते हैं, तो उसके सामने यह समस्या होती है कि किसको प्राप्त किया जाये और किसे छोड़ा जाये ? इसे दो नोक वाली पथ परिस्थिति कहा जाता है; एवं

(स) तीसरी स्थिति में व्यक्ति के समक्ष एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के दो मार्ग होते हैं और दोनों ही सुगम होते हैं। यहाँ व्यक्ति किस मार्ग का अनुसरण करे, यह तनाव की स्थिति हो जाती है और समस्यात्मक परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है।

2. कूट लेविन की समस्यात्मक परिस्थिति :

कई लेविन महोदय ने बताया कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन-क्षेत्र (Life space) होता है, जिसकी प्रकृति सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक अधिक होती है। इस जीवन-क्षेत्र में अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए व्यक्ति के समक्ष अनेक समस्यात्मक परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, जैसे, धनात्मक आकर्षण, ऋणात्मक आकर्षण और धनात्मक तथा ऋणात्मक आकर्षण आदि। इस प्रकार के आकर्षणों के माध्यम से छात्र अपनी समस्याओं के लिए समाधान खोजता है।

 

3. सामाजिक प्रणाली:

चिन्तन स्तर के शिक्षण की सामाजिक प्रणाली स्मृति तथा बोध स्तर के शिक्षण की सामाजिक प्रणाली से बिल्कुल भिन्न होती है। इसमें छात्र अधिक क्रियाशील तथा प्रमुख होता है एवं शिक्षक का स्थान गौण होता है, किन्तु शिक्षक छात्रों के समक्ष समस्या उत्पन्न कर उन्हें वाद-विवाद तथा परिचर्चा का अवसर देकर विचार-विमर्श करवाता है। उन्हें स्वतः प्रेरित कर आकाँक्षा का स्तर ऊँचा उठाये रखने में मदद करता है।

4. मूल्यांकन प्रणाली :

चिन्तन स्तर के शिक्षण के मूल्यांकन हेतु वस्तुनिष्ठ परीक्षा के स्थान पर निबन्धात्मक परीक्षा अधिक उपयोगी रहती है। चिन्तन स्तर की परीक्षा लेते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए :

(क) छात्रों की अभिवृत्तियों का मापन किया जाना चाहिए,

(ख) अधिगम की क्रियाओं में विद्यार्थियों की रुचि तथा सक्रियता का ध्यान रखना चाहिए,

(ग) विद्यार्थियों की समस्या समाधान की प्रकृति का मापन किया जाए; एवं

(घ) छात्रों की आलोचनात्मक तथा सृजनात्मक क्षमताओं का कितना विकास हुआ है। इसका भी मापन किया जाना चाहिए।

 

चिन्तन स्तर के शिक्षण की आलोचना

चिन्तन स्तर के शिक्षण प्रतिमान की सीमाओं तथा विशेषताओं को हण्ट महोदय ने निम्नांकित रूप में प्रस्तुत किया है :

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1. इस स्तर के चिन्तन में स्मृति बोध स्तर के शिक्षण की तरह किसी निश्चित कार्यक्रम को नहीं अपनाया जाता,

2. चिन्तन स्तर सामान्यतः उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए ही अधिक उपयोगी होता है, क्योंकि इसमें विद्यार्थी की आयु तथा परिपक्वता का विशेष महत्त्व होता

3. इस स्तर के शिक्षण को पाठ्य-वस्तु तथा पाठ्य-पुस्तकों तक सीमित नहीं रखा जाता है,

4. इसमें सामूहिक वाद-विवाद ही शिक्षण की प्रभावशाली विधि मानी जाती है,

5. विद्यार्थी अपने शिक्षक की आलोचना कर सकते हैं; एवं इसमें शिक्षण समस्या आधारित होता है।

 

चिन्तन स्तर के शिक्षण सुधार हेतु सुझाव

चिन्तन स्तर के शिक्षण को प्रभावशाली बनाने हेतु हण्ट महोदय ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये हैं :

1. छात्रों को चिन्तन स्तर के शिक्षण में तभी प्रवेश दिया जाना चाहिए जब वे स्मृति तथा बोध स्तर के शिक्षण की परीक्षाओं में सफल हो चुके हों।

2. शिक्षक को चारों सोपानों का अनुसरण करते समय अत्यन्त सतर्कता बरतनी चाहिए,

3. इस स्तर के शिक्षण के लिए यह परमावश्यक है कि छात्रों का आकांक्षा स्तर ऊंचा हो।

4. शिक्षण की कमजोरियों को दूर करने के लिए शिक्षण में ज्ञानात्मक-क्षेत्र,मनोविज्ञान (Cognitive field, Psychology) को विशेष महत्त्व देना चाहिए,

5. विद्यार्थियों को मौलिक व सृजनात्मक चिन्तन के विकास हेतु समस्याओं की अनुभूतियाँ करवाना आवश्यक होता है ताकि विद्यार्थी का चिन्तन उनकी समस्या के समाधान हेतु सहायक हो सके।

6. विद्यार्थियों के समक्ष समस्यात्मक परिस्थितियाँ एवं उनके समाधान हेतु शिक्षक को समुचित वातावरण प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए; एवं

7. शिक्षक को विद्यार्थियों के सामने समस्या को इस प्रकार से उत्पन्न करना चाहिए कि वे इसकी अनुभूति कर आवश्यक परिकल्पना बना सकें।

 

शिक्षण के स्तरों की उपादेयता (Utility of Levels of Teaching) :

उपर्युक्त तीनों स्तरों के विस्तृत उल्लेख से स्पष्ट होता है कि ये तीनों स्तर शिक्षण के ज्ञानात्मक तथा कौशलात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति में बहत सहायक होते हैं। इनकी निम्नलिखित उपयोगितायें हैं :

1. शिक्षण के विभिन्न स्तरों के प्रयोग से शिक्षण अधिगम तथा परीक्षण में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो सकता है,

2. इनके माध्यम से एक ही पाठ्यवस्तु को विभिन्न स्तरों पर पढ़ाकर किस प्रकार विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति हो सकती है; इसका व्यावहारिक ज्ञान होता है,

3. इन स्तरों के शिक्षण में प्रयोग से सेवारत शिक्षक भी अपने शिक्षण को प्रभावशाली बना सकते हैं।

4. इनसे छात्राध्यापक शिक्षण के व्यावहारिक ज्ञान को प्राप्त कर यह समझने में समर्थ होता है कि शिक्षण विचारहीन से विचारपूर्ण तक चलने वाली प्रक्रिया है,

5. इन स्तरों के प्रयोग से छात्राध्यापक को कौन-कौन से सोपानों का अनुसरण करना है, कौन-कौन से उद्देश्य प्राप्त करने हैं तथा परीक्षण की कौन-सी विधियाँ प्रयोग में लानी हैं, इन सबका उसे व्यावहारिक ज्ञान होता है; एवं

6. इन स्तरों के प्रयोग से शिक्षण के चरों, विभिन्न पक्षों तथा उनके परस्पर सम्बन्ध एवं प्रकृति का बोध होता है जिनकी शिक्षण के सिद्धान्तों के प्रतिपादन में सहायता ली जा सकती है।

 

 

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