माइलेशियन मत के दार्शनिक

माइलेशियन मत के दार्शनिक(थेल्स, एनेक्जिमेण्डर और एनेक्जिमेनीज) | Milesians School in Hindi

हैलो दोस्तों, आज हम लोग सुकरात पूर्व ग्रीक दर्शन के विभिन्न मतों में से माइलेशियन मत के दार्शनिक की चर्चा करेगें, जिनमें थेल्स, एनेक्जिमेण्डर और एनेक्जिमेनीज प्रमुख दार्शनिक थे। साथ ही सुकरात पूर्व ग्रीक दार्शनिक में पाइथागोरस की भी चर्चा करेंगे।

 

सुकरात पूर्व ग्रीक दर्शन (Greek Philosophy before Socrates)

माइलेशियन मत (Milesian School)

ग्रीक दर्शन का प्राचीनतम मत माइलेशियन मत कहलाता है। इस मत की स्थापना ६२४ ई0 पू0 में ग्रीस उपनिवेश माइलेटश में हुई। इस मत का दूसरा नाम आयोनिक मत (Ionic School) भी है, क्योंकि इस सम्प्रदाय के सभी दार्शनिक आयोनिया-एशिया माइनर के निवासी थे। इस मत का तीसरा नाम ह्यलिसिप्ट भी है, क्योंकि इस सम्प्रदाय के दार्शनिकों की मुख्य समस्या ह्यूल (Hule) या द्रव्य ही है। इस सम्प्रदाय के तीन प्रमुख दार्शनिक हुए – थेल्स, एनेक्जिमेण्डर और एनेक्जिमेनीज।

 

थेल्स (Thales) [६२४ ई. पू. से ५४६ ई. पू.]

सर्वप्रथम ग्रीक दार्शनिक थेल्स का जन्म ग्रीस उपनिवेश माइलेटश में ६२४ ई. पू. हुआ था। थेल्स राजनीतिज्ञ, गणितज्ञ तथा ज्योतिषी भी थे। आज भी उनकी गणना ग्रीस के सात बुद्धिमान व्यक्तियों में की जाती है। कहा जाता है कि थेल्स ने २८ मई, ५८५ ई. पू. में होने वाले सूर्य ग्रहण की भविष्यवाणी की थी। इन्होंने ही मिस्र की रेखागणित प्रणाली का सर्वप्रथम ग्रीस में प्रचार किया। इन्हें गणित के एक विशेष प्रमेय का ज्ञान था यदि एक त्रिभुज के दो को दूसरे त्रिभुज के दोनों कोणों के अलग-अलग बराबर हों तथा एक भुजा दूसरे की उसी भुजा के बराबर हो तो दोनों त्रिभुज सभी प्रकार से बराबर होंगे। कहा जाता है कि इस प्रमेय के द्वारा थेल्स दो जलयानों के बीच की दूरी का पता लगाते थे| थेल्स ने अपने दर्शन के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है, परन्तु अरस्तू के लेखों से हमें थेल्स के दार्शनिक विचारों का पता लगता है। थेल्स के अनुसार विश्व का परम द्रव्य जल है जिससे सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है। जल ही वाष्प तथा बूंद रूप होकर सबको जीवन प्रदान करता है। संसार के सभी पदार्थ जल के ही रूपान्तर हैं। पृथ्वी जल पर गोलाकार तश्तरी के समान तैरती है। जल ही विश्व का उपादान कारण है। सभी वस्तुएँ दिव्य स्वरूप हैं। चुम्बक सशक्त है, क्योंकि लोहे को आकर्षित करने की इसमें शक्ति है।

थेल्स के परम तत्व जल की व्याख्या करते हुए अरस्तू जल की निम्नलिखित विशेषताएँ बतलाते हैं:

(क) जल समस्त जागतिक पदार्थों में न्यून या अधिक मात्रा में विद्यमान रहता है।

(ख) जल के अनेक रूप हैं, जैसे वाष्प, बूंद, हिम इत्यादि।

(ग) जल ही वाष्प रूप में ऊपर उठकर अग्निरूप नक्षत्रों को जीवन देता है, पुनः वर्षा की बूंदें बनकर पृथ्वी का पोषण करता है।

(घ) पृथ्वी से लेकर सभी नक्षत्र आदि जलरूप ही हैं। प्रातःकाल के ओस कण, रात का कोहरा तथा अन्तभौतिक सोते इत्यादि इसके उदाहरण है।

थैलीज के दर्शन पर विचार करने से पता चलता है कि पाश्चात्य दर्शन के जन्मदाता थेल्स ने सर्वप्रथम जड़ जगत का विवेचन किया है तथा जड़ का कारण भी जड़ तत्व को ही बतलाया है। जल ही उनके अनुसार परम तत्व है, जो सभी सांसारिक वस्तुओं का परम कारण है। यह जल स्वयं जड़ तत्व है, अतः जगत का स्वरूप जड़ात्मक ही है। इससे स्पष्ट होता है कि ग्रीक युग का सर्वप्रथम दार्शनिक दृष्टिकोण भौतिकवादी है। थेल्स का ध्यान चेतन तत्व की ओर नहीं। आत्मा, परमात्मा आदि अभौतिक तत्वों की विवेचना का हमें कोई संकेत उनमें नहीं मिलता। थेल्स के दर्शन में हमें संसृति-विज्ञान (Cosmology) के बीज अवश्य मिलते हैं। थेल्स विश्व के परमतत्व की खोज तो अवश्य करते हैं, परन्तु यह परमतत्व उनके अनुसार भौतिक (जल) ही है| अतः हम स्पष्ट निष्कर्ष निकालते हैं कि पाश्चात्य दर्शन का प्रारम्भिक युग भौतिकवादी है।

थेल्स की सबसे बड़ी विशेषता संसृति विज्ञान का बीजारोपण है। थैलीज के पहले ग्रीस में पौराणिक कथाओं तथा काल्पनिक देवी-देवताओं के आधार पर विश्व की व्याख्या करने का प्रयास किया जाता था। थेल्स ने संसृति विज्ञान को जन्म दिया। थेल्स के बाद प्रायः सभी दार्शनिक थेल्स के समान ही सृष्टि के परम तत्व के सम्बन्ध में विचार करने लगे। डिमॉक्रिटस तक प्रायः थेल्स की ही परम्परा चलती रही। सभी दार्शनिकों ने अपने-अपने अनुसार विश्व की व्याख्या की है। 

 

 

एनेक्जिमेण्डर (Anaximander) [ ६११ ई. पू. से ५४४ ई. पू. ]

एनेक्जिमेण्डर का जन्म ६११ ई. पू. माइलेटश में हुआ था। ये थेल्स के मित्र तथा शिष्य थे। ये भी अपने गुरु के समान प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे। ये दार्शनिक, ज्योतिषी तथा भूगोलवेत्ता भी थे। इनका प्रकृति पर निबन्ध (On Nature) यूरोपीय दार्शनिक साहित्य की प्रथम कृति मानी जाती है। दुर्भाग्यवश इस निबन्ध के अभी कुछ ही अंश प्राप्त हैं। इन्होंने ही सर्वप्रथम मानचित्र (Map) का निर्माण किया था जिसका व्यवहार माइलेशियन लोग काला सागर (Black Sea) में भ्रमण करते समय किया करते थे।

एनेक्जिमेण्डर किसी भौतिक द्रव्य को परम द्रव्य नहीं मानते। उनके अनुसार परम तत्व अनन्त या असीम (Apeiron or Boundless) होना चाहिए। यह असीम द्रव्य निर्गुण, निराकार, निर्विशेष पूर्णतः अविभक्त है। यह अनन्त, नित्य, स्वयम्भू और। अविनाशी है। यह अनन्त होते हुए भी सान्त विश्व की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का कारण है। सर्वप्रथम असीम विशेषों से रहित था। पुनः इस अविभक्त द्रव्य ने अपने को शीत तथा ऊष्ण में विभक्त किया। शीतल भाग ही ब्रह्माण्ड के मध्य में पृथ्वी का रूप ले लेता है तथा ऊष्ण भाग अग्नि प्रदेश हो पृथ्वी के चारों ओर व्याप्त है। पृथ्वा मूलतः तरल थी, परन्तु अग्नि प्रदेश की ज्वाला से भाप में परिणत हो गयी। तथा वायु बनकर आज तक पृथ्वी का आच्छादन किये रहती है। एनेक्जिमेण्डर के अनुसार असीम या अनन्त के भीतर असंख्य संसार हैं। एनेक्जिमेण्डर सभी प्राणियों की उत्पत्ति विकास से मानते हैं। पृथ्वी प्रारम्भ में तरल थी। पुनः धीरे-धीरे भाप द्वारा तरलता सूख गयी और नमी उत्पन्न हुई। इसके बाद पहले निम्न तथा बाद में उच्च जीवों की उत्पत्ति हुई। प्रारम्भ में मनुष्य मछली के समान था तथा जल में रहता था।

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एनेक्जिमेण्डर के मत की विशेषताएँ-

१. गुण की दृष्टि से द्रव्य निर्गुण, निर्विशेष तथा निराकार है। यह द्रव्य का मौलिक रूप है। इस रूप में यह शुद्ध द्रव्य है। हम इसे किसी संज्ञा से संज्ञित नहीं कर सकते या किसी विशेषण से विभूषित नहीं कर सकते। इसका कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं।

२. परिणाम की दृष्टि से यह द्रव्य असीम तथा अनन्त है। यह द्रव्य की अविभक्त अवस्था है। सांसारिक वस्तुओं के रूप में यह सान्त तथा असीम जान पड़ता है, परन्तु अपने मौलिक रूप में नहीं। सांसारिक वस्तुओं की उत्पत्ति के माध्यम से अनन्त ही अपने को सान्त बना देता हुआ जान पड़ता है।

 सांसारिक वस्तुओं की सृष्टि करने पर भी अनन्त अनन्त ही रहता है। यह अनन्त द्रव्य एक विशाल भण्डार है। इससे असंख्य सांसारिक वस्तुओं की उत्पत्ति होती रहती है। संसार अनेक है, परन्तु इन्हें उत्पन्न करने वाला मौलिक द्रव्य एक ही है। अतः वर्तमान संसार को उत्पन्न कर वह समाप्त नहीं हो जाता। वह तो एक शुद्ध शक्ति के समान है जो विभिन्न शक्तिमान वस्तुओं में दिखलायी पड़ती है। अतः असीम द्रव्य में अनेक ससीम संसार हैं। असीम द्रव्य के भीतर असंख्य संसार’ की दो विभिन्न व्याख्याएँ की गयी हैं। प्रोफेसर जेलर आदि विद्वान परम्परागत मत का समर्थन करते हैं। उनके अनुसार एक संसार की उत्पत्ति, विकास और विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति, विकास और विनाश होता है। अतः संसार का प्रवाह चलता रहता है। प्रो० बर्नेट प्रभृति विद्वानों के अनुसार एनक्जिमेण्डर युगपत अस्तित्व को मानते हैं। इसका तात्पर्य है कि संसार की उत्पत्ति और विनाश का क्रम चलता रहता है।

एनेक्जिमेण्डर सर्वप्रथम दार्शनिक थे जिन्होंने विकासवाद का प्रतिपादन किया। जगत सदियों के विकास का परिणाम है। संसार के सभी पदार्थ एक ही अनन्त तत्व के विकास के परिणाम हैं। यह विकासवादी दृष्टिकोण एनेक्जिमेण्डर की बहुत बड़ी देन है, परन्तु वे विकास की समुचित व्याख्या नहीं कर पाते। उनकी व्याख्या तार्किक न होकर काल्पनिक-सी लगती है। एनेक्जिमेण्डर के अनुसार आरम्भ में एक, अद्वितीय, अनन्त, अविभक्त तत्व था। पुनः इसी तत्व ने अपने आपको ऊष्ण तथा शीतल दो भागों में विभक्त किया। शीतल भाग से ही पृथ्वी निर्मित है तथा ऊष्ण भाग पृथ्वी के चारों ओर विद्यमान है। पृथ्वी का प्रारम्भिक स्वरूप तरल था। काल क्रम से इसकी तरलता चारों ओर की अग्नि के कारण भाप बन गयी। इसी से वायु का निर्माण हुआ। इसी भाप से चक्राकार ग्रह नक्षत्रों (सूर्य, चन्द्रमा) की रचना हुई। ये ग्रह-नक्षत्र पृथ्वी के चारों ओर विद्यमान हैं। प्राणियों के सम्बन्ध में एनेक्जिमेण्डर की। धारणा थी कि पृथ्वी की तरलता जब भाप के कारण सूखने लगी तो प्राणियों का प्रादुर्भाव हुआ। प्राणियों का कोई रचयिता नहीं। सभी प्राणी विकास के क्रम में आ गये। पहले निम्न श्रेणी के जीव उत्पन्न हए, तदनन्तर उच्च श्रेणी के जीव उत्पन्न हुए। एनेक्जिमेण्डर के अनुसार प्रारम्भिक मनुष्य मछली के समान था। इसमें सन्देह नहीं कि एनेक्जिमेण्डर ने विकासवाद का बीज वपन किया है, परन्तु उनके अनुसार जीवों का आगमन आकस्मिक है तथा उनके विकास का कोई भी प्रयोजन नहीं।

 

एनेक्जिमेनीज (Anaximanies) [५८८ ई. पू. से ५२४ ई. पू.]

एनेक्जिमेनीज का जन्म माइलेटश में ५८८ ई० पू० हुआ था। ये एनेक्जिमेण्डर के शिष्य तथा सहयोगी थे। अपने गुरु के समान तो ये प्रतिभासम्पन्न नहीं थे, परन्तु इन्होंने भी अपने गुरु के समान दार्शनिक चिन्तन को लिपिबद्ध करने का प्रयास किया। इन्होंने वायु को विश्व का मूल द्रव्य स्वीकार किया। वायु ही शरीरधारी मनुष्य का प्राण है। वायु ही अग्नि का रूप ले लेता है, तरल होकर जल में परिणत हो जाता है तथा जम कर पृथ्वी का रूप ले लेता है। वायु को ही हम श्वास के द्वारा ग्रहण करते हैं तथा पवन बनकर चारों दिशाओं में यही व्याप्त है। सभी लोक वायु के आधार पर टिके हैं।

एनेक्जिमेनीज ने वायु को परम तत्व सिद्ध करने के लिये अनेक प्रमाण भी दिये-

(क) वायु श्वास और प्रश्वाँस के रूप में सभी जीवों का आधार है। कोई भी प्राणी वायु के बिना जीवित नहीं रह सकता है। हमारी आत्मा भी प्राण-वायु ही है। अतः वायु को परम तत्व मानना समीचीन प्रतीत होता है।

(ख) अग्नि और बादल दोनों ही वायु के रूप है। अग्नि वायु का विरलीकरण रूप है तथा बादल वायु का घनीकरण रूप है। इसी घनीकरण के द्वारा, पृथ्वी, चट्टान आदि का निर्माण होता है|

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(ग) अग्नि और जल दोनों गर्म और शीतल हैं। वायु में दोनों तत्व विद्यमान हैं, अत: वायु ही इनका मौलिक रूप है।

एनेक्जिमेनीज ने वायु को परम तत्व मानकर वायु के महत्व को तो अवश्य पहचाना है। वायु सचमुच जीवन के लिए बहुत उपयोगी है तथा किसी अंश में यह जीव-जगत का आधार भी है। परन्तु वायु से सृष्टि की व्याख्या करने में एनेक्जिमेनीज भी अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों के समान असफल रहे। वायु जीव-जगत के लिये उपयोगी तो है, परन्तु इनका कारण वायु ही सिद्ध नहीं हो पाता। हम वायु के बिना नहीं रह सकते, यह सत्य है, परन्तु वायु से ही हमारी सृष्टि हुई, यह सत्य कैसे? पुनः जड़ चेतन के विकास की व्याख्या करना कठिन है।

 

पाइथागोरस (Pythagoras) [५८० ई.पू. से ४७० ई.पू.]

पाइथागोरस का जन्म सेमॉस (Samos) नामक स्थान में हुआ। ५२५ ई. पू. में दक्षिणी इटली के ग्रीक उपनिवेश क्रटोना (Cratona) में जाकर ये बस गये। वहाँ उन्होंने एक पाइथागोरस समाज की स्थापना की तथा ५०० ई. पू. तक अपने दार्शनिक चिन्तन का प्रचार करते रहे। पाइथागोरस गणितज्ञ दार्शनिक थे। ये रेखागणित के संस्थापक माने जाते हैं। इन्होंने ही सर्वप्रथम बतलाया कि संसार के सभी पदार्थ संख्या मात्र हैं।

पाइथागोरस समाज अपने समय का सबसे महत्वपूर्ण, नैतिक तथा धार्मिक समाज माना जाता है। यह समाज आर्फिक धर्म से विशेष प्रभावित था। आर्फिक लोगों की दो मुख्य मान्यतायें थीं। पहली मान्यता के अनुसार आत्मा समाधि के द्वारा मुक्त हो आवागमन के चक्र से छूट जाता है तथा दिव्यरूप हो नित्य आनन्द का अनुभव करता है| मुक्ति लाभ का माध्यम संयम तथा साधना है। उनकी दूसरी मान्यता है कि दर्शन बौद्धिक विलास नहीं, वरन् जीवनयापन की पद्धति है। तात्पर्य यह है कि दर्शन का व्यवहार पक्ष सिद्धान्त पक्ष की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। संसार में रहते हुए भी संसार से मुक्त रहने की शिक्षा पर ये लोग जोर देते हैं। मनुष्यों के सम्बन्ध में इस सम्प्रदाय की एक प्रसिद्ध उक्ति है ओलम्पिक खेल में भाग लेने वाले तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं: ग्राहक, खिलाड़ी और दर्शक। इनमें दर्शन ही सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि उस पर उस वातावरण का कोई प्रभाव नहीं होता। इसी प्रकार संसार में भी तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं: धन, यश तथा ज्ञान के प्रेमी। इनमें ज्ञान का प्रेमी सर्वश्रेष्ठ है; क्योंकि वह अपने को आवागमन के चक्र से मुक्त करना चाहता

पाइथागोरस के अनुसार परम द्रव्य संख्या है। सभी सांसारिक वस्तुओं का मूल कारण संख्या ही है। सभी संख्याओं की उत्पत्ति इकाई से होती है। अन्य सभी संख्याएँ इकाई के योग से बनती हैं। संख्या सम और विषम दो प्रकार की होती है। इस प्रकार संसार भी पक्ष-विपक्ष के द्वन्द्वों से भरा है। सम संख्याएँ सीमित कही जाती हैं, क्योंकि इनका विभाजन हो सकता है। विषम संख्याएँ असीमित कही जाती हैं, क्योंकि इनका विभाजन सम्भव नहीं है| आदि तथा सीमित संख्या इकाई है। इसी से क्रमशः सभी सांसारिक वस्तुओं की उत्पत्ति होती है। सृष्टि उत्पत्ति के बाद संसार की सभी वस्तुओं का पाइथागोरस ने दस भागों में विभाजन किया है।2।

१. सीमित और असीमित (Limited and Unlimited) 

२. विषम और सम (Odd and Even)

३. एक और अनेक (One and Many)

४. दक्षिण और वाम (Right and Left)

५. पुल्लिंग और स्त्रीलिंग (Masculine and Feminine)

६. स्थिरता और गति (Rest and Motion)

७. ऋजु और वक्र (Straight and Curved)

८. प्रकाश और अन्धकार (Light and Darkness)

९. शुभ और अशुभ (Good and Evil)

१०. वर्ग और आयत (Square and Oblong)

पाइथागोरस ने विश्व का मूल कारण संख्या माना है। पाइथागोरस के अनुयायियों के अनुसार संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसमें संख्या न हो। कम या अधिक किसी वस्तु की कोई संख्या अवश्य है। वस्तुओं की व्यवस्था, अनुपात आदि सभी में संख्या का भाव है। वस्तुतः संख्या के बिना किसी वस्तु का निर्वचन असम्भव है। यदि किसी वस्तु में मात्रा, अनुपात आदि न हो तो हम इसके विषय में कुछ भा नहीं कह सकते। अतः किसी अंश में संख्या से ही वस्तु के स्वरूप का निर्धारण होता है। अतः संख्या सिद्धान्त ही विश्व का मूल है। मौलिक संख्या इकाई है। इसी के विभिन्न अनुपातों से विभिन्न संख्याओं की सृष्टि होती है। पाइथागोरस शून्य की रचना भी इकाई से ही मानते हैं।

पाइथागोरस महान् गणितज्ञ थे। गणित में संख्या की धारणा मौलिक है। वस्तुतः संख्या को मूल माने बिना गणित का कोई कार्य आगे नहीं बढ़ सकता। अतः गणित का मूल तो संख्या है, परन्तु यह जगत् या जागतिक पदार्थों का कारण कैसे? संख्या से सृष्टि की व्याख्या तो कठिन है। निर्जीव से सजीव की सृष्टि बतलाना कुछ भ्रामक सा लगता है। सम्भवतः इस कठिनाई से पाइथागोरस परिचित थे। अतः पाइथागोरस के अनुसार सृष्टि का केन्द्र-बिन्दु अग्नि है। यह केन्द्रीय अग्नि इकाई है। पृथ्वी इस केन्द्रीय अग्नि के चारों ओर घूमती है तथा पृथ्वी के सभी पदार्थ भी घूमते हैं। यह केन्द्रीय अग्नि सूर्य नहीं, क्योंकि सूर्य भी इसके चारों ओर घूमता है। पाइथागोरस के अनुयायियों ने इसे ‘ब्रह्माण्ड का आग्नकुण्ड बतलाया है।

 

 

 

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