अधिगम की परिभाषा, प्रकृति, विशेषताएं एवं अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक

अधिगम की परिभाषा, प्रकृति, विशेषताएं एवं अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक

 

अधिगम जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। व्यक्ति कुछ बातों को स्वयं के अनुभवों से तथा कुछ बातों को दूसरों के अनुभवों के आधार पर सीखता है, जिसमें शिक्षा के औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों ही साधन कार्य करते हैं। यह ध्यान रहे कि अधिगम तथा परिपक्वता एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं,क्योंकि जिस व्यक्ति में जितनी अधिक परिपक्वता होगी, उसकी उतनी ही अधिगम क्षमता अधिक होगी, जैसे एक पाँच साल के बालक को कार चलाने का प्रशिक्षण कितने ही प्रभावशाली ढंग से क्यों न दिया जाए फिर भी वह कार चलाने में पूर्ण सक्षम नहीं हो पायेगा क्योंकि अभी वह शारीरिक व मानसिक दृष्टि से उतना परिपक्व नहीं है। इसी प्रकार बहुत छोटे बालकों से बड़े-बड़े ग्रन्थों के ज्ञान की अपेक्षा करना व्यर्थ है।

बोरिंग, लेंगफील्ड तथा वेल्ड के अनुसार, “परिपक्वता का तात्पर्य उस अभिवृद्धि तथा विकास से है, जो किसी विशेष प्रकार के व्यवहार को सीखने के पहले आवश्यक होती है। अधिगम को व्यक्ति का वातावरण तथा परिस्थितियाँ भी बहत प्रभावित करती हैं । व्यक्ति को जैसा वातावरण मिलता है, वह समय-समय पर जैसी समस्याओं का सामना करता है, उनसे उसे कुछ अनुभव प्राप्त होते हैं तथा वह कटु अनुभवों को छोड़ने की कोशिश करता है तथा अपने व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाता है । इस प्रकार वातावरण के प्रति उपयुक्त प्रतिक्रिया करना ही अधिगम कहलाता है।

अधिगम की परिभाषा:

1. गेट्स एवं अन्य (Gates and others)-“अनुभव तथा प्रशिक्षण द्वारा व्यवहारों में परिवर्तन लाना ही अधिगम है।”

2. क्रो और क्रो (Crow and Crow)-“ज्ञान और अभिवृत्ति के अर्जन को सीखना कहते हैं।”

3. गिलफोर्ड (Guildford)- व्यवहार के फलस्वरूप व्यवहार में किसी प्रकार का परिवर्तन आना ही सीखना है।”

4. पील (Peel)- व्यक्ति के वातावरण में परिवर्तन के फलस्वरूप उसमें परिवर्तन को सीखने की प्रक्रिया कहते हैं।

5. वुडवर्थ (Woodworth)-“नवीन ज्ञान और नवीन प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया, सीखने की प्रक्रिया है।”

अधिगम की प्रकृति एवं विशेषताएं:

1. अधिगम एक सतत् प्रक्रिया है।

2. यह एक सामाजिक प्रक्रिया है।

3. यह एक विवेकपूर्ण प्रक्रिया है।

4. यह एक समस्या समाधान की प्रक्रिया है।

5. यह एक विकास की प्रक्रिया है।

6. यह एक समायोजन की प्रक्रिया है।

7. यह क्रिया सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों प्रकार की हो सकती है।

8. यह मानव की एक प्रकृति है।

9. व्यवहार परिवर्तन अधिगम है।

10. अधिगम का अपना स्वरूप होता है।

11. अधिगम एक सक्रिय प्रक्रिया है।

12. अधिगम प्रक्रिया तथा परिणाम है।

13. यह मानसिक क्षमताओं के विकास की एक प्रक्रिया है।

14. यह तत्काल पुष्टि की प्रक्रिया है।

15. अधिगम अनुभवों का संगठन है।

16. अधिगम सार्वभौमिक है।

17. अधिगम व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों प्रकार का होता है।

18. अधिगम वातावरण की उपज है। ।

19. नवीन अनुभवों को ग्रहण कर भविष्य में उपयोग में लाना ही अधिगम है।

अधिगम की प्रक्रिया के सोपान (Steps of Learning Process):

मिलर तथा डोलार्ड ने अधिगम की प्रक्रिया के सोपानों को इन शब्दों में व्यक्त किया है, “सीखने के लिए व्यक्ति को किसी वस्तु की आवश्यकता का अनुभव होना चाहिए, उसे कछ देखना-भालना चाहिए, उसे कुछ करना चाहिए और अंत में उसे कुछ प्राप्त करना चाहिए।”

सीखने की प्रक्रिया के सोपानों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अनुसार समझा जा सकता है :

(क) अभिप्रेरणयुक्त व्यक्ति

(ख) उद्देश्य की पूर्ति के मार्ग में बाधा

(ग) उद्देश्य प्राप्ति के लिए विभिन्न अनुक्रियाएँ ।

(घ) उद्देश्य प्राप्ति के लिये बाधा को पार करने वाली उपयुक्त अनुक्रिया

(ङ) उद्देश्य प्राप्ति

(च) पुनर्बलन

(छ) सामान्यीकरण।

इस प्रक्रिया को व्यावहारिक रूप में समझने हेतु निम्नलिखित अधिगम चक्र प्रस्तुत किया जा रहा है :

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Learning) :

1. अभिप्रेरणा,

2. प्रशंसा एवं निन्दा,

3. पुरस्कार एवं दण्ड,

4. प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्दा

5. वातावरण – विद्यालय एवं सामाजिक वातावरण,

6. अध्यापक का व्यक्तित्व, शिक्षण विधि,

8. छात्रों का मूल्यांकन, नियमित अभ्यास,

10. अधिगम समय, छात्र की आयु,

12. छात्र की रुचि, थकान और विश्राम,

14. विषय सामग्री,

15. दृश्य-श्रव्य सामग्री का शिक्षण में प्रयोग ,

16. शिक्षण में अधिगम अन्तरण (Transfer of Training) का प्रयोग,

17. छात्र एवं अध्यापक की संकल्प शक्ति,

18. परिपक्वता,

19. उपलब्ध साहित्य एवं पुस्तकालय का स्तर,

See also  शिक्षा में सम्प्रेषण के विविध माध्यम: परिचय एवं विकास

20. उपचारात्मक शिक्षण,

21. पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का प्रयोग,

22. छात्रों की अभिवृत्ति।

अधिगम के सिद्धान्त एवं नियम :

अधिगम क्यों होता है? कैसे होता है? स्थाई अधिगम किस प्रकार से होता है? अधिगम को सरल कैसे बनाया जा सकता है? कैसे अधिगमकर्ता को अभिप्रेरित किया जा सकता है? इन शंकाओं के समाधान हेतु हमें अधिगम के अनेक सिद्धान्तों को समझना आवश्यक हो जाता है। इनका विस्तृत ज्ञान शिक्षा मनोविज्ञान’ के अध्ययन से प्राप्त किया जा सकता है। यहाँ केवल इन सिद्धान्तों से उत्पन्न नियमों का संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है।

1. उत्तेजक अनुक्रिया सिद्धान्त (Stimulus-Response Theory) :

यह सिद्धान्त थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार जीव की प्रत्येक अनुक्रिया उत्तेजक के फलस्वरूप होती है, जैसे भूखी बिल्ली को पिंजरे में बन्द करने के बाद जब उसके सामने मछली रूपी उद्दीपक प्रस्तुत किया गया, तब उसने पिंजडे से बाहर आने के लिए विभिन्न उछल-कूद रूपी अनुक्रियाएँ की और 58वें प्रयास में वह दरवाजा खोलने में सफल हुई। इन प्रयासों की संख्या निरन्तर अभ्यास के साथ कम होती चली गई।

उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर थॉर्नडाइक ने अधिगम के निम्नलिखित तीन मुख्य नियम दिये :

(अ) प्रभाव का नियम- जैसे किसी बालक को उसके द्वारा किये गये कार्य पर पुरस्कृत किया जाए, तब वह उस कार्य को करने के लिए अभिप्रेरित होगा, इसके विपरीत दण्डित करने पर उस कार्य को छोड देगा। लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि वह व्यक्ति अपने मन में अपनी त्रुटि को स्वीकार करता है अथवा नहीं।

(ब) अभ्यास का नियम- थॉर्नडाइक ने अभ्यास के नियम के लिए प्रयोग किया। उसने छात्रों से तीन इंच लम्बी रेखा बिना स्केल की सहायता की खींचने के लिए कहा। लेकिन हजारों बार प्रयत्न करने पर भी वे सीधी रेखा नहीं खींच पाये, क्योंकि उन्हें सही व गलत का ज्ञान नहीं दिया गया था। अतः सीखने हेतु अभ्यास में परिणाम का ज्ञान दिया जाना परमावश्यक होता है।

(स) तत्परता का नियम-थॉर्नडाइक के अनुसार जब अधिगमकर्ता कार्य करने को तैयार होता है, तब उसकी कार्य करने की इच्छा का पूरा होना संतोषप्रद तथा पूरा न होना असन्तोषप्रद हो सकता है। अतः अध्यापक को पाठ पढ़ाने से पहले विद्यार्थी में पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न करनी चाहिए ताकि वह शीघ्रता से विषय-वस्तु को ग्रहण कर सके।

 

उत्तेजक अनुक्रिया सिद्धान्त के अनुसार अधिगम के निम्न पाँच गौण नियम हैं :

(क) बहुविधि-अनुक्रिया-अधिगमकर्ता विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं करता है और जब वांछित प्रतिक्रिया करने से उसे सफलता मिल जाती है, तब वह उस प्रतिक्रिया की आवृत्ति करता है।

(ख) रुचि एवं मनोवृत्ति-अधिगमकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि उसमें सीखने की रुचि एवं मनोवृत्ति हो।

(ग) सदृशता द्वारा अनुक्रिया-अधिगमकर्ता के लिए पूर्वज्ञान पर आधारित शिक्षण अधिगम में सहायक होता है।

(घ) तत्त्वों की पूर्व सामर्थ्य-अधिगमकर्ता अनेक तत्त्वों में से केवल सम्बन्धित वांछित तत्त्वों का चयन करके प्रतिक्रिया करता है।

(ङ) साहचर्य परिवर्तन-थॉर्नडाइक के अनुसार, यदि किसी अनुक्रिया को उद्दीप्तपरिस्थिति में परिवर्तन की श्रृंखला के सम्पर्क में रखा जाता है तो नवीन उद्दीपन का जन्म होता है। उसने बिल्ली को मछली के टुकड़े के साथ साहचर्य स्थापित करने के बाद खड़ा होना सिखाया।

2. सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त (Conditioned Response Theory) :

यह सिद्धान्त पावलव द्वारा प्रतिपादित किया गया। यह व्यवहारवादी सिद्धान्त है तथा सम्बन्धवाद को स्वीकार करता है। इसके अनुसार उत्तेजना व प्रतिक्रिया का सम्बद्ध होना ही अधिगम होता है। इनके प्रयोग में एक कुत्ते को भोजन जिस समय दिया जाता था, उसके साथ घण्टी बजाई जाती थी तब उसके मुँह से लार निकलती थी। बाद में केवल घण्टी बजाई गई तब भी कुत्ते के मुँह से लार टपकी। उसने यह भी सिद्ध किया कि विस्मृति के लिए मूल उत्तेजक (भोजन) प्रस्तुत न किया जाना आवश्यक है।

(अ) आदतों का नियम-इस सिद्धान्त का प्रयोग जीवन में आदतों, कौशलों व योग्यताओं के निर्माण में किया जाता है। यदि सही प्रतिक्रियाओं को प्रशंसित किया जाये तथा त्रुटिपूर्ण प्रतिक्रियाओं को दण्डित किया जाये तब सही आदतों का निर्माण सम्भव है।

3. सूझ का सिद्धान्त (Insight Theory) :

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कोहलर, कोफका, वर्दीमर आदि ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार समस्या के उत्पन्न होने पर उनको हल करने के लिए प्राणी प्रयत्न तथा भूल विधि का भी सहारा लेता है। यदि प्रयल तथा भूल करते-करते प्राणी को समस्या का हल मिल जाता है तो सद्य या अंतर्दष्टि उत्पन्न होने की आवश्यकता नहीं पड़ती, लेकिन जब व्यक्ति । प्रयत्न तथा भूल द्वारा समस्या का हल नहीं खोज पाता है तो निश्चेष्ट होकर बैठ जाता है और फिर एकाएक उसे समग्र परिस्थिति को देखते हुए अन्तर्दृष्टि अथवा सूझ से हल समझ में आ जाता है।

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(अ) समग्रता का नियम – अध्यापक द्वारा समस्या को समग्र रूप से छात्रों के सामने प्रस्तुत करना चाहिये। इस प्रकार यह पूर्णरूप से अंश की ओर चलने वाले शिक्षण सूत्र को मानता है।

4. सक्रिय अनुबन्ध अनुक्रिया का सिद्धान्त (Theory of Operent Conditioning) :

इस सिद्धान्त के प्रतिपादक बी.एफ. स्किनर हैं। इसमें स्किनर ने एक समस्यात्मक बॉक्स में एक चूहा रखा, बॉक्स में एक लीवर था, लीवर को दबाने से चूहे को भोजन मिल जाता था। लीवर दबाना, स्किनर के अनुसार उत्सर्जित क्रिया है। भोजना मिलना पुनर्बलन है। स्किनर के अनुसार, उत्सर्जित क्रिया के पुनर्बलन के द्वारा उस क्रिया को पुनः आवृत्ति की संभावना बढ़ जाती है।

(अ) क्रियाशीलता का नियम-यदि अधिगम प्रक्रिया के दौरान विभिन्न क्रियाएं अधिगमकर्ता से करवायी जाती हैं, तब वह अधिक सक्रिय होकर शीघ्रता से अधिगम करता है।

(ब) पुनर्बलन का नियम-यदि अधिगमकर्ता को पनर्बलित किया जाये तब उसमें उत्पन्न मानसिक तनाव कम होगा तथा वह अधिक सीखने को तत्पर होगा। इससे उसे संतोष प्राप्त होगा तथा अधिगम अधिक स्थायी होगा।

शिक्षण-अधिगम का सम्बन्ध (Teaching-Learning Relationship) :

किसी भी प्रकार की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य अधिगम को प्रभावित करना होता है। दूसरे शब्दों में, जहाँ शिक्षण दिया जाता है, वहाँ अधिगम क्रियाएँ अवश्य होती हैं, अतः आधनिक शिक्षाविदों ने शिक्षण व अधिगम को एक ही सम्प्रत्यय स्वीकार किया है। ओ.बी. स्मिथ (1961) ने शिक्षण को एक ऐसी प्रक्रिया माना है जो अधिगम को उत्पन्न करतो है। जहाँ शिक्षण है, वहाँ अधिगम अवश्य होगा, परन्तु जहाँ अधिगम है वहाँ यह आवश्यक नहीं कि शिक्षण भी हो। यद्यपि स्मिथ ने शिक्षण व अधिगम को दो अलग-अलग सम्प्रत्यय माना है, लेकिन उनका यह दृढ़ विश्वास है कि शिक्षण की क्रियाओं का विश्लेषण अधिगम के स्वरूपों के बिना नहीं किया जा सकता।

बी.एस. ब्लूम के अनुसार, शिक्षण की क्रियाओं, विधियों, व्याख्याओं, गहकार्य, बाद-विवाद आदि का उद्देश्य छात्रों के ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों के स्तरों का विकास करना होता है। यह विकास अधिगम का ही स्वरूप होता है। इनके अतिरिक्त एन.एल. गेज (1961) ने शिक्षण व अधिगम के समन्वय पर जोर दिया तथा क्लार्क ने अधिगम व शिक्षण को छात्रों के व्यवहार में स्थायी परिवर्तन के लिए आवश्यक माना। अतः। उपर्यवत विवेचन से स्पष्ट होता है कि शिक्षण व अधिगम का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

शिक्षण-अधिगम के सम्बन्ध की आवश्यकता :

1. शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन करना है, अत: शिक्षण में ऐसी क्रियाओं को प्रयुक्त किया जाये जो अपेक्षित परिवर्तन कर सकें और यह अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन ही अधिगम है।

2. शिक्षा को प्रभावशाली बनाने हेत शिक्षण व अधिगम में समन्वय आवश्यक है।

3. अधिगम को प्रभावी बनाने हेतु शिक्षण में मनोवैज्ञानिक नियमों का प्रयोग प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है।

4. अधिगम के सिद्धान्तों की सहायता से शिक्षण के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जा सकता है।

5. शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति व्यावहारिक रूप में की जा सकती है।

6. शिक्षण में दृश्य-श्रव्य उपकरणों का प्रयोग उद्देश्यों की प्राप्ति की दृष्टि से किया जा सकता इससे शिक्षण को अधिगम आधारित बनाया जा सकता है ताकि अधिगम अधिक प्रभावशाली बन सके।

8. इसके समन्वय से शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति सरलता से की जा सकती है।

9. शिक्षा के विकास को देखते हुए, इन दोनों को समन्वित रूप में ही समझना ज्यादा समीचीन होगा।

शिक्षण-अधिगम हेतु मनोवैज्ञानिक शक्तियों का महत्त्व :

एन. एल. गेज (1967) ने मनोवैज्ञानिक शक्तियों को तीन भागों में बांटा है :

1. व्यवहार परिवर्तन करने वाली शक्तियाँ :

शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य बालक के व्यवहार को परिवर्तित करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति में मनोविज्ञान की शक्तियों में अभिप्रेरणा का विशिष्ट महत्त्व है। अभिप्रेरणा और अधिगम एक-दूसरे के अभिन्न अंग है। बालक जितना विषय को सीखने हेतु अभिप्रेरित होगा, उतना ही अधिगम अधिक स्थायी होगा, जैसे छात्रों को उनकी अच्छी उपलब्धि हेतु पुरस्कृत करना, प्रशंसा करना, उन्हें समय-समय पर उनकी उपलब्धियों का ज्ञान कराना उन्हें अधिक सीखने हेतु प्रेरित करता है। अभिप्रेरणा सभी आयु वर्ग के लोगों के लिए उपयोगी तथा आवश्यक होती है।

2. अधिगम परिस्थितियाँ शक्तियों के रूप में :

अधिगम के सिद्धान्तों की अपेक्षा उनके प्रयोग की परिस्थितियाँ अधिगम हेतु अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं। आई. के. डेवीज तथा एन. एल. गेज आदि मनोवैज्ञानिकों ने अपनी-अपनी पुस्तकों में अधिगम की परिस्थितियों का उल्लेख किया है। उनका मानना है कि छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन लाने में अधिगम परिस्थितियों महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।

3. ज्ञानात्मक शक्तियाँ :

ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक-ये तीन मानव व्यवहार के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। अधिगम में भी ये तीन प्रकार हमें देखने को मिलते हैं। अत: शिक्षण में भी जो क्रियायें की जाती हैं,वे तीन प्रकार की होती हैं जिनका सम्बन्ध ज्ञानात्मक,भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों के विकास से होता है।

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