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धर्म दर्शन की परिभाषा | धर्म-दर्शन तथा धर्मशास्त्र में अंतर

धर्म दर्शन की परिभाषा

 

धर्म और दर्शन दोनों के स्वरूप की सविस्तार विवेचना करने के पश्चात अब हमारे लिए इस प्रश्न का उत्तर देना अपेक्षाकत अधिक सरल होगा कि धर्म-दर्शन क्या है। हम देख चके हैं कि किसी भी समस्या अथवा विषय के मूल तत्त्वों या उसकी आधारभूत मान्यताओं की तर्कसंगत और निष्पक्ष परीक्षा करना दर्शन का प्रमुख उद्देश्य है। दर्शन के इस मल उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि जब दर्शन धर्म से संबंधित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों की सुव्यवस्थित एवं निष्पक्ष परीक्षा करता है तो उसे ‘धर्म-दर्शन’ की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार धर्म-दर्शन का उद्देश्य सव्यवस्थित रूप से धर्म को समझना ही है अतः वह उन सभी समस्याओं, मान्यताओं, सिद्धांतों और विश्वासों का तर्कसंगत अध्ययन तथा निष्पक्ष मूल्यांकन करता है जिनका संबंध धर्म से है। धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए हम बता चुके है कि धर्मपरायण व्यक्ति अपनी आस्था के आधार पर जीवन जगत और अपने आराध्य विषय के संबंध में कष्ट विशेष मान्यताओं, विश्वासो तथा सिद्धान्तों को स्वीकार करता है। इसी कारण इन्हें धार्मिक मान्यता विश्वास और सिद्धांत कहा जाता है। धर्म-दर्शन तर्कसंगत रूप इस प्रश्न का उत्तर दन का प्रयास करता है कि ये धार्मिक मान्यताएँ विश्वास तथा तथा सिद्धान्त कहां तक सत्य अथवा मिथ्या है।

इस प्रकार धर्म-दर्शन की परिभाषा करते हए हम यह कह सकते हैं कि धर्म-दर्शन दर्शन की वह शाखा है जो समस्त धार्मिक विश्वासों, अनभवों तथा सिद्धांतों के सत्य अथवा मिथ्या होने का सुव्यवस्थित, तर्कसंगत एवं निष्पक्ष परीक्षा करती है। इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि धर्म दर्शन का सम्बंध धर्म के उन सभी पक्षों में है जिनके विषय में हम सत्य अथवा मिथा हाने का प्रश्न उठा सकते हैं आर जिनका निष्पक्ष एवं तर्कसंगत मूल्यांकन संभव है। वस्तुतः ऐसा कोई भी धार्मिक विश्वास अनुभव अथवा सिद्धांत नहीं है जो धर्म-दर्शन की इस परिधि से बाहर हो, अतः धम-दर्शन का सम्बन्ध मनुष्य के संपर्ण धार्मिक जीवन में है। परतु यहाँ इस तथ्य का उल्लेख कर देना आवश्यक है कि धर्म-दर्शन का उद्देश्य किसी व्यक्ति को भक्त या नास्तिक बनाना नहीं है वह धर्म के पक्ष या विपक्ष मे किसी प्रकार का प्रचार नहीं करना। उसका उद्देश्य तो मनुष्य के धार्मिक जीवन से संबधित सभी पक्षों को भलीभांति समझना और उनका तर्कसंगत व निष्पक्ष मूल्याकन करना ही है। इस प्रकार धर्म-दर्शन से प्रचार के प्रति पूर्णत तटस्थ रहता है जिसका उद्देश्य धर्म का खडन अथवा समर्थन करना ही होता है। धर्म के पक्ष या विपक्ष में प्रचार करने वाले व्यक्ति के विपरीत धर्म-धार्मिक केवल उन्हीं धार्मिक मान्यताओं, विश्वासों  अथवा सिद्धांतों को स्वीकार करना है जिन्हें निस्पक्ष तथा विश्वसनीय प्रमाणा द्वारा सत्य प्रमाणित किया जा सकता है।

 

धर्म दर्शन का स्वरूप और क्षेत्र

धर्म-दर्शन के विषय में ऊपर जो कुछ कहा गया है उससे यह स्पष्ट है कि धर्म-दर्शन धर्म संबंधी इतिहास तथा धर्म विषयक मनोविज्ञान दोनों से भिन्न है। दार्शनिक के अतिरिक्त इतिहासज्ञ तथा मनोवैज्ञानिक भी अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार धर्म के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करने हैं। उदाहरणार्थ इतिहासज्ञ धर्म की उत्पत्ति तथा विभिन्न युगों में उसका विकास और मनुष्यो पर उसके प्रभाव को जानने का प्रयास करता है। वह प्रायः धर्म के विषय में निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर खोजन का प्रयत्न करता है :-धर्म की उत्पत्ति कब क्या और किस प्रकार हई विभिन्न कालों में किन विशेष तथ्यों और परिस्थितियों ने उसके विकास में योगदान किया। सम्पूर्ण संसार अथवा किसी विशेष राष्ट्र में विभिन्न युगाें म कौन-से महत्वपर्ण धार्मिक परिवर्तन हुए ? इन धार्मिक परिवर्तनों के क्या कारण थे और मनुष्याों पर इनका क्या प्रभाव पडा? क्या इन धार्मिक परिवर्तनों के मन में कोई सामान्य नियम खोजे जा सकते है। संसार में विभिन्न धर्मों के प्रचार तथा प्रसार के प्रमख कारण क्या थे किन व्यक्तियो तथा परिस्थितियों ने किसी विशष धर्म के प्रचार एवं प्रसार मे क्या और  किस प्रकार सहायता दी। धर्म संबंधी इन प्रश्नों तथा से ही अन्य अनेक प्रश्नो पर इतिहासज्ञ विचार करता है और उपलब्ध तथ्यों एवं प्रमाणों के आधार पर इनके उत्तर खोजने का प्रयास करता है।

इसी प्रकार इतिहासज्ञ के समान ही मनोवैज्ञानिक भी अपने विशेष दृष्टिकोण के अनुसार धर्म का अध्ययन करता है। हम देख चुके है कि धर्म मनुष्य की एक विशेष, मनोदशा या अभिवृत्ति है. अत: इसके अध्ययन में मनोवैज्ञानिक की रूचि होना स्वाभाविक ही है। परंतु उसका दृष्टिकोण इतिहासज्ञ के दृष्टिकोण से बहुत भिन्न होता है। वह धर्म को मनुष्य की एक विशेष मानसिक स्थिति मानकर उसके संबंध में प्राय: निम्नलिखित प्रश्न उठाता है और उनके उत्तर खोजने का प्रयास करता है:-जब कोई व्यक्ति या समुदाय किन्हीं विशेष धार्मिक विश्वासो तथा मान्यताओं से प्रेरित होकर आचरण करता है तो उसकी मानसिक स्थिति किस प्रकार की होती है ? मनुष्य की इस धार्मिक मनोदशा तथा धर्मनिरपेक्ष अभिवृत्तियों में क्या मूल अंतर होता है? धर्मपरायण व्यक्ति तथा समुदाय के व्यवहार पर इस धार्मिक मनोदशा का क्या प्रभाव पड़ता है और यह अन्य व्यक्तियों के जीवन पर क्या प्रभाव डालती है ? भिन्न-भिन्न धार्मिक परंपराओं में जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों की धार्मिक मनोदशाओं में हम किस प्रकार तुलना कर सकते हैं? क्या किन्हीं सामान्य नियमों के आधार पर मनष्य की मनोदशा के रूप में धर्म की व्याख्या की जा सकती है? यदि हाँ, तो ये सामान्य नियम कौन-से हैं और इन्हें कैसे खोजा जा सकता है? धर्म से संबंधित इन प्रश्नों और इसी प्रकार के अन्य प्रश्नों पर विचार करके मनोवैज्ञानिक अपने विशेष दृष्टिकोण के अनुसार इनके उत्तर देने का प्रयत्न करता है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि धर्म के संबंध में इतिहासज्ञ तथा मनोवैज्ञानिक के उपर्यक्त दष्टिकोणों में पर्याप्त भिन्नता के साथ-साथ एक आधारभूत समानता भी है और वह यह है कि ये दोनों ही धर्म से संबंधित कछ विशेष तथ्यों को उसी रूप में स्वीकार कर लेते हैं जिन रूप में उन्हें ये तथ्य उपलब्ध होते हैं। वे उन धार्मिक मान्यताओं, विश्वामों तथा सिद्धांतों के सत्य अथवा मिथ्या होने की आलोचनात्मक परीक्षा नहीं करते जिन्हें धर्मपरायण व्यक्ति स्वीकार करते हैं। उदाहरणार्थ इतिहासज्ञ की रुचि धार्मिक मान्यताओं, विश्वामों तथा सिद्धांतों की उत्पत्ति और उनके विकास-क्रम में ही होती है। वह केवल यही जानना चाहता है कि इनकी उत्पत्ति सर्वप्रथम किस प्रकार हुई और विभिन्न यगों में इनका विकास कैसे हआ।

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इसी प्रकार मनोवैज्ञानिक विशेष प्रकार के मानसिक तथ्यों के रूप में ही धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं और सिद्धांतों का अध्ययन करता है। वह केवल यही जानना चाहता है। कि इन मानसिक तथ्यों का वास्तविक स्वरूप क्या है, इनका मनुष्य के व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है और ये धर्मनिरपेक्ष अन्य मानसिक तथ्यों से किस प्रकार भिन्न होते है। इतिहासज्ञ तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही यह प्रश्न नहीं उठाते कि ये धार्मिक विश्वास मान्यताएँ और सिद्धांत कहाँ तक सत्य अथवा मिथ्या हैं। वस्तुतः यह प्रश्न उनके क्षेत्र की परिधि से बाहर है, क्योंकि इतिहास और मनोविज्ञान दोनों ही मानकीय विज्ञान न होकर वर्णनात्मक विज्ञान हैं। जैसा कि हम ऊपर देख चके हैं, इस प्रश्न पर विचार करना धर्म-दर्शन का ही कार्य है।

वह समस्त धार्मिक मान्यताओं, सिद्धांतों तथा विश्वासों का निष्पक्ष आलोचनात्मक परीक्षा करके पर्याप्त एवं विश्वसनीय प्रमाणों के आधार पर उनके सत्य अथवा मिथ्या होने का निर्णय करता है। वह हमें बताता है कि हम किन धामिक विश्वासों, सिद्धांतों तथा मान्यताओं को तर्कसंगत रूप से स्वीकार या अस्वीकार कर सकत है। इस प्रकार इतिहास तथा मनोविज्ञान के विपरीत धर्म-दर्शन मूलत: मानकीय विज्ञान और यही तथ्य उसे इन दोनों से पृथक करता है।

यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि धर्म-दार्शनिक किस आधार पर धार्मिक मान्यताओं, सिद्धांतों एवं विश्वासों की आलोचनात्मक परीक्षा करता है और उनके सत्य अथवा मिथ्या होने का निर्णय करता है। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि धर्म-दार्शनिक इन धार्मिक मान्यताओं, सिद्धांतों तथा विश्वासों की निष्पक्ष आलोचनात्मक परीक्षा के लिए उन सभी नियमों का प्रयोग करता है जिनका उल्लेख हम दर्शन का अर्थ स्पष्ट करते हुए पिछले खंड में कर चके हैं। उदाहरणार्थ सर्वप्रथम धर्म-दार्शनिक किसी भी धार्मिक विश्वास, मान्यता अथवा सिद्धांत के अर्थ का विश्लेषण करके उसे भलीभाँति स्पष्ट करने का प्रयास करता है।

ऐसा करने से उसे अस्पष्टता या अनिश्चितता का निराकरण होता है जो उस धार्मिक विश्वास, मान्यता अथवा सिद्धांत में पाई जाती है। इससे उसके अर्थ को ठीक-ठीक समझने और उसका निष्पक्ष मल्यांकन करने में बहुत सहायता मिलती है। इसके पश्चात् धर्म-दार्शनिक यह देखने का प्रयास करता है कि उक्त धार्मिक मान्यता, सिद्धांत या विश्वास में कोई असंगति अथवा स्वतोव्याघात तो नहीं है। उदाहरणार्थ अनेक धर्मपरायण व्यक्ति एक ओर तो केवल धर्म-सिद्धान्त के आधार पर मनुष्य के सुख-दुख की व्याख्या करते हैं और दूसरी ओर वे यह भी मानते हैं कि केवल ईश्वर के अनुग्रह के फलस्वरूप ही मनुष्य को सुख एवं संतोष प्राप्त हो सकता है। उनके इन विचारों में असंगति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

इसी प्रकार यदि कोई धार्मिक विश्वास या मान्यता उन विश्वासों अथवा सिद्धांतों के विरुद्ध है जो पहले ही विश्वसनीय प्रमाणों द्वारा सत्य प्रमाणित हो चुके हैं तो यह स्पष्ट है कि उसमें असंगति है और इसी कारण उसे तर्कसंगत नहीं माना जा सकता। इस संबंध में हम रोग-मुक्त होने के लिए प्रार्थना संबंधी धार्मिक विश्वासो का उदाहरण पिछले खंड में दे चुके हैं। यह स्पष्ट है कि जो धार्मिक मान्यता, सिद्धात या विश्वास असंगतिपूर्ण अथवा पूर्वप्रमाणित सिद्धांतों के विरुद्ध है उसे मिथ्या मानकर अस्वीकार करना आवश्यक है, क्योंकि यही तर्कबद्धि की अनिवार्य मांग है। किसी धार्मिक विश्वास, मान्यता अथवा सिद्धांत में मंगति के अतिरिक्त उन सभी प्रासंगिक तथ्यों की भी धर्म-दार्शनिक निष्पक्ष परीक्षा करता है। जो उससे संबंधित हैं। इसका कारण यह है कि इन तथ्यों की निष्पक्ष व्याख्या करके ही उन प्रमाणों को खोजा जा सकता है जो उसे सत्य अथवा मिथ्या प्रमाणित करते हैं।

उदाहरणार्थ यदि कोई धर्मपरायण व्यक्ति आज भी इस धार्मिक मान्यता में विश्वास करता है कि पथ्वी चपटी तथा स्थिर है और सूर्य ही उसकी परिक्रमा करता है तो यह स्पष्ट है कि उसकी यह मान्यता विज्ञान द्वारा प्रमाणित तथ्यों के विरुद्ध होने के कारण अयक्तिसंगत है। इस प्रकार किसी किमी भी धार्मिक विश्वास, सिद्धांत या मान्यता की प्रामाणिकता के लिए उससे संबंधित यभी प्रासंगिक तथ्यों को भलीभाँति जानना और उनका निष्पक्ष मल्यांकन करना बहुत आवश्यक है। अंत में धर्म-दार्शनिक उन सभी प्रमाणों या तर्को की निष्पक्ष रूप से परीक्षा करता है जो किसी धार्मिक विश्वास, मान्यता अथवा सिद्धांत के समर्थन में प्रस्तुत किए जाते हैं।

यदि इस परीक्षा के पश्चात ये प्रमाण या तर्क दोषपूर्ण पाए जाते हैं तो स्पष्टतः इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि उन पर आधारित वह धार्मिक विश्वास मान्यता अथवा सिद्धात मिथ्या है। इसी आधार पर अनेक धार्मिक मान्यताओ या विश्वासो को मिथ्या सिद्ध किया जा सकता है। उदाहरणार्थ वर्तमान युग में प्रबल वैज्ञानिक प्रमाणों द्वारा यह धार्मिक विश्वास मिथ्या प्रमाणित हो चुका है कि ईश्वर ने कछ ही दिनों में संपूर्ण ब्रहमाड तथा इसमे विद्यमान सभी भौतिक वस्तुओं, पेड़-पौधों और प्राणियों की रचना की है।

इस धार्मिक विश्वास के समर्थन में जो तर्क दिए गए हैं उन्हें वैज्ञानिकों ने पूणतः मिथ्या सिद्ध कर दिया है। इसी प्रकार ईश्वर तथा आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप से संबंधित धार्मिक विश्वासों को भी अभी तक असंदिग्ध रूप से सत्य प्रमाणित नहीं किया जा सका है. क्योंकि इनके समर्थन में प्रस्तुत किए गए तर्क या प्रमाण भी दोषपर्ण पाए गए हैं। अन्य बहुत से प्रचलित धार्मिक विश्वासों के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। संक्षेप में दर्शन संबंधी उपर्युक्त सभी नियमों के आधार पर ही धर्म-दार्शनिक धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं अथवा सिद्धांतों की निष्पक्ष आलोचनात्मक परीक्षा करके उन्हें सत्य अथवा मिथ्या प्रमाणित करने का प्रयास करता है।

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धर्म-दर्शन तथा धर्मशास्त्र में अंतर

धर्म-दर्शन की परिभाषा अथवा उसके स्वरूप की इस विवेचना को समाप्त करने में पूर्व यहाँ धर्म-दर्शन तथा धर्मशास्त्र में अंतर स्पष्ट कर देना आवश्यक है, क्योंकि कभी-कभी इन दोनों को एक ही मान लिया जाता है जो उचित नहीं है। वास्तव में धर्म-दर्शन इतिहास और मनोविज्ञान से ही नहीं, धर्मशास्त्र से भी भिन्न है। यह सत्य है कि धर्म-दर्शन और धर्म-शास्त्र दोनों ही धर्म के साथ अनिवार्यतः सम्बद्ध हैं, किन इन दोनों के मल उद्देश्य में आधारभूत अंतर है। कुछ विद्वानों का मत है कि धर्मशास्त्र ईश्वर विषयक वह विज्ञान है जो ईश्वर के अस्तित्व एवं स्वरूप और जगत् तथा मनष्य के साथ उसके संबंध की व्यवस्थित रूप से तर्कसंगत विवेचना करता है। इसी कारण ये विद्वान धर्मशास्त्र को ईश्वर-विद्या की संज्ञा देते हैं। वे अपने इस मत के समर्थन में यह भी कह सकते हैं कि धर्मशास्त्र के लिए अंग्रेजी में जो ‘थियोलाजी’ शब्द प्रचलित है उसका शाब्दिक अर्थ ‘ईश्वर संबंधी विज्ञान’ ही होता है।

परंतु धर्मशास्त्र के विषय में इस मत को केवल अंशतः ही सत्य माना जा सकता है। इसका कारण यह है कि ईश्वरवादी धर्मों की भांति निरीश्वरवादी धर्मों का भी अपना धर्मशास्त्र होता है। दूसरे शब्दों में, धर्मशास्त्र केवल ईश्वरवादी धर्मो तक ही सीमित नहीं है। ऐसी स्थिति में धर्मशास्त्र को ‘ईश्वर विषयक विज्ञान कह कर उसकी ठीक-ठीक परिभाषा नहीं की जा सकती। इसके लिए हमें अधिक व्यापक दृष्टिकोण को स्वीकार करना होगा। मेरे विचार में धर्मशास्त्र वह विद्या है जो किसी विशेष धर्म के मूल सिद्धांतों तथा विश्वासों की व्यवस्थित और तर्कसंगत व्याख्या करने का प्रयास करता है। धर्मशास्त्र की यह परिभाषा अपेक्षाकत अधिक व्यापक है. क्योंकि यह इश्वरवादी तथा निरीश्वरवादी दोनों प्रकार के धर्मो के धर्मशास्त्र पर समान रूप से लागू होती है इस परिभाषा के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि प्रत्येक विकसित धर्म का अपना ही पृथक धर्मशास्त्र होता है जो उसके मूल सिद्धांतों और विश्वासों की विवेचना करता है। धर्मशात्र की इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि धर्म-दर्शन के विपरीत उसका स्रोत किसी विशेष धर्म तक ही सीमित होता है। वह सर्वप्रथम किसी विशेष धर्म के मूल सिद्धांतों नथा विश्वासो को केवल आस्था के आधार पर स्वीकार कर लेता है और इसके पश्चात उसकी तर्कसंगत व्याख्या करने का प्रयास करता है।

वस्तुतः धर्म-दर्शन के विपरीत धर्मशास्त्र केवल यही प्रमाणित करने की चेष्टा करता है कि किसी विशेष धर्म के मूल सिद्धांतों और विश्वासों में कोई तार्किक असंगति या परस्पर विरोध नहीं है। वह इन सिद्धांतों और विश्वासों की सत्यता में संदेह किए बिना यह सिद्ध करने का प्रयत्न करता है कि ये वास्तव में परस्पर संबद्ध तथा तर्कसंगत हैं। इस प्रकार धर्मशास्त्र मूलतः आस्था पर ही आधारित रहता है और यह तथ्य उसे धर्म-दर्शन से पृथक करता है। जिसका मूल आधार केवल तर्कबुद्धि है। हम देख चके हैं कि धर्म-दर्शन विश्वसनीय प्रमाणों के अभाव में किसी भी धार्मिक मान्यता, विश्वास अथवा सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता। वह केवल निष्पक्ष तथा पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर ही उसे सत्य या मिथ्या सिद्ध करने का प्रयास करता है। इस दृष्टि से धर्म-दर्शन धर्मशास्त्र से मूलतः भिन्न है जिसके लिए आस्था अनिवार्य है। इन दोनों में दूसरा महत्त्वपूर्ण अंतर यह है कि धर्म-दर्शन सभी धर्मों के मूल सिद्धांतों तथा विश्वासों की निष्पक्ष आलोचनात्मक परीक्षा करता है, जबकि धर्मशास्त्र किसी विशेष धर्म के विश्वासों एवं सिद्धांतों को सत्य प्रमाणित करने के लिए उनकी तर्कसंगत व्याख्या करने का प्रयास करता है। इससे स्पष्ट है कि धर्म-दर्शन का क्षेत्र धर्मशास्त्र के क्षेत्र की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक है।

धर्म-दर्शन किसी भी धर्म के संपूर्ण धर्मशास्त्र की निष्पक्ष आलोचनात्मक परीक्षा कर सकता है, किंतु धर्मशास्त्र अनिवार्यतः किसी विशेष धर्म तक सीमित होने के कारण धर्म-दर्शन के मूल सिद्धांतों की विवेचना करने में असमर्थ है। इन दोनों में तीसरा प्रमख अंतर यह है कि धर्म-दर्शन का उद्देश्य किसी धार्मिक विश्वास, मान्यता अथवा सिद्धांत का समर्थन या खंडन करना न होकर उसकी निष्पक्ष आलोचनात्मक परीक्षा करना ही होता है; इसके विपरीत धर्मशास्त्र की उत्पत्ति अनिवार्यतः किसी विशेष धर्म के मूल सिद्धांतों और विश्वासों की रक्षा अथवा उनके तर्कसंगत समर्थन के लिए ही होती है। मूलतः आस्था पर आधारित होने के कारण प्रत्येक धर्म का धर्मशास्त्र उसके विश्वासों तथा सिद्धांतों को अनिवार्यतः युक्तिसंगत एवं सत्य प्रमाणित करने का प्रयास करता है। वह उनकी सत्यता और प्रामाणिकता के विषय में कभी कोई प्रश्न नहीं उठाता। उसका एकमात्र उद्देश्य उन सभी शंकाओं तथा आपत्तियों का उत्तर देना ही है जो उसके मल सिद्धांतों और विश्वासों के विरुद्ध उठाई जाती हैं अथवा उठाई जा सकती हैं।

अपने इस उद्देश्य की पूर्ति वह उस धर्म के पवित्र धार्मिक ग्रंथों को असंदिग्ध रूप से प्रामाणिक मानकर ही करता है। इस प्रकार विशद्ध तर्कबद्धि पर आधारित धर्म-दर्शन के विपरीत धर्मशास्त्र का मूल स्रोत श्रुतिमलक आस्था ही है। ऐसी स्थिति में उसे वास्तविक अर्थ में ‘विज्ञान’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती। विज्ञान के विपरीत धर्मशास्त्र तर्को अथवा प्रमाणों का प्रयोग केवल किसी धर्म के मूल सिद्धांतों तथा विश्वासों की रक्षा के लिए ही करता है, उनकी निष्पक्ष आलोचनात्मक परीक्षा के लिए नहीं। वस्तुतः धर्मशास्त्र का यह सीमित और एकांगी उद्देश्य उसे विज्ञान तथा धर्म-दर्शन से पृथक करता है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि धर्म-दर्शन धर्मशास्त्र से मूलतः भिन्न है, अतः इन दोनों को एक ही मान लेना बहुत गंभीर भूल होगी।

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