मर्टन का सन्दर्भ-समूह व्यवहार एवं सापेक्षिक अभाव बोध की विवेचना
मर्टन का सन्दर्भ-समूह व्यवहार
रॉबर्ट के. मर्टन ने सन्दर्भ समूह व्यवहार की व्याख्या अपनी पुसतक दी अमेरिकन सोल्जर’ में की है। उसका कथन है कि सामान्यतः सन्दर्भ-समूह व्यवहार का उद्देश्य उन निर्धारक परिस्थितियों एवं दशाओं को व्यवस्थित करना है, जो कि आत्म महत्व के कारण एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों और समूहों के मूल्यों एवं मापदण्डों को ग्रहण कर लेने से और अपनी स्थिति को दूसरों की स्थिति से तुलना करने से उत्पन्न होती है। मर्टन के अनुसार, सन्दर्भ-समूह के सिद्धान्त का प्रमुख उद्देश्य सामान्य रूप से मूल्यांकन प्रकिया को व्यवस्थित रूप प्रदान करना है, जिसके द्वारा कोई व्यक्ति अपना तुलना अन्य समूहों एवं व्यक्तियों करके उनके मूल्यों और प्रतिमानों को अपनाने अथवा प्राप्त करने का प्रयास करता है।
व्यक्ति का सन्दर्भ समूह आन्तरिक समूह ही है, जिसका कि वह वास्तव में सदस्य है तथा बाह्य समूह में से कोई भी सन्दर्भ समूह हो सकता है, बशर्ते कि उससे तन्त्रों का चनाव किया जाये। प्रायः एक व्यक्ति अपने ही समूह के कुछ लोगों को अपना सन्दर्भ समह मानने लगता है, जिनकी सफलताए/उपलब्धियाँ उससे अधिक होती है। इस तरह अन्तःसमूह या सदस्यता समूह ही सन्दर्भ समूह है। कुछ बहुल सन्दर्भ समूह भी होते हैं, जिससे परस्पर विरोधी या निरन्तर सम्पर्क में आने वाले समूह सम्मिलित है। दसरी ओर व्यक्ति कछ समूहों की सदस्यता से इनकार भी करता है, क्योंकि वह उनसे अनुरूपता नहीं रखना चाहता, इन्हें ‘नकारात्मक सन्दर्भ समूह’ कहते हैं।
सन्दर्भ समूहों का कथन दो प्रकार से होता है
1. सन्दर्भ समूह का चयन ‘आदर्श भमिका’ के आधार पर किया जाता है। एक व्यक्ति को जिस व्यक्ति की भूमिकाएँ आदर्श प्रतीत होती है, वह उन्हीं का अनुकरण करने का प्रयास करता है।
2. सामाजिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति ऊंचा बनना चाहता है।
अतः वह समाज में प्रतिष्ठित व्यक्तियों के सन्दर्भ समूह निर्मित कर लेता है। स्पष्ट है कि सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा व्यक्ति को उस दूसरे समूह का चुनाव करने की प्रेरणा देती है, जिसका कि वह वास्तव में सदस्य नहीं है। मर्टन के अनुसार, सन्दर्भ समूह के सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य सामाजिक जीवन में उच्च स्थिति प्राप्त करने और स्वयं को अधिक से अधिक प्रतिष्ठित देखने की इच्छा से ही सम्बन्धित होता है।
मर्टन का कथन है कि ‘दी अमेरिकन सोल्जर’ नामक पुस्तक में सन्दर्भ समूह के बारे में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है, जिसको व्यवस्थित करके हम सन्दर्भ समूह का समाजशास्त्रीय सिद्धान्त निर्मित कर सकते हैं। ध्यातव्य है कि उनकी इस पुस्तक के दो खण्डों में ‘सन्दर्भ-समूह’ शब्द की अवधारणा या सिद्धान्त का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता। है। इस पुस्तक की सामग्री के आधार पर मर्टन ने सन्दर्भ समूह के सिद्धान्त को विकसित करने का प्रयास किया है। इस पुस्तक में अमेरिकी सैनिकों के व्यवहार को जन्म देने वाले संगठनात्मक प्रसंगों का विश्लेषण कुछ अवधारणाओं के आधार पर किया गया है।
सापेक्षिक अभाव बोध की अवधारणा
मर्टन के अनुसार, सन्दर्भ-समह सिद्धान्त में प्रमुख समस्या यह है कि किन परिस्थितियों में एक व्यक्ति अपना मल्यांकन और मनोवृत्तियों को निर्मित करने के लिए अपने ही समूह के सहयोगियों से अपनी तलना करता है और किन परिस्थितियों में बाह्य समूह या असदस्यता समूह सन्दर्भ समूह का कार्य करते हैं। सापेक्षिक या तुलनात्मक अभाव के बोध, वंचितता (Deprivation) को दी अमेरिकन सोल्जर में प्रमुख स्थान दिया। मर्टन के अनुसार, अधिकांश अमेरिकी सैनिक, सैनिकों की भूमिका को यानि सैनिक को सापेक्षिक अभाव बोध या बलिदान का ही परिणाम मानते है, क्योंकि वे भावी होने वाले सैनिक जीवन की विशेषताओं से भली भांति अवगत होते हैं। सन्दर्भ समूह की इस अवधाश का प्रयोग मुख्यतः असन्तोष की भावनाओं की अभिव्यक्ति करने का प्रयोग मुख्यतः असन्तोष की भावनाओं की अभिव्यक्ति करने के लिए किया जाता है। यदि अमेरिकी सैनिक अपनी तुलना किसी गैर सैनिक समूह से करता है, तो उसे सन्तोष का अनुभव होता है। किन्तु जब विदेशों में नियुक्त सैनिक अपनी तुलना अमेरिका में ही नियुक्त सैनिक से करता है तो उसमें असन्तोष उत्पन्न होता है।
सैद्धान्तिक रूप से सन्दर्भ समूह कई प्रकार के होते हैं। सैनिकों के सन्दर्भ-समूह कई प्रकार के होते हैं। सैनिकों में सन्दर्भ समूह का चुनाव सापेक्षिक अभाव बोध या बलिदान की अवधारणा पर निर्भर करता है। मर्टन ने अपनी पुस्तक में सापेक्षिक बलिदान की अवधारणा को सैनिकों में सन्दर्भ समूह के चुनाव का मुख्य आधार माना है। जो लोग जिन सनिकों को बलिदानी मानते हैं, उन्हीं का अनुसरण करने का प्रयास करते है। यद्यपि सापेक्षिक बलिदान की अवधारणा की औपचारिक परिभाषा तो नहीं दी गई है, फिर भी इसके आधार पर विभिन्न श्रेणियों के सैनिकों की मनोवृत्तियों में अन्तर के निर्वचन का प्रचार किया गया है। विभिन्न समूह आयु शिक्षा और वैज्ञानिक स्थिति के बारे में अलग-अलग विचार रखते हैं और यह अन्तर सापेक्षिक बलिदान तथा भिन्न प्रकार के सन्दर्भ व्यक्तियों के ही कारण होता है।
मर्टन के सापेक्षिक बलिदान या अभाव बोध की अपनी अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए अपनी पुस्तक में निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत किये हैं –
1. विवाहित सैनिक अविवाहित सैनिकों से अविवाहित सैनिक विवाहित सैनिकों से अपनी तुलना करके यह अनुभव करते हैं कि उन्हें सेना में भरती करके उनसे अधिक बलिदान/कुर्बानी करने की मांग की गई है।
2. हाईस्कूल एवं स्रातक स्तर तक के शिक्षा प्राप्त करने वाले सैनिकों में अपने मित्रों से तुलना करने के फलस्वरूप यह भावना पाई जाती है कि उनसे उनके नागरिक मित्रों की तुलना में अधिक मांग की गई है।
3. उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले सैनिकों को, जो उच्च सैनिक पद प्राप्त नहीं कर पाते हैं, अधिक बलिदान देते हैं। अतः उनमें से अधिक नैराश्य पाया जाता है।
4. युद्धरत् सैनिकों की तुलना में विदेशों में नियुक्त अमेरिकी सैनिकों में, जो युद्ध की स्थिति में नहीं है, बहुत ही कम बलिदान की भावना पाई जाती है।
5. यदि कोई व्यक्ति एक ही पद (उदाहरण के लिए कैप्टन) पर अन्यों (अन्य कैप्टनों) की अपेक्षा अधिक देर तक नियुक्त रहता है, तो वह पदोन्नति व्यवस्था से प्रयास नहीं रहता।
6. सापेक्षिक स्थिति की दृष्टि से दक्षिण में नियुक्ति के कारण उत्तरी तथा दक्षिणी नीग्रो सैनिकों में सामंजस्य अनेक मनोवैज्ञानिक कारणों द्वारा प्रभावित मानते हैं।।
7. दक्षिण में नीग्रो सैनिकों के सैनिक जीवन के मनोवैज्ञानिक मूल्य नागरिकों के मूल्य से ऊंचे हैं तथा इसी प्रकार उत्तर में स्थित नीग्रो सैनिक, नीग्रो नागरिकों से ऊंचे है।
8. सैनिकों और अधिकारियों की सुविधाओं में जितना कम अन्तर होगा, उतना ही उनमें सन्तोष अधिक होगा तथा बलिदान की भावना भी कम पाई जायेगी।
9. जो सैनिक अपने समान अवधि तथा शिक्षा वाले सैनिकों की तुलना में कम पदोन्नति कर पाये हैं, उनमें पदोन्नति के प्रति शिकायत रहती है तथा वे इसकी आलोचना भी करते है।
10. उपरोक्त विभिन्न उदाहरणों से यह स्पष्टतः ज्ञात होता है कि व्यक्ति किसी न किसी अन्य समूह जिसे सन्दर्भ समूह कहा जाता है, से अवश्य ही प्रभावित होता है।
मर्टन के अनुसार निम्नलिखित तीन प्रकार के समूहों से अपना मूल्यांकन करते हैं-
1.प्रथम, अमरीकी सैनिकों की मनोवृत्तियाँ तथा निर्णय उसी सामाजिक परिस्थिति में रहने वाले अन्य लोगों से प्रभावित होते हैं अर्थात् व्यक्ति अपना मूल्यांकन वास्तविक सम्बन्धों वाले व्यक्तियों से अपनी तुलना करके करते हैं।
2. तुलना तथा मूल्यांकन का दूसरा आधार समान पद अथवा संमान श्रेणी वाले अन्य व्यक्ति हैं, जिनके साथ उसकी प्रत्यक्ष अन्तःक्रिया नहीं होती है।
3. तुलना तथा मूल्यांकन का तीसरा आधार भिन्न पदों अथवा सामाजिक श्रेणियों के व्यक्ति हैं, अर्थात् व्यक्ति अपने से ऊंची अथवा नीची सामाजिक श्रेणी अथवा पदों पर नियुक्त व्यक्तियों से तुलना करके अपना मूल्यांकन करते हैं।
सैद्धान्तिक रूप से अनेक सन्दर्भ समूह है। व्यक्ति जिन समूहों का सदस्य है वे तो सीमित है, परन्त जिनका सदस्य नहीं है, उनकी संख्या काफी अधिक होती है। इन से कोई भी व्यक्ति का मूल्यांकन, व्यवहार एवं मनोवृत्तियों को निर्धारित करने में सन्दर्भ-समय बन सकता है।
स्पष्ट है कि संघर्ष दृष्टिकोण के मूल्यों की एकात्मकता के स्थान पर परिस्थितियों के ही सामाजिक व्यवस्था के कन्द्रीय तत्व के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। संघर्ष सम्बन्धी ये परिस्थितियाँ शान्तिपूर्ण, वैधानिक, बाजार की सौदेबाजी से लेकर हिन्सात्मक घटनाओं तक किसी भी रूप में हो सकती है। संघर्ष के कारण समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित हो जाता है। अतः समाज की व्याख्या संघर्ष परिस्थितियों के संदर्भ में ही की जा सकती है।
संघर्ष सिद्धान्त की विशेषताएँ
राल्फ डेहेरफोर्ड ने संघर्ष को एक अनिवार्य सामाजिक तथ्य बताया है क्योंकि आधुनिक औद्योगिक समाजों में सम्पूर्ण सामाजिक जीवन वास्तव में हितों/स्वार्थों से ही अभिप्रेरित होता है, जिन्हें हम व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही क्षेत्रों में स्पष्टतः देख सकते हैं। राल्फ डेहरेडोर्फ ने संघर्ष दृष्टिकोण की अधोलिखित चार प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया है-
1. प्रत्येक समाज चूंकि सदैव परिवर्तन की प्रक्रियाओं के अधीन रहता है, अतः सामाजिक परिवर्तन सर्वव्यापी/सार्वभौमिक है।
2. प्रत्येक समाज चूंकि सदैव ही मतभेद और संघर्ष की परिस्थितियों का प्रदर्शन करता है, अतः संघर्ष भी सर्वव्यापी/सार्वभौम है।
3. समाज का प्रत्येक तत्व सामाजिक विघटन और सामाजिक परिवर्तन के लिए अपना योगदान करता है।
4.प्रत्येक समाज कुछ सदस्यों पर अन्यों द्वारा वाह्यकारिता पर आधारित होता है।
इन्हें भी देखें-
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