इमान्युएल काण्ट की जीवनी और रचनाएँ

इमान्युएल काण्ट की जीवनी, रचनाएँ, दार्शनिक सिद्धान्त | Immanuel Kant’s Biography in Hindi

इमान्युएल काण्ट (Immanuel Kant) [सन् १७२४ ई. से सन् १८०४ ई.]

आधुनिक दर्शन के उच्चतम विचारक इमान्युएल काण्ट का जन्म कोनिन्सबर्ग (Koninsberg) में सन् १७२४ में हुआ था। काण्ट के पूर्वज १७वीं शताब्दी में स्कॉटलैण्ड से भागकर आए थे। इनका जन्म दरिद्र परिवार में हुआ था। ये ग्यारह भाई-बहन थे। इनके पिता शान्ति सैनिक थे। अतः बचपन से ही काण्ट को बाइबिल की कड़ी शिक्षा दी गयी। आठ वर्ष तक स्कूल में अध्ययन करने के बाद इन्होंने कोनिन्सबर्ग विश्वविद्यालय में प्रवेश पाया। जहाँ इन्होंने गणित, विज्ञान, दर्शन-शास्त्र आदि की शिक्षा पायी। ये अत्यन्त निर्धन छात्र थे, ट्यूशन पढ़ाकर अपना काम चलाते थे।

सन् १७५५ में कोनिन्सबर्ग विश्वविद्यालय में ये अध्यापक बने। सन् १७७० में ये दर्शन के अध्यापक बने। कुछ दिनों के बाद ये उसी विश्वविद्यालय में रेक्टर (Rector) पद पर नियुक्त हुए। सन् १७७८ में हैले के विश्वविद्यालय ने काण्ट को आमन्त्रित किया, परन्तु काण्ट ने यह निमन्त्रण अस्वीकार कर दिया। ये आजन्म ब्रह्मचारी रहे तथा जीवन भर सरस्वती की सेवा में संलग्न रहे। ८0 वर्ष की अवस्था में कोनिन्सबर्ग में ही इनका देहान्त हो गया। ये जीवन भर कोनिन्सबर्ग में ही रहे। अपने जीवन की ८० वर्ष की आयु में भी ये कोनिन्सबर्ग से ४० मील दूर की यात्रा न किये थे।

इनका जीवन यन्त्रवत् था तथा इनका प्रत्येक कार्य यथा समय हुआ करता था। काण्ट को घूमने निकलते देख लोग अपनी घड़ियाँ ठीक किया करते थे। इनके घूमने का समय ठीक साढ़े तीन बजे था। इसी प्रकार इनका सोना, उठना, बैठना, खाना, पीना, काफी पीना आदि सब सुनिश्चित था। काण्ट का सम्पूर्ण जीवन सरल तथा शुद्ध था। ये आजीवन अध्ययन, अध्यापन तथा दार्शनिक चिन्तन में लगे रहे।

इनकी रचनाएँ हैं-

१. शुद्ध ज्ञान की परीक्षा (Critique of Pure Reason), २. आचारमलक ज्ञान की परीक्षा (Critique of Practical Reason) एवं ३ कला और सौन्दर्यमलक ज्ञान की परीक्षा (Critique of Judgemen)| ये तीन काण्ट के सर्वाधिक महत्वपर्ण ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त भी कई ग्रन्थ हैं। जैसे-Prolegomena to Any Future Metaphysics, Fundamental Principles of the Metaphysics of Morals, Religion within the Limits of Reason Alone.

इमान्युएल काण्ट के दर्शन को भली-भाँति समझने के लिये हमें अन्य दार्शनिकों के काण्ट न को समझना आवश्यक है। काण्ट का दर्शन आलोचनात्मक (Critical) का है क्योंकि काण्ट अपने दर्शन में पूर्ववर्ती दार्शनिकों की आलोचना करते पर की आलोचना भी एक विशेष प्रकार की है न तो वे अपने पूर्ववर्ती निकों की सभी बातों को स्वीकार ही करते हैं और न पूरी तरह निषेध ही करते हैं, वर बरन पर्ववर्ती दार्शनिकों के सिद्धान्तों में समन्वय का प्रयास करते हैं। इसीलिए काण्ट को समन्वयवादी दार्शनिक कहा गया है। अतः जिन मतों का वे समन्वय करते हैं  उनको जानना आवश्यक है। हम आगे इस पर पूरी तरह विचार करेंगे। अस्तु काण्ट के दार्शनिक विचारों पर अन्य दार्शनिकों तथा सिद्धान्तों के स्पष्ट प्रभाव हैं। काण्ट के मुख्य आलोचक काण्ट पर निम्नलिखित विचारों का प्रभाव मानते है-

 

1. पाइटिस्ट सम्प्रदाय का प्रभाव-

अपने माता-पिता से काण्ट को पाइटिस्ट शिक्षा मिली थी। काण्ट के पिता विख्यात पाइटिस्ट थे। उन दिनों पाइटिस्ट सम्प्रदाय का मुख्य कार्य था कठोर नैतिक नियमों की शिक्षा देना। जर्मनी का पाइटिस्ट सम्प्रदाय इंग्लैण्ड के प्यूरिटन सम्प्रदाय के ही समान था। सर्वप्रथम काण्ट ने कड़े नैतिक नियमों की शिक्षा को धार्मिक जीवन के लिये व्यर्थ सा समझा, अत: इन्होंने इसका विरोध भी किया परन्तु बाद में काण्ट कट्टर धार्मिक बन गये तथा कठोर नैतिक नियमों को भी धार्मिक जीवन के लिये व्यर्थ सा समझा, अतः इन्होंने इसका विरोध भी किया परन्तु बाद में काण्ट कट्टर धार्मिक बन गये तथा कठोर नैतिक नियमों को भी धार्मिक जीवन के लिये आवश्यक मानने लगे।

आगे हम काण्ट की नीति मीमांसा में देखेंगे कि नैतिक आदेश (Categorical imperative) पर पाइटिस्ट सम्प्रदाय का स्पष्ट प्रभाव है। अत: बाल्यकाल का प्रभाव अन्त तक बना रहा। शिलर ने गेट के पास काण्ट के विषय में इसी आशय से एक पत्र लिखा था कि लूथर के समान काण्ट के सम्बन्ध में भी कछ बातें हैं जिसके कारण हमें उस संन्यासी का ‘स्मरण हो आता है जिसने अपना मठ तो छोड़ दिया परन्तु उसके चिह्न अवशिष्ट रहे।

 

२. रूसो के मानवतावाद का प्रभाव-

काण्ट के युग में विज्ञान का बोलबाला था विज्ञान ने मानव को एक नया मोड दे दिया था। नये वैज्ञानिक आविष्कारों के मावस मानव जीवन यन्त्रवत जड हो गया था तथा बद्धि ने भावनाओं पर विजय पाया। इसके विरुद्ध रूसो वाल्टेयर प्रभति विद्वानों ने अपनी कृतियों से विद्रोह किया। उनके विटोह के मूल में मानव-भावनाओं को उचित स्थान प्रदान ना था। इसका निश्चित प्रभाव काण्ट पर पड़ा। इसी कारण बौद्धिक विकास के समर्थक तो है, परन्तु भावनाओं को दबाकर नहीं। अत: काण्ट के अनुसार वैज्ञानिक उपलब्धियाँ मानव जीवन के साधक हैं, साध्य नहीं। इसी कारण काण्ट के सभी दार्शनिक विचार मानव केन्द्रित हैं। अतः रूसो और वाल्टेयर के मानवतावाद का काण्ट पर स्पष्ट प्रभाव है।

 

३. विज्ञान का प्रभाव-

काण्ट का युग वैज्ञानिक आविष्कारों का युग है। इस युग में न्यूटन प्रभृति बड़े-बड़े वैज्ञानिक हुए। काण्ट अपने युग के सभी वैज्ञानिकों से प्रभावित हैं। विज्ञान के प्रभाव से काण्ट ने प्रसिद्ध पुस्तक (A General Natural History of the Heavens) लिखा। काण्ट अन्य वैज्ञानिकों की अपेक्षा न्यूटन से अधिक प्रभावित थे। इन्होंने मार्टिन नुत्सेव नामक प्रसिद्ध गुरु से न्यूटन का अध्ययन किया था। न्यूटन के वैज्ञानिक सिद्धान्तों से ये प्रभावित भी थे। न्यूटन ने भौतिक शास्त्र में निस्सन्देह सत्यों की प्राप्ति का प्रयास किया। काण्ट ने भी न्यटन का अनुगमन कर दार्शनिक क्षेत्र में निस्सन्देह सत्यों की प्राप्ति का प्रयास किया। विज्ञान के प्रभाव के कारण ही काण्ट भौतिक भूगोल (Physical geography) में अभिरुचि रखते थे।

 

४. ह्यूम के सन्देहवाद का प्रभाव-

काण्ट के दार्शनिक विचारों पर सबसे गहरा प्रभाव ह्यूम के विचारों का है। काण्ट ने स्वयं कहा है कि ह्यूम ने मुझे रूढ़िवाद की निद्रा से जगाया (Hume awoke him from dogmatic slumber)| ह्यूम ने कारण-कार्य के अनिवार्य सम्बन्ध का खण्डन किया। इस खण्डन ने काण्ट को जगा दिया। कारण कार्य की अनिवार्यता ही दार्शनिक सिद्धान्तों की आधारशिला है। अतः अनिवार्यता का निषेध कर हाम ने दर्शन की नींव को हिला दिया। अत: काण्ट के दर्शन में सबसे बड़ी समस्या दार्शनिक नींव को सबल बनाना है। इस प्रकार हाम। काण्ट के विचारों के प्रेरक माने जाते हैं।

 

५. वुल्फवादी लाइबनिट्ज का प्रभाव-

काण्ट लाइबनिट्ज के दर्शन से प्रभावित थे। लाइबनिट्ज ने सर्वप्रथम बुद्धिवाद तथा अनुभववाद के समन्वय का ग्यास किया था। काण्ट इससे प्रभावित हुए। काण्ट ने लाइबनिटज का अध्ययन विश्वविद्यालय जीवन में ही प्रारम्भ किया था। उन दिनों लाइबनिटज का दर्शन वुल्फ के अनुसार पढ़ाया जाता था। वुल्फ ने लाइबनिटज के समन्वयवाद के स्थान पर विरोध बतलाया है। तात्पर्य यह है कि वल्फ ने लादलनिज दर्शन को अनुभववाद तथा बुद्धिवाद के विरोध में उपस्थित किया है। काण्ट प्रारम्भ में वुल्फ के विचार से प्रभावित थेु परन्तु बाद में वे लाइबनिटज के समन्वयवाद से ही सहमत हुए।

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इमान्युएल काण्ट का दार्शनिक सिद्धान्त

१. ज्ञान विचार-

काण्ट के सिद्धान्त को समीक्षावाद (Criticism) कहते हैं; क्योंकि काण्ट बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों की समीक्षा करते हैं। काण्ट के पूर्व बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दो विरोधी सिद्धान्त थे। काण्ट ने अपनी बारह वर्षों की सतत् साधना के पश्चात् इन दोनों का समन्वय किया। इस प्रकार काण्ट ने बुद्धिवाद और अनुभववाद के लम्बे संघर्ष को समाप्त कर दिया। काण्ट सर्वप्रथम बुद्धिवादी बने, परन्तु  उनके अनुसार बुद्धिवाद का अन्त अन्धविश्वास (Dogmatism) है। पुनः – अनभववादी बने; परन्तु उनके अनुसार अनुभववाद का अन्त सन्देहवाद (Scenticism) है, अतः दोनों दोषपूर्ण है। परन्तु इनमें गुण भी हैं। काण्ट ने दोनों के दोष का परिहार कर दोनों के गुणों का समन्वय किया है। इसे ही समीक्षावाद कहते।

इस प्रकार काण्ट के ज्ञान सिद्धान्त के दो पक्ष हैं-खण्डन और मण्डन। खण्डन पक्ष काण्ट बद्धिवाद और अनुभववाद दोनों के दोषों का खण्डन करते है तथा मण्डन में दोनों की मान्यताओं का समन्वय कर समीक्षावाद का प्रतिपादन करते हैं। अतः काण्ट के समीक्षावाद की व्याख्या के लिये बुद्धिवाद तथा अनुभववाद के गण-दोष की अलग-अलग समालोचना आवश्यक है। काण्ट के अनुसार जिन बातों को बुद्धिवादी अनुभववादी स्वीकार करते हैं, वे सत्य हैं और जिन बातों का वे निषेध करते हैं, वे असत्य हैं (They are justified in what they affirm, but wrong in what they deny)।

 

२. बुद्धिवाद-

पाश्चात्य दर्शन का आधुनिक युग बुद्धिवाद से ही प्रारम्भ होता है। बुद्धिवादियों के अनुसार बुद्धि ही ज्ञान की जननी है। ज्ञान सार्वभौम (Universal) तथा अनिवार्य (Necessary) होता है। ऐसे सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान की प्राप्ति हमें इन्द्रियानुभव से नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ, दो और दो का योग चार होता है। यह ज्ञान सार्वभौम तथा अनिवार्य है। संसार के सभी देश तथा काल के लोग दो और दी का योग चार ही स्वीकार करेंगे। इसका विरोधी वाक्य सत्य नहीं हो सकता। सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान आत्मा में जन्म से ही अन्तर्निहित रहता है। इस प्रकार का सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान गणित शास्त्र में पाया जाता है। यह ज्ञान जन्मजात तथा अनुभव निरपेक्ष (Independent of Experience) है।

बुद्धि नया ज्ञान नहीं उत्पन्न करती, वरन् आत्मा में जन्म से विद्यमान प्रत्ययों को बाहर निकालती है। इसीलिये बुद्धिवादी दार्शनिक निगमनात्मक (Deductive) प्रणाली को स्वीकार करते हैं। बुद्धि आत्मा में अन्तर्निहित ज्ञान को केवल अभिव्यक्त करती है। इस अभिव्यक्ति को सिद्ध करने के लिये मकडी के जाल का उदाहरण दिया जाता है। मकड़ी का जाल सम्पूर्ण मकड़ी में ही अन्तर्निहित रहता है।  मकडी केवल उसे बाहर कर देती है। जाल हर करने में मकड़ी को क्रिया करनी पड़ती है। इस प्रकार बुद्धि भी सक्रिय(Active) है जो अपनी रचनात्मक प्रक्रिया से केवल अन्तर्निहित ज्ञान को बाहर करती है। बुद्धिवादी दार्शनिकों के अनुसार हमारे मानसिक जीवन के चार स्तर हैं-

(क) संवेदना (Sensation),

(ख) संकल्प (Volition),

(ग) राग (Affection) एवं

(घ) बुद्धि (Reason) |

इस प्रकार बुद्धि मानसिक जीवन का अन्तिम स्तर है, जिससे यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। प्रथम तीन स्तरों से भी ज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु भ्रान्तिपूर्ण। भ्रान्ति रहित ज्ञान केवल बुद्धि से ही प्राप्त होता है। इसे सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान माना गया है। इसे जन्मजात ज्ञान तथा अनुभव निरपेक्ष भी कहते हैं। यह ज्ञान स्वयंसिद्ध (Axiom) है जिसे प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं। उदाहरणार्थ, वे वस्तुएँ जो किसी एक वस्तु के बराबर हों, तो वे आपस में भी बराबर होंगी। जैसे क और ख में से प्रत्येक ग के बराबर है तो क और ख भी एक दूसरे के बराबर होंगी यह ज्ञान सार्वभौम तथा स्वयंसिद्ध है। इसे अनुभव निरपेक्ष भी मानते हैं, क्योंकि हम इसे अनुभव नहीं करते। ऐसे ज्ञान का उद्गम एकमात्र बुद्धि से ही सम्भव है। बुद्धि में कुछ जन्मजात (Innate) प्रत्यय हैं जो पूर्णतः स्पष्ट तथा निस्सन्देह होते हैं। ऐसे स्पष्ट तथा निस्सन्देह ज्ञान का उदाहरण गणित शास्त्र है। संक्षेप में, बुद्धिवाद की मान्यताएँ निम्नलिखित हैं-

(अ) ज्ञान प्राप्ति में बुद्धि सक्रिय (Active) रहती है। बुद्धि अपनी क्रिया से जन्मजात प्रत्ययों को बाहर अभिव्यक्त करती है ।

(ब) मानव की बुद्धि में कुछ जन्मजात प्रत्यय (Innate ideas) है जो पूर्णतः सष्ट तथा निस्सन्देह हैं, जैसे गणित शास्त्र के सिद्धान्त। ये स्वयंसिद्ध, अनिवार्य सार्वभौम सत्य है।

(स) सार्वभौम (Universal) और अनिवार्य (Necessary) ज्ञान हमें अनुभव से नहीं प्राप्त हो सकता।

 

३. अनुभववाद-

काण्ट के अनुभववाद के अनुसार अनुभव ही ज्ञान का जनक है, अर्थात् ज्ञान अनुभव-सापेक्ष है। अनुभववाद के पिता जॉन लॉक ने बुद्धिवाद की सभी मान्यताओं का खण्डन किया है तथा अनुभववाद का मण्डन किया है। उनका कहना है कि हमारी बुद्धि में कोई प्रत्यय जन्मजात (Innate) नहीं| जन्म के समय मानव का मन एक सफेद कागज के समान रहता है जिस पर कुछ भी अङ्कित नहीं रहता। जैसे-जैसे हम अनुभव करते हैं, वैसे-वैसे हमारे ज्ञान का भण्डार भी बढ़ता जाता है। जन्म के समय मन एक अन्धकारमय कमरे के समान रहता है जिसमें संवेदना (Sensation) तथा स्वसंवेदना (Reflection) नामक दो वातायन से ज्ञान का प्रकाश आता है।

लॉक ने अनुभव को तो ज्ञान का एकमात्र साधन माना है, परन्तु जड़ जगत, ईश्वर आदि को भी सत माना है।बर्कले पूर्णतः अनुभववादी हैं। उनके अनुसार जिसका हमें प्रत्यक्ष नहीं होता उसका अस्तित्व भी नहीं, अथात् सत्ता अनुभवमूलक है (To be is to be perceived) ह्यूम के दर्शन में अनुभववाद अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया तथा सन्देहवाद का रूप धारण कर लिया हम कल्पना कर स्वर्ग के अन्तिम छोर तक भले ही चले जाँय, वस्तुतः हम एक पग भी नहीं बढ़ते ता भी नहीं सकते।

 

4. समीक्षावाद-

काण्ट ने बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दोनों की आलोचना की है। काण्ट के अनुसार बुद्धिवाद का अन्त अन्धविश्वास (Dogmati्sm) है तथा अनुभववाद का अन्त सन्देहवाद (Scepticism) है। इसके अतिरिक्त दोनों में एकांगी (One Sided) होने का दोष है। बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं तथा एक दूसरे को मान्यताओं का खण्डन करते है। इनका मण्डन पक्ष तो ठीक-ठीक है, परन्तु खण्डन पक्ष ठीक नहीं। काण्ट दोनों के मण्डन पक्ष का समन्वय करते हैं तथा खण्डन पक्ष का निषेध करते हैं। यही काण्ट की समीक्षा है।

अतः काण्ट के अनसार बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दोनों अंशतः सत्य है पूर्णत: नहीं। बद्धिवाद का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान को ही प्रामाणिक ज्ञान मानता है। अनिवार्य तथा सार्वभौम ज्ञान की प्राप्ति हमें अनुभव से नहीं हो सकती। अतः ज्ञान का यह अंश जन्मजात (Apriori) स्वीकार करना होगा। यही ज्ञान का स्वरूप (Form) है। काण्ट के अनुसार अनिवार्य और सार्वभौम ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। बुद्धिवादी दार्शनिकों के अनुसार गणित शास्त्र में अनिवार्य और सार्वभौम ज्ञान की प्राप्ति होती है, अतः गणित ही आदर्श शास्त्र है। परन्तु गणित के सिद्धान्त भी अनुभव की अपेक्षा रखते हैं।

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बुद्धिवादियों ने गणित पर बल देकर दर्शन को गणित का दास बना दिया। गणित तथा दर्शन के क्षेत्र भिन्न भिन्न है, अतः गणित की प्रणाली दर्शन के लिए सर्वथा उपयुक्त नहीं। बुद्धिवादी दार्शनिकों के अनुसार दार्शनिक विवादों के अन्त का एकमात्र उपाय गणित के समान स्पष्ट तथा निस्सन्देह निगमन का प्राप्ति है। स्पिनोजा और लाइबनिटज दोनों ने गणित की प्रणाली को अपनाया, परन्तु दोनों के निष्कर्ष नितान्त भिन्न रहे। अतः आधार और पद्धति की एकता से ही निगमन एक नहीं हो सकता।

स्पिनोजा और लाइबनिट्ज़ एक ही प्रणाली से प्रारम्भ एक एकवाद तथा अनेकवाद निगमन निकालते हैं। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि बुद्धिवादी दार्शनिकों के अनसार गणित की प्रणाली ही आदर्श प्रणाली है परन्त गणित की प्रणाली में यथार्थ घटनाओं के उल्लेख की कोई आवश्यकता नहीं। इसी कारण गणित शास्त्र में अनुभव की उपेक्षा है। बुद्धिवादियों ने गणित को मापदण्ड मानकर अनुभव की उपेक्षा की और यही उनकी असफलता का कारण रहा।

गणित में किसी अंश तक अनुभव की उपेक्षा भले ही हो, दर्शन में यह बिल्कुल सम्भव नहीं। तात्पर्य यह कि इन्द्रियानुभव की उपेक्षा तो दार्शनिक निष्कर्षों को केवल कल्पनाप्रसूत बना देती है। पुनः इन्द्रियानुभव की उपेक्षा करने से नये ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इन्द्रियानुभव से ही हमारे ज्ञान का भण्डार बढ़ता है परन्तु यदि। इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान प्रमाण नहीं तो नए ज्ञान की व्याख्या नहीं हो पाती।

दूसरी ओर अनुभववाद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह नित्य नवीन ज्ञान को प्रामाणिक मानता है| नवीन ज्ञान तो इन्द्रियानुभव से ही प्राप्त हो सकता है| अतः इनके अनुसार सम्पूर्ण ज्ञान इन्द्रियानुभव पर आश्रित है। परन्तु इन्द्रियानुभव से हमें सार्वभौम और अनिवार्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ, कार्यकारण का सम्बन्ध अनिवार्य माना गया है। परन्तु सैकड़ों बार के निरीक्षण के पश्चात् भी हम इसकी अनिवार्यता का निश्चय नहीं कर पाते। इसी कारण ह्यूम ने बतलाया है। कि कार्य-कारण की अनिवार्यता तो केवल मान्यता है।

हम दो घटनाओं में अनिवार्य सम्बन्ध कल्पना के आधार पर मान लेते हैं, वस्तुतः घटनाओं में यह सम्बन्ध नहीं। अतः सन्देहवाद ही अनुभावाद का पर्यवसान है। यदि कार्य-कारण सम्बन्ध अनिवार्य नहीं, सम्भाव्य है तो संसार में कोई भी सिद्धान्त निश्चित नहीं। पुनः इन्द्रियों से हमें संवेदनाएँ असम्बद्ध तथा विश्रृंखल रूप में प्राप्त होती हैं। इन्हें सम्बद्ध तथा श्रृंखलाबद्ध बुद्धि ही बनाती है। अतः बुद्धि की उपेक्षा उचित नहीं ।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों एकांगी है। बुद्धिवादी अनुभव का अपलाप करते हैं तथा अनुभववादी अनिवार्यता का निषेध करते हैं। इस प्रकार यदि अनुभववादियों का सिद्धान्त सत्य है तो बौद्धिक (सार्वभौम और अनिवार्य) ज्ञान असम्भव हो जाएगा और यदि बुद्धिवादियों का कथन सत्य है तो ज्ञान के विषय की व्याख्या करना कठिन हो जाएगा। अतः बुद्धिवादियों का कथन सत्य है कि सार्वभौम और अनिवार्य ज्ञान की प्राप्ति अनुभव से नहीं हो सकती तथा अनुभववादियों का कहना सत्य है कि ज्ञान का उपकरण बुद्धि से नहीं प्राप्त हो सकता। काण्ट के अनुसार बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों का विधि-पक्ष तो ठीक है; निषेध-पक्ष उचित नहीं (They are justified in what they affirm, but  in what they deny) |

काण्ट दोनों मतों के गुण-दोष की विवेचना कर दोनों समन्वय करते हैं। विश्लेषण करने पर हम ज्ञान के दो अंग पाते हैं-उपकरण(Matter) और स्वरूप (Form)| ज्ञान का उपकरण तो हमें अनुभव से प्राप्त होता है। परन्तु ज्ञान का स्वरूप बुद्धि से प्राप्त होता है। मान लिया जाय कि उपकरण मत्तिका। है तथा स्वरूप साँचा है। हम मृत्तिका को साँचे में ढालकर ही विभिन्न प्रकार की जातियों का निर्माण करते हैं। इस प्रकार ज्ञान सामग्री तथा स्वरूप दोनों का सम्मिश्रण है। बुद्धिवादियों का कहना सत्य है कि कार्य-कारण, द्रव्य आदि जन्मजात प्रत्ययों के बिना ज्ञान सम्भव नहीं तथा अनुभववादियों का कहना भी सत्य है कि बिना संवेदनाओं के सामग्री का ज्ञान सम्भव नहीं।

काण्ट ने अपनी समीक्षा में बतलाया है कि अनुभव ही ज्ञान का आरम्भ है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान संवेदनाओं (Sensation) से भी प्रारम्भ होता है। परन्तु संवेदनाएँ विश्रृंखल तथा असम्बद्ध होती हैं। इन इन्द्रिय-संवेदनाओं को ज्ञान बनाने के लिए बुद्धि-विकल्प के साँचे में ढालना पड़ता है। बुद्धि में कुछ जन्मजात विकल्प (Categories) होते हैं। बुद्धि इन विकल्पों के द्वारा ही असम्बद्ध संवेदनाओं को सुसम्बद्ध बनाती है। बाह्य जगत से प्राप्त संवेदना तो कच्चे माल (Raw material) के समान है। इन संवेदना रूपी कच्चे माल को बुद्धि विकल्प रूपी साँचे में ढालती है।

अतः स्पष्ट है कि साँचा बद्धि से प्राप्त होता तथा सामग्री संवेदना से मिलती है। यह सत्य है कि ज्ञान श्रीगणेश अनुभव से ही होता हैं। परन्तु केवल अनुभव से ही ज्ञान उत्पन्न नहीं होता, बुद्धि की भी आवश्यकता है। अतः काण्ट का स्पष्ट कथन है कि संवदनों के बिना बुद्धि-विकल्प पंग हैं और बुद्धि विकल्पों के बिना इन्द्रिय अन्धे हैं। तात्पर्य यह है कि यदि संवेदनाएँ न प्राप्त हों तो ज्ञान में सामग्री का अभाव होगा और बद्धि के विकल्प न हों तो स्वरूप का अभाव होगा हमारे ज्ञान की सामग्री और स्वरूप, संवेदना और विकल्प दोनों की आवश्यकता  है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि अनुभव से ही ज्ञान का आरम्भ होता है पर अनुभव से ही ज्ञान की उत्पत्ति नहीं। अनुभव से हमें संवेदनाएं प्राप्त होती हैं. अर्थात् ज्ञान की सामग्री प्राप्त होती है। परन्तु ज्यों ही संवेदनाएँ प्राप्त होती है बद्धि के विकल्प रूप साँचे उस पर कार्य करने लगते हैं तथा संवेदनाओं को सम्बद्ध और श्रङ्खलाबद्ध बनाते हैं। ये बुद्धि के विकल्प तो अनुभव के पूर्व हैं, प्रागनुभव (Apriori) हैं। इन्हीं प्रागनुभव विकल्पों के द्वारा संवेदनाएं नियमित होती हैं। इससे स्पष्ट है कि प्रागनुभव विकल्पों के बिना संवेदनाएँ अनियमित, अनिश्चित और विश्रंखल होंगी।

अतः ज्ञान का आरम्भ अनुभव से हैं, परन्तु ज्ञान की उत्पत्ति अनुभव से नहीं होती। बुद्धि के विकल्प के बिना निश्चित, सविकल्प ज्ञान नहीं हो सकता। इस प्रकार ज्ञान प्रागनुभविक तत्वों के बिना सम्भव नहीं। ये प्रागनुभविक तत्व बुद्धि के जन्मजात सांचे हैं। साथ साथ यह भी सत्य है कि ज्ञान की सामग्री अनुभव जन्य होती है। अतः ज्ञान अनुभविक और प्रागनुभविक दोनों का सम्मिश्रण है। यहाँ एक आवश्यक प्रश्न यह है कि ज्ञान क्या है? ज्ञान का स्वरूप क्या है, ज्ञान की सीमा क्या है, अर्थात् हमें किन-किन विषयों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है?

 

 

 

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