अभिक्रमित अधिगम क्या है(Programmed Learning):
शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक और छात्र के मध्य अन्तःक्रिया अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। समुचित रूप से अन्तःक्रिया न होने पर शिक्षक अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल रहता। है। समुचित अन्तःक्रिया हेतु यह आवश्यक है कि शिक्षक अपने छात्रों पर भली-भाँति ध्यान दे, किन्तु आज निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या तथा ज्ञान के विविध क्षेत्रों में तीव्र गति से हुए विकास के कारण प्रत्येक छात्र पर शिक्षक ध्यान देने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहा है। ऐसी परिस्थिति में शिक्षण की ऐसी नवीनतम विधियों की खोज की ओर शिक्षाशास्त्रियों का ध्यान आकर्षित हुआ है, जिनके द्वारा छात्र स्वयं ज्ञान अर्जित कर सकें तथा उसके शिक्षक की प्रतिक्रिया भी प्राप्त हो सके। इस क्षेत्र में बहुत सीमा तक सफलता भी मिली है। उन्हीं नवीनतम शिक्षण पद्धतियों में से एक है-‘अभिक्रमित अनुदेशन‘।
‘अभिक्रमित अनुदेशन’ तथा ‘अभिक्रमित अधिगम’ को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है क्योंकि अधिगम की सफलता अनुदेशन पर भी आधारित होती है। शिक्षण की दृष्टि से जब तक अनुदेशों पर ध्यान दिया जाता है, तब तक यह ‘अभिक्रमित अनुदेशन’ का रूप होता है और जब इन अनुदेशों के आधार पर छात्र कुछ सीखने का प्रयत्न करता है तो यह ‘अभिक्रमित अधिगम‘ अथवा ‘अभिक्रमित अध्ययन’ कहलाता है। प्रस्तुत पोस्ट में ‘अभिक्रमित अधिगम‘ शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।
‘अभिक्रमित अधिगम‘ अथवा ‘अभिक्रमित अनुदेशन‘ संप्रत्यय के आविर्भाव का श्रेय बीसवीं सदी के दूसरे दशक में अमेरिकन मनोवैज्ञानिकों को दिया जाता है। सर्वप्रथम इसका स्वरूप ‘शिक्षण मशीन’ के रूप में देखने को मिलता है जिसका विकास ओहियो स्टेट विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक सिडनी, एल. प्रेसी ने 1920 में किया था। इस मशीन की सहायता से छात्रों के समक्ष प्रश्न एक क्रम में प्रस्तुत किए जाते थे तथा छात्रों की प्रतिक्रिया की जाँच भी साथ-साथ हो जाती थी किन्तु तत्कालीन परिस्थितियों में उन्हें इस मशीन के सन्दर्भ में विशेष सफलता नहीं मिली अत: 1932 में उनका यह कार्य लगभग बन्द हो गया।
किन्तु बाद में स्किनर, क्राउडर, मगर, बिलबर्ट आदि मनोवैज्ञानिकों ने प्रेसी के विचारों को ही आगे बढ़ाया जिनका वर्णन इस पाठ म आभक्रामत आधगम क प्रकार में दिया गया है।
अभिक्रमित अधिगम का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Programmed Learning):
‘अधिगम’ तथा ‘अनुदेशन’ दोनों शब्दों का अर्थ पूर्व के पोस्टो में स्पष्ट किया जा चुका है। ‘अभिक्रमित’ शब्द का अर्थ है- क्रमबद्ध अथवा योजनाबद्ध। इस प्रकार योजनाबद्ध ‘अधिगम’ अथवा ‘अभिक्रमित अधिगम’ में छात्रों के समक्ष विषयवस्तु को अनेक छोटे-छोटे एवं नियोजित किये गये खण्डों एवं सोपानों में प्रस्तुत किया जाता है। इनकी संरचना में ‘शिक्षण सूत्रों का अनुसरण किया जाता है। इसके द्वारा छात्र स्वयं ज्ञान अर्जित करता हुआ ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ता है। इस प्रयास में छात्र को उसके द्वारा किये गये कार्य की तुरन्त पुष्टि भी करा दी जाती है। प्रत्येक पद पर उसे सफलता की अनुभूति करायी जाती है, इससे उसके प्रयास को पुनर्बलन मिलता है। स्वाध्याय की यह प्रक्रिया छात्र में आत्मविश्वास उत्पन्न करती है।
अभिक्रमित अध्ययन के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने हेतु विद्वानों द्वारा दी गई। कुछ परिभाषाएँ यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैं :
1. रिचमण्ड- “अभिक्रमित अध्ययन उस प्रायोगिक प्रयत्न का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें अध्यापन-कौशल को भावी शिक्षण के सिद्धान्तों और व्यवहारों में परिवर्तित करने का प्रयास किया जा रहा है।”
2. सूसन मार्कले- “अभिक्रमित अध्यापन शिक्षण की प्रक्रियाओं को पुनः-पुनः प्रस्तुत करने के लिए तारतम्ययुक्त संरचना बनाने की एक प्रणाली है जिसकी सहायता से हर एक विद्यार्थी में एक मानवीय व्यावहारिक परिवर्तन किया जा सकता है।”
3. बी.एफ.स्किनर-“अभिक्रमित अनुदेशन शिक्षण की कला तथा सीखने का विज्ञान है।”
4. जेम्स एम.ली.- “योजनाबद्ध-शिक्षण सीखी जाने वाली विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण के ऐसे ढंग का उल्लेख करता है जिसमें छात्र विषयवस्तु को सीखने की पूर्वनियोजित प्रक्रियाओं का अनुसरण करता है। जिस विषय-वस्तु का उसने ज्ञान प्राप्त किया है, उसकी शुद्धता की स्वयं जाँच करता है और अन्त में सीखी हुई विशिष्ट बातों से ज्ञान को उसी समय या कुछ समय के बाद पुनः सुदृढ़ बनाता है।”
5. एस.एम.कोरे- “अभिक्रमित अनुदेशन एक ऐसी शिक्षण-प्रक्रिया है जिसमें बालक के वातावरण को सुव्यवस्थित कर पूर्व-निश्चित व्यवहारों को उसमें विकसित कर लिया जाता है।”
6. आर. एविल- “अभिक्रमित-अनुदेशन केवलमात्र स्वाध्याय हेतु निर्मित पाठ्यवस्तु ही नहीं है, अपितु यह एक शिक्षण प्रविधि भी है।”
अभिक्रमित अधिगम की विशेषताएँ (Characteristics of Programmed Learning) :
1. कठिन बात को छोटे-छोटे भागों में बाँटकर छात्रों के लिए सरल और सुग्राह्य बनाना।
2. यह व्यक्तिगत तथा पत्राचार द्वारा पढ़ने वाले छात्रों के लिए अधिक उपयोगी है।
3. यह स्वशिक्षण की पद्धति है जिसमें पाठ्य-पुस्तक कुछ विशिष्ट उद्देश्यों को ध्यान में रखकर तैयार की जाती है।
4. यह छात्रों में अपनी त्रुटियों, क्षमताओं, योग्यताओं तथा गति का अध्ययन कर मूल्यांकन के अवसर प्रदान करती है।
5. इसमें शिक्षक की अनुपस्थिति में पाठ्यवस्तु अत्यन्त तार्किक एवं नियन्त्रित छोटे खण्डों में बाँटकर छात्रों के समक्ष प्रस्तुत की जाती है।
6. यह दृश्य-श्रव्य साधनों का प्रयोग न होकर अनुदेशन तकनीकी का एक अंग है।
7. इसमें छात्र के समय श्रृंखलाबद्ध विषयवस्तु इस प्रकार प्रस्तुत की जाती है कि एक खण्ड के समाप्त होने पर नये खण्ड के विषय में जानने की जिज्ञासा छात्र में बनी रहती है, जैसे, पंचतन्त्र, हितोपदेश, रामायण, महाभारत आदि में भी हमें देखने को मिलती हैं।
अभिक्रमित अधिगम के सिद्धान्त (Principles of Programmed Learning) :
अभिक्रमित अध्ययन हेतु दिये जाने वाले अनुदेशन के सम्प्रत्यय में सन् 1960 से 19807 के मध्य तीव्र गति से परिवर्तन आया। इस परिवर्तन के फलस्वरूप हमें विभिन्न विद्वानों द्वारा दिये गये अभिक्रमित अध्ययन के सिद्धान्तों में आंशिक परिवर्तन दृष्टिगत होता है :
बी.एफ. स्किनर ने सन् 1954 में शिक्षण प्रतिमान का विकास किया तथा शिक्षा व अनुदेशन के लिए उद्दीपन, अनुक्रिया तथा पुनर्बलन को प्रयुक्त किया।
सन् 1960 में स्किनर ने ही अभिक्रमित अधिगम हेतु पाँच सिद्धान्त प्रस्तुत किये :
(1) लघुपदों का सिद्धान्त,
(2) बाह्य अनुक्रिया का सिद्धान्त
(3) शीघ्र पृष्ठपोषण का सिद्धान्त,
(4) स्वगति का सिद्धान्त,
(5) स्व-मूल्यांकन का सिद्धान्त।
रॉबर्ट मेयर ने सन् 1962 में इस बात पर बल दिया कि अधिगम प्रक्रिया के साथ कार्यों को भी महत्त्व देने से अनुदेशन को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है। सन् 1963 में मेयर ने अभिक्रमित अधिगम हेतु आठ सिद्धान्तों का वर्णन किया :
(1) कार्य-विश्लेषण का सिद्धान्त,
(2) उद्देश्यों के व्यावहारिक रूप का सिद्धान्त,
(3) लघुपदों का सिद्धान्त,
(4) तार्किक क्रम का सिद्धान्त,
(5) तत्परता अनुक्रिया का सिद्धान्त,
(6) शीघ्र पृष्ठपोषण का सिद्धान्त,
(7) स्वतः गति का सिद्धान्त,
(8) मूल्यांकन का सिद्धान्त ।
सन् 1966 में पाठ्यवस्तु विश्लेषण तथा प्रवाह चार्ट को भी महत्त्व दिया गया।
रॉबर्ट गेने ने सन् 1970 में अधिगम स्वरूपों को अधिक महत्त्व दिया तथा इसमें दस बिन्दुओं को सम्मिलित किया :
(1) प्रणाली विश्लेषण,
(2) कार्य विश्लेषण,
(3) पाठ्यवस्तु विश्लेषण,
(4) प्रवाह चार्ट,
(5) उद्देश्यों का व्यावहारिक रूप,
(6) पाठ्यवस्तु का स्वरूप,
(7) पुनर्बलन द्वारा अनुक्रिया का नियन्त्रण,
(8) समुचित व्यूह-रचनाओं तथा युक्तियों का चयन करना,
(9) समुचित निर्देशन, तथा
(10) मूल्यांकन।
सन् 1980 में प्रणाली विश्लेषण को महत्त्व दिया गया। इस प्रकार अभिक्रमित अधिगम के अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया।
यहाँ कतिपय प्रमुख सिद्धान्तों का उल्लेख किया जा रहा है :
(1) लघुपदों का सिद्धान्त- सर्वप्रथम विषयवस्तु को छोटे-छोटे पदों में विभक्त कर दिया जाता है। ये पद अर्थपूर्ण होते हैं तथा यह प्रयत्न रहता है कि कक्षा का कमजोर छात्र भी एक बार में प्रस्तुत विषयवस्तु को आसानी से समझ सके। विषयवस्तु के इस छोटे से अंश या पद को ‘फ्रेम’ कहते हैं। इस चरण में छात्र फ्रेम को पढ़ता है।
(2) सक्रिय सहयोग का सिद्धान्त- इसे क्रियाशीलता का सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस चरण में छात्र को कुछ क्रियात्मक कार्य जैसे रिक्त स्थान की पूर्ति करना, एक लघु प्रश्न का उत्तर लिखना अथवा वाक्य बनाना आदि करने होते हैं। इस प्रकार छात्र स्वयं करके सीखने का प्रयत्न करता है तथा उसे प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त होता है। स्वयं के द्वारा अर्जित उसका ज्ञान अधिक स्थायी होता है तथा अभिक्रमित अध्ययन पद्धति की भी यही मान्यता है कि छात्र तभी अच्छा सीखता है जब वह सक्रिय रहकर सीखी गई विषयवस्तु का प्रत्युत्तर स्वयं प्रदान करे।
(3) प्रतिपुष्टि का सिद्धान्त- अधिगम तथा अभिप्रेरणा एक दूसरेसे सम्बन्धित हैं। छात्र जितना अधिक अभिप्रेरित होगा, उसका अधिगम उतना ही तीव्रगति से व स्थायी होगा और इस बात का पूर्ण ध्यान इस सिद्धान्त में रखा जाता है। अभिक्रमित अनुदेशन में छात्र-छात्राओं को प्रत्येक पद में प्रश्न के उत्तर देने पड़ते हैं। ये उत्तर सही हैं या गलत, इसका ज्ञान उसे तत्काल प्राप्त हो जाता है । सही उत्तर प्राप्त कर छात्र उत्साहित होता है और अधिक पढ़ने को प्रेरित होता है।
(4) स्वगति का सिद्धान्त- छात्रों में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। कक्षा में कुछ छात्र विषय को शीघ्र समझ लेते हैं तथा कुछ छात्रों को उसी विषय को समझने के लिए अधिक। समय की आवश्यकता होती है। अभिक्रमित अध्ययन में प्रत्येक छात्र को अपनी गति से सीखने का अवसर प्रदान किया जाता है। सभी के पास अपनी-अपनी अभिक्रमित अनुदेशन पुस्तिका होती है। प्रत्येक छात्र को यह अवसर प्रदान किया जाता है कि वह अपनी योग्यता, क्षमता तथा कौशल के अनुसार शनैः-शनैः अथवा त्वरित गति से अधिगम कर सके। जो छात्र कार्य जल्दी समाप्त कर लेते हैं, उन्हें अन्य कार्य, जैसे, कक्षा कार्य, पुस्तकालय में पढ़ना, पाठ्य-सहगामी क्रियाओं हेतु भाषण आदि तैयार करने की स्वतंत्रता दी जाती है।
(5) स्व-मूल्यांकन का सिद्धान्त- अभिक्रमित अध्ययन में छात्र अपने अधिगम का स्वयं ही मूल्यांकन कर सकता है। छात्र को इसमें न केवल अपनी निष्पत्तियों का ही पता चलता है वरन् वह अपनी निष्पत्तियों का साथ ही साथ मूल्यांकन भी करता चलता है।
(6) तार्किक क्रम का सिद्धान्त- अभिक्रमित अधिगम में छात्र स्वयं अध्ययन करता है। अध्यापक उसका मात्र मार्गदर्शक होता है । विषयवस्तु को छात्रों के समक्ष किस क्रम में प्रस्तुत किया जाये, जिससे छात्र उसे आसानी से समझ सकें। विषयवस्तु को कितनी लघु इकाइयों में बाँटा जाये और उनके फ्रेम कैसे तैयार किये जाएँ ताकि अभिक्रमित अधिगम अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर सके। इन सब प्रश्नों के समाधान हेतु तर्कों का सहारा लिया जाता है।
एडवर्ड एफ.ओ.डे ने अभिक्रमित अधिगम के सिद्धान्तों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा है:
अभिक्रमित अधिगम सिद्धान्त
प्रमुख सिद्धान्त | गौण सिद्धान्त |
1. उद्देश्यों के स्पष्टीकरण का सिद्धान्त | 1. बाह्य प्रत्युत्तर का सिद्धान्त |
2. आनुभाविक मूल्यांकन का सिद्धान्त | 2. आशु पृष्ठ-पोषण का सिद्धान्त |
3. व्यक्तिगत प्रयत्न का सिद्धान्त | 3. लघु सोपानों का सिद्धान्त |
4. लघुपद प्रयत्न का सिद्धान्त | 4. क्रमबद्धता का सिद्धान्त |
5. क्षेत्रीय अनुभव का सिद्धान्त | 5. क्रमबद्धता का सिद्धान्त |
6. स्वगति का सिद्धान्त | 6. पुष्टि या पृष्ठ-पोषण का सिद्धान्त |