फ्रेडरिक हेगल का प्रत्यय सिद्धान्त, द्वन्द्व-न्याय

फ्रेडरिक हेगल का प्रत्यय सिद्धान्त, द्वन्द्व-न्याय | Friedrich Hegel’s Concept Theory

फ्रेडरिक हेगल का प्रत्यय सिद्धान्त

प्रत्ययों की व्याख्या में फ्रेडरिक हेगल प्लेटो से प्रभावित हैं। हमने विचार किया है कि प्रत्यय विज्ञान रूप हैं जो विभिन्न वस्तुओं के सार गुण हैं। उदाहरणार्थ, विभिन्न पशुओं में पशुत्व और विभिन्न मनुष्यों में मनुष्यत्व सभी पशुओं और मनुष्यों का सामान्य है, सार है, अतः विज्ञान है। संसार में जितनी वस्तुएँ हैं, उनके सामान्य भी उतने ही हैं : प्लेटो इन सामान्यों या विज्ञानों को नित्य या शाश्वत मानते हैं तथा यह बतलाते हैं कि अनित्य वस्तुओं की उत्पत्ति के कारण नित्य विज्ञान ही है। प्लेटो के विज्ञान वस्तुओं के शाश्वत सांचे भी हैं। विज्ञान वस्तुओं के केवल कारण ही नहीं, वरन् मूल्य भी हैं। वस्तुओं में सत्यता विज्ञान के कारण है। जो वस्तु अपने साँचे में विज्ञान के जितना ही अनुरूप है, उतना ही सत्य है अर्थात् वस्तु की सत्यता विज्ञान पर आश्रित है। परन्तु प्रश्न रह जाता है कि विज्ञान सत् है और वस्तु असत्।

सत् से असत् की उत्पत्ति कैसे? इस प्रश्न का समुचित उत्तर प्लेटो नहीं दे पाते। प्लेटो का कहना है कि विज्ञानों का एक सोपानवत् क्रम (Hierarchical order) है। इस क्रम में निम्न विज्ञान अपने उच्च विज्ञान में समाहित रहता है। इस सोपान का शीर्ष या सर्वोच्च शिखर तो शभ विज्ञान (Idea of the good) है तथा इसके सबसे नीचे सांसारिक पदार्थ या वस्त विशेष हैं। इसे हम निम्नलिखित तालिका के द्वारा स्पष्ट समझ सकते हैं-

 

इससे पता चलता है कि सभी क, ख, ग, घ, ङ आदि श्वेत पदार्थ या वस्तु जो अपने सार या सामान्य श्वेत विज्ञान के अन्तर्गत हैं। श्वेत, नील, पीत, रक्त आदि सभी रंग विज्ञान के अन्तर्गत हैं। रंग और रस विज्ञान गुण विज्ञान के अन्तर्गत हैं। इसी प्रकार गुण, परिमाण आदि विज्ञान भी अपने से बड़े सामान्य के अन्तर्गत होंगे। सभी विज्ञानों का विज्ञान शुभ विज्ञान है| इस सोपान क्रम व्याख्या में दो दोष है। पहला यह है कि शुभ विज्ञान परम कारण है, परन्तु स्वयं अकारण है। कारणवाद के दोष पर विचार करते समय हमने देखा है कि यह एक अकारण कारण मान लेता है। दूसरा दोष यह है कि यह सिद्धान्त यह नहीं बतला पाता कि श्वेत विज्ञान से श्वेत वस्तुओं की सृष्टि कैसे होती है? हेगल इन दोषों का निराकरण करते हैं। साथ ही हेगल अपनी व्याख्या भी इसी के माध्यम से करते हैं।

हेगल का कहना है कि ये (प्लेटो के) प्रत्यय सामान्य रूप तो अवश्य हैं। इन सामान्यों का क्रम गलत है। तात्पर्य यह है कि इन सामान्यों का अन्तर्निहित सिद्धान्त गलत है। प्लेटो का कहना है कि कम या निम्न, सामान्य, अधिक या उच्च सामान्य के अर्न्तगत है, उच्च उच्चतर के तथा उच्चतर उच्चतम का इसके बदले हेगल का कहना है कि निम्न तथा उच्च सामान्य में उपजाति (Species) और जाति (Genus) का सम्बन्ध है। उदाहरणार्थ, गुण यदि जाति है तो रंग और रस उपजातियाँ। पुनः यदि रंग जाति है तो श्वेत, नील आदि उपजातियाँ हुई। इस प्रकार प्लेटो के निम्न और उच्च सामान्य को हेगल जाति या उपजाति रूप मानते हैं, इससे लाभ क्या?

हेगल के अनुसार इस जाति और उपजाति की व्याख्या से उच्च सामान्य उच्चतर से स्वयं निकल आता है। प्लेटो उच्च सामान्य में निम्न सामान्य को समाहित मान लेते हैं तथा यह भी मानते हैं कि उच्च सामान्य निम्न सामान्य का कारण है। सर्वोच्च शिखर पर परम शुभ सामान्य है जो अन्त में सबका कारण है परन्तु हम विचार कर आए हैं कि कारणवाद को मानने में दो दोष हैं-

(क) परम कारण मानना पड़ता है जो कि अकारण है।

ख) कारण से कार्य का उत्पत्ति का व्याख्या नहीं हो पाती। इसी दृष्टि से हेगल सर्वप्रथम कारण सिद्धान्त का खण्डन करते हुए कहते हैं कि कारणतावाद से न तो परम कारण ही सिद्ध हो पाता है और न विशेष कारण से विशेष कार्यों की उत्पत्ति ही सिद्ध होती है। इसीलिये हेगल कारण के स्थान पर तर्क का प्रयोग तथा सर्वोच्च सामान्य और व्यक्तिगत वस्तुओं की तार्किक व्याख्या करते हैं।

फ्रेडरिक हेगल के सामने दो समस्याएँ हैं-

(क) निम्न सामान्य से उच्च सामान्य कैसे निकलते हैं?

(ख) सामान्य या प्रत्यय से विशेष या पदार्थ कैसे निकलता है?

फ्रेडरिक हेगल इन दोनों की व्याख्या के लिए जाति (Genus), उपजाति (Species) और विभेदक (Differentia) के सिद्धान्त का सहारा लेते हैं। उच्च सामान्य जाति है तथा निम्न सामान्य उपजाति। जाति से उपजाति में संक्रमण विभेदक गुण के कारण होता है। इस प्रकार हेगल का क्रम है-जाति, उपजाति और विभेदका उपजाति जाति में विभेदक गुण से प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ, उच्च सामान्य है, जाति पशु। पशु का गुण पशुता है। यदि इसमें इसका विभेदक गुण (विवेक) लगा दें तो यह विवेकशील पण (मानव) होगा। मानव में विवेक है, इसी कारण मानव पशु से भिन्न है।

अतः जाति में विभेदक गुण को जोड़ने से ही उपजाति प्राप्त होती है, परन्तु इसमें सिद्धान्त क्या है? फ्रेडरिक हेगल के अनुसार इसमें तार्किक पूर्वापेक्षा (Logical Pre-supposition) का सिद्धान्त है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रत्यय या सामान्य के विचार में कोई पूर्वापेक्षा हो वह निम्न दगा जिसमें न हो वह उच्च सामान्य या प्रत्यय है। पशुता नामक प्रत्यय के विचार में विवेक नामक विभेदक गुण की पूर्वापक्षा है। अतः मानव निम्न सामान्य है और पशु-उच्च। इससे उच्च उच्चतर का निर्णय होगा परन्तु सर्वोच्च सामान्य का निर्णय कैसे होगा?

प्लेटो ने सर्वोच्च सामान्य स्वीकार किया है। सर्वोच्च सामान्य उनके अनुसार शुभ प्रत्यय (Idea of the Good) है। परन्तु प्लेटो के दर्शन में शुभ प्रत्यय सर्वोच्च विज्ञान या सामान्य के रूप में एक मान्यता है। प्लेटो मान लेते हैं कि शुभ विज्ञान सभी विज्ञानों का कारण है। फ्रेडरिक हेगल तार्किक पूर्वापक्षा (Logical Pre-supposition) के द्वारा सिद्ध करते हैं कि सर्वोच्च सामान्य वही होगा जिसे किसी की अपेक्षा न हो तथा जो स्वयं सबके द्वारा पूर्वपिक्षित हो। फ्रेडरिक हेगल के अनुसार ऐसा प्रत्यय या सामान्य शुद्ध भाव (Being) है। हम किसी मूर्त पदार्थ मेज को लें। मेज लाल है, लकड़ी का बना है, चौपाया है आदि। ये सभी मेज के गुण हैं। इन सभी गुणों को हम मेज से निकाल दें तो केवल ‘मेज है’ रह जायेगा अर्थात् मेज की शुद्ध सत्ता या भाव ही रह जायेगी।

See also  सन्त ऑगस्टाइन के दर्शन में अशुभ, नियतिवाद और स्वतन्त्रता से तात्पर्य

अतः किसी वस्तु की शुद्ध सत्ता ही उस वस्तु का भाव है। यह भाव तो कोई वस्तु नहीं वरन् विज्ञान या विचार है। यह मेज प्रत्यय है| मेज समाप्त हो जायेगा, नष्ट हो जायेगा परन्तु मेज का विचार तो नित्य है। तात्पर्य यह है कि मेज की शुद्ध सत्ता या भाव नित्य है। हम किसी वस्तु को लें, उसका भाव अवश्य रहेगा क्योंकि भाव का विनाश नहीं होता। विश्व की कोई घटना या कोई वस्तु भाव के बिना नहीं। अतः वस्तुओं की शुद्ध सत्ता या भाव ही सर्वोच्च सामान्य है। यह शुद्ध अस्तित्व है। यह नित्य है, यह सत् है, यही परम तत्व है। इसे सर्वोच्च सामान्य न मानकर आदि या सर्वप्रथम प्रत्यय मानना युक्तिसंगत है।

प्रश्न यह है कि आदि या सर्वप्रथम प्रत्यय से अन्य प्रत्ययों की उत्पत्ति कस होती है? फ्रेडरिक हेगल का प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि जाति (Genus) में विभेदक (Differentia) अवश्य ही विद्यमान रहता है। यदि जाति के विभेदक गुण को व्यक्त किया जाय तो उपजाति जाति से व्यक्त हो जायेगी। उदाहरणार्थ, भाव जाति है, इस जाति में इसका विभेदक अभाव (Non-being) विद्यमान है। इस अभाव के व्यक्त होने पर भाव और अभाव को मिलाकर सम्भवन (Becoming) प्राप्त होता है। यही उपजाति है। इससे अन्य प्रत्ययों की उत्पत्ति होती है।

अतः भाव ही आदि प्रत्यय है। यह शुद्ध सत्ता या अस्तित्व है। यही सर्वोच्च जाति है| इसे हेगल महोदय निरपेक्ष प्रत्यय (Absolute idea) बतलाते हैं। इसे स्वतः किसी अन्य प्रत्यय की अपेक्षा नहीं। दूसरी ओर अन्य प्रत्यय को इसकी अपेक्षा है। सभी प्रत्ययों की शुद्ध सत्ता या भाव अवश्य है। अतः भाव तो सबकी पूर्वापेक्षा है। इसे ही परम तत्व कहते हैं।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि फ्रेडरिक हेगल का परम तत्व तो शुद्ध सत्ता या भाव है। भाव प्रत्यय है, विचार है, अतः हेगल प्रत्ययवादी (Idealist) हैं। यह भाव शुद्ध है. निरपेक्ष है। अतः हेगल निरपेक्ष प्रत्ययवादी हैं, परन्तु अन्त में इसकी संख्या कितनी है? यह एक है अथवा अनेक? हेगल एक तत्ववादी (Monist) है। शुद्ध भाव तो सर्वोच्च है, सर्वोच्च तो एक ही होगा परन्तु हेगल का एक तत्व अनेकों से पृथक नहीं। यह अनेकों में एक (One in many) है। हमने पहले देखा है कि वस्तु में अनेक गुण या धर्म होते हैं। परन्तु इन सबों में एक शुद्ध भाव की पूपिक्षा है। शुद्ध भाव तो एक है, परन्तु अनेकों (विभिन्न धर्मों) के बिना इसकी उपलब्धि नहीं। अतः यह अनेकता में एकता है।

द्वन्द्व-न्याय(Dialectics)

फ्रेडरिक हेगल के दर्शन में द्वन्द्व न्याय सम्भवतः सबसे महत्त्पूर्ण विषय है। द्वन्द्व-न्याय पाश्चात्य दर्शन की प्राचीन प्रणाली है। जेनो के दर्शन में द्वन्द्व-न्याय को एक तार्किक विधि माना गया है, जिसका मुख्य उद्देश्य विरोधी को परास्त करना है। काण्ट के दर्शन में ही सर्वप्रथम दार्शनिक विधि के रूप में इसका प्रयोग हआ है। काण्ट के अनुसार द्वन्द्व न्याय के द्वारा बुद्धि दो निष्कर्षों पर पहँचती है।

पक्ष, प्रतिपक्ष या खण्डन, मण्डना तात्पर्य यह है कि तत्त्व के स्वरूप का निर्णय द्वन्द्व न्याय से नहीं हो सकता। इससे दो विरोधी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, परन्तु यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि इससे नहीं हो सकती। फ्रेडरिक हेगल की सबसे बड़ी देन यह है कि तत्त्व के स्वरूप का निर्णय द्वन्द्व न्याय से करते हैं। अतः द्वन्द्व न्याय केवल विवाद की विधि नहीं, पक्ष और विपक्ष का समर्थन नहीं; वरन् परम तत्त्व का निर्णायक है। फ्रेडरिक हेगल परम तत्त्व के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं।

फ्रेडरिक हेगल के द्वन्द्व न्याय में निषेध (Negation) का विचार बहुत महत्त्वपूर्ण है। उनके अनुसार निषेध एक शक्ति है जिससे जगत् का विकास होता है। साधारणतः निषेध का अर्थ विरोध है। विरोध को साधारणतः तर्कशास्त्री अनावश्यक मानते हैं। तर्कशास्त्रियों के अनुसार तत्त्व के निर्णय के लिए तादात्म्य के नियम की आवश्यकता है न कि विरोध के नियम की। हेगल तत्त्व निर्णय के लिए तादात्म्य की अपेक्षा विरोध को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। विरोध ही जीवन का स्रोत है तथा परिवर्तन का आधार है। हेगल के अनुसार निषेध ही विश्व का प्राण है। निषेध के बिना हम विश्व के विकास की व्याख्या नहीं कर सकते। अब हमें यह देखना है कि विरोध के द्वारा विश्व की व्याख्या कैसे होती है।

 

 

द्वन्द्व-न्याय का त्रिक रूप(Triadic)

द्वन्द्व-न्याय के द्वारा फ्रेडरिक हेगल परम विज्ञान के माध्यम से सांसारिक वस्तुओं की उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं। अतः त्रिक् विकास सम्पूर्ण जागतिक पदार्थ तथा परमतत्त्व की व्याख्या है। त्रिक् रूप के तीन निम्नलिखित चरण हैं-

१. पक्ष (Thesis),

२. प्रतिपक्ष (Anti thesis) एवं

३. समन्वय (Synthesis)

इन तीनों की व्याख्या फ्रेडरिक हेगल अपने द्वन्द्व न्याय में बड़ी कुशलता के साथ करते हैं तथा इन्हीं के माध्यम से विश्व-विकास की व्याख्या करते हैं। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि विकास का यह त्रिक रूप परम तत्त्व की भी व्याख्या करता है तथा परम तत्त्व से विश्व की उत्पत्ति की भी व्याख्या करता है।

एक और अनेक की समस्या का समाधान हेगल विरोध समन्वय सिद्धान्त (Law of identity of opposites) के द्वारा करते हैं। साधरणतः हम समझते हैं कि एक और अनेक विरोधी हैं, परन्तु  फ्रेडरिक हेगल के अनुसार विरोधों का समन्वय सम्पक्ष (Synthesis) में होता है। भाव और अभाव (Being and Non-being) दोनों विरोधी हैं। परन्तु हमने देखा है कि किसी वस्तु का भाव तो उसके सभी गुणों के अभाव के बराबर है। अत: दोनों में तादात्म्य सम्बन्ध है। शुद्ध भाव-शुद्ध अभाव। इन दोनों का समन्वय सम्भवन (Becoming) में हो जाता है। इस दृष्टि से एक और अनेक दो विरोधियों में तादात्म्य सम्बन्ध है।

 

१. पक्ष (Thesis)- यह पूर्ण सत् है। फ्रेडरिक हेगल के अनुसार यही परम तत्त्व है, निरपेक्ष विज्ञान है। इसकी उपलब्धि हमें तार्किक विश्लेषण के द्वारा होती है। उदाहरणार्थ, यह मेज लाल है या हरा है, इस वाक्य से यदि हम लाल, हरा इत्यादि सभी विशेषणों को निकाल दें तो अन्त में यह मेज है केवल यही बच जायगा। यह मेज शुद्ध मेज की सत्ता है या उसका अस्तित्व है। फ्रेडरिक हेगल के अनुसार यह अस्तित्व या सत्ता ही पूर्ण सत् (Being) है।

मेज से हम हरे, नीले इत्यादि गुणों को निकाल सकते परन्तु उसकी सत्ता को नहीं निकाल सकते। यह शुद्ध सत्ता ही परम तत्त्व है। सत् का अभाव सम्भव नहीं। अस्तित्व का निषेध नहीं किया जा सकता। इसीलिये सत् या अस्तित्व को फ्रेडरिक हेगल प्रथम तत्व या चरम तत्व मानते हैं। यह शुद्ध भाव है। इसकी उपलब्धि हमें गुणों या विशेषणों के निषेध से होती है।

See also   लाइबनिट्ज का चिदणुवाद क्या है | Leibniz's Monad in Hindi

 

२. प्रतिपक्ष (Anti-thesis)- यह अभाव या निषेध है। इसे असत् कहते हैं। इसकी उपलब्धि हमें सत् के निषेध से होती है। उदाहरणार्थ ‘यह मेज लाल या पीला है।’ इस वाक्य से हम लाल, पीला इत्यादि के निषेध करने से शुद्ध अस्तित्व पर पहुँचते हैं। परन्तु यह शुद्ध अस्तित्व या भाव सभी गुणों का अभाव है। हेगल का कहना है कि भाव और अभाव सत् और असत् दोनों बराबर है। किसी भी वस्तु के भाव को बतलाना उसके अभाव का निषेध करना है। अतः सभी गुणों का निषेध ही भाव है या असत् का निषेध ही सत् है।

 

३. समन्वय (Synthesis)- सत् शुद्ध सत्ता है। असत् अभाव या निषेध है। किसी भी वस्तु की शुद्ध सत्ता उसके गुणों में बदल जाती है। इसी से विशेष वस्तु की उत्पत्ति होती है| भाव और अभाव में परिवर्तन ही समन्वय है। यह भाव और अभाव दोनों का एक साथ मिलना है। यह समन्वय ही विज्ञान का मूर्त रूप है, सत् का विशेष स्वरूप है, जाति का व्यक्तिगत रूप है, सामान्य की विशिष्ट प्रतीति है। इस समन्वय में पक्ष और प्रतिपक्ष का विरोध दूर हो जाता है। दोनों के गुणों का समन्वय हो जाता है। विश्व के समस्त पदार्थ इसी समन्वय के प्रतीक हैं।

फ्रेडरिक हेगल के अनुसार पक्ष, विपक्ष और समन्वय का क्रम चलता रहता है। इसी से वस्तुओं का विकास भी चलता रहता है। समन्वय का अन्त नहीं। समन्वय पुनः दूसरी अवस्था में पक्ष बनता है। उस पक्ष का प्रतिपक्ष में निषेध होता है। अन्त में भाव और अभाव मिलकर पुनः एक समन्वय होता है। हेगल के अनुसार तत्त्व का यही विशिष्ट द्वैत रूप है। प्रथम अभेद है, दूसरा भेद है और तीसरा दोनों का समन्वित रूप है। यही भेद विशिष्ट अभेद या विशिष्ट द्वैत रूप है। फ्रेडरिक हेगल द्वैत और अद्वैत दोनों को अपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार विशिष्टाद्वैत ही पूर्ण है, क्योंकि यह अभेदपूर्वक भेद या भेदपूर्वक अभेद है। किसी भी वस्तु की उत्पत्ति में भाव और अभाव दोनों का समन्वय है। शुद्ध भाव केवल काल्पनिक है। भाव का निषेध ही अभाव है। किसी भी वस्तु की उत्पत्ति में उस वस्तु का शुद्ध रूप तथा उसका विरोधी रूप दोनों सम्मिलित हैं। यही हेगल का विशिष्टाद्वैत रूप है।

पक्ष, प्रतिपक्ष और समन्वय ही हेगल का त्रिक विकास है। इसका प्रथम चरण (पक्ष) शुद्ध मण्डन है। यह किसी वस्तु की शुद्ध सत्ता है। दूसरा चरण (प्रतिपक्ष) खण्डन है। यह पहले चरण का निषेध है। प्रत्येक खण्डन का मण्डन है और प्रत्येक मण्डन का खण्डन है। प्रत्येक विधि का निषेध है और प्रत्येक निषेध की विधि है। तीसरे चरण में दोनों का समन्वय है। विधि और निषेध, पक्ष और प्रतिपक्ष एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे के नितान्त विपरीत नहीं। फ्रेडरिक हेगल के अनुसार सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति इसी सत्, असत् और समन्वय का स्वरूप है।

विकास के ये तीनों चरण संसार की सभी वस्तुओं की उत्पत्ति में लागू हैं। तात्पर्य यह है कि सभी वस्तुओं की उत्पत्ति द्वन्द्वमूलक है। उदाहरणार्थ हम शुद्ध सत्ता को लें। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जिसकी सत्ता न हो, अतः सत्ता ही हमारे ज्ञान का प्रारम्भ है। यह सत्ता शुद्ध सत्ता है, सर्वव्यापक है, सर्वाधार है। परन्तु शुद्ध सत्ता तो केवल कल्पना है, यह गुण रहित या निर्विशेष है। शुद्ध सत्ता का ज्ञान हमें किसी धर्म या गुण के माध्यम से ही हो सकता है। अतः धर्म के लिये धर्मी का ज्ञान आवश्यक है। यह धर्म ही धर्मी में बदल जाता है। धर्म का धर्मी में बदलना ही समन्वय है।

फ्रेडरिक हेगल के उपरोक्त विकासवाद की कुछ मान्यताएँ हैं। सर्वप्रथम, हेगल के अनुसार निषेध का नियम (Law of negation) सबसे महत्त्वपूर्ण नियम है। निषेध के कारण ही किसी वस्तु का निर्धारण होता है| निषेध तो अखिल विश्व का प्राण है। फ्रेडरिक हेगल के अनुसार निषेध के कारण ही पक्ष विपक्ष में बदल जाता है, भाव अभाव में बदल जाता है। अत: निषेध गति का कारण है, उत्पत्ति का स्रोत है। इसी के कारण निर्विशेष विज्ञान सविशेष वस्तु बन जाता है। हेगल की प्रसिद्ध उक्ति है निषेध तो गणों का सूचक है (Negation is determination)। यह उक्ति स्पिनोजा के बिल्कल विपरीत है। स्पिनोजा के अनुसार गुणों का निर्धारण तो वस्तु का निषेध है (Determination is negation)। फ्रेडरिक हेगल ठीक इसके विपरीत बतलाते हैं कि निषेध ही गुणों का सूचक है।

कुछ लोगों का कहना है कि हेगल के विकासवाद में विरोध नियम (Law of contradiction) का निषेध है। हेगल के विकासवाद में भाव (Being) तथा अभाव (Non-being) में तादात्म्य सम्बन्ध है। विरोध के नियम के अनुसार भाव और अभाव नियम में तादात्म्य नहीं हो सकता। फ्रेडरिक हेगल के अनुसार शुद्ध भाव और अभाव एक है। यही हेगल का प्रसिद्ध विरोध का समन्वय (Identity of opposites) है। हमने पहले देखा है कि पक्ष और विपक्ष दोनों का समन्वय सम्पक्ष (Synthesis) में होता है।

इसी के अनुसार फ्रेडरिक हेगल एक और अनेक का समन्वय करते है। एक का विरोधी अनेक है तथा अनेक का विरोधी एक है, परन्तु निषेध के नियम के अनुसार विरोधो में तादात्म्य है, इनका समन्वय सम्भव है। फ्रेडरिक हेगल के अनुसार अ और -अ तादात्म्य है। अन्य तर्कशास्त्रियों के अनुसार तादात्म्य का नियम (Law of identity) का स्वरूप कुछ दूसरा है। तर्कशास्त्र में तादात्म्य नियम के अनुसार कोई भी वस्तु अपने आप में बराबर होती है, जैसे अ=अ। फ्रेडरिक हेगल के अनुसार अ = -अ है। इन दोनों में तादात्म्य सम्बन्ध है। इस प्रकार तादात्म्य का नियम तथा निषेध का नियम, इन दोनों नियमों का स्वरूप हेगल के दर्शन में भिन्न है।

 

 

 

 

Disclaimer -- Hindiguider.com does not own this book, PDF Materials, Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet or created by HindiGuider.com. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: [email protected]

Leave a Reply