रेने देकार्त (Rene Descartes)

रेने देकार्त की जीवनी,दार्शनिक प्रणाली,निगमन | Philosophic Method of Rene Descartes in Hindi

रेने देकार्त (Rene Descartes)[ सन् १५९६ से सन् १६५०]

रेने देकार्त (Rene Descartes) का जन्म फ्रान्स के तुरेन (Touraine) नामक नगर में १५९६ ई. में हुआ था। इनका जन्म मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता वकील (Lawyer) थे तथा अपने समय की राजनीति में भाग लेते थे। रेने देकार्त के जन्म लेने के कुछ ही दिनों बाद इनकी माता का देहावसान हो गया। माँ के अभाव के कारण ही रेने देकार्त बचपन में सम्भवतः अत्यन्त दुर्बल रहे तथा अन्त तक इनका शरीर क्षीण ही रहा।

बाल्यावस्था से ही रेने देकार्त अपने शरीर पर ध्यान न देकर केवल चिन्तन में लीन रहा करते थे| आठ वर्ष की अवस्था में लाप्लेचे (LaPleche) में इनकी पाठशालीय शिक्षा प्रारम्भ हुई। यहाँ इन्होंने भौतिकशास्त्र, गणितशास्त्र, नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, तत्व-मीमांसा आदि अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। ये गणित के बड़े प्रेमी थे तथा बराबर गणित के सिद्धान्तों के विषय में सोचा करते थे।

इसके बाद रेने देकार्त पेरिस (Paris) गये। यहाँ इनकी शिक्षा बड़े शानदार ढंग से हुई। इनकी पेरिस की शिक्षा पर इनके पिता ने बहुत अधिक धन खर्च किया तथा इनके। लिए सुख के सभी साधन इकट्ठे किये गये। परन्तु रेने देकार्त स्वभावतः चिन्तनशील थे, अतः सांसारिक भोग-विलास में अधिक लीन नहीं रहते थे। इनके मन में नये विचारों की खोज करने की बड़ी आस्था थी। नये विचार की खोज में ये जगह-जगह घूमते रहे। सन् १६१७ से सन् १६१९ तक ये हॉलैण्ड (Holland) में सैनिक सेवा करते रहे। स्विट्जरलैण्ड, इटली आदि देशों का इन्होंने भ्रमण किया। इनकी अधिक कृतियाँ हॉलैण्ड में ही लिखी गयीं।

रेने देकार्त एकान्तप्रिय, मननशील व्यक्ति थे। ये अधिक लोगों से मिलना नहीं चाहते थे। इस कारण इन्होंने कई बार अपना मकान बदला। देकार्त का अन्तिम समय स्वीडेन (Sweden) में बीता। स्वीडेन की राजकुमारी क्रिस्टीना (Christina) रेने देकार्त के दार्शनिक विचारों से बहुत प्रभावित हुई थीं। स्वीडेन की जलवायु देकार्त के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं थी। ये यहाँ बहुत काल तक न रह सके। इनकी मृत्यु शीताघात के कारण सन् १६५० ई. में स्वीडेन में हुई।

 

रेने देकार्त की प्रमुख कृतियाँ-

(क) डिस्कोर्स ऑन मेथेंड (Discourse on Method, Published in 1937)

(ख) दी मेडिटेशन्स (The Meditations, Published in 1944)

(ग) दी प्रिन्सिपल्स ऑफ फिलॉसफी (The Principles of Philosophy, Published in 1944)

(घ) दी पेशन्स ऑफ दी सोल (The Passions of the Soul, Published in 1946)।

रेने देकार्त की कृतियों में “The Discourse on Method” का महत्व सर्वोपरि है। यथार्थ में यह पुस्तक वर्तमान युग को देकार्त की देन है। इस पुस्तक में ही देकार्त ने अपनी दार्शनिक पद्धति का दिग्दर्शन कराया है। यूरोपीय दर्शन के इतिहास में यह एक नयी दिशा है। आगे हम इस पद्धति पर पूरी तरह विचार करेंगे। “The Meditations” में रेने देकार्त के दार्शनिक विचारों का सार निहित है। “The Principles of Philosophy” में देकार्त के दार्शनिक विचारों की सुव्यवस्थित व्याख्या है तथा “The Passions of the Soul” में मनोवैज्ञानिक और नैतिक समस्याओं की विवेचना की गयी है।

 

रेने देकार्त की दार्शनिक प्रणाली (Philosophic Method of Descartes)

रेने देकार्त को आधुनिक दर्शन का नहीं, वरन आधुनिक दार्शनिक प्रणाली का पिता (Father of modern method) मानते हैं, क्योंकि देकार्त ने सर्वप्रथम दर्शन के क्षेत्र में वैज्ञानिक प्रणाली (Scientific method) को जन्म दिया। देकार्त के पूर्व का दर्शन अन्धविश्वास और रूढिगत परम्पराओं से ग्रसित है। मध्य युग का दर्शन धार्मिक आस्था से ओतप्रोत था। दर्शन पर धर्म का आधिपत्य होने के कारण दार्शनिक सत्यों का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता था। अतः दर्शन भी धर्म के समान आस्था और अन्धविश्वास का विषय बन गया था। जनता की चिन्तन शक्ति स्वतन्त्र न थी। लोग किसी भी दार्शनिक सत्य को परम्परा की ओट में देखने के लिए बाध्य किये जाते थे।

रेने देकार्त ने स्वयं कहा है कि प्लेटो और अरस्तू को पढ़कर हम दार्शनिक नहीं बन सकते, यदि हम स्वतन्त्र निर्णय न कर सकें। इसी कारण दर्शनशास्त्र विवादों का अखाड़ा (Battle ground of controversy) बन गया था। अतः देकार्त की सबसे नदी समस्या थी दर्शन के क्षेत्र में निर्विवाद तथा निस्सन्देह सत्य की प्राप्ति। परन्तु ऐसे सत्यों की प्राप्ति कैसे हो? देकार्त अपने प्रारम्भिक काल से गणित के प्रति बड़े आकष्ट थे।

उनके अनुसार गणित में निश्चयात्मकता है। उसके सिद्धान्त निर्विवाद और निस्सन्देह सत्य हैं। अतः देकार्त की दृष्टि में दर्शन की नींव भी गणित के समान सुदृढ़ होनी चाहिये जिससे दोषों का निराकरण हो तथा निस्सन्देह सत्य की प्राप्ति हो। अपनी प्रसिद्ध कृति ‘दी डिस्कोर्स ऑन मेथेंड’ (The Discourse on Method) में देकार्त अपनी प्रणाली के मुख्य चार अंग बतलाते हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

(अ) हम किसी भी विषय को तब तक सत्य न मानें जब तक परीक्षा न हो जाये। तात्पर्य यह है कि पूर्णत: परीक्षित सत्य ही यथार्थ सत्य है। सत्य के निश्चय होने पर ही सन्देह का निराकरण सम्भव है।

(ब) किसी भी विषय की सत्य की परीक्षा करने में हमें उस विषय को उसके अंग-प्रत्यंगों में विभक्त कर देना चाहिये। ऐसा करने पर ही किसी समस्या का समाधान सम्भव है।

(स) हमें अपनी समस्या के सरल भाग से प्रारम्भ कर क्रमश: जटिल की ओर अग्रसर होना चाहिये। किसी समस्या का क्रमश: अध्ययन करने से विचार में सामञ्जस्य रहता है।

(द) किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले हमें पूर्णतः विश्वस्त होना चाहिये कि समस्या का कोई अंग छूटा तो नहीं। जिससे हमारे निष्कर्ष में किसी प्रकार की त्रुटि न उत्पन्न हो उपरोक्त चारों नियम देकार्त के दर्शन में अत्यन्त महत्वपूर्ण माने जाते हैं। ये चारों नियम देकार्त के निर्णायक नियम (Guiding principles) माने जाते हैं। इन्हीं नियमों के आधार पर देकार्त दार्शनिक सत्यों की छानबीन प्रारम्भ करते हैं। किसी भी परीक्षा के लिए हमें सर्वप्रथम मापदण्ड की आवश्यकता है।

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रेने देकार्त के दर्शन में उपरोक्त चार नियम ही मापदण्ड का कार्य करते हैं। इन्हीं नियमों के सहारे हमें दर्शन शास्त्र में निस्सन्देह तथा निर्विवाद सत्य की प्राप्ति हो सकती है तथा दर्शन के क्षेत्र में विवाद और अराजकता का अन्त हो सकता है। परीक्षा के बिना सत्य केवल अन्धविश्वास या भ्रम है। रेने देकार्त स्वयं कहते हैं कि हम स्वतन्त्र निर्णय के बिना केवल प्लेटो और अरस्तू के तर्क का अध्ययन कर दार्शनिक नहीं बन सकते।

रेने देकार्त दार्शनिक समस्याओं की अपेक्षा दार्शनिक प्रणाली पर सर्वप्रथम विचार करते हैं। प्रणाली विमर्श’ (Discourse on the Method) में देकार्त दार्शनिक प्रणाली की विशद विवेचना करते हैं। इसी कारण प्रणाली विमर्श देकार्त की प्रमुख कृति। मानी जाती है। यह छ: भागों में विभक्त है। अपनी इस प्रसिद्ध कृति में देकार्त गणित से विशेष प्रभावित मालूम पड़ते हैं। उनके अनुसार गणित की प्रणाली ही यथार्थ प्रणाली है। दर्शन शास्त्र में भी इसी प्रणाली का प्रयोग होना चाहिये। गणित के निष्कर्ष सर्वमान्य होते हैं। परन्तु दर्शन शास्त्र के नहीं।

इसका एकमात्र कारण यही है कि दर्शन की नींव गणित के समान सुदृढ नहीं। देकार्त प्रणाली विमर्श’ में दर्शन के प्रति बड़ी गहरी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि ‘मैं दर्शन के सम्बन्ध में इससे अधिक कुछ नहीं कहूँगा। बहुत दिनों से तथा बड़े-बड़े विद्वानों ने इस पर विचारविमर्श किये हैं, तो भी इस पर कोई भी ऐसा विचार नहीं जो विवाद के परे हो तथा कोई भी ऐसा विषय नहीं जो सन्देह से रहित हो। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि दर्शन विवादों का अखाड़ा है। इन विवादों का कारण केवल दार्शनिक प्रणाली में दोष है। यदि हम गणित की प्रणाली को दर्शन में अपनाएँ तो दर्शन में भी गणित के समान निष्कर्ष प्राप्त होंगे। इससे स्पष्टतः प्रतीत होता है कि देकार्त गणित से विशेष प्रभावित थे।

रेने देकार्त की दार्शनिक प्रणाली को गणितीय प्रणाली (Mathematical method) भी कहते हैं, क्योंकि रेने देकार्त ने अपनी इस प्रणाली में गणित का अनुकरण करने का प्रयास किया है। देकार्त के अनुसार दार्शनिक निष्कर्ष गणित के निष्कर्ष के समान सन्देह रहित तथा सर्वमान्य तभी हो सकते हैं जब दर्शन में गणित की प्रणाली को अपनाया जाय। देकार्त ने स्वयं अपने प्रणाली-विमर्श में बतलाया है कि वे तर्कपूर्ण, सन्देह-रहित निष्कर्ष के कारण ही गणित से विशेष प्रभावित हैं। रेने देकार्त का , कि गणित की प्रणाली के बिना सन्देहरहित, सर्वमान्य सत्यों की प्राप्ति सकती।

गणित में हमें निश्चित निष्कर्षों की प्राप्ति होती हैं। २+२=४ को कोई की दृष्टि से नहीं देख सकता। यह सर्वमान्य, सार्वभौम तथा सार्वजनिक सय दर्शन में भी ऐसे ही सत्य प्राप्त हों तो दार्शनिक विवादों का निश्चित जायेगा। रेने देकार्त गणित के सत्यों में स्पष्टता (Clearness) तथा सुभिन्नता (Distinctness) पाते हैं। अतः स्पष्टता तथा सुभिन्नता की प्राप्ति के लिये वे गणित की प्रणाली का अनुकरण करना चाहते हैं।

रेने देकार्त बुद्धिवादी है और बौद्धिक ज्ञान में उनका अटूट विश्वास है। अपनी “प्रणाली विमर्श’ में रेने देकार्त ने बुद्धि का विश्लेषण करते हुए दो मुख्य सिद्धन्तों का प्रतिपादन किया है-

(क) बुद्धि में यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की सामर्थ्य है।

(ख) बुद्धि में यथार्थ अयथार्थ ज्ञान को पृथक् करने की भी सामर्थ्य है। पहले का तात्पर्य है कि बुद्धि ही यथार्थ ज्ञान की जननी है तथा दूसरे का तात्पर्य है कि बुद्धि, ज्ञान और भ्रम में भी भेद कर सकती है। परन्तु यहाँ एक आवश्यक प्रश्न यह है कि ज्ञान का स्वरूप क्या है तथा इसको प्राप्त करने की विधि क्या है?

देकार्त बुद्धिवादी हैं, इनके अनुसार बुद्धि ही यथार्थ ज्ञान की जननी है। यह यथार्थ ज्ञान सार्वभौम (Universal), सुनिश्चित (Certain) और अनिवार्य (Necessary) है। यही ज्ञान का स्वरूप है। इस प्रकार के ज्ञान का आदर्श गणित-शास्त्र है। इस प्रकार के यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के दो साधन हैं।

(क) सहज ज्ञान (Intuition) (ख) निगमन (Deduction) इन दोनों साधनों पर पृथक-पृथक प्रकाश आवश्यक है।

 

 

सहज ज्ञान या अन्तबोध (Intuition)

यह स्वयंसिद्ध सद्यः ज्ञान है। यह पूर्णतः सुस्पष्ट तथा सुभिन्न होता है। यह इन्द्रियों द्वारा प्राप्त नहीं होता। प्रत्यक्ष, अनुमान आदि के लिए इन्द्रियों का आवश्यकता है। अतः अन्य सभी ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष है। परन्तु सहज-ज्ञान तो सद्यः अनुभूति है। इसे किसी साधन या माध्यम की आवश्यकता नहीं तथा इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। अन्य प्रमाणों में प्रामाणिकता का आधार तो सद्यः अनभूति ही है।

यह मौलिक ज्ञान है। यह सबका आधार है, परन्तु यह स्वतः सम्भूत, स्वयंसिद्ध और सर्वाधार मौलिक ज्ञान है। आत्मज्ञान पूर्णतः सुस्पष्ट तथा सुभिन्न ज्ञान है। यह स्वतः सत्य है तथा अन्य ज्ञानों की अपेक्षा इतना सुस्पष्ट तथा सुभिन्न है कि इसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। देकार्त के अनुसार अन्य ज्ञान तो आत्मज्ञान के समान सुस्पष्ट तथा सुभिन्न है, मान्य है। अत: आत्मज्ञान सर्वाधार मौलिक सत्य है।

 

 

निगमन (Deduction)

यह अनुमान जन्य ज्ञान है। अनुमान में आधार वाक्य तथा निगमन दोनों का सम्बन्ध दिखलाकर आधार-वाक्य से निगमन निकाला जाता है। रेने देकार्त के अनुसार आधार तो सहज-ज्ञान है, परन्तु निष्कर्ष निगमनात्मक ज्ञान है। निष्कर्ष की सत्यता आधार-वाक्यों पर निर्भर रहती है, परन्तु आधार-वाक्य तो स्वतः सिद्ध सत्य है। इससे स्पष्ट है कि निगमनात्मक ज्ञान साक्षात् नहीं परोक्ष ज्ञान है। देकार्त के अनुसार आत्मज्ञान तो सहज-ज्ञान है, क्योंकि यह बिल्कुल सुस्पष्ट तथा सुभिन्न है। यह आधार वाक्य है। अन्य जो भी ज्ञान आत्म-ज्ञान के समान सुस्पष्ट तथा सुभिन्न हैं, आत्मा के समान मान्य हैं। इस प्रकार अन्य ज्ञान तो आत्म-ज्ञान पर आधारित हैं। अन्य ज्ञान निगमनात्मक है।

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उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि सहज ज्ञान या अन्तर्बोध तथा निगमन दोनों ही ज्ञान-प्राप्ति के साधन हैं। प्रश्न यह है कि दोनों में अधिक प्रामाणिक कौन है? इसमें सन्देह नहीं कि सहज-ज्ञान तो सर्वाधार और स्वयंसिद्ध है, परन्तु निगमनात्मक ज्ञान सहज-ज्ञान से कम प्रामाणिक नहीं। रेने देकार्त के अनुसार निष्कर्ष की सत्यता तो आधार-वाक्यों पर आधारित है। यदि आधार वाक्य सत्य हैं तो निष्कर्ष भी सत्य होगा। अतः यदि सहज-ज्ञान सत्य है तो निगमन भी समानतः सत्य होगा। इस प्रकार दोनों समानतः सत्य, समानतः प्रामाणिक हैं।

रेने देकार्त आत्म-ज्ञान को सहज बोध, स्वतः सिद्ध मानकर अन्य विषयों का ज्ञान आत्म-ज्ञान पर आधारित मानते हैं। अन्य विषयों का ज्ञान भी आत्म-ज्ञान के समान ही सत्य है क्योंकि अन्य विषयों का ज्ञान आत्म-ज्ञान के समान सुस्पष्ट तथा सुभिन्न है। इस प्रकार देकार्त का निष्कर्ष है कि सहज-बोध तथा निगमन दोनों ही ज्ञान के साधन या प्रणाली (Method) है। इन दोनों साधनो से ही हमें सनिश्चित, सार्वभौम ज्ञान प्राप्त होता है। सुनिश्चित तथा सार्वभौम ज्ञान बौद्धिक ज्ञान है। अतः बौद्धिक ज्ञान की प्राप्ति अन्तर्बोध और निगमन से होती है। दूसरे शब्दों में, अन्तर्बोध और निगमन ही रेने देकार्त की प्रणाली के दो अंग हैं। इन्हीं दोनों साधनों से हमें यथार्थ या सत्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।

यथार्थ और अयथार्थ ज्ञान

रेने देकार्त के अनुसार सार्वभौम और सुनिश्चित ज्ञान ही सत्य या यथार्थ का जिसकी प्राप्ति हमें अन्तर्बोध तथा निगमन से होती है। परन्तु अन्तर्बोध और निस के अतिरिक्त भी ज्ञान के साधन हैं, जैसे प्रत्यक्ष, कल्पना, स्मरण आदि। इन साधनों से भी हमें ज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु मिश्रित ज्ञान, अन्तर्बोध और निगमन अतिरिक्त जो भी ज्ञान हमें प्राप्त होता है वह असत्य या भ्रमात्मक ज्ञान है। प्रश्न गर है कि भ्रमात्मक ज्ञान का कारण क्या है? रेने देकात के अनुसार बौद्धिक ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है जिसकी प्राप्ति हमें अन्तर्बोध और निगमन से होती है। परन्तु हम शरीरधारी भी हैं। शरीर के कारण बुद्धि का यथार्थ स्वरूप विकृत हो जाता है। बुद्धि का स्वरूप विकृत होने पर हमें भ्रम होता है। इस भ्रम की उत्पत्ति के कई कारण हैं, जैसे-

(क) बचपन से ही हमारी बुद्धि शरीर में निमग्न है। हम बाल्यकाल से ही अनेक भ्रान्त धारणाओं और पूर्वाग्रहों के शिकार है। इसी कारण हमें सुभिन्न तथा स्पष्ट बोध नहीं हो पाता।

(ख) ज्ञान की अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से होती है। शब्दों के आवरण में यथार्थ ज्ञान छुप जाता है। अतः जब तक हम शब्दों से भाव को पृथक नहीं करते, हमें सत्य का बोध नहीं हो सकता।

(ग) परम्परा अन्धविश्वास और जनश्रुति आदि के कारण भी सत्य ज्ञान नहीं हो पाता।

उपरोक्त तीनों कारण भ्रमात्मक ज्ञान के साधन हैं और यथार्थ बौद्धिक ज्ञान के बाधक हैं। इन बाधक तत्वों के कारण ही हम अन्तर्बोध और निगमनात्मक प्रणाली का प्रयोग नहीं कर पाते। फलतः हमें सुस्पष्ट और सुभिन्न बौद्धिक ज्ञान नहीं हो पाता। अतः हमें सबसे पहले अपनी बुद्धि को इन भ्रमों से मुक्त करना चाहिये। भ्रम के निराकरण से निर्धान्त ज्ञान होगा। परन्तु भ्रम का निराकरण कैसे हो? बुद्धि से भ्रम के निराकरण के लिये हमें संशय का सहारा लेना होगा।

संशय के सहारे ही हम सत्य और असत्य में भेद कर सकते हैं और सत्य को अपनाकर असत्य का परित्याग कर सकते हैं। इस प्रकार भ्रान्त और निर्धान्त में, सत्य और असत्य में भेद तो संशय या सन्देह से सम्भव है। इसी कारण सत्य की प्राप्ति के लिए देकार्त सन्देह का सहारा लेते हैं। निस्सन्देह की प्राप्ति के लिए सन्देह मार्ग को अपनाते है। देकार्त की प्रसिद्ध कृति मेडिटेशन्स (Meditations) सर्वप्रथम संशयवाद से प्रारम्भ होती है।

 

 

 

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