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शिवाजी की उपलब्धियों की विवेचना कीजिए

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शिवाजी का प्रारम्भिक जीवन

शिवाजी का जन्म सन् 1630 ई० में शिवनेर के दुर्ग में हआ था। भोंसले और माता जीजाबाई थीं। जीजाबाई धार्मिक प्रवृत्ति की महिला शिवाजी को बचपन से ही धार्मिक संस्कारों में ढालना प्रारम्भ कर दिया में धर्मानुराग के बीज बोये। शिवाजी के गुरु दादा कोण्डदेव ने उन्हें व्यावहारिक राजनीति की शिक्षा दी। शिवाजी महाराष्ट्र की दशा देखकर हुए। बहुत से मालव नवयुवक उनके साथ हो गये उन्होंने मुसलमान शक्ति करना अपना लक्ष्य बना लिया।

शिवाजी द्वारा राज्य-निर्माण अपने इस इरादे को कार्यरूप में परिणित करने के उद्देश्य से शिवाजी दुर्ग पर अपना अधिकार करके तथा रायगढ़ के किले का निर्माण करके अपनी । को सुदृढ़ बना लिया। तत्पश्चात् उन्होंने सन् 1646 ई० में तोरण के दर्ग पर भी कर लिया। 1648 ई० में पुरन्दर के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।

जावली विजय-

1656 ई० में शिवाजी ने चन्द्रराव मोरे नामक मरहठा वंश के एक सरदार से जावली का प्रदेश छीन लिया जो सतारा के उत्तरी-पश्चिमी भाग में स्थित है। इस विजय का महत्व डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के शब्दों में, “इस विजय के दर उसके राज्य के दक्षिण-पश्चिम में विस्तार के लिए द्वार खुल गये । जावली के मिल जाने से शिवाजी के हाथ वह खजाना लग गया जो मोरे ने कई पीढ़ी से जमा कर रक्खा था।।

कोकण विजय-

सन् 1657 ई० के अन्त में शिवाजी ने कोंकण पर आक्रमण का। कल्याण, भवन्डी चोल, ताले तथा लोहगढ़ आदि पर भी अधिकार कर लिया।

अफजल खाँ तथा शिवाजी-

बीजापुर सुल्तान शिवाजी से परेशान था। फलतः । 1659 ई० में अफजल खाँ नाम के एक योग्य सेनापति को शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। परन्तु जब अफजल खाँ को किसी तरह सफलता न मिली तो उसने छल । कपट से शिवाजी को कैद करना चाहा। उसने झूठ-मूठ संधि की बातचीत चलाई, जिसे । शिवाजी ने स्वीकार कर लिया। निश्चित स्थान पर दोनों की भेंट हुई। अफजल खाँ ने शिवाजी का गला घोंटना चाहा, परन्तु शिवाजी ने बघनख से अफजल खों की हत्या कर दी और बीजापुर सेना को मार भगाया। इस घटना के बाद हार कर उसने शिवाजी से युद्ध बन्द कर दिया। फलतः बीजापर के अनेक किले एवं भूमि पर शिवाजी का स्थायी अधिकार हो गया।

मुगल तथा शिवाजी-

बीजापर से निपटने के बाद शिवाजी ने मुगल साम्राज्य पर। -धावे शुरू कर दिये। शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर औरंगजेब अत्यन्त चिन्तित । हुआ। फलतः औरंगजेब ने अपने मामा शायस्ता खाँ को शिवाजी के दमन का काय। सौंपा। दोनों में युद्ध छिड़ गया। दो वर्ष तक युद्ध चलता रहा। एक दिन शिवाजी शायस्ता खाँ के सोने के कमरे में (पूना के दुर्ग में) घुस गये और उसके ऊपर धावा बाल दिया। शायस्ता खाँ ने जंगल में भागकर अपनी जान बचाई। यह घटना 1663 इ० की है।

सूरत की लूट-

इस सफलता से शिवाजी का उत्साह बहुत बढ़ गया । मुगलों के में उनको अधिक हानि उठानी पड़ी थी। अंतः इसकी पूर्ति के लिए उन्होंने 1664 ई० पुरन्दर की सन्धि और शिवाजी मुगल दरबार में-शिवाजी को दबाने के लिए औरंगजेब ने 1665 ई० में राजा जयसिंह को सेनापति बनाकर दक्षिण भेजा। राज लिए विवश किया। इस संधि की शर्तों के जुनसार शिवाजी 23 दुर्ग औरंगजेब को देने के लिए राजी हो गये। जयसिंह ने शिवाजी को ऊँची आशाएं देकर अपने साथ दिल्ली के शाही दरबार में से चलने के लिए तैयार कर लिया। 1666 ई० में शिवाजी अपने पुत्र सम्भाजी के साथ आगरा गये। मुगल दरबार में विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप दे कैद कर लिये गये, परन्तु शिवाजी चालाकी से बन्दीगृह से भागकर महाराष्ट्र पहुँच गये और अपनी शक्ति पुनः बढ़ा ली। धीरे-धीरे उन्होंने अपने खोये हुए दुर्गों को फिर से प्राप्त कर लिया और सूरत को दुबारा लूटकर शिवाजी का राज्याभिषेक-1674 ई० में रायगढ़ के दर्ग में बड़ी धूमधाम से धारण की। 1680 ई० में इस महान मराठे की मृत्यु हो गई।

मराठा शक्ति के उत्थान के कारण

भारत में मुस्लिम सत्ता स्थापित होने के पश्चात् बहुत समय तक हिन्दुओं की नप न सकी। उत्तरी भारत में राष्ट्रीय भावना विदा हो चली थी पर दक्षिणी महाराष्ट्र जैसे स्वतंत्र प्रांत में राष्ट्रीय भावना धीरे-धीरे पनप रही थी। कालान्तर में नही मराठा शक्ति का उदय हुआ जिसने भारत की तत्कालीन राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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  मराठा शक्ति के उत्थान के कारण

(1)भौगोलिक दशा-

मराठों के उत्थान में उनके प्रदेश की प्राकृतिक सविधाओं ने बड़ा सहयोग प्रदान किया। विन्ध्य एवं सतपुड़ा की पर्वतमालाओं द्वारा घिरे होने के कारण  महाराष्ट्र प्रदेश के मार्ग अत्यन्त दुर्गम हैं और दुर्ग अभेद्य है।

(2) धार्मिक क्रान्ति-

पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दी में प्रारम्भ होने वाले देशव्यापी भक्ति आन्दोलन ने महाराष्ट्र में एक विशिष्ट सामाजिक जागरण की लहर पैदा कर दी। तकाराम, रामदास आदि सन्तों ने लोगों को भेदभाव न करने का उपदेश दिया और राजनैतिक एकता की भावना उनके हृदय में जगा दी।

(3) भाषा एवं साहित्य की एकता-

एक सामान्य भाषा मराठी और साहित्य से भी  महाराष्ट्र की जनता को संगठित एवं एकत्रित होने में सहायता पहुँची। ।

(4) दक्षिण के राज्यों में हिन्दुओं का प्रभाव-

उत्तरी भारत की अपेक्षा दक्षिणी भारत में दुर्गम मार्गों के कारण मुसलमानी सभ्यता और संस्कृति का प्रभाव एवं प्रचार नहीं हो पाया था। दक्षिण में मुसलमानी राज्यों की सेना में हिन्दुओं को उच्च स्थान प्राप्त थे । जिसके कारण उन्हें सैनिक दृष्टि से संगठित होने में कोई कठिनाई नहीं हुई।

(5) दक्षिण की अनुकूल राजनीतिक स्थिति-

महाराष्ट्र में हिन्दुओं के उत्थान का यह प्रमख कारण था। औरंगजेब ने शिया सुल्तानों को हराकर बीजापुर तथा गोलकुण्डा को अपने अधिकार में कर लिया जिसके कारण हिन्दुओं को दक्षिण में किसी भी शक्ति का भय नहीं रहा। अब वे स्वतंत्र रूप से अपना संगठन कर सकते थे। ।

(6) शिवाजी का नेतृत्व-

ठीक उसी समय शिवाजी जैसे महान व्यक्ति का नेतृत्व मिल जाने के कारण मराठों ने विशेष उन्नति की और वे परम शक्तिशाली मुगल सम्राट औरंगजेब का सामना करने के लिए कटिबद्ध हो गये।

 शिवाजी के शासन-प्रबन्ध का वर्णन

शिवाजी केवल एक कुशल सेनानायक तथा एक सफल विजेता ही नहीं थे, वरन् वह एक सुयोग्य शासक भी थे। उनके शासन प्रबन्ध की रूपरेखा इस प्रकार थी-

केन्द्रीय शासन

शिवाजी ने एक निरंकुश राजतंत्र की स्थापना की। राजा के अधिकार असीमित थे। शासन की सभी शक्तियाँ उनके हाथ में केन्द्रित थी। वह निरंकुश अथवा स्वेच्छाचारी नहीं या। प्रजा की भलाई करना राजा अपना पवित्र कर्तव्य मानता था। राजा को मन्त्रणा देने के लिए एक मन्त्रिमण्डल होता था जिसमें आठ मन्त्री ये। ये मन्त्री ‘अष्टप्रधान‘ कहलाते थे। प्रत्येक का काम भिन्न था। अष्टप्रधान के आठ मन्त्री, पेशवा, अमात्य, सुमन्त, मन्त्री, सचिव, सेनापति, पंडित तथा न्यायाधीश थे।

न्याय व्यवस्था-

न्याय का सर्वोच्च अधिकारी न्यायाधीश होता या फौजदारी के मुकदमों का निर्णय ‘पटेल’ नामक पदाधिकारी करता था और ती मुकदमों का फैसला ग्राम पंचायत करती थी। इस मुकदमों की अपील न्यायाधी था।

भूमि-प्रबन्ध तथा आय के साधन-

जागीर-प्रथा का अन्त करके शिवाजी भूमि को राज्य की भूमि घोषित कर दी। कर्मचारियों को नकद वेतन मिल किसानों से भूमि कर की वसूली सीधे सरकारी कर्मचारी करते थे। दुर्भिक्ष के सम किसानों को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी। पशुओं को खरीदने के लिए को राज्य की ओर से आर्थिक सहायता मिलती थी। शिवाजी की आय के निम्नलिखित थे

(1) किसानों से उपज का 40 प्रतिशत लगान के रूप में लिया जाता था.

(2) विजित प्रदेशों से ‘चौथ’ नामक कर वसूल किया जाता था, जो राजस्व का चौथाई भाग होता था। जो राज्य इस कर को देता था उसे पर मराठे फिर आक्रमण न करने का वायदा देते थे,

(3) राज्यों से उनकी आय पर भी कर वसूल किया जाता था जिसे ‘सरदेशमुखी कहते थे, यह राज्य राजस्व का दसवाँ भाग होता था,

(4) लूट का माल भी आय का एक। प्रमुख साधन था।

सैनिक-व्यवस्था-

शिवाजी ने एक विशाल तथा सुव्यवस्थित सेना का संगठन किया। उसके पास एक शक्तिशाली जहाजी बेड़ा भी था। जागीर-प्रथा का अन्त कर सैनिकों को नकद वेतन देने की प्रथा अपनाई। सेना में कोई भी पद पैतृक नहीं था। घोड़ों को दागने तथा सैनिकों की हुलिया भी रजिस्टर में लिखने की व्यवस्था की गई। सुरक्षा की दृष्टि से  शिवाजी ने अपने राज्य में दुर्गों का निर्माण कराया। इन दुर्गों के प्रबन्ध के लिए तीन  अफसर नियुक्त किये जाते थे, जो एक-दूसरे पर नियंत्रण रखते थे। ।

प्रान्तीय शासन

शासन-प्रबन्ध की सुविधा के लिए शिवाजी ने अपने राज्य को कई प्रान्तों में बाँट दिया था। प्रत्येक प्रान्त का शासन ‘प्रान्तपति’ के हाथ में होता था। उसकी सहायता के लिए भी एक अष्ट-प्रधान होता था।

शिवाजी के शासन-प्रबन्ध का मुख्य आधार धार्मिक सहिष्णुता थी। इतिहासकारों ने शिवाजी को एक महान् शासक एवं राष्ट्र-निर्माता कहा है तथा इसके शासन-प्रबन्ध की । मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। बूल्जे हेग के अनुसार, “उसकी प्रजा उस तक पहुँच सकती। थी। साधारण लोग उसे ऐसी श्रद्धा-भक्ति से देखते थे जैसा कि उसके समकालीन भारत का कोई शासक नहीं देखा जाता था।”

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शिवाजी का चरित्र शिवाजी का चरित्र निर्मल और प्रशंसनीय था। उसके चरित्र की मुख्य विशेषताएँ । निम्नलिखित थीं

(1) परिवार-प्रेम-

शिवाजी एक आज्ञाकारी पुत्र, दयाल पिता तथा उत्तरदायी पात थे। वह अपनी माता से अगाध प्रेम करते थे। उनके चरित्र की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वे पराई स्त्रियों को भी अपनी माँ-बेटी के समान रखते थे। खफी खाँ के शब्दों में “उसने (शिवाजी) यह नियम बना दिया था कि जब भी उसके साथी लूटपाट करे वें मस्जिद, कुरान या किसी भी स्त्री को कोई हानि न पहुँचायें।”

(2) धार्मिक सहिष्णुता-

हिन्दू धर्म का कट्टर अनुयायी होते हुए भी वे मुसलमानों के साथ समानता का व्यवहार करते और उनको धार्मिक स्वतन्त्रता भी प्रदान की थी।

(3) महान् सेनानायक-

शिवाजी एक उच्चकोटि के सेनानायक थे। उनमें संगठन की असाधारण क्षमता थी। वे अपनी सैनिक शक्ति के बल पर ही एक छोटी जागीर से एक विशाल राज्य की स्थापना कर सके, शिवाजी ने अपनी सैनिक कुशलता के कारण ही औरंगजेब जैसे महान् साम्राज्यवादी सम्राट का मुकाबला किया।

(4) कुशल शासक व कूटनीतिज्ञ-

शिवाजी के शासन-प्रबन्ध का अध्ययन करने पर यह विदित होता कि उसमें न केवल उच्चकोटि की सैनिक प्रतिभा ही थी वरन् उसमें एक कुशल शासक के गुण भी विद्यमान थे। उसने अपने दुर्गों का प्रबन्ध करने में तथा केन्द्रीय एवं प्रान्तीय शासन-प्रबन्ध में अपनी कशलता एवं मौलिकता का परिचय दिया। शिवाजी कूटनीति में बड़े चतुर थे।

निष्कर्ष

शिवाजी एक महान् राष्ट्रनिर्माता और एक महान् विजेता एवं कुशल शासक थे। उनकी सहिष्णुता के कारण ही उन्हें दक्षिण के विभिन्न जातियों का सहयोग प्राप्त हो सका।

मराठा साम्राज्य के पतन के क्या कारण थे?

मराठा साम्राज्य की नींव शिवाजी ने डाली थी। शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् औरंगजेब ने मरहठों के दमन का हर संभव प्रयल किया परन्तु वह सफल न हो सका। मरहठों की शक्ति बनी रही। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् मरहठों की शक्ति में वृद्धि होने लगी। पेशवाओं के शासन-काल में मराठा साम्राज्य अपनी शक्ति एवं विस्तार की चरम सीमा पर पहुँच गया था। बालाजी बाजीराव के काल में मरहठों की धाक समस्त भारत में जम गई थी। 1761 ई० में मरहठे अहमदशाह अब्दाली से पानीपत के तृतीय युद्ध में परास्त हुए जिससे उनकी शक्ति एवं प्रतिष्ठा को भारी धक्का लगा। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मरहठों के अंग्रेजों से तीन युद्ध हुए जिनमें शिवाजी द्वारा स्थापित मरहठा साम्राज्य का अन्त हो गया और इतिहास के पन्नों में शेष रह गई उसकी स्मृति । मरहठा साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण अधोलिखित थे:

(1) एकता का अभाव-

मरहठों के पतन का सर्वप्रथम कारण यह था, कि उनमें एकता का अभाव था। मरहठा संघ की पाँच इकाइयाँ थीं जिनमें से प्रत्येक इकाई का शासक अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के प्रयल में लगा रहता था। योग्य पेशवाओं ने इन पर नियंत्रण रखा, परन्तु केन्द्रीय शक्ति के दुर्बल होने पर ये मनमानी करने लगे। अंग्रेजों ने इनकी फूट का लाभ उठाया। मरहठा सरदारों की पारस्परिक फूट के कारण ही इनका पतन हुआ।

(2) योग्य नेताओं का अभाव-

योग्य नेताओं का अभाव मराठों के पतन का कारण था। फल यह हुआ कि मरहठे सरदार आपस में ही लड़ने लगे, जिससे मरहठा साम्राज्य की शक्ति पतनोन्मुख हो गई।

(3) सैनिक दुर्बलता-

यद्यपि मरहठे सैनिक बड़े वीर एवं अच्छे योद्धा थे, परन उनका सैनिक संगठन एवं युद्ध-प्रणाली दोषपूर्ण थी। वे गुरिल्ला युद्ध-प्रणाली को त्याग का खुले मैदान में लड़ने लगे थे। उनके पास तोपखाना भी न था। इसी कारण उन्हें अहमद शाह अब्दाली एवं अंग्रेजों से परास्त होना पड़ा।

(4) जागीरदारी प्रथा-

शिवाजी ने जागीरदारी प्रथा को अपनाने का अवसर नहीं। दिया था परन्तु कालान्तर में यह प्रथा मरहठा राज्य की प्रधान विशेषता बन गई। इस प्रथा के कारण विकेन्द्रीकरण की शक्तिशाली प्रवृत्तियाँ सजग हो गईं, जिसने केन्द्रीय शक्ति को उत्तरोत्तर कमजोर बना दिया।

(5) भारत के अन्य राज्यों के साथ दोषपूर्ण नीति-

इस समय भारत में अनेक  छोटे-छोटे राज्य थे। यदि मरहठे दूरदर्शिता से काम लेते तो इन राज्यों का समर्थन व सहयोग प्राप्त करके वे अपने उद्देश्य में सफल हो सकते थे। यदि मरहठे हैदरअली और टीपू का साथ देते तो अंग्रेजों को हराना असंभव न था। मरहठों ने राजपूत और जाट राज्यों को इतना सताया कि वे उनके घोर विरोधी बन गये और अन्ततः अंग्रेजों के संरक्षण में चले गये।

(6) शासन व्यवस्था की कमजोरी-

मरहठों की शासन-व्यवस्था कमजोर नींव पर आधारित थी। उन्होंने इसे सुव्यवस्थित एवं लोकप्रिय बनाने का प्रयल नहीं किया। जो शासक जनता के अमन चैन का ध्यान नहीं रखता उसका पतन हो जाना कोई विस्मय की बात नहीं है।

(7) आर्थिक कठिनाइयाँ-

मरहठा राज्य की आर्थिक दशा भी संतोषजनक नहीं थी। आर्थिक कठिनाइयों ने भी मरहठा राज्य को कमजोर बनाने में योग दिया।

(8) उच्च आदर्शों का त्याग-

मरहठे अपने पूर्वजों के उच्च आदर्शों को भूल चुके थे। उनकी लूट-खसोट की नीति से प्रजा असंतुष्ट थी। उनमें चारित्रिक-दोष भी उत्पन्न हो गये थे।

उपरोक्त सब कारणों का सामूहिक परिणाम यह हुआ कि मरहठा साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

 

 

 

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