दोस्तों इस पोस्ट में हम महावीर स्वामी के जीवन परिचय के बार में जानेंगे कि उनका जीवन चरित्र कैसा था। महावीर स्वामी जी कि शिक्षा क्या क्या थी उन्होने क्या-क्या उपदेश दिया था। महावीर की मुख्य शिक्षा क्या थी। महावीर की प्रमुख विशेषताएं क्या थी। इस पोस्ट में हम महावीर स्वामी के जीवन की विवेचना करेंगे। इस पोस्ट में हम यह भी जानेगें कि महावीर जी के इनके माता, पिता और इनके बचपन का क्या नाम था आदि विषयों को बतायेंगे। महावीर स्वामी जी जैन धर्म के प्रवर्तक थे। इस पोस्ट में हम जैन धर्म की शिक्षा के बारे में जानेगें।
महावीर का जीवन परिचय/चरित्र
चरित्र-जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर का जन्म 599 ई० पूर्व के लगभग वैशाली के अन्तर्गत कुण्डग्राम नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था जो वैशाली के लिच्छवि वंश के राजा चेटक की बहिन थी। महावीर का बचपन का नाम वर्द्धमान था। वर्द्धमान को सभी प्रकार की राजोचित शिक्षा दी गई थी। युवावस्था प्राप्त होने पर उनका विवाह यशोदा नामक कुमारी से हुआ जिससे उनके एक पुत्री उत्पन्न हुई। तीन वर्ष की अवस्था में अपने माता-पिता के स्वर्गवास के उपरान्त वर्द्धमान ने अपने बड़े भाई की आज्ञा लेकर संन्यास ले लिया। वे जीवन-सम्बन्धी अनेक प्रश्नों का हल ढूँढने लगे। इसके लिए उन्होंने अत्यन्त कठोर तपस्या की और शारीरिक कष्ट एवं आत्म-हनन का जीवन व्यतीत किया।
बारह वर्ष की घोर तपस्या के बाद तेरहवें वर्ष में उन्हें परम ज्ञान की प्राप्ति हुई। तभी से वे महावीर तथा जिन (विजयी) कहलाये और उनके अनुयायी निर्ग्रन्थ अर्थात् बन्धन मुक्त कहे जाने लगे। निर्ग्रन्थ के स्थान पर अब उन्हें जैन कहते हैं।
गौतम बुद्ध की तरह महावीर अपने धर्म का उपदेश करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान में भ्रमण करते थे। उन्होंने कोशल, काशी, मगध, अंग आदि राज्यों में पैदल भ्रमण किया और जनता को अपने उपदेश सुनाये। महावीर ने अपने धर्म का तीस वर्ष तक प्रचार किया और बहत्तर वर्ष की अवस्था में राजगृह के निकट पाल नामक स्थान पर 527 ई० पूर्व के लगभग शरीर त्याग किया।
जैन धर्म के सिद्धान्त/महावीर की प्रमुख विशेषताएं क्या थी
महावीर स्वामी ने सर्वप्रथम ब्राह्मण धर्म के रूढ़िगत सिद्धान्तों को ठुकरा कर जनता मनये मार्ग का प्रदर्शन किया। जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित है-
(1) अनीश्वरवाद-
जैन धर्म के मानने वाले संसार के स्रष्टा, पालनकर्ता तथा हत्तो ईश्वर में विश्वास नहीं करते। ये लोग संसार को किसी की रचना नहीं मानते। उनका विश्वास था कि संसार अनादि-काल से है और अनन्त है। जैनी लोग ईश्वर के स्थान पर तीर्थंकरों की उपासना करते हैं।
(2) अनेकात्मवाद-
जैन धर्म आत्मा की एकता में विश्वास नहीं करता। उसके अनुसार जिस प्रकार जीव अलग-अलग होते हैं उसी प्रकार उनमें आत्मा भी अलग-अलग होती है। इस प्रकार जितने जीव हैं, उतनी ही आत्माएँ होंगी। परन्तु यह सिद्धान्त त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है। जीवों की भिन्नता भौतिक है, आत्मिक नहीं।
(3) कर्म की प्रधानता-
जैन मतावलम्बी कर्मवाद अर्थात् कर्मानुसार फल की प्राप्ति तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। पिछले जीवन के कार्यों का फल भोगने के लिए मनुष्य का पुनर्जन्म होता है। पुनर्जन्म से छुटकारा पाना ही मोक्ष है। यह त्रिरत्न के पालन से सम्भव है।
(4) निर्वाण ही अन्तिम उद्देश्य-
निर्वाण ही मनुष्य का अन्तिम उद्देश्य होना चाहिए क्योंकि निर्वाण वास्तविक सुख है। निर्वाण से मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाता है। महावीर के अनुसार जीव के भौतिक अंश का नाश हो जाना ही निर्वाण है। त्रिरत्नों के पालन से कोई भी व्यक्ति इस स्थिति में पहुँच सकता है।
(5) त्रिरत्नों का विधान-
महावीर स्वामी का कहना है कि यदि मनुष्य निम्नलिखित तीन रत्नों के अनुसार आचरण करे तो वह कर्म के बन्धन से छुटकारा पा सकता है।
(1) सम्यक श्रद्धा, (2) सम्यक् ज्ञान, (3) सम्यक् आचरण।
सम्यक ज्ञान का अर्थ है पूर्ण सच्चा ज्ञान, सम्यक् आचरण का अर्थ सदाचरमय जीवन है और सत में विश्वास सम्यक् श्रद्धा है। इनके पालन से ही कैवल्य की प्राप्ति होती है।
(6) पंच महाव्रत-
जैन धर्म के अनुसार पाँच महाव्रत पालन करने से आत्मिक उन्नति होती है। ये हैं-
(1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य,(5) अपरिगह।
अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। सत्य पर भी जैनियों ने जोर दिया। अस्तेय का अर्थ है. आज्ञा के बिना किसी अन्य की वस्तु न लेना। अपरिग्रह का अर्थ है, सांसारिक बस्तों से मोह तोड़ना । जहाँ तक हो सके अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, इन्द्रियों को वश में करना।
(7)तप तथा उपवास का महत्व-
जैन धर्म में तप तथा व्रत का बड़ा महत्व है। तप करना तथा अनशन करके प्राण त्याग देना जैन धर्म में अत्यन्त प्रशंसनीय माना गया है। जैनियों का विश्वास है कि मन-कर्म-वचन से व्रतों का पालन करना मोक्ष का साधन हैं।
(8)अहिंसा-
अहिंसा जैन धर्म का मूल मन्त्र है। जीवन के प्रति मन, विचार एवं कर्म से किया गया प्रत्येक असंयत आचरण हिंसा कहा जायगा।
(9) नैतिकता-
बोट धर्म की भाँति जैन धर्म भी व्यक्ति के सदाचार पर बल देता है। महावीर ने कर्मकाण्ड को व्यर्थ बताया और विशुद्ध आचरण को मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक बताया। निम्न प्रवृत्तियों का दमन करने से मनुष्य निर्वाण की ओर अग्रसर होता है। जो व्यक्ति सदाचारमय जीवन व्यतीत करेगा उसकी आत्मा मुक्त हो जायेंगी और फिर उसे संसार में जन्म नही लेना पड़ेगा। वस्तुतः नैतिकता और सदाचार जैन धर्म की आधारशिला है।
उपसंहार
महावीर स्वामी के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप उनके उपदेश काफी लोकप्रिय हो गये। आगे चलकर इस धर्म में फूट पड़ गई और उसके अनुयायी दो सम्प्रदायों में बँट एक को दिगम्बर कहते हैं और दूसरे को श्वेताम्बर । दिगम्बर लोग नंगे रहते हैं और सम्बर लोग वस्त्र धारण करते हैं। आज भी भारत में जैन धर्म के अनुयायी दो सम्प्रदायों में विभक्त हैं।
महत्वपूर्ण प्रश्न-
1. जैन धर्म के प्रवर्तक का नाम- महावीर स्वामी को जैन धर्म का प्रवर्तक माना जाता है।
2. महावीर के माता-पिता का नाम बताओ- महावीर की माता का नाम त्रिशला तथा पिता का नाम सिद्धार्थ था।
3. महावीर के निधन का स्थान एवं वर्ष बताओ- महावीर का निधन-468 ई. पू. राजगृह के निकट पावापुरी नामक स्थान पर हुआ था।
4. जैन धर्म के दो तीर्थकरों के नाम- पाशर्वनाथ और वद्धमान महावीर।
5. जैन धर्म के त्रिरत्न क्या है- सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् आचरण।
6. महावीर स्वामी की समाधि कहाँ बनी है- राजगृह के निकट पावापुरी में महावीर स्वामी की समाधि बनी है।
7. जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म में चार समानताएं- 1. दोनो ने वेद एवं कर्मकाण्ड में अविश्वास व्यक्त किया। 2. दोनों अहिंसा के समर्थक हैं। 3. दोनो का प्रचार जनभाषा में था। 4. दोनों का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण था।
8. महावीर का जन्म स्थान बताइयें- बिहार में वैशाली के निकट कुण्डग्राम में हुआ था।
9. जैन धर्म किन दो सम्प्रदायों में विभक्त हुआ- श्वेताम्बर और दिगम्बर।
10. जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म में दो अन्तर बताइयें- 1. महावीर ने निर्वाण प्राप्ति के लिए शरीर को उपवास एवं तपस्या द्वारा कष्ट देना आवश्यक बताया, परन्तु महात्मा बुद्ध ने मध्यम मार्ग पर जोर दिया। 2. जैन धर्म की अपेक्षा बौद्ध धर्म का धार्मिक संगठन आधिक सुदृढ़ था।
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